राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की मानें तो एटीएस पंचतंत्र की कहानी लिख रहा है। क्योंकि जो लोग मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी हो सकते हैं, वही लोग संघ के कार्यवाह मोहनराव भागवत और कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार की हत्या की साजिश कैसे रच सकते हैं। लेकिन हिन्दुत्व की जिस राह को 'अभिनव भारत' सरीखा संगठन पकड़े हुये है और हिन्दुत्व का नाम लेते लेते आरएसएस जिस राह पर जा चुका है अगर दोनो की स्थिति को दोनो के घेरे में ही देखे तो पहला सवाल यही उठेगा कि मालेगांव को लेकर जो सोच अभिनव भारत में है, कमोवेश वही सोच आरएसएस को भी लेकर है। यानी मालेगाव और संघ के हिन्दुत्व में कोई अंतर करने की स्थिति में 'अभिनव भारत' नहीं है।
इस स्थिति को समझने से पहले जरा दोनों के अतीत को समझ लें। दरअसल, अभिनव भारत जिस हिन्दु महासभा से निकला उसके कर्ता-धर्त्ता सावरकर थे जो सीधे कहते थे," इस ब्रह्माण्ड में हिन्दुओं का अपना देश होना ही चाहिये, जहां हम हिन्दुओं के रुप में, शक्तिशाली लोगो के वंशज के रुप में फलते-फूलते रहें। सो, शुद्दि को अपनाये, जिसका केवल धार्मिक नहीं, राजनीतिक पहलू भी है । " वहीं हेडगेवार समाज के शुद्दिकरण के रास्ते हिन्दु राष्ट्र का सपना देशवासियो की आंखों में संजोना चाहते थे।
सावरकर पुणे की जमीन और कोकणस्थ ब्रह्माणों के बीच से हिन्दुसभा को खड़ा कर सैनिक संघर्ष के लिये 1904 में अभिनव भारत को लेकर ब्रिट्रिश सरकार को चुनौती दे रहे थे। वहीं दो दशक बाद हेडगेवार नागपुर की जमीन पर तेलुगु ब्राह्मणों के बीच से हिन्दुओं के अनुकुल स्थिति बनाने के लिये कांग्रेस की नीतियों का विरोध कर हिन्दुत्व शुद्दिकरण पर जोर दे रहे थे। उस दौर में सावरकर के तेवर के आगे आरएसएस कोई मायने नहीं रखती थी । ठीक उसी तरह जैसे अब आरएसएस के आगे हिन्दु महासभा कोई मायने नहीं रखती । सावरकर की पुत्रवधु हिमानी सावरकर 2004 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हिन्दुमहासभा का अलख लिये चुनाव लड़ रही थीं। उस समय बीजेपी ही नहीं आरएसएस के स्वयंसेवक भी मजा ले रहे थे। हिमानी अपना चुनाव प्रचार करने ऑटो पर निकलती थीं और बीजेपी के समर्थक जो शायद आरएसएस से भी जुड़े रहे होगे, आटोवाले को कहते थे "हिमानी पैसा ना दे पाये तो हमसे ले लेना ।"
लेकिन वही दौर ऐसा भी था जब आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर घमासान मचा हुआ था । इसलिये कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार में ठंडे बस्ते में डल चुका था ।पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोडने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमो को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।
जाहिर है इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देख कर खुद को अलग थलग समझ रहा था बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो सावरकर के आसरे कभी आरएसएस को मान्यता नहीं देता था, वह कहीं ज्यादा खिन्न भी था । 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनो में जाना शुरु कर दिया । महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया ।
इस दौर में सावरकर -गोडसे की नयी पीढ़ी, जो संघ से पहले अंसतुष्ट थी, उसने सावरकर की संस्था 'अभिनव भारत' को फिर से सक्रिय करने की दिशा में वर्तमान कालखंड को ही उचित माना । इस विंग ने संघ पर भी मुस्लिम परस्ती और हिन्दु विरोधी सेक्यूलर राह पर जाने के आरोप मढ़ा। ऐसा नही है कि अभिनव भारत एकाएक उभरा और उसने संघ को निशाने पर ले लिया । दरअसल, 2006 में अभिनव भारत को दुबारा जब शुरु करने का सवाल उठा तो संघ के हिन्दुत्व को खारिज करने वाले हिन्दुवादी नेताओ की पंरपरा भी खुलकर सामने आयी। पुणे में हुई बैठक में , जिसमे हिमानी सावरकर भी मौजूद थीं, उसमें यह सवाल उठाया गया कि आरएसएस हमेशा हिन्दुओं के मुद्दे पर कोई खुली राय रखने की जगह खामोश रहकर उसका लाभ उठाना चाहता रहा है। बैठक में शिवाजी मराठा और लोकमान्य तिलक से हिन्दुत्व की पाती जोड कर सावरकर की फिलास्फी और गोडसे की थ्योरी को मान्यता दी गयी । बैठक में धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी से लेकर गोरक्षा पीठ के मंहत दिग्विजय नाथ और शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद के भक्तो की मौजूदगी थी । या कहे उनकी पंरपरा को मानने वालो ने इस बैठक में माना कि संघ के आसरे हिन्दुत्व की बात को आगे बढाने का कोई मतलब नहीं है।
माना यह भी गया कि बीजेपी को आगे रख कर संघ अब अपनी कमजोरी छुपाने में भी ज्यादा वक्त जाया कर रहा है इसलिये नये तरीके से हिन्दुराष्ट्र का सवाल खड़ा करना है तो पहले आरएसएस को खारिज करना होगा । हालांकि, ऐरएलएल के भीतर यह अब भी माना जाता है कि कांग्रेस से ज्यादा नजदीकी हिन्दुमहासभा की ही रही । 1937 तक तो जिस पंडाल में कांग्रेस का अधिवेशन होता था, उसी पंडाल में दो दिन बाद हिन्दुमहासभा का अधिवेशन होता। और मदन मोहन मालवीय के दौर में तो दोनो अधिवेशनों की अध्यक्षता मालवीय जी ने ही की। इसलिये आरएसएस कांग्रेस की थ्योरी से हटकर सोचती रही । लेकिन हिन्दु महासभा का मानना है कि संघ ने बीजेपी की सत्ता का मजा लेकर सत्ता दोबारा पाने के लिये खुद के संगठन का कांग्रेसीकरण ज्यादा कर लिया है और हिन्दु राष्ट्र की थ्योरी को पूरी तरह नकार दिया है।
महत्वपूर्ण यह भी है ब्राह्मणों की पंरपरा को लेकर भी मतभेद उभरे। चूकि हेडगेवार की तरह सुदर्शन भी तेलुगु ब्रह्मण है, तो हिन्दुत्व पर कड़ा रुख अपनाने की सुदर्शन की क्षमता को लेकर भी यह बहस हुई कि संघ फिलहाल सबसे कमजोर रुप में काम कर रहा है। इसलिये संघ की मराठी लाबी भी सावरकर की सोच को आगे बढाने में मदद करेगी। इन सब का असर संघ पर किस रुप में पड़ा है या फिर देश में जो राजनीतिक हालात हैं, उसमे सरसंघचालक सुदर्शन भी अंदर से किस तरह हिले हुये है इसका अंदाजा पिछले महीने 7 नबंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर गो-रक्षा के सवाल पर हिमानी सावरकर के साथ मंच पर खडे सुदर्शन को देख कर समझा जा सकता था । यानी जो परिस्थितियां सावरकर और संघ को अलग किये हुये थीं, उसमे पहली बार संघ के भीतर भी इस बात को लेकर कुलबलाहट है कि जिस राह पर वह चल रही है वह रास्ता सही नहीं है।
मामला सिर्फ मोहन भागवत या इन्द्रेश की हत्या की साजिश का नहीं है , पुणे में गोखले-साठे-पेशवा-सावरकर की कतार में खडे कोकनस्थ बह्मण अब स्वदेशी अर्थव्यवस्था के उस ढांचे को जीवित करना चाह रहे हैं, जिसकी बात कभी संघ के नेता दत्तोपंत ढेंगडी किया करते थे। लेकिन ढेंगडी अपनी बात कहते कहते मर गये मगर न वाजपेयी सरकार ने उनकी बात सुनी ना सरसंघचालक ने उन्हे तरजीह दी । जाहिर है, आजादी के बाद पहली बार अगर अभिनव भारत को बनाने की जरुरत सावरकर को मानने वाले कर रहे है तो इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दुत्व की जो थ्योरी सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर अभी तक आरएसएस परोस रही है और बीजेपी उसे राजनीतिक धार दे रही है, वह अपने ही कटघरे में पहली बार खड़ी है।
Monday, November 24, 2008
Wednesday, November 19, 2008
मस्त लोगों के मरे हुये मन !
नोट-आज 16 नवंबर, प्रेस दिवस है। ये लेख उसी उपलक्ष्य में लिखा गया है।
6 जून 1981 को बिहार की बागमती नदी में समस्तीपुर-वनमंखी पैसेंजर गाड़ी के सात डिब्बे टूट कर गिर गये । उस समय दिनमान के संपादक रघुवीर सहाय ने अपने संपादकीय में लिखा-" रेल दुर्घटना की खबर ने उन्हे छोड़, जिन के अपने सगे उस गाडी में थे, किसी को विचलित नहीं किया।" संपादक के नाम एक ऐसे पत्र को दिनमान की कवर स्टोरी का हिस्सा बनाया, जिसमें इस घटना को एक भयानक राष्ट्रीय विपत्ति बताया गया था। यह वाकया इसलिये याद आ गया दो महीने पहले बिहार में ही कोसी नदी ने जब अपनी धारा बदली तो सात जिलो के दो लाख लोगो को लील लिया। लेकिन किसी अखबार-पत्रिका या न्यूज चैनल की कवर या मुख्य स्टोरी यह तब तक नहीं बन पायी जब तक प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय विपदा नही बताया।
दिल्ली के किसी समाचार-पत्र को पढ़ कर बिहार के हालात की जानकारी किसी को नही मिल सकती थी । न्यूज चैनलों ने भी एक हफ्ते तक प्राइम टाइम में इस खबर को छूने की हिम्मत नही दिखायी। उन्हें इसकी टीआरपी न मिलने का डर था। यानी 1981 के बाद देश के विकास और मीडिया के आधुनिकीकरण में लगे 27 सालो में हर शख्स अकेला ही होता जा रहा है। 27 साल पहले हजारों अकेले आदमियों की मौत हुई थी और 2008 में लाखों अकेले आदमी मरे नहीं लेकिन इस या उस दौर में सरोकार का मीडिया, मुनाफे के मीडिया में बदल गया।
दरअसल खुले बाजार ने महज मुनाफे की थ्योरी को समाज और आर्थिक तौर पर ही नही परोसा बल्कि राजनीति और मीडिया को एक साथ सरोकार की भाषा छुड़वाने की स्थितियां बना दीं। इस दौरान मीडिया सबसे रईस होकर उभरा तो उसके भीतर सत्ता के करीब होने की ललक बढ़ी। लेकिन बाजार व्यवस्था का प्रभाव महज बिजनेस के रुप में मीडिया पर पड़ा, ऐसा भी नही है । लोकतंत्र का जो पाठ संसदीय राजनीति ने नीतियों के जरीये देश के सामने रखा, उसमें निजी शब्द हावी होता चला गया। खासकर निजी का मुनाफा ही निजी की सुरक्षा हो गयी । सत्ता के सामने अपने हक की लड़ाई के मायने तक बदलने लगे। जब आम आदमी का विकास एक दूसरे के हक को छीनकर परिभाषित होने लगा तो जिसका पेट भरा था या जो मुनाफे की पायदान पर सबसे ऊपर खड़ा था, उसने अपने आपको लोगो से काटकर सत्ता के अनुकुल करना ही बेहतर समझा। हकीकत मे लोकतंत्र की यह परिभाषा राज्य ने ही गढ़ी जिसने अपनी भूमिका एजेंट भर की रखी तो मीडिया भी इससे हटकर नही सोच पाया ।
1991 से लेकर 2008 तक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर जो भी नीतियां राज्य ने अलग अलग सरकारों के दौर में रखीं, उसे बिजनेस मीडिया {आर्थिक अखबार-बिजेनेस चैनल } ने कभी खारिज नही किया । मीडिया भी नीतिगत तौर पर सत्ता के करीब ही हुआ क्योंकि लोकतंत्र की परिभाषा बदली थी तो चौथे स्तभं को लेकर भी नयी व्याख्या सरकार के नजरिये से नजर मिला कर चलने की ज्यादा हो गयी। मीडिया को आर्थिक तौर पर चलाते हुये मुनाफा बनाना पूरी तरह सत्ता पर टिका क्योंकि मीडिया इस डेढ़ दशक में सरोकार के सूचना तंत्र से ज्यादा सूचना तंत्र का बिजनेस बन गया ।
इसकी सुरक्षा मीडिया को मुनाफे के तौर पर मिली यह भी सच है। यह समझ ठीक उसी तरह विकसित हुई, जैसे थोड़ी से भी सुरक्षा पाते ही एक भारतीय आदमी अपने को इतना अधिक सत्ता के नजदीक समझने लगा है कि उसका सोचने का ढंग उसी तरह मानव विरोधी और निर्मम हो जाता है, जैसा शासक वर्ग का है। इस के पीछे कही ना कही यह विचारधारा भी काम कर रही है कि देश की सामाजिक व्यवस्था को न्याय के पक्ष में बदलने में आम नागरिको का कोई हाथ हो नही सकता । वह तो केवल सत्ता के शीर्ष स्थानों पर बैठे लोगो द्रारा बदली जायेगी। जो लोग समाज को बनाने में अपने मौलिक अधिकारो को छोड़ चुके हैं, वे सह्हदय भी नही हो सकते । यही होंगे तो केवल अपनी इकाइयों के साझीदार के लिये, जाति के लिये, संप्रदाय के लिये या परिवार के लिये होगे।
