Friday, December 11, 2009

84 का दर्द, गुजरात की त्रासदी और बेजुबान आदिवासी

जिस पत्रकार ने गृह मंत्री पी चिदबंरम पर जूता उछाल कर 84 के दंगों के घाव को उभारा, उसी पत्रकार जनरैल सिंह ने किताब लिखी है...आई एक्यूज । खुद की आपबीती...परिवार का दर्द और सिख समुदाय की हर त्रासदी 165 पन्नों की हर लकीर में दर्ज है। दिल्ली की सड़कों पर कैसे सिखों का कत्लेआम 31 अक्तूबर से लेकर 6 नवंबर 1984 तक होता रहा और समूचा पुलिस-प्रशासन या कहें राज्य व्यवस्था गायब हो गई, इसे जनरैल की आपबीती के अक्स में पढ़ना किसी भयावह सपने की तरह है।

इसी सच को 3 नवंबर 2009 को लोकसभा में अकाली दल की सांसद और प्रकाश सिंह बादल की बहू हरसिमरत कौर ने आपबीती के तौर पर रखा । समूचा सदन स्तब्ध हो गया। आक्रोश और दर्द में सांसद तालिया बजाने लगे। कुछ इसी तरह का दर्द 2001 में गुजरात दंगों को लेकर भी लोकसभा में भी उठा और किताबों के जरीये आपबीती भी देश ने देखी सुनी। लेकिन जब इन दोनों का राजनीतिकरण हुआ तो 84 के दंगे, जिसे सिख नरसंहार मानते है, भाजपा के लिये एक वैसा ही राजनीतिक हथियार बन गया जैसा गुजरात के 2001 के दंगे। जिसे मुस्लिम नरसंहार मानते है और जो कांग्रेस के लिये कभी न चुकने वाला राजनीतिक हथियार है।

असल में यह दोनों घटनाये ऐसी हैं, जिसे शब्द दिये जायेंगे तो मानवता को शर्म आयेगी ही। चाहे वह गले में टायर डालकर जिन्दा जलाना हो या फिर किसी महिला का सड़क पर गर्भ चीरकर हत्या करना । रोंगटे खड़े होंगे ही। "मै अपने एक साल के बेटे लाडी को नहला रही थी..कि सामने से आते झुंड ने आवाज लगायी कोई बचना नहीं चाहिये...उस भीड ने दुकान से कैरोसिन लिया और घर में आग लगा दी। हम घर से बाहर भागे। सरदार जी पर भीड ने हमला कर दिया। लोहे की राड के हमले से उनका सर खून से लथपथ हो गया। मेरे हाथों में उनका दम टूटा। मेरे हाथ कांप रहे थे, और आज भी अपने हाथ देखती हूं तो हाथ कांपने लगते है।"

यह 84 का सच है, जिसे जनरैल ने शब्द दिये हैं। और सासंद हरसिमरत कौर के मुताबिक 31 अक्तूबर 1984 को वह जहा अपने दो भाइयों के साथ फंसी, वहां वह तेज सांस भी नहीं ले पा रही थी क्योंकि मारने वाले जीवित सांस को महसूस कर लते तो सांस ही बंद कर देते। लेकिन सवाल यही से खड़ा होता है क्या 84 या 2001 का जिक्र करते वक्त संसद को इसका एहसास है कि देश में बहुत सारे ऐसे सच हैं, जिन्हे आजतक शब्द नहीं दिये गये। और अपनी आपबीतीकरने बताने वाला देश का एक बड़ा तबका आज भी सांस दबाये जी रहा है लेकिन उसकी आवाज तो दूर उसका रुदन भी कोई नहीं सुन रहा।

"रात का तीसरा पहर था । अचानक कुछ खट-पट हुई । कुछ व्यक्ति मेरे पति को बुलाने आये । मैं रसोई में सो रही थी । थकान होने की वजह से उठी नहीं । सुबह देखा तो पति घर में नहीं था । गांव में पूछा लेकिन कुछ पता नहीं चला । इसकी जानकारी सरपंच को दी, कोतवाल के बताया । साथ ही पांच किलोमीटर दूर स्वास्थ्य केन्द्र चला रहे डां. प्रकाश आमटे को बताया। बाद में पता चला पति हवालात में बंद हैं। सभी ने आश्वसन दिया दो-चार दिन में छूट जायेगे । मैने भी मान लिया क्योंकि पुलिस अक्सर लोगो को पकड़ कर ले जाती और कुछ दिनो बाद छोड़ देती । लेकिन मेरा पति घर नहीं लौटा। दस दिनों बाद तहसीलदार गांव पर आया और अहेरी थाना में पड़े शवों को पहचान करने के लिए कहा। थाने में मेरे पति की लाश पड़ी थी । साथ ही तीन अन्य लाशें भी थीं। मैंने कहा , यह तो मेरा पति किश्टा पोजलवार हैं। इसे किसने मारा । पुलिस ने कहा यह नक्सली था, मुडभेड़ में मारा गया ।" 55 साल की शांताबाई कसम खाती रही कि उसके पति का नक्सलियों से कोई संबंध नहीं है लेकिन पुलिस नहीं मानी । एक कागज पर शांताबाई के अगूठे के निशान लिये। फिर 60 साल के किश्टा सहित चार नक्सलियों को मारने का एलान कर दिया गया। जिलाधिकारी ने प्रेस नोट जारी करवाया। अगले दिन अखबारों में चार नक्सलियों के मुठभेड़ में मरने की खबर छपी। शांताबाई का घर उजड़ा। बच्चों के सर से बाप का साया। घर दाने दाने को मोहताज हुआ लेकिन किसी पुलिस-प्रशानिक अधिकारी ने सुध नहीं ली। यह वाकया 1991 का है । और यह अहेरी का वहीं इलाका है जहां डेढ महीने पहले ही 27 पुलिस कर्मियों को माओवादियो ने बारुदी सुरंग से उड़ा दिया। जिसके बाद मुबंई से लेकर दिल्ली तक में हंगामा मचा और गृहमंत्री ने नक्सल प्रभावित इलाकों में एक ग्रीनहंट ऑपरेशन चलाने की बात कही।

लेकिन इसी अहेरी में 1991 में क्या हुआ कोश्टा पोजलवार के अलावे गांववालों ने अन्य तीन की भी पहचान की। अन्य तीन जोगी लताड,डीलू जोगई और जग्गा कुन्जाम थे। जिन्हें कृष्णार,आरेवाडा और हुल्लुभीत्त गांव से 8 दिसबंर 1991 में पुलिस ने उठाया। और 19 दिसंबर 1991 को कीर नाले के करीब मार दिया । जिन्हें बाद में नक्सली करार दिया । बाब आमटे के बेटे प्रकाश आमटे के स्वास्थय केन्द्र से दो किलोमीटर दूर इनभट्टी गांव के आदिवासी चुक्कू चैतू मज्जी के मुताबिक 8 दिसबंर 1991 को उसके भाई लच्छू को छिदेवाडा गांव के पास नाले के करीब पुलिस ने गोली मार दी । गांव वालों ने देखा भी । लेकिन किसी गांववाले में इतनी हिम्मत नहीं थी कि लच्छू के शव को भी देखने जाये । आठ दिनो तक शव वहीं पड़ा रहा। लच्छू कबड्डी का अच्छा खिलाड़ी था और पुलिस ट्रेनिंग में शामिल भी हुआ था लेकिन नक्सलियों के घमकाने पर पुलिस की ट्रेनिंग छोड़ी और गुस्से में आई पुलिस ने उसकी जान ले लेी। महाराष्ट्र सरकार की पुलिस फाइल के मुताबिक 1990 से 1992 का दौर ऐसा था, जिसमें ढाई सौ से ज्यादा आदिवासियों को पुलिस ने मार गिराया और चार सौ से ज्यादा आदिवासियों को हवालात में इस आरोप के साथ बंद कर दिया कि वह नक्सलियों के हिमायती हैं। जो अलग अलग हिंसक घटनाओं को अंजाम देने में सहयोगी रहे। इनमें से करीब सवा दो सौ पर उस दौर में आतंकवादी कानून टाडा लगाया गया।

