Friday, October 24, 2008

रगों में दौड़ती मुंबई का चेहरा बदल चुका है !

साठ के दशक की फिल्म 'शहर और सपना' से लेकर सुकेतु मेहता की किताब 'मैक्सिमम सिटी' के बीच चार दशकों का फासला है। मुंबई को लेकर बनी फिल्म 'शहर और सपना' राजकपूर और दिलीप कुमार के दौर की है। इसमें रोजगार की तलाश में बिहार-उत्तर प्रदेश-बंगाल से मुंबई पहुंचे मजदूरों के दर्द का किस्सा है,जो सोलह से अठारह घंटे खटता है। रात कहीं पाइप में तो कहीं पटरी पर तो कही पुल के नीचे या सीढियों तले गुजारता है।
फुर्सत के क्षणों में सिनेमा ही उसका साथी है और उन सब के बीच कहीं बॉलीवुड का कोई नायक-खलनायक या नायिका को शूटिंग के दौरान देख लेता है, तो उसकी जिन्दगी तर जाती है। होली-दिवाली या ईद के मौके पर जब वह गोरखपुर-छपरा-दरभंगा-आसनसोल लौटता है, तो मुंबई की चकाचौंघ उसकी कहानियां होती हैं और उन कहानियों में वह खुद को भी कहीं ना कहीं खड़ा कर मुंबई का हिस्सा बनता है। और मुंबई जाने की चाह इन छोटे शहरों के लड़कपन छोड़ जवान होती पीढियों की आंखों में बड़े हो रहे सपनो को पंख लगाते हैं।
इसलिये मुंबई चार दशक पहले मैक्सिम सिटी नहीं थी । वह सपनों का शहर था, जिससे जुड़ने की चाह हर किसी में पनपती थी। गांव की मिट्टी का सोंधापन अगर किसी के आंगन में खत्म होता और बडी इमारत वहां बनती तो उसके साथ अगर मुंबई की कमाई जुड़ी होती तो इमारत या हवेली का अंदाज राजकपूर-देवआनंद या युसुफ मियां यानी दिलीप कुमार के सात जुड़ ही जाता। अगर दिवाली या ईद के मौके पर कोई नया फैशन किसी की घरवाली दिखा जाती तो मीना कुमारी-वहीदा रहमान या साधना से जोड़ कर मुंबई की महक गांव की किस्सागोई का हिस्सा बनती चली जाती।
यह किस्से मुबंई को उस वक्त भी गांव और छोटे शहरों में जिलाये रखते, जिस वक्त पिया का इंतजार होता । और एक दिवाली से दूसरी दिवाली इसी आस में कट जाती कि फिर मुंबई की चकाचौंध समूचे गांव में एक नया किस्सा गढ़ेगी और इंतजार का दर्द झटके में फुर्र हो जायेगा।
लेकिन चार दशक बाद सपनों को ध्वस्त कर मुंबई की नयी तस्वीर मैक्सिम सिटी के तौर पर उभरती है, जिसमें अपराध और पैसा अफरात में है। जिसमें पटरी से लेकर पाइप और ढाबा से लेकर पुल के नीचे का सराय भी माफियागिरी का हिस्सा है । जिसमें सबकी हिस्सेदारी है । हिस्सेदारी में किसी तरह की भागेदारी का संघर्ष समूची मुंबई को खाये जा रहा है। और मुबंई के सपने की जगह उस पूंजी ने ले ली जो हिस्सेदारी और भागेदारी से एक नये समाज को बनाने में जुटी है । यह समाज अपने पैरो की जगह उस अफरात पैसे को पैर बनाने पर आमदा है, जो उसे एक झटके में समाज से अलग कर सात संमदर पार ले जा सकता है।
यह नयी जमात अंडरवर्ल्ड की है । जिसमें हिस्सेदारी और भागेदारी किसी को भी कहीं का कहीं पहुचा सकती है । साठ के दशक में कैफी आजमी आजमगढ़ से ही मुंबई पहुंचे थे, और नब्बे के दशक में आजमगढ़ से ही अबू सलेम पहुंचा। नब्बे के दशक में कैफी को मुंबई तंग लगने लगी थी । वह आजमगढ़ लौटने को बैचेन रहते थे। जिस शहर के सपनों के आसरे उन्होंने अपने शहर को हवा दी, तीन दशक बाद उसी शहर मुबई में उनके सपने समा नही पा रहे थे तो वह आजमगढ़ लौट कर अपने सपनों को हवा देने लगे।
लेकिन नब्बे के दशक में अबू सलेम का जो सपना आजमगढ़ पहुंचा, वह मुंबई के पार दुबई होते हुये सिंगापुर और मलेशिया तक का था ।
पैसे ने देश की सीमा लांघी तो बाजार के खुलेपन ने सामाजिक-राजनीतिक तानाबाना भी तोड़ दिया । नया समाज अगर उस पैसे पर आ टिका जो सपना नही सच है तो राजनीति ने सच को सपना करार दिया । जिस दलित आंदोलन ने मुंबई समेत महाराष्ट्र को अस्मिता और संघर्ष का पाठ पढाया, नयी अर्थव्यवस्था के सामने उसने घुटने टेक दिये। अंबेडकर ने जागरुकता तो दी लेकिन राजनीतिक तौर पर कोई ऐसा मंच नहीं दिया, जहां समाज बदलने का सपना संजोया जा सके। मुंबई सपनों के शहर से मैक्सिमम सिटी में बदली तो दलित मराठी को भी समझ में नही आ रहा कि दलित का तमगा लगाकर वह किस संघर्ष को अंजाम देगा। अचानक दलित मराठी युवक मराठी मानुष में अपने आस्तित्व को देखने लगा है।
पूंजी से पूंजी बनाने के नये खेल ने उस औघोगिकरण को भी चौपट कर दिया जो ना सिर्फ रोजगार देते थे बल्कि मजदूरो का एक समाज भी बनाये हुये थे। मुंबई समेत महाराष्ट् के चार लाख से ज्यादा छोटी बड़ी इंडस्ट्री बीते ढाई दशक में बंद हो गयी या बीमार होकर ठप पड़ गयी । राज्य के करीब पचास लाख से ज्यादा कामगार इस दौर में बेरोजगार हो गये । जो बेरोजगार हो रहे थे उनके परिवार में बच्चे स्कूली पढाई करते हुये यह समझने लगे थे कि बाप के पास रोजगार नहीं है तो पढाई तो दूर दो जून की रोटी को लेकर भी घरो में बकझक होनी है। होने भी लगी । सोलापुर की चादर या सूती कपड़े इतिहास बन गया। चार बड़ी मिलें और साठ से ज्यादा छोटे उघोग जो इन मिलों पर टिके थे, बंद हो गये ।
कमोवेश कोल्हापुर-लातूर-बीड-औरगाबाद से लेकर विदर्भ के नागपुर तक यही स्थिति होती चली गयी । जिन जमीनों पर उघोग थे या जितने उघोग थे उन्हे कोई संकट नहीं आया क्योंकि उनके लिये बाजार पंख फैला रहा था। सबकुछ मुनाफे में बदलना था तो बदला भी । लेकिन संकट इन ढाई दशको में उस पीढी को हुआ, जिसने घर में बाप के रोजगार के संकट को स्कूली जीवन में देखा और जब उसके कंधे मजबूत हुये तो रोजगार का कोई साधन उसके पास नहीं था । बाप की मजबूरी में बाप की कोई शिक्षा भी मायने नही होती, तो हुई भी नहीं । रोजगार के समूचे साधन राजनीति के आसरे टिके तो राजनीतिक विचारधाराओ ने भी दम तोड़ दिया। आंदोलन के जरिये बने राजनीतिक दल भी पैसे वाली सत्ताधारियों के जेबी पार्टियो के तौर पर झुकने लगी । इसे लुंपन राजनीति की काट महाराष्ट्र की राजनीति में आधुनिक राजनीति का लेप लगाकर बाल ठाकरे ने ही परोसी। राजनीति रोजगार है, इसे खुले तौर पर उन लड़को के सामने रखा, जिन्होंने बचपन मे अपने घरों में अंबेडकर-फुले के आंदोलन को पढ़ा समझा। सामजवादियो के परिवार के लड़के भी ठाकरे के साथ हुये । बेरोजगारी के आलम में बाप -बेटे की आंखों में आयी दूरी ने बेटे को लुंपन राजनीति को बतौर रोजगार आत्मसात करने से रोका भी नहीं।
मजदूर संगठन से लेकर करीब 22 संगठन शिवसेना ने नब्बे के दशक में बनाये । 1995 के चुनाव में ठाकरे के साथ हर सभा में युवा नारा लगाता था, जिधर बम उधर हम । लेकिन सत्ता मिलने के बाद रोजगार के तरीकों को सत्ता से जोड़कर कैसे चलाया जाये, जिससे हिस्सेदारी और भागेदारी का खेल बंद हो, इसे शिवसेना ना समझ पायी। लेकिन इस पीढी को यह समझ आ गया कि सत्ता के खिलाफ खड़े होने की राजनीति रोजगार का धन तो मुहैया करा सकती है। विरोध को लामबंद जो करेगा, सत्ता की सौदेबाजी में उसके सामने सभी को नतमस्तक होना भी पड़ेगा। हुआ भी यही । बाल ठाकरे, जहां उम्र की वजह से चूकते हैं, वहा राज ठाकरे खड़े होते हैं। राज ठाकरे उस राजनीतिक दौर की देन हैं, जहा राजनीति सरोकार की भाषा भूल चुकी है और पूंजी के आसरे सत्ता को बनाये रखने का मंत्रजाप कर रही है।
माना जाता है शरद पवार ने जब कांग्रेस छोड़कर एनसीपी बनायी तो जलगांव में एक सभा की और जो उनके साथ शामिल हुआ उसे एक बैग और महेन्द्रा की एक नयी जीप की चाबी दी गयी। उस दौर में पवार बतौर मराठा ही नही, पोटली के मामले में भी सबसे ताकतवर थे । ताकतवर पवार अब भी है लेकिन अब कई नेताओ की पोटली भारी है । पूंजी सबके पास है। और रुपया से रुपया बनाने का खेल मनमोहन सिंह की बाजार अर्थव्यवस्था ने सिखला दिया है तो सत्ता भी उसी रास्ते चल पड़ी है । इसलिये यह कहना बेमानी होगा कि कांग्रेस-एनसीपी ने राज ठाकरे पर पहले लगाम नहीं लगायी, जिसका परिणाम अब नजर आ रहा है।
असल में आम लोगो से सरोकार की राजनीति हाशिये पर कांग्रेस-एनसीपी ने ही ढकेली है, इसलिये मामला कानून-व्यवस्था का नहीं है । मामला उस राज्य को बनाने का है, जहां जीने के लिये कोई रास्ता चाहिये । संयोग से मराठी मानुष का रास्ता सत्ता को सीधे चुनौती देकर सौदेबाजी कर सकता है, तो यही ठीक है । वजह भी यही है कि मुबंई से निकली आग जब बिहार के उन शहरो में फैल रही है, जहां कभी मुंबई से खुद को जोड़कर सपने रचे जाते थे, तो समझ उन सपनों को रचने की नहीं बल्कि अपने घेरे में उसी मुंबई को बनाने की है, जहां हिस्सेदारी और भागेदारी की मांग सीधे सत्ता से की जा सके। लेकिन इसके लिये सत्ता को भी पूंजी की ताकत चाहिये , जो नेता लोग पहली बार युवा पीढी को झोंककर बनाना चाहते है। इसीलिये पहली बार राजठाकरे ने मुंबई के कामगारों में नहीं बिहार के नेताओं में यह टीस भरी है कि फिर बिहार मुंबई क्यों नहीं । बिहार के सत्ताधारियों के लिये न्यूइकनामिक्स का यही मॉडल आधुनिक संपूर्ण क्रांति है ।