मीडिया इस समझ से अछूता है ऐसा भी नही है। इसलिये इस दौर में जिस तरह की खबरों को परोसा जा रहा है या जिस तरह से परोसा जा रहा है वह निजी मुनाफे और सत्तानूकुल बने रहने के सच से हटकर कतई नहीं है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि राष्ट्र की संपत्ति से लेकर औघोगिक और सामरिक समृद्दि तक में देश के लोगों की और संस्थाओ की भागेदारी गायब हो रही है। वह खुले बाजार की तरह सीमापार की करेंसी तक पर जा टिकी है। मीडिया भी इससे अछूता नही है। एफडीआई का कितना फीसदी मीडिया के विस्तार में लगाया जा सकता है, यह सरकार और मीडिया के बीच समझौते का नया पहलू है।
शायद इसीलिये किसानों की आत्महत्या से लेकर आंतकवाद छाया और उस पर सांप्रदायिक राजनीति के आसरे सत्ता चमकाने के तथ्यों को नजरअंदाज कर बाजार की शानोशौकत से लेकर हंसी ठठा का खेल अखबारों से लेकर न्यूज चैनलो में नजर आता है। उसमे यह कहने से गुरेज नही किया जा सकता कि मीडिया के मन में समाज और राष्ट्र की वह कल्पना मर चुकी है, जिसमें यह संभव हो की सत्ता के संवेदनहीन होने पर मीडिया की खबर समूचे देश को सचेत कर दे।
6 जून 1981 को बिहार की बागमती नदी में समस्तीपुर-वनमंखी पैसेंजर गाड़ी के सात डिब्बे टूट कर गिर गये । उस समय दिनमान के संपादक रघुवीर सहाय ने अपने संपादकीय में लिखा-" रेल दुर्घटना की खबर ने उन्हे छोड़, जिन के अपने सगे उस गाडी में थे, किसी को विचलित नहीं किया।" संपादक के नाम एक ऐसे पत्र को दिनमान की कवर स्टोरी का हिस्सा बनाया, जिसमें इस घटना को एक भयानक राष्ट्रीय विपत्ति बताया गया था। यह वाकया इसलिये याद आ गया दो महीने पहले बिहार में ही कोसी नदी ने जब अपनी धारा बदली तो सात जिलो के दो लाख लोगो को लील लिया। लेकिन किसी अखबार-पत्रिका या न्यूज चैनल की कवर या मुख्य स्टोरी यह तब तक नहीं बन पायी जब तक प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय विपदा नही बताया।
दिल्ली के किसी समाचार-पत्र को पढ़ कर बिहार के हालात की जानकारी किसी को नही मिल सकती थी । न्यूज चैनलों ने भी एक हफ्ते तक प्राइम टाइम में इस खबर को छूने की हिम्मत नही दिखायी। उन्हें इसकी टीआरपी न मिलने का डर था। यानी 1981 के बाद देश के विकास और मीडिया के आधुनिकीकरण में लगे 27 सालो में हर शख्स अकेला ही होता जा रहा है। 27 साल पहले हजारों अकेले आदमियों की मौत हुई थी और 2008 में लाखों अकेले आदमी मरे नहीं लेकिन इस या उस दौर में सरोकार का मीडिया, मुनाफे के मीडिया में बदल गया।
दरअसल खुले बाजार ने महज मुनाफे की थ्योरी को समाज और आर्थिक तौर पर ही नही परोसा बल्कि राजनीति और मीडिया को एक साथ सरोकार की भाषा छुड़वाने की स्थितियां बना दीं। इस दौरान मीडिया सबसे रईस होकर उभरा तो उसके भीतर सत्ता के करीब होने की ललक बढ़ी। लेकिन बाजार व्यवस्था का प्रभाव महज बिजनेस के रुप में मीडिया पर पड़ा, ऐसा भी नही है । लोकतंत्र का जो पाठ संसदीय राजनीति ने नीतियों के जरीये देश के सामने रखा, उसमें निजी शब्द हावी होता चला गया। खासकर निजी का मुनाफा ही निजी की सुरक्षा हो गयी । सत्ता के सामने अपने हक की लड़ाई के मायने तक बदलने लगे। जब आम आदमी का विकास एक दूसरे के हक को छीनकर परिभाषित होने लगा तो जिसका पेट भरा था या जो मुनाफे की पायदान पर सबसे ऊपर खड़ा था, उसने अपने आपको लोगो से काटकर सत्ता के अनुकुल करना ही बेहतर समझा। हकीकत मे लोकतंत्र की यह परिभाषा राज्य ने ही गढ़ी जिसने अपनी भूमिका एजेंट भर की रखी तो मीडिया भी इससे हटकर नही सोच पाया ।
1991 से लेकर 2008 तक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर जो भी नीतियां राज्य ने अलग अलग सरकारों के दौर में रखीं, उसे बिजनेस मीडिया {आर्थिक अखबार-बिजेनेस चैनल } ने कभी खारिज नही किया । मीडिया भी नीतिगत तौर पर सत्ता के करीब ही हुआ क्योंकि लोकतंत्र की परिभाषा बदली थी तो चौथे स्तभं को लेकर भी नयी व्याख्या सरकार के नजरिये से नजर मिला कर चलने की ज्यादा हो गयी। मीडिया को आर्थिक तौर पर चलाते हुये मुनाफा बनाना पूरी तरह सत्ता पर टिका क्योंकि मीडिया इस डेढ़ दशक में सरोकार के सूचना तंत्र से ज्यादा सूचना तंत्र का बिजनेस बन गया ।
इसकी सुरक्षा मीडिया को मुनाफे के तौर पर मिली यह भी सच है। यह समझ ठीक उसी तरह विकसित हुई, जैसे थोड़ी से भी सुरक्षा पाते ही एक भारतीय आदमी अपने को इतना अधिक सत्ता के नजदीक समझने लगा है कि उसका सोचने का ढंग उसी तरह मानव विरोधी और निर्मम हो जाता है, जैसा शासक वर्ग का है। इस के पीछे कही ना कही यह विचारधारा भी काम कर रही है कि देश की सामाजिक व्यवस्था को न्याय के पक्ष में बदलने में आम नागरिको का कोई हाथ हो नही सकता । वह तो केवल सत्ता के शीर्ष स्थानों पर बैठे लोगो द्रारा बदली जायेगी। जो लोग समाज को बनाने में अपने मौलिक अधिकारो को छोड़ चुके हैं, वे सह्हदय भी नही हो सकते । यही होंगे तो केवल अपनी इकाइयों के साझीदार के लिये, जाति के लिये, संप्रदाय के लिये या परिवार के लिये होगे।
मीडिया इस समझ से अछूता है ऐसा भी नही है। इसलिये इस दौर में जिस तरह की खबरों को परोसा जा रहा है या जिस तरह से परोसा जा रहा है वह निजी मुनाफे और सत्तानूकुल बने रहने के सच से हटकर कतई नहीं है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि राष्ट्र की संपत्ति से लेकर औघोगिक और सामरिक समृद्दि तक में देश के लोगों की और संस्थाओ की भागेदारी गायब हो रही है। वह खुले बाजार की तरह सीमापार की करेंसी तक पर जा टिकी है। मीडिया भी इससे अछूता नही है। एफडीआई का कितना फीसदी मीडिया के विस्तार में लगाया जा सकता है, यह सरकार और मीडिया के बीच समझौते का नया पहलू है।
शायद इसीलिये किसानों की आत्महत्या से लेकर आंतकवाद छाया और उस पर सांप्रदायिक राजनीति के आसरे सत्ता चमकाने के तथ्यों को नजरअंदाज कर बाजार की शानोशौकत से लेकर हंसी ठठा का खेल अखबारों से लेकर न्यूज चैनलो में नजर आता है। उसमे यह कहने से गुरेज नही किया जा सकता कि मीडिया के मन में समाज और राष्ट्र की वह कल्पना मर चुकी है, जिसमें यह संभव हो की सत्ता के संवेदनहीन होने पर मीडिया की खबर समूचे देश को सचेत कर दे।
आतंकवाद के राजनीतिक संकेत को अंजाम देने की सामाजिक फितरत !
छह दिसबंर 1992 को दोपहर दो से तीन बजे के दौरान नागपुर के महाल स्थित मोहल्ले में आरएसएस मुख्यालय के ठीक बगल की खुली जगह पर पुलिस जुटने लगी थी। अयोध्या से बाबरी मसजिद ढहाने की खबर जैसे जैसे आ रही थी, आरएसएस मुख्यालय में सरगरमी बढ़ रही थी। संघ के स्वयंसेवकों से लेकर छिटपुट पदाधिकारियों की मौजूदगी में यह एहसास समूचे इलाके में था कि जो कहा, सो किया। यानी पहली बार उस जीत का एक एहसास संघ मुख्यालय या कहे महाल मोहल्ले की गलियों में महसूस किया जा सकता था, जिसे आजादी के ठीक बाद से कभी महसूस नहीं किया गया था।
महाल का जिक्र इसलिये क्योंकि इस मोहल्ले में कमोवेश हर परिवार संघ का स्वयंसेवक है। और पहला एहसास इसलिये क्योंकि आजादी से पहले और बाद की दो घटनाएं संघ के स्वयंसेवकों को टीस दिये हुये थीं। दरअसल, हिन्दुत्व को लेकर संघ की पहल को सावरकर ने कभी मान्यता नहीं दी। इसी वजह से सावरकर नागपुर आये तो भी संघ मुख्यालय नही गये। हालांकि संघ के मुखिया से मुलाकात में कोई गुरेज नहीं किया लेकिन महाल में संघ के स्वयंसेवकों को हमेशा यह एहसास रहा कि सावरकर के तेवर के आगे संघ हिन्दुत्व बौना है।
नागपुर के काटन मार्केट की एक सभा में सावरकर यह कहने से भी नहीं चूके कि सांस्कृतिक संगठनों से देश हिन्दुत्व की राह पर नहीं चल निकलेगा। खैर महाल के स्वयंसेवकों को दूसरी टीस गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध का लगना था। लेकिन6 दिसंबर 92 की दोपहर जिस जगह पर पुलिस जमा हो रही थी, उसी खुली जगह पर संघ के सरसंघचालक देवरस की कुर्सी भी लगा दी गयी। देवरस करीब तीन-साढे तीन बजे संघ मुख्यालय के अपने घर के बगल की इस खुली जगह पर दो लोगों का सहारा लेकर आये और लकड़ी की उस कुर्सी पर बैठ गये । करीब तीन दर्जन पुलिसकर्मियों ने समूचे क्षेत्र को घेर रखा था। पत्रकारों की भीड़ मौजूद थी। सभी की बातों का जबाब भी देवरस दे रहे थे। पुलिस ने इसके संकेत दे दिये थे कि देवरस की गिरफ्तारी होगी। लेकिन उनकी बिगडी तबीयत की बजह से उन्हे संघ मुख्यालय में ही नजरबंद कर रखा जायेगा। जैसे ही इसकी पहल पुलिस ने शुरु की अचानक कुछ लडकियों और महिलाओ ने देवरस के इर्द-गिर्द घेरा बना लिया। जानकारी मिली की यह दुर्गावाहिनी से जुड़ी हुई हैं। पुलिस टीम में कोई महिला पुलिसकर्मी थी नहीं तो नजरबंदी की पहल रुक गयी क्योंकि पुलिस से दो-दो हाथ करने को दुर्गा वाहिनी की लड़कियां तैयार थीं।
बाबरी मस्जिद को लेकर और अयोध्या में राम मंदिर को लेकर पत्रकारो के सवाल जबाब के बीच देवरस बार बार यह संकेत दे रहे थे कि बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना कोई आखिरी या पहली सफलता नहीं है बल्कि रणनीति का एक हिस्सा मात्र है । जिसे राजनीतिक तौर पर देखना और समझना चाहिये चाहे यह सास्कृतिक संघर्ष नजर आ रहा हो। ऐसे में डंडो से लैस दुर्गावाहिनी की लड़कियां जैसे ही पुलिस से दो-दो हाथ करने को नजर आयीं तो मैंने सरसंघचालक देवरस से पूछा, "दुर्गावाहिनी के इसतरह इस्तेमाल का मतलब क्या निकाला जाये..जब यह सहमति बन चुकी है कि आपको आप ही के निवास में नजरबंद रखा जायेगा।" इस पर देवरस का जबाब था कि दुर्गावाहिनी को भी समझना होगा कि कल को उनकी परिस्थतियां किन वातावरण के घेरे में आ सकती हैं। फिर यह एक तैयारी है जिसमे सभी को भागीदारी देनी होगी । इस पर मेरा सवाल था--क्या यह राजनीतिक समझ विकसित करने की तैयारी है । देवरस ने कहा-सास्कृतिक संघर्ष है । लेकिन राजनीति से तो अछूता कुछ भी नहीं । फिर हंसते हुये बोले, आपलोगों से ज्यादा से ज्यादा बात हो सके, इसके लिये दुर्गावाहिनी ने रास्ता बना दिया आप उन्हे बधायी दें। कुछ देर में ही महिला पुलिसर्मियों की टुकड़ी पहुंची और कुछ विरोध और नारों के बीच देवरस को नजरबंद कर लिया गया ।
वहीं अगले दिन नागपुर के मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा के लोगों ने बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के विरोध में एक रैली निकालने का निर्णय लिया । रैली निकल रही है, उसकी जानकारी पुलिस के पास भी पहुंची । पुलिस और रैली निकालने वालों की तकरार के बाद तय हुआ की रैली शहर में नहीं घूमेगी । मोमिनपुरा से निकल कर आधे किलोमीटर का चक्कर लगा कर वापस मोमिनपुरा की गलियों में चली जायेगी और सभा भी वही करेगी । रैली दोपहर में जब निकली तो काले झंडे और बैनर के साथ नारे भी लग रहे थे। लेकिन जैसे ही मोमिनपुरा के मुहाने पर रैली पहुंची, पुलिस ने मुख्य सड़क पर रैली न लाने का निर्देश देकर वहीं सभा करने को कहा। नारे लगा रहे युवाओं में इससे आक्रोष भड़का। उनका कहना था कि वह बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने के विरोध का सार्वजिक इजहार भी नहीं कर सकते। वे पुलिस बैरिकेट तोड़कर सड़क पर आने लगे । पुलिस ने लाठिया भांजी । लेकिन महज पांच मिनट के भीतर ही उस वक्त के नागपुर के पुलिस कमिश्नर ईनामदार ने गोली चलाने का निर्देश दे दिया। करीब 22 राउंड से ज्यादा गोलियां चलीं। 13 लडकों की मौत हो गयी। बीस से ज्यादा घायल हो गये। जो लड़के मरे वह सभी मोमिनपुरा के भीतर ही मरे। इतना ही नहीं मोमिनपुरा के एक छोर से दूसरे छोर तक लाशें गिरीं। पुलिस ने महज मुख्य सड़क रक रैली को आने से ही नहीं रोका बल्कि आक्रोष दबाने के लिये मोमिनपुरा के भीतर घरों में घुसकर युवाओ की डंडो से जमकर पिटाई की। जो बाहर निकला उसे गोली मार दी। किसी लड़के के शरीर में गोली कमर से नीचे नही लगी । नागपुर के लिये यह अपने तरह की पहली घटना थी, क्योकि इससे पहले कभी पुलिस की गोली चली और लोग मरे यह बुनकरो के आंदोलन में हुआ था या फिर दलित आंदोलन के उग्र रुप धारण करने पर।