सरकार की इस रिपोर्ट से उलट आदिवासियों का अनकहा सच है। जिन सैकड़ों नक्सलियों को मारा गया उनके नाम आज भी विदर्भ के तीन जिलो गढचिरोली,चन्द्रपुर और भंडारा में हर आदिवासी को याद हैं। क्योकि उनके घर के बच्चे अब बड़े हो चुके है और उनपर पुलिसिया निगरानी आज भी रखी जाती है। जिससे हर घर की पहचान आज भी दो दशक पहले से जुड़ी हुई है । जिन पर टाडा लगाया गया। अब वह धीरे धीरे छूट रहे है । जो खुशकिस्मत निकला वह 1995 में टाडा कानून खत्म होते ही एक दो साल बाद छूट गया । जिसकी किस्मत ने साथ नही दिया वह 14 साल तक जेल में रहा । और जिनकी किस्मत ने साथ नहीं दिया वैसे साढे सात सौ से ज्यादा आदिवासी हैं, जो बिना जुर्म 10 से 14 साल जेल में रहे। इनमें से अभी भी सैकड़ों आदिवासी ऐसे हैं, जो जेल से तो छूट गये हैं लेकिन टाडा कानून के दायरे में अपने मामलो के लेकर आदालतो के चक्कर अभी भी लगाते हैं। दुर्गू तलावी, मनकु कल्लो, बुधू दूर्ग, मानु पुगाही समेत तीन दर्जन से ज्यादा आदिवासी ऐसे हैं, जिन्होंने 14 साल जेल में गुजारे। कमोवेश हर के खिलाफ टाडा की धारा 3,4 और 3/25 आर्म एक्ट समेत आईपीसी की धारा 302,307,147,148 लगायी गयी। लेकिन जब टाडा के तहत सुनवायी हुई तो किसी भी आदिवासी पर कोई भी धारा नहीं बची। यानी बिना किसी जुर्म में आरोपों के 14 साल यानी उम्र कैद की सजा इन आदिवासियो ने भोग ली । कई आदिवासी तो जेल में मर गये। जंगल से निकलकर जेल का जीवन आदिवासियो की समझ से बाहर रहा। गढचिरोली के सावरगंव में रहने वाले रेणु केजीराम उईके की मौत नागपुर जेल में 1 सितबंर 1994 को हो गयी। हो सकता था कि रेणु केजीराम 23 मई 1995 तक जिन्दा रह जाते तो टाडा कानून निरस्त होते ही छूट जाते लेकिन 1 सितबंर 94 में मरे रेणु केजीराम के खिलाफ अपराध संख्या 37/ 92 , 31/92 के तहत टाडा की धारा 3,4,5 और आर्म एक्ट की धारा 3/25, के अलावे आईपीसी की धारा 307,334,353,435 लगायी गयी ।

यह अलग बात है कि टाडा कानून खत्म होने के बाद अदालत ने जब पुलिस फाइल को टटोला तो उसे भी कोई सबूत रेणु केजीराम उईके के खिलाफ नहीं मिले । 21 अगस्त 1995 को इसी तरह आदिवासी युवक बालाजी जेल में मर गया और अहेरी ताल्लुका के कोयलपल्ली गांव का भंगेरी भीमराव सोयाम जेल में पागल हो गया । आत्म हत्या की की बार कोशिस की । जेल आधिकारियों ने माना भी जंग की आबो-हवा इन्हे जेल में कैसे मिलेगी । ऐसे में यह पागल नहीं होगे तो क्या होंगे । लेकिन सभी पर इतनी कडी धारायें लगी है कि जेल से छोड़ा भी नहीं जा सकता है । लेकिन यह त्रासदी यहीं नहीं रुकती। आदिवासी महिलाये भी शिकंजे में आयी । 1991-92 में ताराबाई, रुखमाबाई,लीला ,वत्सला , तेंचु की उम्र 18 से 22 साल के बीच थी। जाहिर है यह सभी अब बूढ़ी लगने लगी हैं। लेकिन जब इनकी उम्र सपनों को हकीकत का जामा पहना कर जिन्दगी की उड़ान भरने की थी तब चीचगढ थाने में इनके खिलाफ अपराध संख्या 366-92, 72-91 के तहत मामला दर्ज किया गया । 14 दिसबंर 1991 को सभी को जेल में डाला गया। टाडा की धाराये भी लगायी गयी। छह से दस साल तक यह सभी जेल में रही। लेकिन यह सच भी यही नहीं थमा। सौ से ज्यादा यहां की महिलाओं ने चार से 12 साल तक जेल में काटे। दर्जनों बच्चों का जन्म जेल में हुआ । 8 मार्च यानी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस। लेकिन 8 मार्च 1991 को गढचिरोली के एटापल्ली तहसील के मुडदापल्ली गांव में यह कहर की तरह टूटा। राज्य रक्षा पुलिस के जवानों ने 25 साल की मैनी सनुहिचामी, 19 साल की जुनी गुरियागोटा, 22 साल की बिदी सोन सुहलेडी और 17 साल की भेसू मडावी को अपनी हवस का शिकार बनाया। उसके बाद पंचायत को ही सुरक्षाकर्मियो ने बंदूक की नोंक पर यह कहते हुये लिया कि मामला उठा तो समूचे गांव पर टाडा लगा दिया जायेगा। गांव के बुजुर्ग आदिवासियों ने जब यह मामला उठाया तो पुलिस ने शफनराव धर्ममडावी, दामल घर्ममडावी और दसरथ कृष्ण को पकड़ लिया और नक्सलियों का हिमायती करार देकर टाडा और आर्म्स एक्ट लगा दिया। दशरथ को जेल में छह साल काटने पडे वही शफनराव और दामल दो साल बाद छूट गये । जो खुद को खुशकिस्तम मानते हैं।

दरअसल, इस तरह खुशकिस्मत मानने वालो की तादाद में कम नहीं हैं। आदिवासियों के मामलों के लेकर अदालत में जिरह करने वाले एकनाथ सालवे की उम्र 75 साल पार कर चुकी है। एकनाथ साल्वे ने बीते पच्चीस साल उसी लडाई में लगा दिये कि आदिवासियों के हक का सवाल भी राज्य व्यवस्था में सवाल बन सके। लेकिन समूची व्यवस्था किस तरह काम करती है, यह आज भी आदिवासियों के बीच खड़े होकर इस बात से समझा जा सकता है कि जो आदिवासी बिना जुर्म भी दो से तीन साल के भीतर जेल से छूट आये वह सरकार और अदालत को इसके लिये पूजते हैं। उनका मानना है कि सरकार और अदालत ना होती तो उनकी मौत जेल में ही हो जाती । लेकिन जेल जाना ही क्यों पड़ा जब कोई अपराध नहीं किया तो आदिवासी भलेमानस की तरह कहते है यह तो.. पुलिस और सरकार का हक है। अगर केन्द्र सरकार के आदिवासी कल्य़ाण विभाग और राज्यों के आदिवासी कल्य़ाण मंत्रालय के आंकड़ों को मिला दिया जाये तो बीते दो दशकों में औसतन हर साल एक हजार से ज्यादा आदिवासी उसी व्यवस्था के शिकार होकर मारे जाते हैं, जिस व्यवस्था का काम है, इनकी हिफाजत करना। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की मानें तो आदिवासियों की जुबान पुलिस-प्रशासन या सीधे कहे तो सरकारे आज भी नहीं समझ पाती इसलिए बेमौत सैकड़ों आदिवासी हर महीने मारे जा रहे हैं।

जाहिर है यह फरहिस्त इतनी लंबी और दर्दनाक है कि किसी को भी अंदर से हिला दे। लेकिन यह ना तो 84 के सिख दंगो या 2001 के गुजरात दंगो की तरह राजनीतिक मुद्दा है ना ही इनकी त्रासदी जानने के लिये शब्द रचे गये। सिख दंगो पर जनरैल सिंह की किताब पर जाने माने पत्रकार खुशवंत सिंह की टिप्पणी है कि ...."आई एक्यूज...घावों को हरे कर देता है जो अभी भरे नहीं है । यह उन सभी को जरुर पढ़ना चाहिये जो यह चाहते है कि दोबारा इस तरह का वीभत्स अपराध ना हो।" सवाल है, कोई आदिवासियों के घाव क्यों नहीं देखता, जो त्रासदी भोगने के बाद भी कहते है, इस अपराध का हक तो सत्ता को है।

राजनीति और मीडिया पर अमिताभ का आक्रोश है फिल्म "पा "