Monday, October 20, 2008

अमेरिका में बाजार हारा है, भारत में लोकतंत्र !

आर्थिक मंदी को लेकर दुनिया की नामी गिरामी कंपनिया दिवालिया होने की राह पर हैं। असर अमेरिका से भारत तक में नज़र आ रहा है। यह सवाल भी उठ रहा है कि कल तक जो फार्मूले वित्तीय इंजीनियरिंग का कमाल थे, आज वही खलनायक साबित हो चुके हैं। हीरो का खलनायक में बदलना उस व्यवस्था को कैसे बर्दाश्त हो सकता है जो खुद खलनायकी के अंदाज में हीरो की भूमिका में जी रही हो। इसलिये सवाल यह नहीं है कि बुश से लेकर मनमोहन सिंह तक उसी फार्मूले को जिलाने में लगे हैं, जो बाजार व्यवस्था को चलाते हुये खुद फेल हो रहा है। असल में संकट विचारधारा की शून्यता का पैदा होना है।
समाजवादी थ्योरी चल नहीं सकती, सर्वहारा की तानाशाही का रुसी अंदाज बाजार व्यवस्था के आगे घुटने टेक चुका है और अब बाजार व्यवस्था की थ्योरी फेल हो रही है। इसलिये संकट मंदी से कहीं आगे का है। नया सवाल उस राजनीतिक व्यवस्था का है, जिसमें विचारधारा को परोस कर लोकतंत्र की दुहायी दी जायेगी। यह विचारधारा कौन सी होगी?
अगर भारतीय राजनीति को इस बात पर गर्व है कि अमेरिकी व्यवस्था से हटकर भारतीय व्यवस्था है , तो फिर भारतीय व्यवस्था के आधारों को भी समझना होगा जो अमेरिकी परिपेक्ष्य में फिट नहीं बैठती हैं। लेकिन अपने अपने घेरे में दोनों का संकट एक सा है। मंदी का असर अमेरिकी समाज पर आत्महत्या को लेकर सामने आया है और भारत में कृषि अर्थव्यवस्था को बाजार के अनुकुल पटरी पर लाने के दौर में आत्महत्या का सिलसिला सालों साल से जारी है।
दरअसल, जो बैकिंग प्रणाली ब्रिटेन और अमेरिका में फेल हुई है या खराब कर्जदारों के जरिए फेल नज़र आ रही है , कमोवेश खेती से लेकर इंडस्ट्री विकास के नाम पर भारत में यह खेल 1991 के बाद से शुरु हो चुका है। देश के सबसे विकसित राज्यों में महाराष्ट्र आता है, जहां उघोगो को आगे बढ़ाने के लिये अस्सी के दशक से जिले दर जिले एमआईडीसी के नाम पर नये प्रयोग किये गये। इसी दौर में किसान के लिये बैकिग का इन्फ्रास्ट्रक्चर आत्महत्या की दिशा में ले जाने वाला साबित हुआ।
अमेरिका की बिगडी अर्थव्यवस्था से वहां के समाज के भीतर का संकट जिस तरह अमेरिकियो को डरा रहा है, कमोवेश यही डर महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के किसानों में उसी दौर में बढ़ा है, जिस दौर में भारत और अमेरिकी व्यवस्था एकदूसरे के करीब आए। दोनों देशों का आर्थिक घेरा अलग अलग है, समझ एक जैसी ही रही।
बीते दस साल में विदर्भ के बाइस हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है । लेकिन इसी दौर में विदर्भ में उघोगपतियो की फेरहिस्त में सौ गुना की बढोतरी हुई है । इसकी सबसे बडी वजह उघोगों का दिवालिया होना रहा है । लेकिन फेल या दिवालिया होना उघोगपतियो के लिये मुनाफे का सौदा है। नागपुर शहर से महज अठारह किलोमिटर दुर हिगंना में अस्सी के दशक में महाराष्ट्र औघौगिक विकास निगम यानी एमआईडीसी वनाया गया। छोटे-बडे करीब दो सौ उघोगो को सस्ते में जमीन समेत इन्फ्रास्ट्रक्चर की सुविधा दी गयी। नब्बे का दशक बीतते बीतते करीब नब्बे फिसदी उधोगों ने खुद को फेल करार दिया। उघोगो के बीमार होने पर कर्ज देने वाले बैको ने मुहर लगा दी। बैक अधिकारियो के साथ सांठ-गांठ ने करोड़ों के वारे न्यारे झटके में कर दिये। दिवालिया होने का ऐलान करने वाले किसी भी उघोगपति ने आत्महत्या नहीं की। उल्टे सभी की चमक में तेजी आयी और सरकार भी नही रुकी।
नब्बे के दशक के आखिरी होते होते नागपुर से 25 किलोमीटर दूर इक नयी जगह एमआईडीसी के लिये तैयार की । बुटीबोरी नाम की इस जगह में इस बार करीब साढे चार सौ उघोगो को जमीन दी गयी । हिगना की जमीन पर अब बिल्डरो का कब्जा है । 40 फीसदी उघोगपति खुद बिल्डर हो गये तो 60 फीसदी उघोगपतियों ने अपने अपने मुनाफे को देखते हुये जमीन की उपयोग खूब किया । हिगना की जमीन पर पहले खेती होती थी । फिर औघोगिक विकास के नाम पर किसानों से जमीन ली गयी । अब वहीं कंक्रीट के जंगलो का बनना देखा जा सकता है। यही स्थिति नये एमआईडीसी की है। बुटीबोरी का इलाका खेती के लिये ना सिर्फ अर्से से पहचान वाला रहा बल्कि संतरे के बगान के तौर पर इस इलाके की पहचान रही । वहीं अब यहां उघोग कुकुरमुत्ते की तर्ज पर उगने को तैयार है।
लेकिन विदर्भ में ही उघोगो को लेकर कैसे कैसे सपने संजोये जा सकते है, यह खेती के फेल होने से नही समझा जा सकता । विदर्भ में उघोगों के फेल होने का मतलब है करोड़ों का कर्ज झटके में साफ। मसलन हरिगंगा एलाय एंड स्टील लिंमेटेड ने साढे बारह करोड़ आज तक नही चुकाये। प्रभु स्टील इंडस्ट्री लिमिटेड ने 9.69 करोड रुपये नही चुकाये । रविन्द्र स्टील इंडस्ट्री लिमिटेड ने 26.31 करोड रुपये नही चुकाये । अगर विदर्भ के उघोगपतियो की फेरहिस्त देखे तो 75 उघोगों पर बैको का करीब तीन सौ करोड का कर्ज है। यह कर्ज 31 मार्च 2001 तक का है । बीते सात साल में इसमे दो सौ गुना की बढोतरी हुई है। उघोगो के लिये कर्ज लेने वाले कर्जदारो को लेकर रिजर्व बैक की सूची ही कयामत ढाने वाली है। जिसके मुताबिक सिर्फ राष्ट्रीयकृत बैकों से दस लाख करोड से ज्यादा का चूना देश के उघोगपति लगा चुके है । जिसमे महाराष्ट्र का सबसे ज्यादा 90 हजार करोड रुपये का कर्ज उघोगपतियो पर है। लेकिन किसी भी उघोगपति ने उस एक दशक में आत्महत्या नही की, जिस दौर में महाराष्ट्र के 42 हजार किसानो ने आत्महत्या की ।