लेकिन,यह पहला मौका था जब 6 दिसंबर की घटना के 48 घंटो के बाद ही समूचे शहर को लगने लगा कि मोमिनपुरा और महाल की पांच किलोमीटर की दूरी सीमा पार सरीखी दूरी हो गयी है। यह घटना उस वक्त तो कानून-व्यवस्था को बरकरार रखने के दायरे में सिमट कर थम गयी लेकिन उस दौर से लेकर आंतकवाद का दामन पकड कर अपने आक्रोष को ठंडा करने या समाधान की राह सोचने की जो समझ विकसित होती चली गयी वह आज मुंह बाएं सामने खड़ी है।
जाहिर है अयोध्या की घटना के बाद देश ने जो देखा समझा या कहे राजनीति ने सत्ता का दामन पकड़ कर अपनी सहुलियतों को जिस तरह सियासी रंग में रंग दिया इसमें दोनो ही तबकों के हाथ खाली रहे। इतना ही नहीं सियासी रंग इतना गाढ़ा हुआ कि देश के बहुसंख्यक तबके ने खुद को ठगा महसूस किया। समूचे देश में मुस्लिमो ने मोमिनपुरा सरीखे मोहल्लो से निकलना बंद किया और उनके इजहार का तरीका उन्हीं तक सिमटता गया, जिसे कभी कांग्रेस ने तो कभी मुस्लिम लिडरानों ने राजनीति का हथियार बनाया । कमोवेश आरएसएस का भी अपने घेरे में यही हाल हुआ। देवरस सरीखा कोई सरसंघचालक उनके बाद न हुआ जो खुले आसमान तले सवालो का जबाब देने आता। या फिर सांस्कृतिक आंदोलन को भी राजनीतिक तौर पर ढालने का मंत्र जानता। बंद कमरो में रणनीति बनने लगी और अपने अपने घेरे में लोकतंत्र के कई आधार स्तंभ ढहाये गये और उसे सफलता मान कर जीत का राजनीतिक आंतक पैदा किया गया।
ऐसे मे साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह नयी बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हो, उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे, जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे । सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिये बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं । जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगड़ती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके। इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आंतकवाद की राह पर है।
हालांकि साध्वी-साधु प्रकरण से यह ख्याल जरुर बढ़ाया जा रहा है कि आंतकवाद का धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं है । लेकिन राजनीतिक तौर पर नया सच यह भी है कि अगर आंतकवाद का धर्म होता है तो धर्म के आसरे किया गया आंतकवाद, आंतकवाद नही कुछ और होता है। दरअसल, 6 दिसबंर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद सरसंघचालक देवरस ने इसी संकेत की बात की थी कि अयोध्या का मतलब महज मंदिर निर्माण नहीं हिन्दुत्व जागरण है और मोमिनपुरा में विरोध का इजहार रोक कर पुलिस की गोली ने इस संकेत को अंजाम दिया था। संयोग से देश इसी राजनीतिक संकेत और अंजाम के बीच झूल रहा है, बच सकते हैं तो बचें।
महाल का जिक्र इसलिये क्योंकि इस मोहल्ले में कमोवेश हर परिवार संघ का स्वयंसेवक है। और पहला एहसास इसलिये क्योंकि आजादी से पहले और बाद की दो घटनाएं संघ के स्वयंसेवकों को टीस दिये हुये थीं। दरअसल, हिन्दुत्व को लेकर संघ की पहल को सावरकर ने कभी मान्यता नहीं दी। इसी वजह से सावरकर नागपुर आये तो भी संघ मुख्यालय नही गये। हालांकि संघ के मुखिया से मुलाकात में कोई गुरेज नहीं किया लेकिन महाल में संघ के स्वयंसेवकों को हमेशा यह एहसास रहा कि सावरकर के तेवर के आगे संघ हिन्दुत्व बौना है।
नागपुर के काटन मार्केट की एक सभा में सावरकर यह कहने से भी नहीं चूके कि सांस्कृतिक संगठनों से देश हिन्दुत्व की राह पर नहीं चल निकलेगा। खैर महाल के स्वयंसेवकों को दूसरी टीस गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध का लगना था। लेकिन6 दिसंबर 92 की दोपहर जिस जगह पर पुलिस जमा हो रही थी, उसी खुली जगह पर संघ के सरसंघचालक देवरस की कुर्सी भी लगा दी गयी। देवरस करीब तीन-साढे तीन बजे संघ मुख्यालय के अपने घर के बगल की इस खुली जगह पर दो लोगों का सहारा लेकर आये और लकड़ी की उस कुर्सी पर बैठ गये । करीब तीन दर्जन पुलिसकर्मियों ने समूचे क्षेत्र को घेर रखा था। पत्रकारों की भीड़ मौजूद थी। सभी की बातों का जबाब भी देवरस दे रहे थे। पुलिस ने इसके संकेत दे दिये थे कि देवरस की गिरफ्तारी होगी। लेकिन उनकी बिगडी तबीयत की बजह से उन्हे संघ मुख्यालय में ही नजरबंद कर रखा जायेगा। जैसे ही इसकी पहल पुलिस ने शुरु की अचानक कुछ लडकियों और महिलाओ ने देवरस के इर्द-गिर्द घेरा बना लिया। जानकारी मिली की यह दुर्गावाहिनी से जुड़ी हुई हैं। पुलिस टीम में कोई महिला पुलिसकर्मी थी नहीं तो नजरबंदी की पहल रुक गयी क्योंकि पुलिस से दो-दो हाथ करने को दुर्गा वाहिनी की लड़कियां तैयार थीं।
बाबरी मस्जिद को लेकर और अयोध्या में राम मंदिर को लेकर पत्रकारो के सवाल जबाब के बीच देवरस बार बार यह संकेत दे रहे थे कि बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना कोई आखिरी या पहली सफलता नहीं है बल्कि रणनीति का एक हिस्सा मात्र है । जिसे राजनीतिक तौर पर देखना और समझना चाहिये चाहे यह सास्कृतिक संघर्ष नजर आ रहा हो। ऐसे में डंडो से लैस दुर्गावाहिनी की लड़कियां जैसे ही पुलिस से दो-दो हाथ करने को नजर आयीं तो मैंने सरसंघचालक देवरस से पूछा, "दुर्गावाहिनी के इसतरह इस्तेमाल का मतलब क्या निकाला जाये..जब यह सहमति बन चुकी है कि आपको आप ही के निवास में नजरबंद रखा जायेगा।" इस पर देवरस का जबाब था कि दुर्गावाहिनी को भी समझना होगा कि कल को उनकी परिस्थतियां किन वातावरण के घेरे में आ सकती हैं। फिर यह एक तैयारी है जिसमे सभी को भागीदारी देनी होगी । इस पर मेरा सवाल था--क्या यह राजनीतिक समझ विकसित करने की तैयारी है । देवरस ने कहा-सास्कृतिक संघर्ष है । लेकिन राजनीति से तो अछूता कुछ भी नहीं । फिर हंसते हुये बोले, आपलोगों से ज्यादा से ज्यादा बात हो सके, इसके लिये दुर्गावाहिनी ने रास्ता बना दिया आप उन्हे बधायी दें। कुछ देर में ही महिला पुलिसर्मियों की टुकड़ी पहुंची और कुछ विरोध और नारों के बीच देवरस को नजरबंद कर लिया गया ।
वहीं अगले दिन नागपुर के मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा के लोगों ने बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के विरोध में एक रैली निकालने का निर्णय लिया । रैली निकल रही है, उसकी जानकारी पुलिस के पास भी पहुंची । पुलिस और रैली निकालने वालों की तकरार के बाद तय हुआ की रैली शहर में नहीं घूमेगी । मोमिनपुरा से निकल कर आधे किलोमीटर का चक्कर लगा कर वापस मोमिनपुरा की गलियों में चली जायेगी और सभा भी वही करेगी । रैली दोपहर में जब निकली तो काले झंडे और बैनर के साथ नारे भी लग रहे थे। लेकिन जैसे ही मोमिनपुरा के मुहाने पर रैली पहुंची, पुलिस ने मुख्य सड़क पर रैली न लाने का निर्देश देकर वहीं सभा करने को कहा। नारे लगा रहे युवाओं में इससे आक्रोष भड़का। उनका कहना था कि वह बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने के विरोध का सार्वजिक इजहार भी नहीं कर सकते। वे पुलिस बैरिकेट तोड़कर सड़क पर आने लगे । पुलिस ने लाठिया भांजी । लेकिन महज पांच मिनट के भीतर ही उस वक्त के नागपुर के पुलिस कमिश्नर ईनामदार ने गोली चलाने का निर्देश दे दिया। करीब 22 राउंड से ज्यादा गोलियां चलीं। 13 लडकों की मौत हो गयी। बीस से ज्यादा घायल हो गये। जो लड़के मरे वह सभी मोमिनपुरा के भीतर ही मरे। इतना ही नहीं मोमिनपुरा के एक छोर से दूसरे छोर तक लाशें गिरीं। पुलिस ने महज मुख्य सड़क रक रैली को आने से ही नहीं रोका बल्कि आक्रोष दबाने के लिये मोमिनपुरा के भीतर घरों में घुसकर युवाओ की डंडो से जमकर पिटाई की। जो बाहर निकला उसे गोली मार दी। किसी लड़के के शरीर में गोली कमर से नीचे नही लगी । नागपुर के लिये यह अपने तरह की पहली घटना थी, क्योकि इससे पहले कभी पुलिस की गोली चली और लोग मरे यह बुनकरो के आंदोलन में हुआ था या फिर दलित आंदोलन के उग्र रुप धारण करने पर।
लेकिन,यह पहला मौका था जब 6 दिसंबर की घटना के 48 घंटो के बाद ही समूचे शहर को लगने लगा कि मोमिनपुरा और महाल की पांच किलोमीटर की दूरी सीमा पार सरीखी दूरी हो गयी है। यह घटना उस वक्त तो कानून-व्यवस्था को बरकरार रखने के दायरे में सिमट कर थम गयी लेकिन उस दौर से लेकर आंतकवाद का दामन पकड कर अपने आक्रोष को ठंडा करने या समाधान की राह सोचने की जो समझ विकसित होती चली गयी वह आज मुंह बाएं सामने खड़ी है।
जाहिर है अयोध्या की घटना के बाद देश ने जो देखा समझा या कहे राजनीति ने सत्ता का दामन पकड़ कर अपनी सहुलियतों को जिस तरह सियासी रंग में रंग दिया इसमें दोनो ही तबकों के हाथ खाली रहे। इतना ही नहीं सियासी रंग इतना गाढ़ा हुआ कि देश के बहुसंख्यक तबके ने खुद को ठगा महसूस किया। समूचे देश में मुस्लिमो ने मोमिनपुरा सरीखे मोहल्लो से निकलना बंद किया और उनके इजहार का तरीका उन्हीं तक सिमटता गया, जिसे कभी कांग्रेस ने तो कभी मुस्लिम लिडरानों ने राजनीति का हथियार बनाया । कमोवेश आरएसएस का भी अपने घेरे में यही हाल हुआ। देवरस सरीखा कोई सरसंघचालक उनके बाद न हुआ जो खुले आसमान तले सवालो का जबाब देने आता। या फिर सांस्कृतिक आंदोलन को भी राजनीतिक तौर पर ढालने का मंत्र जानता। बंद कमरो में रणनीति बनने लगी और अपने अपने घेरे में लोकतंत्र के कई आधार स्तंभ ढहाये गये और उसे सफलता मान कर जीत का राजनीतिक आंतक पैदा किया गया।
ऐसे मे साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह नयी बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हो, उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे, जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे । सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिये बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं । जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगड़ती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके। इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आंतकवाद की राह पर है।
हालांकि साध्वी-साधु प्रकरण से यह ख्याल जरुर बढ़ाया जा रहा है कि आंतकवाद का धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं है । लेकिन राजनीतिक तौर पर नया सच यह भी है कि अगर आंतकवाद का धर्म होता है तो धर्म के आसरे किया गया आंतकवाद, आंतकवाद नही कुछ और होता है। दरअसल, 6 दिसबंर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद सरसंघचालक देवरस ने इसी संकेत की बात की थी कि अयोध्या का मतलब महज मंदिर निर्माण नहीं हिन्दुत्व जागरण है और मोमिनपुरा में विरोध का इजहार रोक कर पुलिस की गोली ने इस संकेत को अंजाम दिया था। संयोग से देश इसी राजनीतिक संकेत और अंजाम के बीच झूल रहा है, बच सकते हैं तो बचें।
Wednesday, November 12, 2008
साधु,सिपाही और मुस्लिम आतंकवाद में कहां है देश !