"पा" को सिर्फ प्रोजेरिया के अक्स में देखना भूल होगी। प्रोजेरिया का मतलब सिर्फ 15 साल की उम्र में अस्सी साल का शरीर लेकर मौत के मुंह में समाना भर नहीं है। असल में प्रोजेरिया का दर्द मां-बाप का दर्द है। जब जिन्दगी के हर घेरे में पन्द्रह साल के बच्चे को लेकर हर मां-बाप के सपने उड़ान भरना शुरु करते हैं, तब प्रोजेरिया से प्रभावित बच्चे के मां-बाप क्या सोचते होंगे....यह "पा" में नहीं है । किसी भी मां-बाप के लिये यह जानते हुये जीना कि उसके अपने बच्चे की उम्र सिर्फ 15 साल है लेकिन अपने बच्चे में उसे अपने भविष्य की छवि दिखायी दे जाये...यह भी " पा" में नहीं है।


असल में "पा " में मां-बाप नहीं सिर्फ औरो है। जिसके एहसास मां-बाप पर हावी है। और असल में यहीं से लगता है कि फिल्म में अमिताभ बच्चन हैं, जो नायक है। जिसके भीतर का आक्रोश पर्दे पर आने के लिये कसमसा रहा है। और "पा " का नायक "औरो " प्रोजेरिया से नहीं बल्कि व्यवस्था की विसगंति को अक्स दिखाकर मरता है। खासकर राजनीति और मीडिया को लेकर जो जहर अमिताभ के भीतर अस्सी के दशक से भरा हुआ है...उसका अंश बार बार इस फिल्म में नजर आता है।

फिल्म में "औरो" यानी अमिताभ अपने पिता अभिषेक बच्चन
, जो कि युवा सांसद बने हैं, उनके सपनों के भारत पर कटाक्ष कर उस राजनीति को आईना दिखाने की कोशिश करते हैं, जिसे संकेत की भाषा में समझे तो राहुल गांधी की छवि से टकराती है। और अगर अमिताभ बच्चन के ही अक्स में देखें तो 1984 में राजीव गांधी के कहने पर राजनीति में सबकुछ छोडकर एक बेहतर समाज और देश का सपना पाले अमिताभ का राजनीतिक चक्रव्यू में फंसने की त्रासदी सरीखा लगता है। अमिताभ 1988-89 में राजनीति के चक्रव्यूह को तोड़कर फिल्मी नायक की तरह राजनीति छोड़ना चाहते थे। लेकिन उस दौर में मीडिया ने भी उनका साथ नहीं दिया। और शायद पहली बार अमिताभ उसी वक्त समझे कि मीडिया के ताल्लुक राजनीति से कितने करीबी के होते हैं। और सही-गलत का आकलन मीडिया नहीं करता। इसलिये "पा" में भी युवा सांसद की भूमिका निभाते अभिषेक पारंपरिक राजनीति को अपनाने की सीख देने वाले अपने पिता परेश रावल के सुझाव को नहीं मानते बल्कि मीडिया से उसी की भाषा में दो -दो हाथ करने से नहीं कतराते, जो वह बोफोर्स कांड के दौर में करना चाहते थे।

इतना ही नहीं इलाहबाद के सांसद के तौर पर इलाहबाद को लेकर विकास की जो सोच अमिताभ ने
1985-88 में पाली, उस पर वीपी सिंह ने जिस तरह रन्दा चला दिया। और इलाहबाद में बनाये जाने वाले पुल और झोडपपट्टी को लेकर विकास योजना में जिस तरह वीपी सिंह ने अंडगा लगाया, उस नैक्सेस को नये अंदाज में दिखाते हुये उसे तोड़ने की कोशिश अभिषेक के जरिए फिल्म में की गयी है । मीडिया और राजनीति को लेकर अमिताभ अपने आक्रोश को दिखाने की खासी जल्दबाजी में इस फिल्म में नजर आते हैं।

राष्ट्रपति भवन जाने के लिये औरो की बैचैनी की वजह तो फिल्म नहीं बताती लेकिन राष्ट्रपति भवन पहुंचकर भी राष्ट्रपति भवन देखने से ज्यादा बाथरुम जाने की जरुरत यानी शिट के प्रेशर के आगे राष्ट्रपति भवन ना देखने का अद्भुत तरीका अमिताभ ने निकाला, जो झटके में अमिताभ के उस निजपन को उभारता है जो राजनीतिक व्यवस्था से घृणा करता है। सत्ता जिस तर्ज पर सुरक्षा घेरे में रहती है, उस पर भी सीधा हमला करने से औरो यानी अमिताभ कोई मौका नहीं चूकते। सुरक्षाकर्मियों को नेता किस तरह रोबोट बना देते हैं और अमिताभ उसके मानवीय पक्ष में जिन्दगी की न्यूनतम जरुरतों को जिस तरह टटोलते हैं
, उसे देख बरबस 1984 में राजनेता बने अमिताभ बच्चन याद आ जाते हैं जो नार्थ-साउथ ब्लाक से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय और घर के सुरक्षा घेरे से उस दौर में हैरान परेशान रहते थे। अक्सर राजीव गांधी से मिलने जाते वक्त अमिताभ को इसी बात की खासी कोफ्त होती थी कि सुरक्षा घेरे का मतलब है क्या । खासकर तब जब इंदिरा गांधी की हत्या सुरक्षा घेरे में सुरक्षाकर्मियों ने ही कर दी। इसलिये फिल्म का नायक ओरो यानी अमिताभ बार बार सांसद बने अभिषेक बच्चन के सुरक्षार्मियों की जरुरत या उनकी मौजूदगी पर ही सवालिया निशान लगाने से नहीं चूकता।

वैसे, यह कहा जा सकता है कि जब समूची फिल्म में ना तो अमिताभ बच्चन का चेहरा नजर आता है और ना ही उनकी भारी आवाज सुनायी देती है तो अमिताभ की जगह एक उम्दा कलाकार का अक्स इसे क्यों ना माना जाये। यह तर्क उन्हे समझाने के लिये सही लग सकती है, जिन्होंने फिल्म देखी ना हो । असल में समूची फिल्म में प्रोजेरिया से ग्रसित औरो को अमिताभमयी छवि में इतना भिगो दिया गया है कि ना सिर्फ मां-बाप की छवि फिल्म से गायब हो जाती है बल्कि फिल्म के अंत में "औरो " की मौत भी अपने मां-बाप को मिलाकर कर कुछ इस तरह होती है जैसे "औरो" का नायकत्व व्यवस्था के खांचे को नकार कर अपने ही मां-बाप को प्रेम और सहयोग का एक ऐसा पाठ पढाता है, जिसका मूलमंत्र यही है कि जो गलती करता है उसे ही ज्यादा आत्मग्लानी होती है। इसलिये गलती करने वाले को माफ कर देना चाहिये।

प्रोजेरिया से ग्रसित औरो के बहाने यह अमिताभ की ही फिल्म है जिसमें उनका चेहरा और आवाज तो नहीं है लेकिन हर डायलॉग में छवि उसी अमिताभ की है, जिसके भीतर व्यवस्था से आक्रोश है और सभी को पाठ पढाने का जज्बा है । जाहिर है फिल्म खत्म होने के बाद अमिताभ की हर फिल्म की तरह "पा" में भी सिर्फ अमिताभ ही दिमाग में रेंगते है।

अपहरण की जरुरत नहीं समझते माओवादी"

ठीक बीस साल पहले 1989 नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव सीतारमैय्या से जब यह सवाल किया गया था कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी का भी आपहरण कर लेंगे । जवाब मिला था कि जरुरत पड़ी और परिस्थितियां अनुकूल हुईं तो जरुर करना चाहेंगे। यह सवाल 1987 में आंध्रप्रदेश के सात विधायकों के अपहरण के बाद पूछा गया था । और बीस साल बाद जब बंगाल के एक पुलिसकर्मी का अपहरण कर उसपर पीओडब्ल्यू यानी प्रिजनर ऑफ वार लिखकर रिहा किया गया...तो अपहरण करने वाले सीपीआई माओवादी के पोलित ब्यूरो सदस्य किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव से मैंने यही सवाल पूछा कि अगर आपको मौका लगेगा तो क्या आप प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का अपहरण कर लेंगे। जवाब मिला बिलकुल नहीं। इसकी जरुरत है नहीं और परिस्थितियां ऐसी हैं कि प्रधानमंत्री की नीतियों से ही हमारा सीधा टकराव देखा जाने लगा है तो जनता खुद तय करेगी, हमें पहल करने की जरुरत नही है।