इसी दौर में नागपुर को ही अंतर्राष्ट्रीय कारगो के लिये चुना गया। इसके लिये भी जो जमीन विकास के नाम पर ली गयी वह भी खेतीयोग्य जमीन ही है। करीब पांच सौ एकड खेती वाली जमीन कारगो हब के लिये घेरी जा चुकी है। कुल दो हजार परिवार झटके में खेत मजदूर से अकुशल मजदूर में तब्दील हो चुके है । शहर से 15 किलोमीटर बाहर इस पूरे इलाके की जमीन की कीमत दिन-दुगुनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ रही है। नागपुर शहर देश के पहले पांच सबसे तेजी से विकसित होते शहरो में से है। कारगो हब ने इलाके के किसानो में एक नयी उम्मीद पैदा की है, किसानों को लगने लगा है परियोजनाये और भी आयोगी। वह किसान खुश हैं, जिनकी जमीन कारगो के साथ हवाईअड्डे को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाने-बढाने के घेरे में आ रही है। आंदोलन का नया चेहरा भी नजर आ रहा है। किसान मुआवजे की रकम बढाने के लिये एकजुट हैं। कल तक की पच्चतर हजार की जमीन की कीमत बाजार भाव में पच्चीस लाख तक पहुच चुकी है । अलग अलग योजनाओ के बीच किमत पचास लाख एकड़ तक जा रही है । ऐसे में किसानो की आत्महत्या रुकेगी या टलेगी इसे किसान ही यह जानते-समझते हुये कयास लगाने लगे है कि देश में किसानी का युग बीत रहा है। नया युग मुआवजे और राहत में सौदेबाजी कर जीवन काटने का ही है, क्योकि इन इलाको में घूम कर आप इस बात का एहसास कर सकते है कि देश का प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री कौन है हर किसान जानता है और किसान आत्महत्या करते रहे इसके लिये जमीन तैयार करने वाले कर्मचारी-अधिकारी-नौकरशाह-नेता-पुलिस हर कोई बात बात में मनमोहन सिंह और चिदंबरम का नाम यह कह कर लेने से नहीं चुकते की यह तो उन्ही का आर्थिक सुधार है । इतने प्रचारित पीएम और वित्त मंत्री पहले कहां हुये है। जहां घर-घर में किसान आत्महत्या की तरफ बढे तो उसके पूरे परिवार ही नही समूचे गांव में चर्चा चिदबंरम और मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था की हो।
दरअसल, मनमोहन और चिदबंरम महज अमेरिकी सोच के प्रतीक नहीं है । भारतीय समाज के भीतर एक दूसरा समाज बनाकर छलने का मंत्र भी नयी आर्थिक व्यवस्था ने दिया है । चूंकि संसदीय राजनीति सर्वहारा की तानाशाही को लोकतंत्र के खिलाफ मानती है, लेकिन राजनेताओ की तानाशाही को संसदीय व्यवस्था में प्रजातंत्र करार देती है तो आर्थिक संकट में मुनाफा कमाने की थ्योरी भी राजनेताओ के ही पास है । बैकिंग प्रणाली का साथ लेकर उघोगपतियो की फेरहिस्त अगर देश को चूना लगाती है तो राजनेता एकसाथ बैक और ब्रोकर बन कर किसानो की जान से खेलते है। विदर्भ में कांग्रेस-बीजेपी से जुडे नौ राजनेता ऐसे है, जो कर्ज देने के अपने फार्मूले गढ़ते हैं जिससे मुनाफा भी बढे, साथ ही किसान कर्ज संकट से उबरने के लिये उनकी चमकती राजनीति का सबसे बडा औजार बन जाये। जो सरकार आईसीआईसीआई बैंक के बेलआउट को लेकर परेशान हो गयी । निजी बैंक को सुरक्षा देने के लिये वित्तमंत्री से लेकर रिजर्व बैंक तक सामने आ गये वही सार्वजनिक बैंक प्रणाली को राजनीति का दास बनाने से लेकर नेताऔ की सामानातंर व्यवस्था को कैसे बढाते हैं, यह ढहती अमेरिकी व्यवस्था से कही ज्यादा घातक है, लेकिन सरकार आंखे मूंदे है। विदर्भ के 22 ग्रामीण बैंक और 16 सरकारी सहकारी बैंक इलाके के नेताओ के प्रभाव पर चलते है । ग्रामीण इलाको के 25 से ज्यादा सार्वजनिक बैको के ब्रांच में उघोगो को कर्ज देने और कर्ज दिये उघोगो के दिवालिया होने का खाका भी विधायक और सासंदो की मिलीभगत से बैंक ही खिचते है । विकास का अनूठा प्रभाव इस क्षेत्र में बढते उघोगों से सरकार लगाती है । बैंक कर्ज देने और उघोगो को जन्म देने से खुद को जोड़ते हैं । इलाके के विधायक-सांसद-नेता इस गोरखधंधे में अपने कमीशन से राजनीति को आगे बढाते है । और जिनके नाम पर बैकिंग प्रणाली यहा चलती है उनको सुविधा मिलनी तो दूर, उनकी राहत के लिये प्रधानमंत्री राहत कोष से चला पैसा भी उन्ही प्रभावी तबको में बंदरबांट हो जाता है । सरकार ने दिल्ली में तो यह ऐलान करने में देर नही लगायी कि बैक में जमा खाताधारियो और निवेशको का पैसा सुरक्षित है,
लेकिन, किसानो को दी गयी राहत रकम किसानो तक पहुंची भी या नहीं इसको लेकर सरकार ने कभी चिंता ना जतायी। सौ करोड से ज्यादा की पूंजी विदर्भ के बैकों में राहत के लिये पहुची लेकिन जिले-दर जिले यह तेजी से दस्तावेजों में बंटती भी चली गयी । सिर्फ बुलढाणा जिले के लिये आये करीब चौदह करोड़ का लाभ लेने के लिये ढाई लाख किसान अब भी बैको के चक्कर लगाते हैं, लेकिन बैको का जबाब है कि राहत पैकेज बंट चुका है। कागजों पर धन लेने वालो के दस्तख्त हैं। हकीकत में जिनके पास किसान क्रेडिट कार्ड हैं, उन्हे रकम मिली है, लेकिन यह कार्ड महज दस फीसदी किसानों के पास है । विकास की इस अनूठी व्यवस्था की वजह से किसानों की आत्महत्या रोकने के लिये केन्द्र सरकार के राहत पैकेज के रिलिज होने के बाद किसानो की हर महीने आत्महत्या 46 से बढकर 58 हो चुकी है । साल भर में विदर्भ के छोटे बडे सवा सौ उघोग दिवालिया हुये है लेकिन इन दिवालिया उघोगो के मालिको की चमक और बढ़ी है । इस चमक ने बैकों को ढाई सौ करोड़ से ज्यादा का चूना लगाया है।
सवाल है मनमोहन और चिदंबरम का यह न्यूइक्नामिक्स माडल जो लोकतंत्र का मात दे रहा है वह अमेरिकी मंदी से मात कैसे खा सकता है ।