आतंकवाद के घेरे में साधु और सिपाही के आने से झटके में मुस्लिम आतंकवाद पर विराम लग गया है । वह बहस जो हर आतंकवादी हिंसा के बाद "सॉफ्ट स्टेट" को लेकर शुरु होती थी और इस्लामिक आतंकवाद के साथ कभी सीमा पार तो कभी बांग्लादेश तो कभी अलकायदा सरीखे संगठन को छूते हुये पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के इर्द गिर्द ताना बाना बुनती थी, अचानक वह बहस थम गयी है ।
साध्वी प्रज्ञा से लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित के आतंकवादी ब्लास्ट में शामिल होने ने संकेतों ने अचानक उस मानसिकता को बैचेन कर दिया है जो यह कहने से नहीं कतराती थी कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी न हो लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान जरुर है। इसमे दो मत नही कि मुस्लिम समुदाय को लेकर आतंकवाद की जो बहस समाज के भीतर चली और बीजेपी-कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय राजनीतिक दलो ने उसे जिस तरह देखा, उसमें देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जुड़ती चली गयी। इसे खुफिया एजेंसियों ने भी माना कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो चेहरा विलासिता के नाम पर भारतीय समाज से जुड़ा है, उसमे बहुसंख्यक तबके के सामने यह संकट भी पैदा हो गया है कि वह पाने की होड़ में अपना क्या क्या गंवा दे। खासकर समाज के भीतर जब समूचे मूल्य पूंजी के आधार पर तय होने लगे हैं और सरकार की नीतियां भी नागरिकों को साथ लेकर चलने के बजाय एक तबके विशेष के मुनाफे को साथ लेकर चल रही है तो आक्रोष बहुसंख्य तबके के भीतर लगातार बढ रहा है। जो अलग अलग तरीके से अलग अलग जगहो पर निकल भी रही है।
इस घेरे में मुस्लिम संप्रदाय सबसे पहले नजर आ रहा है तो पहली वजह तो उसकी बदहाली है। उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां हैं, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उभरा भी है। लेकिन दूसरी बडी वजह वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जो सत्ताधारियों के लिये मुनाफे की चाशनी बन चुकी है। जिसे बिना किसी लाग-लपेट कर हर तरह का सत्ताधारी चाट सकता है।
मामला सिर्फ वोट बैंक का नहीं है। जहां कांग्रेस को पुचकारना है और बीजेपी को मुस्लिम के नाम पर हिन्दुओं को डराना है। बल्कि विकास की लकीर का अधूरापन और पूरा करने की सोच भी मुस्लिम समुदाय से जोड़ी जा सकती है। यह मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर भारतीय परिप्रेष्य में संयुक्त राष्ट्र भी बखूबी समझता है।
संयोग से बीते डेढ़ दशक में जब आर्थिक व्यवस्था परवान चढ़ी, उसी दौर में व्यवस्था सबसे ज्यादा कमजोर होती भी दिखी। ऐसा नहीं है कि आहत सिर्फ धर्म के नाम पर एक समुदाय विशेष हुआ। आहत समूचा समाज हुआ तो साधू और सिपाही भी पहली बार संदेह के घेरे में आये है। सेना के भीतर कोई बहस होती है या नही, इसे देखने और उजागर करने की समझ और हिम्मत देश के किसी राजनीतिक सिपाही में नहीं है । वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में कारगिल के दौर में सेना के भीतर से आवाज निकल कर देश के पटल पर छा जाने को बैचेन थी। लेकिन सेना का कोई चेहरा नहीं होता। यह चेहरा तो वेतन आयोग की सिफारिशों के विरोध में भी उभर नहीं सका। अर्थव्यवस्था ने सिर्फ पूंजी की सीमा ही रुपये और डॉलर की नहीं मिटायी बल्कि सरकारें यह भी नही समझ सकी देश के भीतर जब देशप्रेम का जुनून ही खत्म हो चला है तो सीमा पर खड़े रहने वाला सिपाही किस अंतर्द्दन्द से गुजर रहा होगा। जब उसके सामने तो सीमा की पहरेदारी होगी लेकिन आम नागरिको के बीच जाकर उसे यह एहसास होता होगा कि देश तो बिकने को तैयार है या फिर वह रक्षा एफडीआई या विदेशी निवेश की कर रहा है, जिस पर देश टिकता जा रहा है।
सैनिको को लेकर जिस भोसले स्कूल का नाम आ रहा है, वह देश के उन पहले स्कूलों में शुमार है जो आजादी से पहले पब्लिक स्कुल की सोच को लेकर आगे बढ़े। नासिक का भोसले सैनिक स्कूल 1937 में स्थापित हुआ। और देश के सात टॉप पब्लिक स्कूलों की पहली कान्फ्रेंस 16 जून 1939 में शिमला के गोर्टन कैस्टल कमेटी रुम में हुई । इसमें भोसले सैनिक स्कूल नासिक के अलावा सिधिया स्कूल ग्वालियर, डाले कालेज इंदौर, ऐटीचीसन कालेज इंदौर, दून स्कूल देहरादून ,राजकूमार कालेज रायपुर और राजकोट के राजकुमार कालेज के अध्यक्ष या सचिव शामिल हुये थे । जिसमें देश की संसकृति के अनुरुप पव्लिक स्कूलो को आगे बढाने का खाका रखा गया था।
अब तक इन स्कूलो के 68 बैठकें हो चुकी हैं। यानी हर साल सभी जुटते जरुर हैं तो यह सवाल भी उठेगा कि जिन स्कूलों की नींव आजादी से पहले पड़ी, उसमें आजादी के बाद पव्लिक स्कूलों की भूमिका को लेकर भी क्या सवाल उठते होंगे। भोसले सैनिक स्कूल पांचवी कक्षा से बारहवी कक्षा तक हैं। यहा के कोर्स में हिन्दुत्व को लेकर महाराष्ट्र बोर्ड का ही सिलेबस पढाया जाता है । लेकिन तरीका 1935 में बनाया गया सेन्ट्रल हिन्दु मिलेट्री एजुकेशन सोसायटी वाला ही है। जाहिर है देश को लेकर जो नींव इस तरह के स्कूलो में पड़ेगी, वैसा देश नहीं है तो सवाल कहीं भी उठेंगे। नागपुर के भोसले स्कूल के वाद विवाद प्रतियोगिता में पिछले दो-तीन साल से यह सवाल छात्र उठा रहे हैं कि जिन परिस्थितयो से देश गुजर रहा है, उसमे समाधान क्या है। जाहिर है यहा राष्ट्रीय स्वंससेवक संघ के हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना उभरती होगी। जो राजनीतिक नजरीये से खतरनार मानी जा सकती है। लेकिन संघ के भीतर के संघठनों में भी जब यह सवाल उठने लगा कि वाजपेयी सरकार में भी देशवाद और हिन्दुत्व खारिज हुआ तो समाधान क्या हो। अगर मुस्लिम समुदाय को बिलकुल अलग कर भी दिया जाये तो हिन्दुत्व कट्टरवाद के आक्रोष की इतनी परते है कि पहली बार समाज के उन खेमो में अपनी ही नींव से भरोसा टूटने लगा जो मानकर चल रहे थे कि उनकी समझ समाधान दे सकती है।
साधु समाज को तो सालों साल या कहे अभी तक भरोसा ही नहीं है कि जिन्ना के लोकतंत्र की हिमायत करने वाले लालकृषण आडवाणी को आरएसएस ने माफ कर दिया। साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हौ उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे । जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे। सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिए बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं। जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगडती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके । इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आतंकवाद की राह पर है। लेकिन हर कोई फिर उन परिस्थितयो से आंख मूंद रहा है जो समाज के भीतर तनाव पैदा कर राज्य के प्रति अविश्वास को जन्म दे रही हैं। इसलिये जयपुर-अहमदाबाद-दिल्ली के आतंकवादी घमाको में मुस्लिम और मालेगांव में हिन्दु आतंकवादी नजर आ रहा है। जबकि हर कोई भूल रहा है दोनो भारतीय नागरिक हैं।
साध्वी प्रज्ञा से लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित के आतंकवादी ब्लास्ट में शामिल होने ने संकेतों ने अचानक उस मानसिकता को बैचेन कर दिया है जो यह कहने से नहीं कतराती थी कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी न हो लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान जरुर है। इसमे दो मत नही कि मुस्लिम समुदाय को लेकर आतंकवाद की जो बहस समाज के भीतर चली और बीजेपी-कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय राजनीतिक दलो ने उसे जिस तरह देखा, उसमें देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जुड़ती चली गयी। इसे खुफिया एजेंसियों ने भी माना कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो चेहरा विलासिता के नाम पर भारतीय समाज से जुड़ा है, उसमे बहुसंख्यक तबके के सामने यह संकट भी पैदा हो गया है कि वह पाने की होड़ में अपना क्या क्या गंवा दे। खासकर समाज के भीतर जब समूचे मूल्य पूंजी के आधार पर तय होने लगे हैं और सरकार की नीतियां भी नागरिकों को साथ लेकर चलने के बजाय एक तबके विशेष के मुनाफे को साथ लेकर चल रही है तो आक्रोष बहुसंख्य तबके के भीतर लगातार बढ रहा है। जो अलग अलग तरीके से अलग अलग जगहो पर निकल भी रही है।
इस घेरे में मुस्लिम संप्रदाय सबसे पहले नजर आ रहा है तो पहली वजह तो उसकी बदहाली है। उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां हैं, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उभरा भी है। लेकिन दूसरी बडी वजह वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जो सत्ताधारियों के लिये मुनाफे की चाशनी बन चुकी है। जिसे बिना किसी लाग-लपेट कर हर तरह का सत्ताधारी चाट सकता है।
मामला सिर्फ वोट बैंक का नहीं है। जहां कांग्रेस को पुचकारना है और बीजेपी को मुस्लिम के नाम पर हिन्दुओं को डराना है। बल्कि विकास की लकीर का अधूरापन और पूरा करने की सोच भी मुस्लिम समुदाय से जोड़ी जा सकती है। यह मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर भारतीय परिप्रेष्य में संयुक्त राष्ट्र भी बखूबी समझता है।
संयोग से बीते डेढ़ दशक में जब आर्थिक व्यवस्था परवान चढ़ी, उसी दौर में व्यवस्था सबसे ज्यादा कमजोर होती भी दिखी। ऐसा नहीं है कि आहत सिर्फ धर्म के नाम पर एक समुदाय विशेष हुआ। आहत समूचा समाज हुआ तो साधू और सिपाही भी पहली बार संदेह के घेरे में आये है। सेना के भीतर कोई बहस होती है या नही, इसे देखने और उजागर करने की समझ और हिम्मत देश के किसी राजनीतिक सिपाही में नहीं है । वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में कारगिल के दौर में सेना के भीतर से आवाज निकल कर देश के पटल पर छा जाने को बैचेन थी। लेकिन सेना का कोई चेहरा नहीं होता। यह चेहरा तो वेतन आयोग की सिफारिशों के विरोध में भी उभर नहीं सका। अर्थव्यवस्था ने सिर्फ पूंजी की सीमा ही रुपये और डॉलर की नहीं मिटायी बल्कि सरकारें यह भी नही समझ सकी देश के भीतर जब देशप्रेम का जुनून ही खत्म हो चला है तो सीमा पर खड़े रहने वाला सिपाही किस अंतर्द्दन्द से गुजर रहा होगा। जब उसके सामने तो सीमा की पहरेदारी होगी लेकिन आम नागरिको के बीच जाकर उसे यह एहसास होता होगा कि देश तो बिकने को तैयार है या फिर वह रक्षा एफडीआई या विदेशी निवेश की कर रहा है, जिस पर देश टिकता जा रहा है।
सैनिको को लेकर जिस भोसले स्कूल का नाम आ रहा है, वह देश के उन पहले स्कूलों में शुमार है जो आजादी से पहले पब्लिक स्कुल की सोच को लेकर आगे बढ़े। नासिक का भोसले सैनिक स्कूल 1937 में स्थापित हुआ। और देश के सात टॉप पब्लिक स्कूलों की पहली कान्फ्रेंस 16 जून 1939 में शिमला के गोर्टन कैस्टल कमेटी रुम में हुई । इसमें भोसले सैनिक स्कूल नासिक के अलावा सिधिया स्कूल ग्वालियर, डाले कालेज इंदौर, ऐटीचीसन कालेज इंदौर, दून स्कूल देहरादून ,राजकूमार कालेज रायपुर और राजकोट के राजकुमार कालेज के अध्यक्ष या सचिव शामिल हुये थे । जिसमें देश की संसकृति के अनुरुप पव्लिक स्कूलो को आगे बढाने का खाका रखा गया था।
अब तक इन स्कूलो के 68 बैठकें हो चुकी हैं। यानी हर साल सभी जुटते जरुर हैं तो यह सवाल भी उठेगा कि जिन स्कूलों की नींव आजादी से पहले पड़ी, उसमें आजादी के बाद पव्लिक स्कूलों की भूमिका को लेकर भी क्या सवाल उठते होंगे। भोसले सैनिक स्कूल पांचवी कक्षा से बारहवी कक्षा तक हैं। यहा के कोर्स में हिन्दुत्व को लेकर महाराष्ट्र बोर्ड का ही सिलेबस पढाया जाता है । लेकिन तरीका 1935 में बनाया गया सेन्ट्रल हिन्दु मिलेट्री एजुकेशन सोसायटी वाला ही है। जाहिर है देश को लेकर जो नींव इस तरह के स्कूलो में पड़ेगी, वैसा देश नहीं है तो सवाल कहीं भी उठेंगे। नागपुर के भोसले स्कूल के वाद विवाद प्रतियोगिता में पिछले दो-तीन साल से यह सवाल छात्र उठा रहे हैं कि जिन परिस्थितयो से देश गुजर रहा है, उसमे समाधान क्या है। जाहिर है यहा राष्ट्रीय स्वंससेवक संघ के हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना उभरती होगी। जो राजनीतिक नजरीये से खतरनार मानी जा सकती है। लेकिन संघ के भीतर के संघठनों में भी जब यह सवाल उठने लगा कि वाजपेयी सरकार में भी देशवाद और हिन्दुत्व खारिज हुआ तो समाधान क्या हो। अगर मुस्लिम समुदाय को बिलकुल अलग कर भी दिया जाये तो हिन्दुत्व कट्टरवाद के आक्रोष की इतनी परते है कि पहली बार समाज के उन खेमो में अपनी ही नींव से भरोसा टूटने लगा जो मानकर चल रहे थे कि उनकी समझ समाधान दे सकती है।
साधु समाज को तो सालों साल या कहे अभी तक भरोसा ही नहीं है कि जिन्ना के लोकतंत्र की हिमायत करने वाले लालकृषण आडवाणी को आरएसएस ने माफ कर दिया। साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हौ उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे । जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे। सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिए बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं। जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगडती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके । इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आतंकवाद की राह पर है। लेकिन हर कोई फिर उन परिस्थितयो से आंख मूंद रहा है जो समाज के भीतर तनाव पैदा कर राज्य के प्रति अविश्वास को जन्म दे रही हैं। इसलिये जयपुर-अहमदाबाद-दिल्ली के आतंकवादी घमाको में मुस्लिम और मालेगांव में हिन्दु आतंकवादी नजर आ रहा है। जबकि हर कोई भूल रहा है दोनो भारतीय नागरिक हैं।
साधु,सिपाही और मुस्लिम आतंकवाद में कहां है देश !