बीस साल के दौर में राजनीतिक तौर पर नक्सलियों में कितना बड़ा परिवर्तन आया है, यह जवाब उसका बिंब भर है। लेकिन इन बीस वर्षो में राजनीतिक तौर पर नक्सली कितना बदले है और उनकी राजनीति किस तरह अब सीधे संसदीय राजनीति को चेता रही है, यह गौरतलब है। बीस साल पहले मार्क्सवाद और माओवाद की धारा बंटी हुई थी। उस दौर में मजदूर-किसान के बीच भागेदारी को बढाने का सवाल ही सबसे बड़ा था। इसलिये इन दोनो धाराओं से जुड़ा अतिवाम आंध्रप्रदेश से लेकर बिहार तक में जो पहल कर रहा था, उसमें ग्रामीण क्षेत्रों से इतर का सवाल खासा गौण था। और जो सवाल नक्सली संगठन उठा रहे तो उससे राज्य सत्ता को कोई परेशानी नहीं थी। इसलिये बीस साल पहले नक्सल प्रभावित क्षेत्रो में विकास ना होना ही नक्सलियों के लिये भी मुद्दा था तो राज्य भी नक्सलियों पर विकास न करने देने का आरोप लगा कर समूचे इलाके को देश से अलग थलग दिखाने में कामयाब रहते। लेकिन बदलाव का दौर आर्थिक सुधार के साथ ही हुआ और राजनीतिक तौर पर एक नये तरीके से माओवादी और सरकार एक ही मुद्दे पर अपने अपने नजरिए से आमने सामने खड़े होते चले गये। इसलिये पहली बार सवाल सरकार की उन नीतियों को लेकर उठा, जिसपर बीस साल पहले राजनीतिक दल चुनाव लड़ सकते थे लेकिन अब वही सवाल संसदीय घेरे से होते हुये माओवादियों के दायरे में जा कर समाधान की बात कहने लगे और चुनावी राजनीति के भी आड़े अचानक माओवादी थ्योरी आ गयी।

असल में 1991 से लेकर 2001 के दौर में नक्सली माओवादी और मार्क्सवादियो ने शहरों की तरफ ठीक उसी तरह कदम बढाना शुरु किया जिस तरह आर्थिक सुधार के नजरिये ने गांवों को शहरों में बदलना शुरु किया। इस दौर में राज्य ने बाजारवाद ने मुनाफे के आगे जब घुटने टेकने शुरु किये तो नक्सलियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही आयी कि शहरों में वह अपनी स्थिति दर्ज कैसे करायें। खासकर वो शहर, जो पूरी तरह राज्य की नीतियों या धनवानों से जुड़े रोजगार पर ही टिके थे । यानी गांव में खेती से जो स्वालंबन पैदा होता और ग्रामीण अपनी जमीन पर खड़े होकर नक्सली संघर्ष में साथ खड़ा होता, उस तरह के स्वाबलंबन का स्थिति शहरों में थी नहीं। इसलिये अखिल भारतीय कामगार संगठन बनाकर औधोगिक मजदूरो को जोड़ने का काम नक्सलियों ने महाराष्ट्र से शुरु किया जो कई ट्रेड-यूनियन सरीखे संगठनो के मार्फत उन सवालों को उठाना शुरु किया जो बाजारवाद के सामानांतर समाजवाद की थ्योरी को रखते। इस दायरे में न्यूनतम मजदूरी के मुद्दे को क्षेत्र की जरुरत के हिसाब से नक्सलियों ने उठाना शुरु किया। यानी अपने संघर्ष को राजनीतिक दलों से हटकर बताने और दिखाने की राजनीति शहरो में कदम रखने के साथ ही की जिससे यह भ्रम ना रहे कि नक्सली संगठनों की जरुरत क्या है या फिर आज नहीं तो कल यह संगठन भी सत्ता के लिये चुनाव लड़ने लगेंगे। अपने इस प्रयोग में नक्सलियो का प्रभाव बहुत ज्यादा या पिर ज्यादा भी रहा ऐसा सोचना बचपना होगा। क्योंकि नक्सलियो की शहरों में पहले से कोई राजनीतिक चुनौती पैदा होती ऐसी स्थिति उस पूरे रेड कारीडोर में नहीं उभरी जो आज सरकार के लिये चुनौती बन रही है । लेकिन उस दौर में बाजारवाद ने जिस तरह पंख फैलाये और डंक मारना शुरु किया उसका असर यह जरुर हुआ कि विकल्प का सवाल कामगारों की जरुरत बनने लगा। यानी शहरो में कामगारो से जुड़े मुद्दों को लेकर नक्सलियो का नजरिया अचानक कामगारों को प्रभावित करने लगा। खासकर खनन और पावर प्रोजेक्ट के इलाको में टेक्नालाजी और विदेशी कंपनियो ने पैर रखे तो अचानक मजदूरों का रोजगार हायर-फायर वाली स्थिति में आया। तब सवाल न्यूनतम मजदूरी से भी आगे निकलने लगा । क्योंकि कामगारो के समुद्र के आगे राज्य द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी मिलने का सवाल ही नहीं था। ऐसे में अलग अलग क्षेत्रों में नक्सली संगठनो ने परिस्तितियो को समझते हुये मजदूरी का सवाल उठाया। मसलन महाराष्ट्र में 85 रुपये न्यूनतम मजदूरी हो लेकिन मजदूरों को 20-22 से ज्यादा मिलती नहीं थी। तो अपनी मौजूदगी जताने ले लिये नक्सलियों ने इस मजदूरी को 25 रुपये कराने का निर्णय लिया। लंबी लड़ाई के बाद सफलता मिली तो अगली लडाई 28 रुपये को लेकर सफल हुई। और आज की तारिख में यह लड़ाई 50 रुपये को लेकर हो रही है। वही बंगाल में अभी भी यह लड़ाई 22 से 25 रुपये कराने को लेकर हो रही है और बीते तीन सालो में माओवादी बुद्ददेव सरकार से 25 रुपये मजदूरी नहीं करा पाये है जबकि राज्य द्रारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी 85 रुपये है। इसी तरह तैंदू पत्ता के सवाल पर पहली लडाई 25 पैसे को लेकर लड़ी गयी । जो अब पचास पैसे बढाने को लेकर हो रही है। एक हजार तेदूपत्ता पर फिलहाल एक रुपये 75 पैसे मिलते है, जिसे सवा दो रुपये कराने की लडाई तेदूपत्ता ठेकेदारे से की जा रही है। बीस साल पहले एक हजार तेदूपत्ता पर 35 पैसे मिलते थे ।

जाहिर है यहां दो सवाल खड़े होते हैं कि एक तरफ बीस साल में लड़ाई एक रुपये को लेकर ही हुई और दूसरा सवाल की देश में विकास का ऐसा कौन सा अर्थशास्त्र अपनाया गया, जिससे शहरों में जो सिक्के मिलने बंद हो गये.....गांवों में उसी सिक्के की लड़ाई में पीढ़ी-दर-पीढ़ी गांव अब भी जी रहे हैं और संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन यहीं से नक्सलियों की उस राजनीति को भी समझना होगा जो तेंदूपत्ता की कीमत बढ़वाने के लिये ठेकेदारों की हत्या कर सकती है। या उन्हे चेता कर झटके में एक हजार तैंदूपत्ता की नयी कीमत पांच रुपये तय करवा सकता है। लेकिन राजनीति का मतलब लोगों की गोलबंदी और हक के साथ साथ संघर्ष करते हुये आगे बढाने की पूरी प्रक्रिया कैसे होती है असल में इसी का नायाब प्रयोग लगातार नक्सली राजनीति कर रही हैं। क्योंकि 2001 के बाद नक्सलियों के सामने बड़ी चुनौती उस राजनीति शून्यता के वक्त अपनी मौजूदगी का एहसास कराना था, जिसे माओवादी और मार्क्सवादी लगातार उठा रहे थे।