Saturday, October 18, 2008

मीडिया, चमक और सपना !

झकाझक कपड़ों से लैस नयी पीढ़ी। कोट-टाई, बंद गले का मॉडलर कोट, आंखों में शानदार धूप का चश्मा। किसी के कांधे से लटकता चमड़े का बेहतरीन बैग तो किसी के हाथ में मिनरल वाटर की बोतल। संवरे बाल और सौद्दर्य प्रसाधन में लिपटे साफ सफेद चेहरे। लेकिन आवाज में गुस्सा। भरोसा टूटने का गुस्सा। खुद के होने की छटपटाहट...जिसे नकारा जा रहा है।
चकाचौंध में लिपटी युवा पीढ़ी की एक ऐसी तस्वीर जो आसमान में उड़ान भरने के लिये ही बेताब रहती है, वही बेबस होकर सड़क पर एक अदद नौकरी की मांग जिस तरह कर रही थी, उसने झटके में उस सपने को किरच-किरच कर दिया जो खुली अर्थव्यवस्था में सबकुछ जेब में रख कर दुनिया फतह करने का सपना संजोये हुये है । जेट एयरवेज के साढे आठसौ प्रोबेशनर, जो चंद घंटे पहले तक उस आर्थिक सुधार के प्रतीक थे, जिसने बाजार को इस हद तक खोल दिया था कि हर चमक-दमक वाले प्रोफेशनल यह कहने से नहीं कतराते थे कि खर्च करना आना चाहिये। धन का जुगाड़ तो बाजार करा देगा। आज वही प्रोफेशनल जब यह कह रहे है कि हमारी डिपॉजिट करायी गयी रकम जो 50 हजार से लेकर सवा लाख तक है, उसे तो लौटा दो। तब कई ऐसे चेहरे सामने आने लगे जो सालों साल से अपनी जमीन का मुआवजा मांग रहे हैं।
लेकिन उन चेहरों पर कोई चमक कभी किसी ने नहीं देखी। टपकता पसीना और फटेहाल कपड़ों में अपने हक की लड़ाई को अंजाम देने के लिये सडक पर खून-पसीना एक करते किसान-मजदूरो की सुध कभी किसी ने नहीं ली । इन चेहरो को कभी टेलीविजन स्क्रिन पर भी तवज्जो नहीं मिली । न्यूज चैनलों के भीतर वरिषठों में तमाम असहमतियो के बीच इस बात को लेकर जरुर सहमति रहती कि किसान-मजबूर के हक की लड़ाई को दिखाने का कोई मतलब नहीं है। यह चेहरे नये बनते भारत से कोसो दूर है...इन्हे कोई देखना नहीं चाहता । फिर टीआरपी की दौड़ में यह चेहरे बने बनाये ब्रांड को भी खत्म कर देंगे।
सहमति का आलम इस हद तक खतरनाक है कि अगर किसी जूनियर ने इन चेहरो को ज्यादा तरजीह दे दी तो उसे अखबार में काम करने की खुली नसीहत भी दे दी जाती । लेकिन उसी अंदाज में जब चमकते-दमकते चेहरे चकाचौंध भारत से सराबोर होकर आश्चर्य के साथ सड़क पर आये तो विवशता या कहें कमजोरी इस हद तक थी कि यह पीढी अपने सीनियर ही नहीं न्यूज चैनलो के पत्रकारों से भी गुहार लगा रही थी कि कल उनके साथ भी ऐसा हो सकता है इसलिये उनकी लड़ाई में सभी शामिल हो जाये।
कमोवेश इसी तरह का सवाल नौ महिने पहले जमीन से बेदखल हुये 25 की तर्ज पर लगती थी जिसे कोई सुनना नही चाहता । बाजार समूची युवा पीढ़ी को चला रहा था और ब्रांड बनते पत्रकार भी इस एहसास को समेटे न्यूज चैनलों को चला रहे हैं, जहां बाजार की लीक छोड़ने का मतलब पिछड़ते जाना है। पिछड़ना कोई चाहता नहीं इसलिये चमक-दमक से भरपूर नयी पीढ़ी भी जब अपनी रोजी-रोटी का सवाल लेकर सड़क पर ही पिल पड़ी तो न्यूज चैनल फिर अपने राग में आ गये । 15 अक्तूबर को दोपहर एक बजकर बीस मिनट पर जैसे ही यह खबर ब्रेक हुई और तस्वीरों के जरिये स्क्रीन पर हवा में उड़ान भरती युवा पीढ़ी जमीन पर खुले आसमान तले नजर आयी तो सभी चैनल दिखाने में जुटे लेकिन किसी ने अपने उस व्हील को तोड़ने की जहमत नहीं उठायी जो प्रायोजक कार्यक्रम पहले से तय थे। डेढ़ बजते ही कमोबेश हर न्यूज चैनल पर हास्य-व्यंग्य से लेकर मनोरंजन और फैशन दिखाया जा रहा था। कहीं
"कॉमेडी कमाल की" चल रहा था तो कही "आजा हंस ले", "हंसी की महफिल","फैशन का टशन","खेल एक्सट्रा" यानी सभी उसी बाजार के प्रचार से धन जुटाने में जुटे थे जो मंदी की मार तले किसी को भी सड़क पर लाने को आमादा है।
लेकिन बिजनेस चैनलों ने इस संकट के सुर में अपने संकट को भी देखा समझा और अचानक सरकार को बेल आउट की दिशा में सुझाव देने में जुट गये। यानी संकट जेट एयरवेज पर आया हो तो उससे निपटने के लिये देश का धन एयरवेज को दे दिया जाये, जिससे वह अपने नुकसान की भरपायी करे और सभी प्रोफेशनलो को नौकरी पर रख ले। लेकिन किसी चैनल ने इस रिपोर्ट को दिखा कर सरकार को समझाने की जहमत नही उठायी कि भुखमरी में भारत का नंबर 66 हैं और भुखमरी से बेलआउट करने के लिये सरकार को पहल करनी चाहिये ।

Wednesday, October 15, 2008

बाटला हाउस के इर्द-गिर्द !!!