आतंकवाद के घेरे में साधु और सिपाही के आने से झटके में मुस्लिम आतंकवाद पर विराम लग गया है । वह बहस जो हर आतंकवादी हिंसा के बाद "सॉफ्ट स्टेट" को लेकर शुरु होती थी और इस्लामिक आतंकवाद के साथ कभी सीमा पार तो कभी बांग्लादेश तो कभी अलकायदा सरीखे संगठन को छूते हुये पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के इर्द गिर्द ताना बाना बुनती थी, अचानक वह बहस थम गयी है ।
साध्वी प्रज्ञा से लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित के आतंकवादी ब्लास्ट में शामिल होने ने संकेतों ने अचानक उस मानसिकता को बैचेन कर दिया है जो यह कहने से नहीं कतराती थी कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी न हो लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान जरुर है। इसमे दो मत नही कि मुस्लिम समुदाय को लेकर आतंकवाद की जो बहस समाज के भीतर चली और बीजेपी-कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय राजनीतिक दलो ने उसे जिस तरह देखा, उसमें देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जुड़ती चली गयी। इसे खुफिया एजेंसियों ने भी माना कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो चेहरा विलासिता के नाम पर भारतीय समाज से जुड़ा है, उसमे बहुसंख्यक तबके के सामने यह संकट भी पैदा हो गया है कि वह पाने की होड़ में अपना क्या क्या गंवा दे। खासकर समाज के भीतर जब समूचे मूल्य पूंजी के आधार पर तय होने लगे हैं और सरकार की नीतियां भी नागरिकों को साथ लेकर चलने के बजाय एक तबके विशेष के मुनाफे को साथ लेकर चल रही है तो आक्रोष बहुसंख्य तबके के भीतर लगातार बढ रहा है। जो अलग अलग तरीके से अलग अलग जगहो पर निकल भी रही है।
इस घेरे में मुस्लिम संप्रदाय सबसे पहले नजर आ रहा है तो पहली वजह तो उसकी बदहाली है। उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां हैं, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उभरा भी है। लेकिन दूसरी बडी वजह वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जो सत्ताधारियों के लिये मुनाफे की चाशनी बन चुकी है। जिसे बिना किसी लाग-लपेट कर हर तरह का सत्ताधारी चाट सकता है।
मामला सिर्फ वोट बैंक का नहीं है। जहां कांग्रेस को पुचकारना है और बीजेपी को मुस्लिम के नाम पर हिन्दुओं को डराना है। बल्कि विकास की लकीर का अधूरापन और पूरा करने की सोच भी मुस्लिम समुदाय से जोड़ी जा सकती है। यह मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर भारतीय परिप्रेष्य में संयुक्त राष्ट्र भी बखूबी समझता है।
संयोग से बीते डेढ़ दशक में जब आर्थिक व्यवस्था परवान चढ़ी, उसी दौर में व्यवस्था सबसे ज्यादा कमजोर होती भी दिखी। ऐसा नहीं है कि आहत सिर्फ धर्म के नाम पर एक समुदाय विशेष हुआ। आहत समूचा समाज हुआ तो साधू और सिपाही भी पहली बार संदेह के घेरे में आये है। सेना के भीतर कोई बहस होती है या नही, इसे देखने और उजागर करने की समझ और हिम्मत देश के किसी राजनीतिक सिपाही में नहीं है । वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में कारगिल के दौर में सेना के भीतर से आवाज निकल कर देश के पटल पर छा जाने को बैचेन थी। लेकिन सेना का कोई चेहरा नहीं होता। यह चेहरा तो वेतन आयोग की सिफारिशों के विरोध में भी उभर नहीं सका। अर्थव्यवस्था ने सिर्फ पूंजी की सीमा ही रुपये और डॉलर की नहीं मिटायी बल्कि सरकारें यह भी नही समझ सकी देश के भीतर जब देशप्रेम का जुनून ही खत्म हो चला है तो सीमा पर खड़े रहने वाला सिपाही किस अंतर्द्दन्द से गुजर रहा होगा। जब उसके सामने तो सीमा की पहरेदारी होगी लेकिन आम नागरिको के बीच जाकर उसे यह एहसास होता होगा कि देश तो बिकने को तैयार है या फिर वह रक्षा एफडीआई या विदेशी निवेश की कर रहा है, जिस पर देश टिकता जा रहा है।
सैनिको को लेकर जिस भोसले स्कूल का नाम आ रहा है, वह देश के उन पहले स्कूलों में शुमार है जो आजादी से पहले पब्लिक स्कुल की सोच को लेकर आगे बढ़े। नासिक का भोसले सैनिक स्कूल 1937 में स्थापित हुआ। और देश के सात टॉप पब्लिक स्कूलों की पहली कान्फ्रेंस 16 जून 1939 में शिमला के गोर्टन कैस्टल कमेटी रुम में हुई । इसमें भोसले सैनिक स्कूल नासिक के अलावा सिधिया स्कूल ग्वालियर, डाले कालेज इंदौर, ऐटीचीसन कालेज इंदौर, दून स्कूल देहरादून ,राजकूमार कालेज रायपुर और राजकोट के राजकुमार कालेज के अध्यक्ष या सचिव शामिल हुये थे । जिसमें देश की संसकृति के अनुरुप पव्लिक स्कूलो को आगे बढाने का खाका रखा गया था।
अब तक इन स्कूलो के 68 बैठकें हो चुकी हैं। यानी हर साल सभी जुटते जरुर हैं तो यह सवाल भी उठेगा कि जिन स्कूलों की नींव आजादी से पहले पड़ी, उसमें आजादी के बाद पव्लिक स्कूलों की भूमिका को लेकर भी क्या सवाल उठते होंगे। भोसले सैनिक स्कूल पांचवी कक्षा से बारहवी कक्षा तक हैं। यहा के कोर्स में हिन्दुत्व को लेकर महाराष्ट्र बोर्ड का ही सिलेबस पढाया जाता है । लेकिन तरीका 1935 में बनाया गया सेन्ट्रल हिन्दु मिलेट्री एजुकेशन सोसायटी वाला ही है। जाहिर है देश को लेकर जो नींव इस तरह के स्कूलो में पड़ेगी, वैसा देश नहीं है तो सवाल कहीं भी उठेंगे। नागपुर के भोसले स्कूल के वाद विवाद प्रतियोगिता में पिछले दो-तीन साल से यह सवाल छात्र उठा रहे हैं कि जिन परिस्थितयो से देश गुजर रहा है, उसमे समाधान क्या है। जाहिर है यहा राष्ट्रीय स्वंससेवक संघ के हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना उभरती होगी। जो राजनीतिक नजरीये से खतरनार मानी जा सकती है। लेकिन संघ के भीतर के संघठनों में भी जब यह सवाल उठने लगा कि वाजपेयी सरकार में भी देशवाद और हिन्दुत्व खारिज हुआ तो समाधान क्या हो। अगर मुस्लिम समुदाय को बिलकुल अलग कर भी दिया जाये तो हिन्दुत्व कट्टरवाद के आक्रोष की इतनी परते है कि पहली बार समाज के उन खेमो में अपनी ही नींव से भरोसा टूटने लगा जो मानकर चल रहे थे कि उनकी समझ समाधान दे सकती है।
साधु समाज को तो सालों साल या कहे अभी तक भरोसा ही नहीं है कि जिन्ना के लोकतंत्र की हिमायत करने वाले लालकृषण आडवाणी को आरएसएस ने माफ कर दिया। साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हौ उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे । जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे। सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिए बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं। जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगडती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके । इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आतंकवाद की राह पर है। लेकिन हर कोई फिर उन परिस्थितयो से आंख मूंद रहा है जो समाज के भीतर तनाव पैदा कर राज्य के प्रति अविश्वास को जन्म दे रही हैं। इसलिये जयपुर-अहमदाबाद-दिल्ली के आतंकवादी घमाको में मुस्लिम और मालेगांव में हिन्दु आतंकवादी नजर आ रहा है। जबकि हर कोई भूल रहा है दोनो भारतीय नागरिक हैं।
साध्वी प्रज्ञा से लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित के आतंकवादी ब्लास्ट में शामिल होने ने संकेतों ने अचानक उस मानसिकता को बैचेन कर दिया है जो यह कहने से नहीं कतराती थी कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी न हो लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान जरुर है। इसमे दो मत नही कि मुस्लिम समुदाय को लेकर आतंकवाद की जो बहस समाज के भीतर चली और बीजेपी-कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय राजनीतिक दलो ने उसे जिस तरह देखा, उसमें देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जुड़ती चली गयी। इसे खुफिया एजेंसियों ने भी माना कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो चेहरा विलासिता के नाम पर भारतीय समाज से जुड़ा है, उसमे बहुसंख्यक तबके के सामने यह संकट भी पैदा हो गया है कि वह पाने की होड़ में अपना क्या क्या गंवा दे। खासकर समाज के भीतर जब समूचे मूल्य पूंजी के आधार पर तय होने लगे हैं और सरकार की नीतियां भी नागरिकों को साथ लेकर चलने के बजाय एक तबके विशेष के मुनाफे को साथ लेकर चल रही है तो आक्रोष बहुसंख्य तबके के भीतर लगातार बढ रहा है। जो अलग अलग तरीके से अलग अलग जगहो पर निकल भी रही है।
इस घेरे में मुस्लिम संप्रदाय सबसे पहले नजर आ रहा है तो पहली वजह तो उसकी बदहाली है। उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां हैं, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उभरा भी है। लेकिन दूसरी बडी वजह वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जो सत्ताधारियों के लिये मुनाफे की चाशनी बन चुकी है। जिसे बिना किसी लाग-लपेट कर हर तरह का सत्ताधारी चाट सकता है।
मामला सिर्फ वोट बैंक का नहीं है। जहां कांग्रेस को पुचकारना है और बीजेपी को मुस्लिम के नाम पर हिन्दुओं को डराना है। बल्कि विकास की लकीर का अधूरापन और पूरा करने की सोच भी मुस्लिम समुदाय से जोड़ी जा सकती है। यह मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर भारतीय परिप्रेष्य में संयुक्त राष्ट्र भी बखूबी समझता है।
संयोग से बीते डेढ़ दशक में जब आर्थिक व्यवस्था परवान चढ़ी, उसी दौर में व्यवस्था सबसे ज्यादा कमजोर होती भी दिखी। ऐसा नहीं है कि आहत सिर्फ धर्म के नाम पर एक समुदाय विशेष हुआ। आहत समूचा समाज हुआ तो साधू और सिपाही भी पहली बार संदेह के घेरे में आये है। सेना के भीतर कोई बहस होती है या नही, इसे देखने और उजागर करने की समझ और हिम्मत देश के किसी राजनीतिक सिपाही में नहीं है । वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में कारगिल के दौर में सेना के भीतर से आवाज निकल कर देश के पटल पर छा जाने को बैचेन थी। लेकिन सेना का कोई चेहरा नहीं होता। यह चेहरा तो वेतन आयोग की सिफारिशों के विरोध में भी उभर नहीं सका। अर्थव्यवस्था ने सिर्फ पूंजी की सीमा ही रुपये और डॉलर की नहीं मिटायी बल्कि सरकारें यह भी नही समझ सकी देश के भीतर जब देशप्रेम का जुनून ही खत्म हो चला है तो सीमा पर खड़े रहने वाला सिपाही किस अंतर्द्दन्द से गुजर रहा होगा। जब उसके सामने तो सीमा की पहरेदारी होगी लेकिन आम नागरिको के बीच जाकर उसे यह एहसास होता होगा कि देश तो बिकने को तैयार है या फिर वह रक्षा एफडीआई या विदेशी निवेश की कर रहा है, जिस पर देश टिकता जा रहा है।