2001 में अतिवामपंथियो के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में यह सवाल खुल कर उठा था बाजारवाद को जिस तरह संसदीय राजनीति हवा दे रही है, उससे समाज के भीतर विकल्प का सवाल राजनीतिक तौर पर जरुर उठेगा । साथ ही संसदीय राजनीति को लेकर निराशा भी आयेगी। इन्हीं परिस्थितियों के बीच माओवादियों और मार्क्सवादियों यानी एमसीसी और पीपुल्स वार ग्रुप के बीच गठबंधन की प्रक्रिया शुरु हुई और 2004 में यानी तीन साल की लंबी प्रक्रिया के बाद दोनो एकसाथ आये और सीपीआई माओवादी का गठन हुआ। राजनीतिक तौर पर माओवादियो ने अगर पहला प्रयोग बंगाल में 2005 में यह सोच कर शुरु किया कि वामपंथी सरकार से जनता का मोहभंग एक धक्के के साथ हो जायेगा तो यह गलत नहीं होगा। क्योंकि पीपुल्स वार ने इससे पहले कभी बंगाल का रुख नहीं किया था लेकिन बंगाल में माओवादियों की कमान को पीपुल्स वार ग्रुप के कोटेश्वर राव यानी किशनजी ने संभाला । 2004 में एनडीए के शाइनिग इंडिया के नारे तले एनडीए की हार और यूपीए की जीत के बाद वामपंथियो के समर्थन ने माओवादियो की सेन्ट्रल कमेटी में यह सवाल उठा था कि वामपंथी सरकार पर लगाम लगा पायेगे या जनता से उनकी लगाम भी ढीली पड़ जायेगी। इसीलिये सिंगूर और नंदीग्राम से लालगढ़ का रास्ता वामपंथी सरकार के लिये अगर भारी पड़ रहा है तो इसका संसदीय घेरे में लाभ चाहे ममता बनर्जी को मिले लेकिन जिस पूरे इलाके में जो गोलबंदी ग्रामीण-आदिवासियों को लेकर की गयी, उसे माओवादी कितनी बडी सफलता मान रहे है उसका अंदाज इसी से लग सकता है कि झारखंड,उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में इसी तरह से एसईजेड और खनन समेत एक दर्जन से ज्यादा लगने वाली कंपनियो को दी जाने वाली जमीन पर जिन्दगी चलाने वाले गांव के गांव में उन्हीं मुद्दों पर बहस की शुरुआत की गयी है, जो अगले तीन-चार साल में नंदीग्राम-लालगढ में तब्दील होंगे। हो सकता है इन क्षेत्रो में भी कोई ना कोई क्षेत्रीय राजनितिक शक्ति कांग्रेस या भाजपा को इसी दौर में चुनावी चैलेंज देने लगे और उन मुद्दों की वकालत करने लगे, जिसे माओवादी आज उठा रहे हैं।

लेकिन पहली बार यही माओवादी राजनीतिक तौर पर एक नया सवाल खड़ा कर रहे है, कि संसदीय राजनीति सत्ता के लिये आर्थिक सुधार की हिमायती नहीं है बल्कि आर्थिक सुधार को बरकरार रखने के लिये संसदीय राजनीति चलनी चाहिये। और इसके अंतर्विरोध को माओवादी प्रक्रिया में संसदीय दल ही चुनावी संघर्ष में सामने उसी तरह लाये जैसे ममता उभार रही हैं। जो कांग्रेस को केन्द्र में समर्थन देते हुये मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में अहम पोर्टफोलियो भी ले ले और माओवादियो को देश का सबसे बड़ा खतरा बताने वाले मनमोहन सिंह की नीतियो का विरोध माओवादियों के हक की लड़ाई से जोडेते हुये अपनी राजनीति भी साधे। जाहिर है बीस साल पहले और अब के दौर में इतना फर्क वाकई आ गया है कि प्रधानमंत्री के अपहऱण की जरुरत माओवादियों को नहीं लगती ।


26/11 की पहली बरसी के 48 घंटे बाद मुंबई की सुबह

बडा जज़्बा है आपके शहर में ? सही कहा आपने ...लेकिन जज़्बा ही अगर जिन्दगी का प्रतीक हो और जज़्बे के बगैर पेट ना भरे तो फिर कहा जा सकता है......बड़ा जज़्बा है आपके शहर में । तो क्या 26 नवंबर को जिस तरह मुंबई की आंखों में पानी और दिल में दर्द का गुबार था....फिर सामने जलती मोमबत्ती...यह जिन्दगी की जरुरत है? लगता है आप न्यूज चैनलो को देखकर मुंबई को माप रहे हैं। जनाब 26/11 तो 27/11 को ही घुल गया। एक साल बाद न्यूज चैनलों की यादों में अगर आप 26 नवंबर को टटोलते हुये उसे मुंबई का सच मान लेंगे तो आप मुंबई से वाकिफ नहीं हैं। यहां जिन्दगी पेट से लेकर गोरी और मुलायम चमडी पर रेंगती है। यह ऐसा शहर है जहां एक ही जमीन पर फक्कड-मुफलिस से लेकर दुनिया के सबसे रईस और सिल्वर स्क्रीन पर चमकते सितारे चलते हैं। और सभी की भावनाएं एक सी रहती हैं। पांच सितारा जिन्दगी जीने वाले की मय्यत में अगर आंखों में काला चश्मा लगाकर कोई रईस पहुचता है तो सवाल उसके आंसुओं को देखने या छुपाने का नहीं है। उसे पता है मय्यत से निकलते ही उसे काम पर लग जाना है। और किसी मजदूर या मच्छीमार की मौत के बाद जमा लोग हाथो में अपने कामकाज का सामान ले कर पहुचते हैं....कि मय्यत से निपटे तो बस काम पर निकल लें। हर का अपना घेरा है और हर कोई अपने घेरे में अपने तरीके से मरता है।


तो अड़तालिस घंटे पहले जो टीवी पर दिखायी दे रहा था, वह सब झूठ था? न्यूज चैनल वाले उसे अपने हिसाब से गढ़ रहे थे? यह तो आप जाने और आप ही जैसा समझना चाहते है वैसा समझें। लेकिन कैमरे के लैंस को अगर आप अपनी आंख मान लेंगे तो और वह सबसे बड़ा धोखा होगा। क्यों कैमरा तो कभी झूठ बोलता नहीं...? लेकिन कैमरे से झूठ छिपाया तो जा सकता है। कमाल है कैसे..? अच्छा अगर कोई न्यूज चैनल वाला अभी टैक्सी रोक कर 26/11 पर आपसे सवाल करे तो आप क्या कहोगे। मै कहूंगा कि जो मारे गये उनके परिजनो के दर्द को मैं महसूस कर सकता हूं। मैं उनके साथ हूं । और मुझसे कोई पूछेगा तो मैं कहूंगा....मुंबई एक है। हमला कहीं भी हो वह हमारे सीने पर होता है । टेरररिज्म के खिलाफ समूची मुंबई एक है। बस मैं भी ताज-नरीमन जा रहा हूं श्रद्धांजलि देने। वह तो एक पैसेन्जर मिल गया। बस इन्हे छोडूंगा और निकल लूंगा।

तो यह जज्बा है? जी जनाब यही जज़्बा है मुंबई का। अगर यह ना कहूं तो फिर यवतमाल और मुंबई में अंतर ही क्या है। यही ग्लैमर है जनाब मुंबई का। आपने जिस दिन यह सच समझ लिया उसी दिन आप मुंबईकर हो जाते हैं। फिर आपका दर्द सभी का हो जाता है और सभी का दर्द आपका। क्योंकि काम करते रहना मुंबई का जज़्बा है । जिसमें चूके तो सबकुछ गया । टेरररिज्म इसमें रुकावट डालता है। आप तो साहब नरीमन हाउस गये होंगे । वह है यहूदियो का लेकिन उसमें तीन सौ से ज्यादा लोग काम करते हैं। एक तो मेरे गांव का भी है। कौन सा गांव ? यवतमाल का खेडका गांव। आप विदर्भ के हो ? जी जनाब उसी यवतमाल का जहां विदर्भ में सबसे किसान आत्महत्या कर रहा है। कर रहा है, मतलब ? मतलब की दो दिन पहले जब सभी न्यूज चैनल में मुबंई को 26/11 कह कर पुकारा जा रहा था, तो उस दिन भी हमारे गाव में मौनू देखमुख ने आत्महत्या कर ली। और यवतमाल में उस दिन कुल तीन किसानों ने आत्महत्या की।

मेरे भी दिमाग में कौंधा की विदर्भ के किशोर तिवारी का एसएमएस 26 नवंबर की रात को आया था कि विदर्भ में छह किसानों ने आत्महत्या कर ली। लेकिन टीवी पर 26/11 को याद करने का जुनून कुछ इस तरह छाया हुआ था कि रात बुलेटिन में मैं भी 10 सेकेंड भी किसानों की आत्महत्या के लिये नहीं निकाल सका। लगा जैसे 26/11 का जायका कहीं खराब ना हो जाये।