आतंकवाद से बड़ा है बटला इनकाउंटर और बटला से बड़े हैं अमर सिंह और अमर सिंह से छोटी है राष्ट्रीय एकात्मकता परिषद और इस परिषद से छोटा है बटला और बटला से छोटा है आंतकवाद। अब इंडियन मुजाहिद्दीन के आंतक तले सबसे शक्तिशाली कौन है? यह सवाल देश के किसी भी हिस्से में अनसुलझा हो लेकिन दिल्ली के जामियानगर में यह कोई पहेली नहीं है। बटला एनकाउंटर के बाद जामियानगर में जिस जिस के पग पड़े, उसने अल्पसंख्यक समुदाय को उसकी ताकत का भी अहसास कराया और कमजोरी का भी। लेकिन ताकत और कमजोरी दोनों के सामने जामियानगर हार गया। यह बटला एनकाउंटर के इलाके का नया सच है।
बटला एनकाउंटर को लेकर जामियानगर में अगर सवाल दर सवाल ईद से लेकर दशहरा तक घुमड़ते रहे तो इसी दौर में आजमगढ़ में पुलिसिया खौफ भी कम नही हुआ। लेकिन राजनीति के मिजाज ने जिस तरीके से एनकाउटंर को लेकर समूचे तबके को वोटर में तब्दील करने की शुरुआत की और इस मिजाज ने सरकार बचाने और गिराने तक की चाल शुरु की, उसमे जामियानगर को पहली बार समझ में आने लगा है कि इस बार बिसात भी वही है और प्यादा भी वही। ढाई चाल चलते हुये भी वही नजर आयेगा और मंत्री से कटते हुये भी वही दिखायी देगा। यह सभी रंग जामियानगर के भीतर ही मौजूद है...नजर खोलिये...लोगो से मिलिये- सब दिखायी देगा ।
जामियानगर के बटला हाउस यानी एल-18 के दरवाजे पर जाने की हिम्मत किसमें है। यह शर्त जामियानगर के स्कूली बच्चों का खेल है। पुलिस की मौजूदगी वहीं हमेशा रहती है। यूं समूचे जामियानगर पर पुलिस की पैनी नजर लगातार टिकी है लेकिन बटला हाउस के नीचे पुलिसकर्मियो की मौजूदगी है। तो जो शर्त जीत गया उसे बर्फ के गोले से लेकर जुम्मे के दिन किसी नयी फिल्म का टिकट मिल सकता है । इस खेल के कुछ नियम भी हैं, जिसमें बटला हाउस में पुलिस के सवाल जबाव का सामना किये बगैर अंदर जाने से लेकर तीसरी मंजिल तक जा कर लौट आना हिम्मत और शर्त का रुतबा बढ़ा देती है। हसन मिया के मुताबिक, उन्होंने यह खेल ईद के दिन बच्चो को खेलते देखा था। उस दिन तो फटकार कर भगा दिया लेकिन क्या पता था वक्त के साथ साथ यह खेल बढता जायेगा और इसका तरीका-नियम सबकुछ बदलते हुये खेल में बच्चो की रोचकता बढ़ा देगा। पुलिस की मौजूदगी सबसे ज्यादा जामिया यूनिवर्सिटी की तरफ से रिहायशी इलाके में धुसते वक्त है। ऐसे में खास कर यूनिवर्सिटी के दाये तरफ की दीवार के साथ मुड़ते रास्ते को पकड़ कर जो बच्चा बटला हाउस तक पुलिस के सवाल जबाब दिये पहुच सकता है, वह अपने दोस्तों के बीच नया हीरो है। नये हीरो की तालाश जामियानगर के युवा तबके में भी है। बटला हाउस एनकाउंटर में जो मारे गये, उनको लेकर चलने वाली बहस में अचानक राजनीति का ऐसा घोल घुल गया है कि युवा तबके में राजनीति की ओट सबसे कारगर लगने लगी है। जामियानगर में मस्जिद के सामने बनाये गये अस्थायी मंच पर इरफान ने पांव छू कर अमर सिंह को सलाम किया था। जिसे युवा तबका पचा नही पा रहा है। असलम और सादिक जामिया के ही छात्र है और वही हॉस्टल में रहते है । उन्हे अपनों के बीच एक ऐसे हीरो की तलाश है, जो उनके बीच से निकल कर देश के किसी भी हिस्से में संजीदगी से उनकी मुशकिलात को रखने का माद्दा रखता हो । उन्हे यह बर्दास्त नहीं है कि जामियानगर में आकर तो राजनेता उनके घाव को उभार कर मलहम लगाने का सवाल उठाये और जामियानगर की सीमा पार करते ही मलहम को राजनीति का घोल बना लें। इसलिये इरफान को लेकर उनके भीतर आक्रोष है, लेकिन उन्हे लगने लगा है कि तबको में बांटकर राजनीति की जा सकती है, अपने तहके के दर्द को जगाकर राजनीति की जा सकती है लेकिन कोई मुसलमान ऐसा क्यो नहीं है जो देश के तमाम संकटों को लेकर सभी की बात कहने की हिम्मत रखता है।
जाहिर है अपने दर्द को समझने का मिजाज मुशरुल हसन के जरिये उन्होंने समझा है लेकिन उन्हे एक हीरो की तालाश है। उनके बीच अंजुमन एक नायिका जरुर है जो जामियानगर थाने में जा कर पुलिस को यह तमीज सिखा आयी कि बिना महिला पुलिसकर्मियो की मौजूदगी के महिलाओं से पूछताछ नहीं होनी चाहिये। घरों में पूछताछ नहीं होनी चाहिये। उसके बाद से महिलापुलिसकर्मियो की मौजूदगी हर समूह में दिखायी देने लगी है। नायक की तलाश जामियानगर के बडे बुजुर्गो को भी है । असगर के मुताबिक साड़ी का धंधा करने वाले शेख साहेब राजनीति और साड़ी में गजब का तालमेल बिठा कर अपनी अदा पर सबको फिदा करना जानते है , लेकिन नहीं जानते तो मौजूदा हालात के तनाव को । कांग्रेस के इ अहमद साहेब जामिया में आये तो शेख साहेब ने उनके सामने कह दिया कि अब न तो नौ मीटर की साड़ी होती है और नाही असल जननेता । किसी ने सोनिया का नाम लिया तो शेख साहेब बोल पडे जनाब जन नेता का मतलब उस कढाई से है,जो दिखाती है हुनर और होती है बेशकिमती। उसकी बोली नहीं लगती। यहां तो जो आता है सियासत की बोलिया लगाने लगता है ।