सैनिको को लेकर जिस भोसले स्कूल का नाम आ रहा है, वह देश के उन पहले स्कूलों में शुमार है जो आजादी से पहले पब्लिक स्कुल की सोच को लेकर आगे बढ़े। नासिक का भोसले सैनिक स्कूल 1937 में स्थापित हुआ। और देश के सात टॉप पब्लिक स्कूलों की पहली कान्फ्रेंस 16 जून 1939 में शिमला के गोर्टन कैस्टल कमेटी रुम में हुई । इसमें भोसले सैनिक स्कूल नासिक के अलावा सिधिया स्कूल ग्वालियर, डाले कालेज इंदौर, ऐटीचीसन कालेज इंदौर, दून स्कूल देहरादून ,राजकूमार कालेज रायपुर और राजकोट के राजकुमार कालेज के अध्यक्ष या सचिव शामिल हुये थे । जिसमें देश की संसकृति के अनुरुप पव्लिक स्कूलो को आगे बढाने का खाका रखा गया था।
अब तक इन स्कूलो के 68 बैठकें हो चुकी हैं। यानी हर साल सभी जुटते जरुर हैं तो यह सवाल भी उठेगा कि जिन स्कूलों की नींव आजादी से पहले पड़ी, उसमें आजादी के बाद पव्लिक स्कूलों की भूमिका को लेकर भी क्या सवाल उठते होंगे। भोसले सैनिक स्कूल पांचवी कक्षा से बारहवी कक्षा तक हैं। यहा के कोर्स में हिन्दुत्व को लेकर महाराष्ट्र बोर्ड का ही सिलेबस पढाया जाता है । लेकिन तरीका 1935 में बनाया गया सेन्ट्रल हिन्दु मिलेट्री एजुकेशन सोसायटी वाला ही है। जाहिर है देश को लेकर जो नींव इस तरह के स्कूलो में पड़ेगी, वैसा देश नहीं है तो सवाल कहीं भी उठेंगे। नागपुर के भोसले स्कूल के वाद विवाद प्रतियोगिता में पिछले दो-तीन साल से यह सवाल छात्र उठा रहे हैं कि जिन परिस्थितयो से देश गुजर रहा है, उसमे समाधान क्या है। जाहिर है यहा राष्ट्रीय स्वंससेवक संघ के हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना उभरती होगी। जो राजनीतिक नजरीये से खतरनार मानी जा सकती है। लेकिन संघ के भीतर के संघठनों में भी जब यह सवाल उठने लगा कि वाजपेयी सरकार में भी देशवाद और हिन्दुत्व खारिज हुआ तो समाधान क्या हो। अगर मुस्लिम समुदाय को बिलकुल अलग कर भी दिया जाये तो हिन्दुत्व कट्टरवाद के आक्रोष की इतनी परते है कि पहली बार समाज के उन खेमो में अपनी ही नींव से भरोसा टूटने लगा जो मानकर चल रहे थे कि उनकी समझ समाधान दे सकती है।
साधु समाज को तो सालों साल या कहे अभी तक भरोसा ही नहीं है कि जिन्ना के लोकतंत्र की हिमायत करने वाले लालकृषण आडवाणी को आरएसएस ने माफ कर दिया। साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हौ उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे । जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे। सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिए बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं। जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगडती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके । इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आतंकवाद की राह पर है। लेकिन हर कोई फिर उन परिस्थितयो से आंख मूंद रहा है जो समाज के भीतर तनाव पैदा कर राज्य के प्रति अविश्वास को जन्म दे रही हैं। इसलिये जयपुर-अहमदाबाद-दिल्ली के आतंकवादी घमाको में मुस्लिम और मालेगांव में हिन्दु आतंकवादी नजर आ रहा है। जबकि हर कोई भूल रहा है दोनो भारतीय नागरिक हैं।
Thursday, November 6, 2008
आम्बेडकर से मायावती और लूथर किंग से ओबामा का सपना !
अमेरिका में बराक ओबामा की जीत एक ऐसा इतिहास रचने को तैयार है, जिसका सपना कभी मार्टिन लूथर किंग ने देखा था। अप्रैल 1963 में जब ओबामा की उम्र दो साल रही होगी, उस वक्त मार्टिन लूथर किंग ने वाशिंगटन में करीब ढाई लाख लोगों की मौजूदगी में हक और बराबरी का सवाल खड़ा किया। अपने सोलह मिनट के भाषण में मार्टिन लूथर ने श्वेत-अश्वेत के बीच खिंची लकीर को मिटाने से लेकर दुनियाभर में चल रहे मानवाधिकार संघर्ष को एक ऐसी आवाज दी, जिसे पहली बार अमेरिका समेत समूची दुनिया ने महसूस किया कि लूथर एक ऐसा सपना दिखा रहे हैं जिसे हकीकत में बदलना चाहिए। मगर यह सपना ही है क्योंकि यह आवाज उस ताकतवर देश से उठी है जो खुद कई लकीर समूची दुनिया में खींचे हुए है।
लेकिन बीसवीं सदी में हाशिये पर पड़े इस सपने को इक्कीसवीं सदी में कोई मुख्यधारा में ले आयेगा, यह लूथर किंग ने भी नही सोचा होगा। अमेरिकी अश्वेतों को सपना दिखाने के महज 45 साल बाद बराक ओबामा उसी सपने को पूरा कर इतिहास रचने को तैयार हैं। दरअसल जिस दौर में मार्टिन लूथर किंग ने बराबरी का सपना देखा था, उस दौर में भारत में बाबा साहेब आंबेडकर ने सपना देखा। लूथर किंग के ऐतिहासिक भाषण से सात साल पहले अक्तूबर 1956 में आंबेडकर ने नागुर में करीब दस लाख लोगों की मौजूदगी में धम्मचक्र परिवर्तन को लेकर जो कहा, वह भारतीय समाज में बराबरी के सपने से आगे खुद को संघर्ष के लिये तैयार करने का सपना था। जातीय आधार पर बंटे समाज और धर्म के आसरे भारत का नागरिक होने का जो गर्व हिन्दू अपनी छाती पर तमगे की तरह गाढ़े हुए था, उसे बाबा साहेब आंबेडकर ने चुनौती दी। चुनौती ही नहीं, बल्कि उसके सामानातंर दलित समाज को अपनी अस्मिता, अपनी पहचान को बिना गिरवी रखे हक और बराबरी का जो बिगुल बजाया उसने हिन्दुस्तान की राजनीति में एक ऐसा बीज बो दिया जो कालातंर में पनपा तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सुरसा की तरह निगलता गया।
कमोबेश श्वेत-अश्वेत को लेकर संघर्ष का जो चेहरा लूथर किंग की 1969 में हत्या के दौर में था, उसने अमेरिकी समाज को लूथर के सपनो के आसरे पूरी तरह बदल भी दिया। लेकिन अमेरिका में किसे पता था कि ओबामा जब लूथर के सपनों को मुख्यधारा में लाएंगे तो वह विचारधारा सपनों में बदलते दिखेगी, जिसपर अमेरिकी समाज ने अपनी जीत कई दशकों पर दर्ज कर ली थी। विलासिता के आसरे विचारधारा रख कर नई विश्व व्यवस्था का सपना संजोए अमेरिका में रोटी-कपड़ा और मकान को पूरा करने की थ्योरी मुंह बाए खड़ी होगी, किसने सोचा होगा! बुश की सोच को आगे बढ़ाने के लिए तैयार रिपब्लिकन मैककेन का नारा यही है, पहले देश। जिसमें सुधार-खुशहाली-शांति की बात है। यह नारा उस वक्त लगाया जा रहा है, जब अर्थव्यवस्था के ढहने से अमेरिकी खुशहाली बदहाल हो चली है। सुधार की बाजार व्यवस्था को संभालने के लिये सरकार को जनता के पैसे का सहारा लेना पड़ रहा है। और आंतकवाद के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाईयों ने अमेरिका की ही शांति में सेंध लगा दी है। वहीं आंबेडकर जब बराबरी और हक का सपना संजोये थे और नागपुर में धम्म परिवर्तन कर रहे थे उस दौर में मायावती की उम्र महज नौ महीने की थी। कांग्रेस के बार बार हाशिए पर ढकेले जाने के दौर में अंबेडकर ने पहले कांग्रेस को पहले जलता हुआ घर करार दिया और फिर दलितों को यह सपना दिखाया कि उनके हाथ में सत्ता हो। शिक्षा और रोजगार को दलित की अस्मिता से जोड़कर आंबेडकर ने जाति और धर्म की उस दीवार को तोड़ना चाहा, जिसके अंदर घुट-घुट कर दलित की मौत हो जाती है। आंबेडकर का सपना दलित को उस मुख्यधारा से जोड़ना था, जहाँ से दलित-नीति बनने का सवाल सत्ता खड़ा करती है। आंबेडकर का मानना थी कि बराबरी का तरीका बदलना होगा और मापदंड भी, क्योंकि कोई दलित होकर ही दलितों की मानसिकता को समझ सकता है। इसलिये संविधान में आरक्षण का सवाल जोड़ा गया, जिससे एक ही देश में दो परिस्थितियो में पनप रहे दो समाजों में तालमेल हो सके।
मार्टिन लूथर किंग की तरह आंबेडकर ने भी नहीं सोचा था कि बीसवीं सदी के उनके सपने सत्ता की मुख्यधारा में तो इक्कीसवीं सदी तक आ ही जाएंगे, लेकिन जिन परिस्थियों में देश जवान हो रहा है वही स्तम्भ ढहने लगेगा। अमेरिकी राजनीति में यह पहली बार है कि कोई शख्स राष्ट्रपति पद की दावेदारी में अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी राजनीतिक शुरु कर रहा है। अभी तक राष्ट्रपति पद आखिरी पद माना जाता था। इसलिये ओबामा को लेकर अमेरिका में ही नहीं, समूची दुनिया में एक नये सपने को रचने की बात भी हो रही है। क्योकि संयोग से अमेरिका पहली बार उस दोराहे पर खड़ा है, जहाँ उसकी बनायी दुनिया पर ही संकट के बादल हैं। और वह विचारधारा मटियामेट हो रही है जिसके कंधो के आसरे हर अमेरिकी गर्व कर विकसित और विकासशील देशों की टोली को अपनी ओर लालायित करता था। साथ ही दुनिया के हर पूंजीवादी संस्थान पर उसकी पैठ रहती थी। ऐसे वक्त ओबामा के सामने भी लूथर किंग के देखे गये सपनों से कहीं बड़ा सपना देखने और पूरा करने का भार है। क्योंकि ओबामा को कुछ ऐसा रचना है जो अभी तक सोचा नहीं गया है। हालाँकि अमेरिकी चुनाव में 80 साल बाद पहला मौका आया है जब राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवार नये हैं। लेकिन ओबामा के जरिये जिस स्क्रिप्ट का इंतजार दुनिया को है, वह श्वेत-अश्वेत से कहीं आगे है। आंबेडकर के सपनों को लेकर, उनकी मौत के बाद कई दशकों से यह सवाल भारत में भी गूंजता रहा कि आंबेडकर के सपने भारतीय राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा कब और कैसे बनेंगे? आंबेडकर की सोच और कांशीराम के सांगठनिक समझ के कंधो पर चढ़कर मायावती ने आंबेडकर के सपनो को मुख्यधारा में ला तो खड़ा किया, लेकिन जब बात सपनों को पूरा करने की आयी तो वह राजनीति ही भरभराकर गिरती जा रही है जिसके आसरे आंबेडकर ने सपना देखा था। बीसवीं सदी में देखा गया आंबेडकर का सपना इक्कीसवीं सदी में जब पूरा होने को आया तो उस राजनीति को संभालना ही सबसे बड़ा सपना हो गया. जिसे आंबेडकर ने मजबूत मान लिया था। ठीक उसी तरह जैसे लूथर किंग ने अमेरिकी व्यवस्था को मजबूत मान लिया था। लेकिन ओबामा और मायावती का सच उस व्यवस्था की पूरी होती उम्र का भी प्रतीक है जिसने दोनो को कभी हाशिये पर रखा। अमेरिका के राजनीतिक इतिहास में पहला मौका आया जब किसी राजनीतिक दल ने एक अश्वेत को उम्मीदवार बनाया। भारत में पहला मौका आया जब अपने बूते कोई दलित बहुल पार्टी किसी राज्य में सत्ता बना बैठी और उसकी अगुवाई भी दलित ने ही की। अमेरिका में इससे पहले अश्वेतों को लेकर नीतियाँ बनती थीं। हर राष्ट्रपति पद का दावेदार समाज में भागीदारी या सुविधा-असुविधा को लेकर कोई-न-कोई प्रस्ताव ले कर आता ही था। लेकिन पहला मौका है कि श्वेत-अश्वेत की बहस अमेरिकी समाज में बेमानी लगने लगी है। राजनीतिक तौर पर वोट का बंटवारा नस्लीय आधार पर पिछड़ा होने का प्रतीक माना जाने लगा है। ओबामा को समाज ही नहीं, देश पाटने वाला शख्स भी माना जा रहा है।