अच्छा आप बता रहे थे नरीमन हाउस के बारे में। जी जनाब....अब आप ही बताइये कि जो दो सौ-तीन सौ लोग वहा काम करते हैं, उन्हें 26 नवंबर को तो दिन भर काम ही यही दिया गया कि मोमबत्ती जलाकर श्रदांजलि देनी है। न्यूज चैनलों के कैमरे उन्हें टकटकी लगाकर देखते रहे और जाने क्या कुछ उनके जज्बे को लेकर कहते रहे। लेकिन किसी ने उनसे अगर पूछ लिया होता कि सुबह से मोमबत्ती जलाकर शोक मना रहे हो तो आज की दिहाड़ी कहां से आयेगी। तो खुद ही सच निकल जाता कि यही दिहाड़ी है। और मुबंई में जिस दिन दिहाड़ी से चुके उस दिन जिन्दगी से चूके। और जो जिन्दगी से चुका उसकी जगह दिहाड़ी लेने कोई दूसरा आ जायेगा।

तो क्या 26/11 में जान जाने से ज्यादा तबाही दिहाड़ी जाने में है? अब आप समझ रहे है जनाब। यहां जिन्दगी सस्ती है लेकिन उसकी भी दिहाड़ी मिल जाये तो चलेगा। लेकिन मौत अनमोल है जो बिक जाये तो चलेगा नहीं तो शोक ही चलेगा।

कमाल है अगाशे साहेब....आपका नाम ही फिल्मी कलाकार का नहीं है बल्कि काम और अंदाज भी निराला है। जी, टैक्सी ड्राईवर का नाम मोहन अगाशे ही है। असल में शनिवार 28 नवबंर को मुंबई हवाई अड्डे पर सुबह जब मित्र की कार लेने नहीं पहुची तो मुझे बैग उठाये बाहर टहलते देखकर टैक्सी ड्राइवर खुद ही आ गये और बोले मी मोहन अगाशे जनाब। कुठे चालणार। और इस शख्स के खुलेपन में मैं भी खिंचा सा इन्हीं की टैक्सी में बैठते ही बोला- अंधेरी चलो। अगाशे साहब ने बोलना शुरु किया- मोहन अगाशे के नाम के चक्कर में मै एक मराठी फिल्म में काम भी कर चुका हूं। यवतमाल ही आये थे कलाकार। फिल्म की शूंटिग हमारे गांव के बगल में ही हो रही थी। मराठी फिल्म के बड़े कलाकार नीलू फूले ने मुझे देखते ही कहा था...काम करोगे । फिर मुझे किसान बनाकर कुछ डायलॉग भी बुलवाये। वह मुझे जनाब कहते। फिर कहते वाकई कमाल का काम किया तुमने । अब मैं उन्हें कैसे बताता कि जिस किसान का काम वह मुझसे करवा रहे थे....वही तो मेरे घर में मेरे बाप ने जिन्दगी में किया। सब कुछ चौपट हुआ तो आत्महत्या कर ली ।

तुमने नीलू फूले को बताया
? बताया जनाब । उसी के बाद से तो मुंबई आ गया । उन्होंने कहा फिल्मों में ही काम करो । लेकिन मैंने कहा मुझसे जो कराना है करा लो। लेकिन एक टैक्सी ही खरीदवा दो। वही चलाउंगा। फिल्म में एक्टिंग होती नहीं है, जो जिंन्दगी में देखा हो । पता नहीं फूले जी क्या लगा । उन्होंने साठ हजार रुपये दिलवाये। पुरानी टैक्सी मैंने खरीदी और पिछले नौ साल से टैक्सी चला रहा हूं। तो यवतमाल लौटना नहीं होता ? जाता हूं जनाब । लेकिन मुंबई से लौटता हूं तो यहां की मुश्किलों को यहीं छोड़ कर लौटता हूं। क्यो वहां घर पर कोई नहीं कहता कि मुंबई से वापस घर लौट आओ। वहां तो 26/11 होता रहता है ? साहब यही तो जज़्बा है । लौटता हूं तो मुंबई के किस्से ही गांव वालो को सुनाता हूं ....वह भी उसे सुनकर यही समझते है कि टेररिज्म में भी भी मुबंई वाले खुश रहते हैं। जबकि सच बताऊं मुंबई मौत का सागर है, लेकिन यवतमात तो मौत का कुआं है । अब यहां कुछ बताने या छुपाने की बात नहीं है। जिसे जो अच्छा लगे उसे वहीं दे दो....यही काफी है । ऐसे में अगर मुंबईकर मुंबई की पहचान को ही मिटाने में लग जाये तो वह जायेगा कहां। मुझे लगा यही मुंबईकर का जज्बा है जो मुबंई को जिलाये हुये है। नहीं तो क्या मुंबई का एक 26/11 और यवतमाल में हर दिन 26/11 .....

26/11 यानी हर आंख में आंसू...और दिल में दर्द के प्रायोजक हैं न्यूज़ चैनल

......मोहन आगाशे तो कह सकता है प्रसून....लेकिन अपन किससे कहें। क्यों आपके पास पूरा न्यूज चैनल का मंच है..जो कहना है कहिये..यही काम तो बीते तीन सालों से हो रहा है। यही तो मुश्किल है.....जो हो रहा है वह दिखायी दे रहा है..लेकिन जो करवा रहा है, वही गायब है । असल में शनिवार यानी 28 नवंबर को देर शाम मुबंई में मीडिया से जुडे उन लोगो से मुलाकात हुई जो न्यूज चैनलों में कार्यक्रमों को विज्ञापनों से जोड़ने की रणनीति बनाते हैं। और 26/11 को लेकर कवायद तीन महीने पहले से चलने लगी।

लेकिन किस स्तर पर किस तरह से किस सोच के तहत कार्यक्रम और विज्ञापन जुड़ते हैं, यह मुंबई का अनुभव मेरे लिये 26/11 की घटना से भी अधिक भयावह था। और उसके बाद जो संवाद मुंबई के चंद पत्रकारों के साथ हुआ, जो मराठी और हिन्दी-अग्रेजी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों से जुड़े थे, वह मेरे लिये आतंकवादी कसाब से ज्यादा खतरनाक थे।

जो बातचीत में निकला वह न्यूज चैनलों के मुनाफा बनाने की गलाकाट प्रतियोगिता में किस भावना से काम होता अगर इसे सच माना जाये तो कैसे.....जरा बानगी देखिये। एक न्यूज चैनल में मार्केटिंग का दबाव था कि अगर सालस्कर...कामटे और करकरे की विधवा एक साथ न्यूज चैनल पर आ जायें और उनके जरिये तीनो के पति की मौत की खबर मिलने पर उस पहली प्रतिक्रिया का रिक्रियेशन करें और फिर इन तीनो को सूत्रधार बनाकर कार्यक्रम बनाया जाये तो इसके खासे प्रयोजक मिल सकते हैं । अगर एक घंटे का प्रोग्राम बनेगा तो
20-25 मिनट का विज्ञापन तो मार्केटिग वाले जुगाड लेंगे। यानी 10 से 15 लाख रुपये तो तय मानिये।

वहीं एक प्रोग्राम शहीद संदीप उन्नीकृष्णन के पिता के उन्नीकृष्णन के ऊपर बनाया जा सकता है । मार्केटिंग वाले प्रोग्रामिंग विभाग से और प्रोग्रामिग विभाग संपादकीय विभाग से इस बात की गांरटी चाहता था कि प्रोग्राम का मजा तभी है, जब शहीद बेटे के पिता के. उन्नीकृष्णन उसी तर्ज पर आक्रोष से छलछला जायें, जैसे बेटे की मौत पर वामपंथी मुख्यमंत्री के आंसू बहाने के लिये अपने घर आने पर उन्होंने झडक दिया था। यानी बाप के जवान बेटे को खोने का दर्द और राजनीति साधने का नेताओ के प्रयास पर यह प्रोग्राम हो।