संयोग से हमारी मुलाकात भी शेख साहेब से हुई। जब हमने शेख साहेब के बारे में कहे गये जुमलो का जिक्र किया तो शेख साहेब ने सीधे हमीं से यह सवाल कर दिया कि जनाब, आप ही बताइये सोमवार को एनआईसी की बैठक है, इसमें शामिल होगा कौन और बात का मजमून क्या होगा । मेरे मुंह से निकल पडा कि बटला के एनकाउंटर का भी जिक्र हो सकता है और अमर सिंह साहेब तो खुद यहा आ चुके है, और वह एमआईसी के सदस्य भी है। इसलिये इन हालातो में जामियानगर से लेकर आजमगढ़ की बात तो होगी ही। शेख साहेब ने मुस्कुराते हुये कहा, जनाब यही तो आप भी मात खा रहे है। आप भी एनआईसी को अमर सिंह की तराजू में देखने लगे । जो पार्टी के भीतर राजपूत और देस के सामने मौलाना होकर राजनीति की धार पर चलना चाहते है। यह वोट की बाजीगरी है ...और बाजीगरी तभी तक चलती है जबतक बाजी लगती रही । शेख साहेब बोले, जनाब एनआईसी उन्नीस सौ इकसठ में नेहरु की पहल पर बनाया गया था । जिसका मकसद समाज के भीतर धर्म या जाति की खटास को ना फैलने देना था । लेकिन बैठकों के दौर चलते रहे और खटास बढ़ती रही । इन बैठको का सबेस ज्यादा मुनाफा किसी को हुआ तो वह राजनीति है । शेख साहेब के मुताबिक आखरी बडी बैठक 1992 में हुई थी। निशाने पर मंदिर-मस्जिद था । सहमति बनी नही। जानते हो क्यो,उन्होने बेहद रहस्यमयी तरीके से मुझसे पूछा....फिर खुद ही जबाब दिया क्योकि कोई जनता की बात नहीं कर रहा था । चर्चा में आम शख्स की मौजूदगी गायब थी । फिर बोले सोमवार की बैठक में भी जामियानगर से लेकर आजमगढ़ तक पर बात तो होगी और कधंमाल से लेकर कर्नाटक की हिंसा का भी सवाल उठेगा और अभी लिख लो इन बैठको में राजनीतिक हिसाब-किताब देखे जायेंगे। यहां इतने मरे , वहा इतने मरे । दोनो में फर्क कितना है अगर बराबर तो बैठक शांतिपूर्ण रही और अगर यहां ज्यादा मरे और वहा कम मरे तो राजनीतिक गणित में कोई एक बैठक से बाहर निकल कर घमकी भरे अंदाज में शांति की बात करेगा। जामियानगर में मकानों की खरीद फरोखत का सुझाव देने वाले और बिल्डर के नाम से दुकान चलाने वाले अफरोज और राजेन्द्र साझीदार है । दोनो ऑफ-द-रिकॉर्ड बात करते है लेकिन हर मुद्दे पर खुल कर बोलते है । यह ऑफ-द-रिकॉर्ड है , लेकिन सुन लिजिये....बटला एनकाउंटर के बाद से जामियानगर की पहचान बढ़ी है । पहले दिल्ली में जो मकान या दुकान के लिये जामियानगर पहुंचते उन्हे बहुत कुछ यहां के बारे में बताना पड़ता था लेकिन बटला कांड ने जामियानगर की हैसियत बढा दी है । मैने सीधे पूछा, हैसियत कैसे बढा दी..अब तो लोग यहा कम आते होगे....अफरोज ने कहा आफ-द-रिकार्ड है लेकिन यह जान लिजिये, जो हालात है देश में उसमें जामियानगर सरीखे जगह एक तरह का आशियाना है। उन लोगो का जो अच्छा कमाते - खाते है लेकिन हमेशा इस डर में जीते है कि कभी कोई उन्हें किसी मामाले में फंसा कर बंद ना कर दे। इस पर अफरोज के साझीदार राजेन्द्र ने आफ-द-रिकार्ड की बात कहते हुये एक तमगा यह कहते हुये जोड़ दिया कि दिल्ली मुसलमानों का पंसददीदा शहर है क्योकि यहा किसी को भी छेडने पर बवाल मच जाता है। फिर बोला सच बोलूं भाई साहब...मीडिया और राजनीति ने हमारा धंधा बढ़ा दिया है । राजनीति बांट देती है और मीडिया उसे उछाल देती है। अमर सिंह जी आये थे ना ....आप ही लोग तो टीवी में बता रहे थे कि बटला एनकाउंटर की न्यायिक जांच की मांग की उन्होंने। और मजा देखिये हमारी तरह वह भी सौदेबाजी करने लगे । मेरे मुंह से निकला अमर सिंह जी ने तो कोई सौदेबाजी नही कि उन्होने तो हालात बताये । इस पर अफरोज आफ-द-रिकार्ड बोल पडा....लेकिन उन्होने ही जांच नहीं तो समर्थन वापस लेने की धमकी तो दी थी...अब यही तो सौदेबाजी है । लेकिन जो कहिये जामियानगर का मामला जितना उछला, उसका असर अब दिखने लगा है....श्रीनगर के हामिद अंसारी साहेब आये थे एक इमारत का सौदा पटाने और सौदा पटा तो बोले दिल्ली में ही डेमोक्रेसी है। यहीं घर लेना ठीक है, कोई छेडेगा तो नहीं । फिर जामियानगर में तो कोई पुलिसवाला छेडेगा नहीं.... । खुली हवा तो यहीं मिलेगी ।