पार्टी लाइन पर चलते हुये सभी को साथ लेकर चलने वाला डेमोक्रेट ओबामा को माना जाता है। उसके अपने वोट बैंक में सेंध लगाने की ना तो मैक्कन ने सोचा, ना ही रिपब्लिकन ने सोचा। वहीं भारत में मुख्यधारा की राजनीति में दखल के बाद मायावती की दलित राजनीति में सेंध लगाने की किसी राजनीतिक ने नहीं सोची। बल्कि मायावती के साथ हर राजनीतिक दल ने तालमेल किया। कांग्रेस-बीजेपी-सपा तीनों दलों ने अपने-अपने मौके ताड़कर मायावती का साथ लिया। और ऐसे वक्त जब केन्द्र में ही नहीं बल्कि राज्यों की राजनीति भी गठबंधन के सहारे सत्ता पाने की जोड़तोड़ में आ चुकी है, तब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अपने बूते सत्ता पाना आंबेडकर के सपने का सच होना नहीं है बल्कि उस राजनीति में ही सेंध लगना है जो आमजन के भरोसे पर लोकतंत्र का एहसास करा रही थी। इसीलिये भारतीय राजनीति में मायावती को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि केन्द्र की सत्ता अगर मायावती के पास आ गयी तो कम-से-कम कोई सपना तो उसकी आंखो में है, जो किसी दूसरे राजनेता के पास नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे बुश या मैक्कन के पास अमेरिका को लेकर कोई सपना होगा, सोचना भी मुश्किल है। लेकिन ओबामा की आँखो में सपना है। और शायद अब की दुनिया में इंतजार मरते हुये सपनों को जिलाने का ही है।
लेकिन बीसवीं सदी में हाशिये पर पड़े इस सपने को इक्कीसवीं सदी में कोई मुख्यधारा में ले आयेगा, यह लूथर किंग ने भी नही सोचा होगा। अमेरिकी अश्वेतों को सपना दिखाने के महज 45 साल बाद बराक ओबामा उसी सपने को पूरा कर इतिहास रचने को तैयार हैं। दरअसल जिस दौर में मार्टिन लूथर किंग ने बराबरी का सपना देखा था, उस दौर में भारत में बाबा साहेब आंबेडकर ने सपना देखा। लूथर किंग के ऐतिहासिक भाषण से सात साल पहले अक्तूबर 1956 में आंबेडकर ने नागुर में करीब दस लाख लोगों की मौजूदगी में धम्मचक्र परिवर्तन को लेकर जो कहा, वह भारतीय समाज में बराबरी के सपने से आगे खुद को संघर्ष के लिये तैयार करने का सपना था। जातीय आधार पर बंटे समाज और धर्म के आसरे भारत का नागरिक होने का जो गर्व हिन्दू अपनी छाती पर तमगे की तरह गाढ़े हुए था, उसे बाबा साहेब आंबेडकर ने चुनौती दी। चुनौती ही नहीं, बल्कि उसके सामानातंर दलित समाज को अपनी अस्मिता, अपनी पहचान को बिना गिरवी रखे हक और बराबरी का जो बिगुल बजाया उसने हिन्दुस्तान की राजनीति में एक ऐसा बीज बो दिया जो कालातंर में पनपा तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सुरसा की तरह निगलता गया।
कमोबेश श्वेत-अश्वेत को लेकर संघर्ष का जो चेहरा लूथर किंग की 1969 में हत्या के दौर में था, उसने अमेरिकी समाज को लूथर के सपनो के आसरे पूरी तरह बदल भी दिया। लेकिन अमेरिका में किसे पता था कि ओबामा जब लूथर के सपनों को मुख्यधारा में लाएंगे तो वह विचारधारा सपनों में बदलते दिखेगी, जिसपर अमेरिकी समाज ने अपनी जीत कई दशकों पर दर्ज कर ली थी। विलासिता के आसरे विचारधारा रख कर नई विश्व व्यवस्था का सपना संजोए अमेरिका में रोटी-कपड़ा और मकान को पूरा करने की थ्योरी मुंह बाए खड़ी होगी, किसने सोचा होगा! बुश की सोच को आगे बढ़ाने के लिए तैयार रिपब्लिकन मैककेन का नारा यही है, पहले देश। जिसमें सुधार-खुशहाली-शांति की बात है। यह नारा उस वक्त लगाया जा रहा है, जब अर्थव्यवस्था के ढहने से अमेरिकी खुशहाली बदहाल हो चली है। सुधार की बाजार व्यवस्था को संभालने के लिये सरकार को जनता के पैसे का सहारा लेना पड़ रहा है। और आंतकवाद के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाईयों ने अमेरिका की ही शांति में सेंध लगा दी है। वहीं आंबेडकर जब बराबरी और हक का सपना संजोये थे और नागपुर में धम्म परिवर्तन कर रहे थे उस दौर में मायावती की उम्र महज नौ महीने की थी। कांग्रेस के बार बार हाशिए पर ढकेले जाने के दौर में अंबेडकर ने पहले कांग्रेस को पहले जलता हुआ घर करार दिया और फिर दलितों को यह सपना दिखाया कि उनके हाथ में सत्ता हो। शिक्षा और रोजगार को दलित की अस्मिता से जोड़कर आंबेडकर ने जाति और धर्म की उस दीवार को तोड़ना चाहा, जिसके अंदर घुट-घुट कर दलित की मौत हो जाती है। आंबेडकर का सपना दलित को उस मुख्यधारा से जोड़ना था, जहाँ से दलित-नीति बनने का सवाल सत्ता खड़ा करती है। आंबेडकर का मानना थी कि बराबरी का तरीका बदलना होगा और मापदंड भी, क्योंकि कोई दलित होकर ही दलितों की मानसिकता को समझ सकता है। इसलिये संविधान में आरक्षण का सवाल जोड़ा गया, जिससे एक ही देश में दो परिस्थितियो में पनप रहे दो समाजों में तालमेल हो सके।
मार्टिन लूथर किंग की तरह आंबेडकर ने भी नहीं सोचा था कि बीसवीं सदी के उनके सपने सत्ता की मुख्यधारा में तो इक्कीसवीं सदी तक आ ही जाएंगे, लेकिन जिन परिस्थियों में देश जवान हो रहा है वही स्तम्भ ढहने लगेगा। अमेरिकी राजनीति में यह पहली बार है कि कोई शख्स राष्ट्रपति पद की दावेदारी में अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी राजनीतिक शुरु कर रहा है। अभी तक राष्ट्रपति पद आखिरी पद माना जाता था। इसलिये ओबामा को लेकर अमेरिका में ही नहीं, समूची दुनिया में एक नये सपने को रचने की बात भी हो रही है। क्योकि संयोग से अमेरिका पहली बार उस दोराहे पर खड़ा है, जहाँ उसकी बनायी दुनिया पर ही संकट के बादल हैं। और वह विचारधारा मटियामेट हो रही है जिसके कंधो के आसरे हर अमेरिकी गर्व कर विकसित और विकासशील देशों की टोली को अपनी ओर लालायित करता था। साथ ही दुनिया के हर पूंजीवादी संस्थान पर उसकी पैठ रहती थी। ऐसे वक्त ओबामा के सामने भी लूथर किंग के देखे गये सपनों से कहीं बड़ा सपना देखने और पूरा करने का भार है। क्योंकि ओबामा को कुछ ऐसा रचना है जो अभी तक सोचा नहीं गया है। हालाँकि अमेरिकी चुनाव में 80 साल बाद पहला मौका आया है जब राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवार नये हैं। लेकिन ओबामा के जरिये जिस स्क्रिप्ट का इंतजार दुनिया को है, वह श्वेत-अश्वेत से कहीं आगे है। आंबेडकर के सपनों को लेकर, उनकी मौत के बाद कई दशकों से यह सवाल भारत में भी गूंजता रहा कि आंबेडकर के सपने भारतीय राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा कब और कैसे बनेंगे? आंबेडकर की सोच और कांशीराम के सांगठनिक समझ के कंधो पर चढ़कर मायावती ने आंबेडकर के सपनो को मुख्यधारा में ला तो खड़ा किया, लेकिन जब बात सपनों को पूरा करने की आयी तो वह राजनीति ही भरभराकर गिरती जा रही है जिसके आसरे आंबेडकर ने सपना देखा था। बीसवीं सदी में देखा गया आंबेडकर का सपना इक्कीसवीं सदी में जब पूरा होने को आया तो उस राजनीति को संभालना ही सबसे बड़ा सपना हो गया. जिसे आंबेडकर ने मजबूत मान लिया था। ठीक उसी तरह जैसे लूथर किंग ने अमेरिकी व्यवस्था को मजबूत मान लिया था। लेकिन ओबामा और मायावती का सच उस व्यवस्था की पूरी होती उम्र का भी प्रतीक है जिसने दोनो को कभी हाशिये पर रखा। अमेरिका के राजनीतिक इतिहास में पहला मौका आया जब किसी राजनीतिक दल ने एक अश्वेत को उम्मीदवार बनाया। भारत में पहला मौका आया जब अपने बूते कोई दलित बहुल पार्टी किसी राज्य में सत्ता बना बैठी और उसकी अगुवाई भी दलित ने ही की। अमेरिका में इससे पहले अश्वेतों को लेकर नीतियाँ बनती थीं। हर राष्ट्रपति पद का दावेदार समाज में भागीदारी या सुविधा-असुविधा को लेकर कोई-न-कोई प्रस्ताव ले कर आता ही था। लेकिन पहला मौका है कि श्वेत-अश्वेत की बहस अमेरिकी समाज में बेमानी लगने लगी है। राजनीतिक तौर पर वोट का बंटवारा नस्लीय आधार पर पिछड़ा होने का प्रतीक माना जाने लगा है। ओबामा को समाज ही नहीं, देश पाटने वाला शख्स भी माना जा रहा है।
पार्टी लाइन पर चलते हुये सभी को साथ लेकर चलने वाला डेमोक्रेट ओबामा को माना जाता है। उसके अपने वोट बैंक में सेंध लगाने की ना तो मैक्कन ने सोचा, ना ही रिपब्लिकन ने सोचा। वहीं भारत में मुख्यधारा की राजनीति में दखल के बाद मायावती की दलित राजनीति में सेंध लगाने की किसी राजनीतिक ने नहीं सोची। बल्कि मायावती के साथ हर राजनीतिक दल ने तालमेल किया। कांग्रेस-बीजेपी-सपा तीनों दलों ने अपने-अपने मौके ताड़कर मायावती का साथ लिया। और ऐसे वक्त जब केन्द्र में ही नहीं बल्कि राज्यों की राजनीति भी गठबंधन के सहारे सत्ता पाने की जोड़तोड़ में आ चुकी है, तब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अपने बूते सत्ता पाना आंबेडकर के सपने का सच होना नहीं है बल्कि उस राजनीति में ही सेंध लगना है जो आमजन के भरोसे पर लोकतंत्र का एहसास करा रही थी। इसीलिये भारतीय राजनीति में मायावती को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि केन्द्र की सत्ता अगर मायावती के पास आ गयी तो कम-से-कम कोई सपना तो उसकी आंखो में है, जो किसी दूसरे राजनेता के पास नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे बुश या मैक्कन के पास अमेरिका को लेकर कोई सपना होगा, सोचना भी मुश्किल है। लेकिन ओबामा की आँखो में सपना है। और शायद अब की दुनिया में इंतजार मरते हुये सपनों को जिलाने का ही है।
Sunday, November 2, 2008
बांटने वाली राजनीति के खिलाफ छात्र आंदोलन की जरुरत !