विज्ञापन जुगाड़ने वालो का दावा था कि अगर इस प्रोग्राम के इसी स्वरुप पर संपादक ठप्पा लगा दे तो एक घंटे के प्रोग्राम के लिये ब्रांडेड कंपनियो का विज्ञापन मिल सकता है ।
8 से 10 लाख की कमायी आसानी से हो सकती है। वहीं विज्ञापन जुगाड़ने वाले विभाग का मानना था कि अगर लियोपोल्ड कैफे के भीतर से कोई प्रोग्राम ठीक रात दस बजे लाइव हो जाये तो बात ही क्या है। खासकर लियोपोल्ड के पब और डांस फ्लोर दोनों जगहों पर रिपोर्टर रहें। जो एहसास कराये कि बीयर की चुस्की और डांस की मस्ती के बीच किस तरह आतंकवादी वहां गोलियों की बौछार करते हुये घुस गये। .....कैसे तेज धुन में थिरकते लोगों को इसका एहसास ही नहीं हुआ कि नीचे पब में गोलियों से लोग मारे जा रहे हैं.....यानी सबकुछ लाइव की सिचुएशन पैदा कर दी जाये तो यह प्रोग्राम अप-मार्केट हो सकता है, जिसमें विज्ञापन के जरीये दस-पन्द्रह लाख आसानी से बनाये जा सकते हैं।

और अगर लाइव करने में खर्चेा ज्यादा होगा तो हम लियोपोल्ड कैफे को समूचे प्राईम टाइम से जोड़ देंगे। जिसमें कई तरह के विज्ञापन मिल सकते हैं। यानी बीच बीच में लियोपोल्ड दिखाते रहेंगे और एक्सक्लूसिवली दस बजे। इससे खासी कमाई चैनल को हो सकती है । लेकिन मजा तभी है जब बीयर की चुस्की और डांस फ्लोर की थिरकन साथ साथ रहे। एक न्यूज चैनल लीक से हटकर कार्यक्रम बनाना चाहता था। जिसमें बच्चों की कहानी कही जाये। यानी जिनके मां-बाप
26/11 हादसे में मारे गये......उन बच्चों की रोती बिलकती आंखों में भी उसे चैनल के लिये गाढ़ी कमाई नजर आ रही थी। सुझाव यह भी था कि इस कार्यक्रम की सूत्रधार अगर देविका रोतावन हो जाये तो बात ही क्या है। देविका दस साल की वही लड़की है, जिसने कसाब को पहचाना और अदालत में जा कर गवाही भी दी।

एक चैनल चाहता था एनएसजी यानी राष्ट्रीय सुरक्षा जवानो के उन परिवारो के साथ जो
26/11 आपरेशन में शामिल हुये । खासकर जो हेलीकाप्टर से नरीमन हाऱस पर उतरे। उसमें चैनल का आईडिया यही था कि परिजनो के साथ बैठकर उस दौरान की फुटेज दिखाते हुये बच्चों या पत्नियो से पूछें कि उनके दिल पर क्या बीत रही थी जब वे हेलीकाप्टर से अपनी पतियों को उतरते हुये देख रही थीं। उन्हें लग रहा था कि वह बच जायेंगे। या फिर कुछ और.......जाहिर है इस प्रोग्राम के लिये भी लाखों की कमाई चैनल वालो ने सोच रखी थी।

26/11 किस तरह किसी उत्सव की तरह चैनलों के लिय़े था, इसका अंदाज बात से लग सकता है कि दीपावली से लेकर न्यू इयर और बीत में आने वाले क्रिसमस डे के प्रोग्राम से ज्यादा की कमाई का आंकलन 26/11 को लेकर हर चैनल में था। और मुनाफा बनाने की होड़ ने हर उस दिमाग को क्रियटिव और अंसवेदवशील बना दिया था जो कभी मीडिया को लोगों की जरुरत और सरकार पर लगाम के लिये काम करता था।

जाहिर है न्यूज चैनलों ने
26/11 को जिस तरह राष्ट्रभक्ति और आतंक के खिलाफ मुहिम से जोड़ा, उससे दिनभर कमोवेश हर चैनल को देखकर यही लगा कि अगर टीवी ना होता तो बेडरुम और ड्राइंग रुम तक 26/11 का आक्रोष और दर्द दोनों नहीं पहुंच पाते । लेकिन 26/11 की पहली बरसी के 48 घंटे बाद ही मुबंई ने यह एहसास भी करा दिया कि आर्थिक विकास का मतलब क्या है और मुंबई क्यों देश की आर्थिक राजधानी है। और कमाई के लिये कैसे न्यूज चैनल ब्रांड में तब्दील कर देते है 26/11 को। याद किजिये मुबंई हमलों के दो दिन बाद प्रधानमंत्री 28/11/2008 को देश के नाम अपने संबोधन में किस तरह डरे-सहमे से जवानों के गुण गा रहे थे। वही प्रधानमंत्री मुंबई हमलों की पहली बरसी पर देश में नहीं थे बल्कि अमेरिका में थे और घटना के एक साल बाद 25/11/2009 को अमेरिकी जमीन से ही पाकिस्तान को चुनौती दे रहे थे कि गुनाहगारो को बख्शा नहीं जायेगा। तो यही है 26/11 की हकीकत, जिसमें टैक्सी ड्राइवर मोहन आगाशे का अपना दर्द है.......न्यूज चैनलो की अपनी पूंजी भक्ति और प्रधानमंत्री की जज्बे को जिलाने की अपनी राष्ट्र भक्ति। आपको जो ठीक लगे उसे अपना लीजिये

मुलायम अखाड़े में कुश्ती होगी या नूरा कुश्ती

23 नवंबर 2009 को संसद में मुलायम को कहना पड़ा कि 1992 में बाबरी मस्जिद की असल लड़ाई उन्होंने ही लड़ी थी। और संकेत में यह भी कह गये कि कहीं ऐसा न हो कि दुबारा नब्बे के दशक के दौर की परिस्थितियां आ जाये। मुलायम यह बात और किसी को देखकर नहीं कह रहे थे बल्कि उनकी नजरें और जवाब दोनों आडवाणी की तरफ था। उनके ठीक पहले आडवाणी ने मंदिर के लिये मर मिटने की तान छेड़ी थी। तो क्या यह संकेत मुलायम को अपनी पुरानी राजनीति में लौटने की है।

संयोग देखिये 1992 में कांशीराम को इटावा संसदीय सीट से उपचुनाव जीतने में मुलायम की जरुरत पड़ी थी और 2009 में इटावा विधानसभा उप चुनाव में मायावती ने मुलायम को पटखनी दे दी। तो क्या मुलायम की राजनीति का चक्र पूरा हो चुका है। क्योंकि जो राजनीतिक जमीन नब्बे के दशक में मुलायम बनाते रहे, वह 2009 में चूक चुके है। अगर राजनीतिक बिसात पर पहली एफआईआर दर्ज हो तो लिखा जा सकता है....हां।

लेकिन मुलायम की बिसात की एक-एक तह को हटाया जाये तो राजनीतिक चूक की एफआईआर में शायद... हां-नहीं दोनों लिखना होगा। और मुलायम को परखने का एक मौका और देना होगा। राजनीतिक तौर पर मुलायम की शुरुआत शिकोहाबाद से हुई, जहां समाजवादी नेता नत्थू सिंह ने नगला अंबर की प्रतियोगिता में मुलायम को अपने से बडे पहलवान को चित्त करते देखा। बस मुलायम की यही अदा नत्थू सिंह को भा गयी, जो सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से जसवंतनगर से चुनाव लड़ रहे थे। मुलायम ने जमकर चुनाव प्रचार किया। नत्थू जीते और मुलायम के राजनीतिक गुरु बन गये। गैर-कांग्रेस का पहला पाठ मुलायम ने इसी वक्त पढ़ा और उसे अपनी रगों में कैसे दौड़ाया यह 14 जुलाई 1966 को तब नजर आया, जब कांग्रेस सरकार की नीतियों के खिलाफ उत्तर प्रदेश बंद का ऐलान किया गया। और जो दो जिले पूरी तरह बंद रहे, उनमें जसवंतनगर और इटावा ही थे और इसके हीरो और कोई नहीं मुलायम सिंह यादव ही रहे। इसीलिये कुछ दिनो बाद राममनोहर लोहिया जब इटावा पहुचे तो मुलायम से मिले। मुलायम के कंघे पर हाथ रखकर कहा ....यह कल का भविष्य है। और इसे अगले ही साल 1967 में मुलायम ने जसवंतनगर सीट पर कांग्रेस के दिग्गज लाखन सिंह को चित्त कर साबित भी कर दिया। मुलायम ने 28 साल पूरे नहीं किये थे और चुनावी जीत के साथ अपने चाहने वालों को बता दिया कि उनके लिये राजनीतिक मैदान भी अखाड़े की तरह है, जहां बड़ों-बड़ों को वह चित्त करेंगे।