Tuesday, October 7, 2008

सौम्या की हत्या से ज्यादा खतरनाक क्यों है शीला दीक्षित का बयान !

सौम्या की हत्या से ज्यादा खतरनाक क्यों है शीला दीक्षित का बयान Posted: 05 Oct 2008 09:27 PM CDTबीस बाईस साल की एक लड़की अचानक मेरे कुर्सी के पास आयी। उसने सीधा सवाल किया-" बिना किसी आरोप के पुलिस-अदालत-सरकार किसी को भी बारह साल तक जेल में कैसे बंद रख सकती है।" मैंने भी कहा- "बिलकुल...असंभव है।" इस पर उस लडकी का मासूम सा जबाब था –"दैन वाट्स द मिनिंग आफ गवर्नमेंट।" मैंने कहा- "सवाल सरकार के होते हुये भी न होने का नहीं है, बल्कि नयी परिस्थितियां तो सराकार के होने पर सवाल खड़ा कर रही है । यानी सरकार है तो स्थिति खराब है..... । जी, मैंने कहा... स्थितियां इससे भी बदतर हो रही है..हम दिल्ली में रहते है ...काम करते हैं, इसलिये अंदाज नहीं लगा पाते कि सरकार का होना भी कितना खतरनाक होता जा रहा है।" सॉरी सर ..बट आई डांट थिंक लाइक दिस...मुझे लगता है कि सरकार है तो सुरक्षा है...एक सिस्टम है...नहीं तो कुछ नहीं बचेगा । ऐसा ही हम सभी को सोचना चाहिये.....ओके सर कांगरेट्स..गोयनका अवार्ड के लिये....मैं हेडलाइंस टुडे में हूं । आई एम सौम्या विश्वानाथन । 18 अप्रैल 2005 में रात नौ बजे के आसपास का वक्त था..जब मैं "आजतक" में 'दस तक' की तैयारी में था। आंतकवादी कानून टाडा के तहत विदर्भ के सैकडों आदिवासियों को सालों साल जेल में बंद किया गया था और मैंने उन्हीं आदिवासियों पर रिपोर्ट की थी, जिस पर इंडियन एक्सप्रेस का अवार्ड मिला था। उसमे एक आदिवासी को बारह साल जेल में गुजारने पड़े थे, जिसकी रिपोर्ट दिखायी गई तो अदालत और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पहल के बाद उसे छोडा गया था।
संयोग से 18 अप्रैल 2005 को वह आदिवासी भी नागपुर से हमारे प्रोग्राम में जुड़ा। जिस पर "हेडलाइन्स टुडे" की उस लडकी ने सवाल उठाया था । वहीं सौम्या का पहला परिचय मेरे लिये था। सामान्यता "हेडलाइन्स टुडे" की कोई लड़की आजतक वालों से खबरो को लेकर बातचीत करते मैंने न कभी देखा था, न ही किया था। इसलिये मेरे लिये भी यह एक आश्चर्य की बात थी। जिसका जिक्र मैंने उस वक्त हेडलाइन्स को हेड कर रहे श्रीनिवासन को बधाई देते हुये किया था – "लगता है आपकी मेहनत रंग ला रही है जो खबरो को लेकर हेडलाइन्स की लडकियां बातचीत करने लगी है।"
सौम्या का यह पहला संवाद एक झटके मेरे दिमाग में घुमड गया 30 सितबंर 2008 को। सुबह सुबह हरपाल को मैसेज आया...."जस्ट गॉट ए कॉल फ्रॉम राशिम, सौम्या विश्वानाथन पास्ड् एवे लेट लास्ट नाइट आफ्टर ए कार एक्सीडेंट.. हर क्रिमिनेशन विल टेक प्लेस एट 3 पीएम एट लोधी क्रिमिटोरियम ।" यह मैसेज मेरे लिये विश्वास करने वाला नहीं था। क्योंकि मेरे दिमाग में सौम्या की हर वह तस्वीर घुमड़ रही थी, जो इस भरोसे को डिगा रही थी कि सौम्या चाहती तो भी उसकी उम्र..उसकी समझ...उसके अंदर की कुलबुलाहट...उसकी सरलता..उसकी सादगी उसे मरने नहीं देती । क्योंकि मेरे आंखो के सामने पहली मुलाकात के अगले ही दिन 19 अप्रैल 2005 की सौम्या की वह तस्वीर भी आ गयी, जब वह अचानक सामने आकर खड़ी हो गयी और कहने लगी.. "सर कल जो मैंने कहा आप उससे नाराज तो नहीं है।" मै आश्चर्य में आता..इससे पहले ही वह कह पड़ी "सिस्टम है तो ही सब चल रहा है । इसे नकारा कैसे जा सकता है।" मुझे लगा यह लड़की किसी को नाराज या दुखी करना तो दूर, , इस सोच से भी घबराती है कि कोई उसकी बात से कहीं दुखी या नाराज तो नहीं हो गया । मुझे लगा भी कि जिस तरह की व्यवस्था देश में बनती जा रही है और पत्रकारिता भी जिस लीक पर चल पडी है, उसमें इतना संवेदनशील होना किस हद तक सही है।
ऐसे में जब शाम ढलते ढलते यह खबर मिली कि सौम्या की मौत एक्सीडेंट से नहीं गोली लगने से हुई है तो एकसाथ सौम्या की मौत की वजह और सौम्या की सरलता दिमाग में घुमने लगी। करीब दो साल के दौर की कोई घटना मुझे याद नहीं आ रही थी, जिससे सौम्या को लेकर यह लकीर खींची जा सकती हो कि सौम्या को गोली मारने वालो ने इस या उस वजह से मारा हो। या फिर मारने वालों को सौम्या ने किसी तरह उकसाया भी होगा। इन सब के बीच मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बयान ने कई सवाल खड़े कर दिये। शीला दीक्षित ने कैमरे के सामने भी ये कहने से नहीं हिचकिचायीं कि "इतनी रात में सौम्या को इतना एडवेंचर्स होने की क्या ज़रुरत थी।" सवाल ये कि क्या रात में लड़कियो के अकेले निकलने का मतलब उनके साथ कुछ भी होने की स्थिति है और उसके बाद राज्य पल्ला झाड लेगा ? या फिर रात में किसी लड़की को राज्य सुरक्षा देने की स्थिति में नहीं है , उसके साथ छेड़-छाड़ होती है...बलात्कार होता है ....गोली मार दी जाती है ...यानी कुछ भी हो सकता है इसकी समझ हर लड़की को अपने अंदर पैदा कर लेनी चाहिये।
मेरे सामने सवाल है कि सौम्या खुले आसमान तले घर से बाहर अपने पैरो पर जब से निकली ..दिल्ली की सत्ता शीला दीक्षित के ही हाथ में है। तो शीला दीक्षित लड़कियो को लेकर जो सौम्या की मौत पर सबको समझाना चाहती है, वह सौम्या जीते जी क्यों न समझ सकी। जब दिल्ली में सीलिंग का हंगामा था तो गुडगांव रोड के फैशनस्ट्रीट की दुकानों को तोड़े जाने पर उच्च वर्ग की महिलाओ की आंखों से आंसू गिरने को दिखाए जाने के दौरान सौम्या भी भावुक थी । उस समय हेडलाइन्स टुडे के हरपाल ने मुझे बताया कि उसके यहां की लड़किया सीलिंग को लेकर भावुक हैं मगर सभी सरकार के रुख का समर्थन भी कर रही हैं। दिल्ली को दिल्ली की तरह सभी देखना चाहते हैं। तो जिस सिस्टम की बात सौम्या ने एक आदिवासी के 12 साल बेवजह जेल में बंद होने पर उठाया था, लेकिन उसके बावजूद सरकार पर भरोसा उसका था और सिस्टम खत्म नहीं हुआ है, इसे वह मानती थी, तो माना जा सकता है युवा तबके के भीतर आस बरकरार है। लेकिन सौम्या की हत्या के हालात ने यह सवाल तो पैदा कर ही दिया कि न्यूज-चैनलों के भीतर का समाज और खुले आसमान के नीचे का समाज अलग अलग है। इस पर युवा पीढी जिस बाजार व्यवस्था को देखकर विकसित भारत का सपना संजोये हुये है, उसमें पहला खतरा ही जान जाने का है । क्योंकि देश - राजनीति- या समाज में कहीं ज्यादा खुरदरापन उसी दौर में आया है, जिस दौर में एक तबके के भीतर चकाचौध आयी है।
सौम्या को न्याय दिलाने की मांग लिये शनिवार को प्रेस क्लब में जब पत्रकार और उसके संगी साथी जमा हुये और एक लड़की ने जब यह बताया कि हेडलाइन्स टुडे की उस कुर्सी पर कोई बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है, जिस पर सौम्या बैठती थी। तो मुझे लगा समाज के भीतर बनते दो समाज की अगली लड़ाई भरोसे के टूटने की होगी। और युवा पीढी का भरोसा अगर सिस्टम को लेकर टूटा तो अंधेरा कहीं ज्यादा घना होगा।