1955 का वाकया है। बिहार रोड ट्रांसपोर्ट और पटना विश्वविद्यालय के बी.एन. कॉलेज के छात्रों के बीच किसी बात को लेकर मामूली झगड़ा हुआ। लेकिन राज्य सरकार के रवैये ने कालेज छात्रों को भड़का दिया । छात्र एकजुट हुए। पटना ही नहीं समूचे बिहार के छात्र परिवहन विभाग के खिलाफ खड़े होते गये। छात्रों ने सरकार के रवैये के खिलाफ ग्यारह सदस्यीय छात्र एक्शन कमेटी बना ली। इस आन्दोलन की अगुवाई शाहबुद्दीन कर रहे थे। कमेटी में हर विभाग का छात्र टापर शामिल था। वे नेतृत्व कर रहे थे, जो खुद टॉपर थे। आंदोलन इतना जबरदस्त था कि जुलाई में शुरु हुये आंदोलन के बीच में 15 अगस्त आया, तो छात्रों ने जगह-जगह तिरंगा फहरने नहीं दिया। उसी दौर में नेहरु भी पटना के गांधी मैदान में भाषण देने पहुंचे तो उन्होंने छात्रों को भाषण में चेताया कि एक्शन कमेटी बनाकर सरकार को धमकी ना दें। एक्शन कमेटी बनानी है तो जर्मनी चले जाएं। भारत में यह नहीं चलेगा । लेकिन छात्र आंदोलन टस से मस नहीं हुआ । आखिरकार, सरकार झुकी । चुनाव हुये तो परिवहन मंत्री महेश प्रसाद समेत तीन मंत्री चुनाव हार गये ।
दूसरा वाकया साठ के दशक का है। लोहिया जब नेहरु को संसद में लगातार घेर रहे थे । तो उसमें नेहरु की रईसी और देश के बदतर हालात को लेकर जनता के सामने तथ्यों को रखते । संसद में प्रति व्यक्ति आय को लेकर हुई बहस में लोहिया ने जब तथ्यों को रखा तो सरकार नहीं मानी । उस वक्त नेहरु के मुताबिक प्रति व्यक्ति आय सोलह आने थी, जबकि लोहिया छह आने प्रति व्यक्ति आय बता रहे थे । संसद में चर्चा के दौर में लोहिया ने नेहरु के पालतू कुत्तों को खिलाये जाने वाले गोश्त से लेकर उनके घो़ड़ों के विलायती चने का जिक्र कर जब तथ्यों को रखा तो सरकार भी झुक गयी और नेहरु ने प्रति व्यक्ति आय को सोलह की जगह ग्यारह आने होने पर सहमति जतायी । उस वक्त लोहिया के लिये बीएचयू के छात्रो की एक टीम लगातार तथ्यों को जुटाने में लगी रहती थी ।
तीसरा वाकया सत्तर के दशक का है । जेपी यानी जयप्रकाश नारायण गुजरात के छात्रों को लेकर जुटे तो बिहार के छात्र उसमें जुड़ते चले गये । और कॉलेज छोड़ कर सत्ता को चुनौती देने छात्र ही सड़क पर उतरे, जिनके सामने इंदिरा गांधी के भी पसीने छूटने लगे । अस्सी के दशक के आखिर में बोफोर्स कांड के जरिए वीपी सिंह ने जिस भ्रष्टाचार के शिगूफे को छेडा उसने बिहार-यूपी में छात्र राजनीति को साथ खड़ा कर लिया । इसने कांग्रेस में सेंधलगा दी और वीपी सिंह पीएम बन गये । उसके बाद आखिरी संघर्ष मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर ही देश ने देखा । लेकिन उसमें आमने- सामने छात्र राजनीति ही थी । जिसकी पीठ पर सवार होकर कई छुटभैया अचानक खद्दरधारी नेता बन गये और कुछ सत्ताधारी हो गये ।
लेकिन, इस दौर में छात्रों के सबसे बडे आंदोलन को महाराष्ट्र ने भी मराठवाडा विश्वविद्यालय में देखा । जब नाम बदलने को लेकर महाराष्ट्र के छात्र एकजूट हुये । औरंगाबाद का लांग मार्च अब भी महाराष्ट्र के छात्रों की आंखों के सामने घूमता है । लेकिन नब्बे के दशक के बाद से देश में किसी मुद्दे पर आंदोलन या संघर्ष का सवाल छात्रों के बीच सिकुड़ता गया है । 1991 में जो नयी अर्थव्यवस्था की लकीर मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री खींची, उस लीक को तोड़ने की जहमत किसी ने नही उठायी । अचानक देश को विकसित बनाने या कहने की ऐसी होड़ शुरु हुई, जिसके घेरे में सबसे पहले छात्र ही आया । तमाम कॉलेज - यूनिवर्सिटी का आधार मुनाफा हुआ । एक तरफ शिक्षा प्रणाली के तरीके व्यवसायिक शिक्षा को महान बताने लगे तो विश्लेषण छोड ऑब्जेक्टिव सवाल जबाब की परीक्षा ही ज्ञान का नया माप दंड बनने लगी ।
दूसरी तरफ कॉलेज का वही प्रचार्य और यूनिलर्सिटी का वही वीसी सबसे सफल माना गया जो कॉलेज - विश्वविद्यालय को आर्थिक मुनाफे में ले आये । छात्र चुनाव बेमानी हुये तो चुनाव में रुचि रखने वाले छात्र लुंपन राजनीति के सबसे धारदार हथियार बन गये । इस माहोल में पाने की होड़ ने छात्रों को ही छात्रों के सामने भी खड़ा किया । और ना पाने की स्थिति में समाज के सबसे निचली पायदान पर खिसकते जाने का आंतक भी छात्रों में भर दिया । क्योंकि इस दौर में राज्य की परिभाषा भी बदल गयी । 1950 का कल्याणकारी राज्य अब प्राइवेट मुनाफा कमाने और बनाने का नाम हो गया । राज्य का मतलब गरीबो के लिये राशन कार्ड और रईसो के लिये पासपोर्ट या पैन कार्ड से बनाने की जरुरत से ज्यादा कुछ नही बचा ।
ऐसे दौर में जब सवाल मराठी मानुष का उभरा है और खतरा देश को बांट कर सत्ता तक पहुचने का साफ दिखायी दे रहा है तो बात क्या राजनीति के जरिए सुनी जा सकती है । या कहे राजनीति इसका हल चाहेगी । यह बात इसलिये सीधे कहनी होगी क्योंकि पांच से दस सांसदों का आंकडा दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को झटके में जब मजाक बना सकता है कि उसके समर्थन भर से सरकार गिर या बन सकती है तो यह सवाल उठना जायज है कि राजनीति समाधान कर रही है या छात्रो को बांटकर अपने कुर्सी संभाल रही है ।
1948 में गृहमंत्री सरदार पटेल ने सबसे पहले अपने ही राज्य गुजरात के जूनागढ रियासत के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की थी, जब उसने पाकिस्तान की शह पर भारत में शामिल होने से इंकार किया था । उसके बाद हैदराबाद के निजाम के खिलाफ भी इसी तरह की सैनिक कार्रवाई की थी । लेकिन अब के गृहमंत्री शिवराज पाटिल उसी राज्य से आते हैं, जहां मराठी मानुष की आग की चपेट में उत्तर भारतीय आ रहे हैं । सवाल यह नहीं है कि पाटिल कुछ नहीं कर पा रहे हैं । सवाल यह भी नहीं है कि लालु-मुलायम-पासवान सरकार को चेता रहे है कि वह कुछ करे । अगर राजनीति समझनी है तो बिहार-यूपी की जमीन पर खडे होकर जो आक्रोष लालू-पासवान-मुलायम-मायावती में आप देख रहे हैं, वही दर्द आपको महाराष्ट्र की जमीन पर खडे होकर विलासराव देशमुख-शरद पवार-उद्दव ठकरे-आरआर पाटिल में नजर आयेगा । सत्ता की राजनीति में या तो दोनो गलत है या दोनों सही है । किसी एक को गलत ठहरा कर एक-दुसरे का राजनीतिक गणित मजबूत करना ही होगा । इसलिये सवाल राजनीति का नहीं आंदोलन का है । खड़े तो छात्रो को ही होना होगा...वह भी एकजूटता के साथ ।
यकीन जानिये अगर छात्र आंदोलन इस राजनीतिक शून्यता में खडा हो गया तो अभी के नेता रिटायर हो जाएंगे । देखें पहली आवाज कहां से उठती है।
दूसरा वाकया साठ के दशक का है। लोहिया जब नेहरु को संसद में लगातार घेर रहे थे । तो उसमें नेहरु की रईसी और देश के बदतर हालात को लेकर जनता के सामने तथ्यों को रखते । संसद में प्रति व्यक्ति आय को लेकर हुई बहस में लोहिया ने जब तथ्यों को रखा तो सरकार नहीं मानी । उस वक्त नेहरु के मुताबिक प्रति व्यक्ति आय सोलह आने थी, जबकि लोहिया छह आने प्रति व्यक्ति आय बता रहे थे । संसद में चर्चा के दौर में लोहिया ने नेहरु के पालतू कुत्तों को खिलाये जाने वाले गोश्त से लेकर उनके घो़ड़ों के विलायती चने का जिक्र कर जब तथ्यों को रखा तो सरकार भी झुक गयी और नेहरु ने प्रति व्यक्ति आय को सोलह की जगह ग्यारह आने होने पर सहमति जतायी । उस वक्त लोहिया के लिये बीएचयू के छात्रो की एक टीम लगातार तथ्यों को जुटाने में लगी रहती थी ।
तीसरा वाकया सत्तर के दशक का है । जेपी यानी जयप्रकाश नारायण गुजरात के छात्रों को लेकर जुटे तो बिहार के छात्र उसमें जुड़ते चले गये । और कॉलेज छोड़ कर सत्ता को चुनौती देने छात्र ही सड़क पर उतरे, जिनके सामने इंदिरा गांधी के भी पसीने छूटने लगे । अस्सी के दशक के आखिर में बोफोर्स कांड के जरिए वीपी सिंह ने जिस भ्रष्टाचार के शिगूफे को छेडा उसने बिहार-यूपी में छात्र राजनीति को साथ खड़ा कर लिया । इसने कांग्रेस में सेंधलगा दी और वीपी सिंह पीएम बन गये । उसके बाद आखिरी संघर्ष मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर ही देश ने देखा । लेकिन उसमें आमने- सामने छात्र राजनीति ही थी । जिसकी पीठ पर सवार होकर कई छुटभैया अचानक खद्दरधारी नेता बन गये और कुछ सत्ताधारी हो गये ।
लेकिन, इस दौर में छात्रों के सबसे बडे आंदोलन को महाराष्ट्र ने भी मराठवाडा विश्वविद्यालय में देखा । जब नाम बदलने को लेकर महाराष्ट्र के छात्र एकजूट हुये । औरंगाबाद का लांग मार्च अब भी महाराष्ट्र के छात्रों की आंखों के सामने घूमता है । लेकिन नब्बे के दशक के बाद से देश में किसी मुद्दे पर आंदोलन या संघर्ष का सवाल छात्रों के बीच सिकुड़ता गया है । 1991 में जो नयी अर्थव्यवस्था की लकीर मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री खींची, उस लीक को तोड़ने की जहमत किसी ने नही उठायी । अचानक देश को विकसित बनाने या कहने की ऐसी होड़ शुरु हुई, जिसके घेरे में सबसे पहले छात्र ही आया । तमाम कॉलेज - यूनिवर्सिटी का आधार मुनाफा हुआ । एक तरफ शिक्षा प्रणाली के तरीके व्यवसायिक शिक्षा को महान बताने लगे तो विश्लेषण छोड ऑब्जेक्टिव सवाल जबाब की परीक्षा ही ज्ञान का नया माप दंड बनने लगी ।
दूसरी तरफ कॉलेज का वही प्रचार्य और यूनिलर्सिटी का वही वीसी सबसे सफल माना गया जो कॉलेज - विश्वविद्यालय को आर्थिक मुनाफे में ले आये । छात्र चुनाव बेमानी हुये तो चुनाव में रुचि रखने वाले छात्र लुंपन राजनीति के सबसे धारदार हथियार बन गये । इस माहोल में पाने की होड़ ने छात्रों को ही छात्रों के सामने भी खड़ा किया । और ना पाने की स्थिति में समाज के सबसे निचली पायदान पर खिसकते जाने का आंतक भी छात्रों में भर दिया । क्योंकि इस दौर में राज्य की परिभाषा भी बदल गयी । 1950 का कल्याणकारी राज्य अब प्राइवेट मुनाफा कमाने और बनाने का नाम हो गया । राज्य का मतलब गरीबो के लिये राशन कार्ड और रईसो के लिये पासपोर्ट या पैन कार्ड से बनाने की जरुरत से ज्यादा कुछ नही बचा ।
ऐसे दौर में जब सवाल मराठी मानुष का उभरा है और खतरा देश को बांट कर सत्ता तक पहुचने का साफ दिखायी दे रहा है तो बात क्या राजनीति के जरिए सुनी जा सकती है । या कहे राजनीति इसका हल चाहेगी । यह बात इसलिये सीधे कहनी होगी क्योंकि पांच से दस सांसदों का आंकडा दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को झटके में जब मजाक बना सकता है कि उसके समर्थन भर से सरकार गिर या बन सकती है तो यह सवाल उठना जायज है कि राजनीति समाधान कर रही है या छात्रो को बांटकर अपने कुर्सी संभाल रही है ।
1948 में गृहमंत्री सरदार पटेल ने सबसे पहले अपने ही राज्य गुजरात के जूनागढ रियासत के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की थी, जब उसने पाकिस्तान की शह पर भारत में शामिल होने से इंकार किया था । उसके बाद हैदराबाद के निजाम के खिलाफ भी इसी तरह की सैनिक कार्रवाई की थी । लेकिन अब के गृहमंत्री शिवराज पाटिल उसी राज्य से आते हैं, जहां मराठी मानुष की आग की चपेट में उत्तर भारतीय आ रहे हैं । सवाल यह नहीं है कि पाटिल कुछ नहीं कर पा रहे हैं । सवाल यह भी नहीं है कि लालु-मुलायम-पासवान सरकार को चेता रहे है कि वह कुछ करे । अगर राजनीति समझनी है तो बिहार-यूपी की जमीन पर खडे होकर जो आक्रोष लालू-पासवान-मुलायम-मायावती में आप देख रहे हैं, वही दर्द आपको महाराष्ट्र की जमीन पर खडे होकर विलासराव देशमुख-शरद पवार-उद्दव ठकरे-आरआर पाटिल में नजर आयेगा । सत्ता की राजनीति में या तो दोनो गलत है या दोनों सही है । किसी एक को गलत ठहरा कर एक-दुसरे का राजनीतिक गणित मजबूत करना ही होगा । इसलिये सवाल राजनीति का नहीं आंदोलन का है । खड़े तो छात्रो को ही होना होगा...वह भी एकजूटता के साथ ।
यकीन जानिये अगर छात्र आंदोलन इस राजनीतिक शून्यता में खडा हो गया तो अभी के नेता रिटायर हो जाएंगे । देखें पहली आवाज कहां से उठती है।
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