Saturday, October 4, 2008

क्योंकि मैं अकेला था.....!

इस बहस के बीच बहुत कुछ याद आ रहा है। दिनकर भी याद आ गए। राष्ट्रकवि दिनकर को 1973 में जब ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा था तो उन्होने उस मौके पर काफी कुछ कहा था । दिनकर ने कहा, "मै गांधी और मार्क्स के बीच झुलता रहा। मै रविन्द्रनाथ ठाकुर और इकबाल के बीच झूलता रहा। लेकिन इसी दौर में जब मैंने इलियट को पढ़ा तो मुझे लगा यह किस तरह की कविता है। परिस्थितियों का भेद किस हद तक होता है। इलियट उस दुनिया के कवि है, जो समृद्धि की अधिकता से बेजार है, जिस दुनिया ने आत्मा को सुलाकर शरीर को जगा दिया है."
लेकिन अब के हालात देखें तो दोनों दुनिया भारत में है। समृद्धि की अधिकता से लेकर पीठ और पेट के एक होने का सच भी आंखो के सामने मुंह बाएं मौजूद है। इन दो दुनिया या कहे समाज के बीच गांधी या इकबाल किस बिंब में तब्दील हो चुके है, यह कहने या समझाने की जरुरत नहीं है। दिनकर जी का यह भी मानना था कि उन्हे सफेद और लाल रंग ही भारत में नजर आता है। वह भरोसा भी जताते है कि इन दोनो रंगो के मिलने से जो रंग बनेगा वहीं भारत के भविष्य का रंग होगा। लेकिन अब के हालात में देश के बहुसंख्य तबके की दुनिया के सामने गाढ़ी धुंध है, जिसका कोई रंग नहीं है। लेकिन दूसरी दुनिया अभी भी लाल-हरे-भगवा में ही भारत को देखने में बेचैन है। ऐसे मौके पर जर्मनी के पीटर मार्टीन की एक कविता याद आती है, जो उन्होने-"फर्स्ट दे कम " के नाम से लिखी है।
जब नाज़ी कम्यूनिस्टों के पीछे आए,मैं खामोश रहाक्योकि, मैं कम्यूनिस्ट नहीं थाजब उन्होंने सोशल डेमोक्रेट्स को जेल में बंद कियामैं खामोश रहाक्योकि, मैं सोशल डेमोक्रेट नहीं थाजब वो यूनियन के मजदूरों के पीछे आएमैं बिलकुल नहीं बोलाक्योकि, मैं मजदूर यूनियन का सदस्य नहीं थाजब वो यहूदियों के लिए आएमैं खामोश रहाक्योकि, मैं यहूदी नहीं थालेकिन,जब वो मेरे पीछे आएतब, बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं थाक्योंकि मै अकेला था।