पहली राजनीतिक पहल मुलायम की तरफ से अलाभकारी खेती पर टैक्स माफ, अंग्रेजी पर प्रतिबंध और फौजदारी कानून के प्रतिक्रियावादी अनुच्छेदों को मुल्तवी करने की खुली वकालत से शुरु हुआ। लेकिन मुलायम उस दौर में एक साथ कई पांसो को संभालते थे। ब्राह्मण विरोध के लिये आरक्षण का समर्थन किया और युवकों को साथ लाने के लिये उनके सामाजिक और आर्थिक मसलों को उठाया। 18 मार्च 1975 को जब जेपी संपूर्ण क्रांति का नारा दे रहे थे, उस दिन विधानसभा में मुलायम कह रहे थे... नौजवानो की नाराजगी की वजह सामाजिक और आर्थिक है। अपने ही बच्चों के खिलाफ सरकार लाठी, गोली, डीआईआर, मीसा और गुंडा एक्ट का इस्तेमाल कर अच्छा नहीं कर रही है। ...अपनी कुर्सी बचाने के लिये सरकार दमन कर के लाठी चार्ज करवा कर अपनी कब्र खोद रही है। मुलायम के इस रुख ने गैरकांग्रेसवाद की राजनीति में युवाओं को एक समाजवादी नायक दिया, जिसकी बिसात पर हर तबके को साथ जोड़ते हुये भी एक नयी राजनीति की महक दिखायी दे रही थी। इस राजनीति का लाभ मुलायम को अस्सी के दशक के दौर में तब मिला, जब वीपी सिंह दस्यु विरोधी अभियान के नाम पर फर्जी इनकाउंटर में पिछडे युवाओं को निशाना बना रही थी।

मुलायम ने इसी दौर में आंदोलन छेड़ा। आंदोलन छेड़ा कैसे जाता है, मुलायम ने एक नयी परिभाषा दी। पुलिसिया आतंक से सड़क पर सीधा संघर्ष किया और सरकार के तौर तरीकों के खिलाफ यानी फर्जी मुठभेड़ों के खिलाफ खुद ही अखबारों में लेख लिखने से लेकर मानवाधिकार संगठन एमेनस्टी इंटरनेशनल तक को बेकसूरों की सूची भेजी। अपने कैनवास को राजनीतिक तौर पर मुलायम ने नया आयाम तब दिया जब राजीव गांधी ने उत्तर प्रदेश की गद्दी पर वीर बहादुर सिंह को बैठा दिया। मुलायम ने कटाक्ष किया...जहां कभी गोविंद वल्लभ पंत बैठते थे, वहां आप जैसे माफिया का बैठना भी जनता को देखना था। बिलकुल लोहियावादी शैली में मुलायम ने कांग्रेस को घेरा। राजनीतिक माफिया और माफिया की राजनीति को जन्म देने वाली कांग्रेस को घेरा। और इसी के सामानांतर साप्रंदायिक दंगे, भ्रष्टाचार,बिजली,हरिजन और किसानों की समस्याओ को उठाया। लेकिन मुलायम की इस राजनीतिक बिसात में सत्ता कही नहीं थी। वहीं 5 दिसंबर 1989 को लखनउ के कुंवर दिग्विजय सिंह स्टेडियम में राज्य की सर्वोच्च गद्दी की शपथ लेने के साथ ही यही बिसात उलटने लगी जो इटावा से लखनऊ तक तो पहुंचाती थी, लेकिन इसके आगे की पटरी किसी को पता नहीं थी। अब मुलायम की छाती पर जो तमगे लग रहे थे वह गैर कांग्रेसवाद से छिटक कर गैर भाजपा की दिशा में ले गये।

मुलायम की राजनीतिक पटरी सांप्रदायिकता के खिलाफ चलते हुये बहुसंख्यक तबके को समाजवादी नीति तले एकजूट करने वाली होनी थी। लेकिन साप्रंदायिकता के खिलाफ सवारी करते मुलायम बाबरी मस्जिद की रक्षा में इस तरह उतरे की कल्याण सिंह से लोहा लेते भी मुलायम नजर आ रहे थे और कल्याण को राम बनाकर खुद मौलाना होना भी उन्हें अच्छा लग रहा था। यानी मुलायम एक कुशल नट की तरह समाजवादी बने रहने को राज्य में परिभाषित करने में लगे रहे तो दूसरी तरफ वीपी,देवीलाल,चन्द्रशेखर गुटों में संतुलन बनाने का खेल भी खेल रहे थे। वह टिकैत को लखनऊ आने से और स्वरुपानंद सरस्वती को अयोध्या जाने से रोकने में भी सफल हुये। लेकिन 1991 में सत्ता जब फिसली तो मुलायम खुद इतने फिसल चुके थे कि उनकी मौजूदगी हिन्दी का सवाल उठाने और बाबरी मस्जिद की रक्षा करने वाले तक जा सिमटी। इसी सिमटती राजनीति को तोड़ने के लिये मुलायम ने 1992 में इटावा से कांशीराम को जीता कर दलित मुख्यता जाटव और यादव वोटों की एकता बनायी। मुसलमान भी उनके साथ जुड़े। कांशीराम ने सपा-बसपा गठजोड को लोहिया-आंबेडकर के छोडे गये कार्यो को पूरा करने के उद्देश्य से जोड़ दिया। लेकिन बाबरी मस्जिद गिरायी गयी तो मुसलमान मुलायम के पीछे थे। अछूत कांशीराम के और सवर्ण भाजपा के।

जाहिर है यही वह राजनीति है जो कांग्रेस को हाशिये पर ले जाती है। इसे मुलायम नहीं समझ पाये। लेकिन मायावती ने इसी काट को समझा कि अगर कांग्रेस इस तिकडी में दखल देने आ जाये तो मुलायम की जमीन खिसकायी जा सकती है। इसलिये मायावती ने खुद के खिलाफ हमेशा कांग्रेस को तरजीह दी। और इसी दौर में मुलायम के काग्रेस प्रेम से लेकर कल्याण प्रेम किसी से छुपा नहीं। और संकीर्ण यादवो के साथ भी रोटी-बेटी के संबंधो को ना निभा पाना भी भारी पड़ा। लेकिन अब जब मुलायम को अपनी राजनीतिक जमीन पर ही पटखनी मिली है तो पहला काम वह यही कर रहे हैं कि कल्याण और कांग्रेस से पल्ला झाड़ रहे हैं। और इसमें कल्याण सिंह अब यह कर मदद कर रहे है कि उनका काम तो हिन्दुत्व को जगाने और रक्षा करने का है। लेकिन मुलायम समझ रहे हैं कि गोमती किनारे खड़े होकर वह बाबरी ढांचे का राग नहीं अलाप पायेंगे। क्योकि आजम खान की माने तो , बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद मुलायम ने पहला टेलीफोन बेनी प्रसाद वर्मा को किया था...और कहा था अब सत्ता भी मिल जायेगी....खामोश हो जाइये। लेकिन अब सवाल यही है कि मुलायम अपनी पुरानी राजनीति पर लौटते हुये अपनी बिसात बिछाते है या बिछ रही राजनीतिक बिसात में फिर अपने उन्हीं मोहरो को बचाने में जुटते हैं, जिन्होंने अपने ही अखाड़े में मुलायम को चित्त करा दिया।


अमिताभ बच्चन से साक्षात्कार

सत्तर के दशक का विद्रोही, अस्सी के दशक का बगावती, और नब्बे में शहँशाह और इक्क्सवीं सदी में पा, जी पापा... लेकिन सवाल है ये सारे चरित्र जिस समाज के भीतर सिनेमाई सिलवर स्क्रीन पर जो शख्स जीता है, वो जिन्न होना चाहता है। वो शख्स साथ ही है हमारे। अमिताभ जी, तमाम चरित्रों को जीने के बाद जिन्न का खयाल आपके जहन में आया या लगा कि समाज वैसा हो गया है?
यह ख़्याल आया दरअसल निर्देशक के दिमाग़ में, हमारे दिमाग़ में तो हमको काम करने का एक अवसर मिल गया... और इस उम्र में काम मिलना बड़ा कठिन होता है, तो जब उन्होंने हमारे सामने ये प्रस्ताव रखा जिन्न का, तो हमने स्वीकार कर लिया। बचपन में कहानी सुनी थी अलादीन की और जिस तरह से सुजॉय ने इस कहानी को... इसकी पठकथा को बनाया, उससे लगा कि ये उस तरह की कहानी नहीं है, उसके गुण वही हैं। लेकिन उसको थोड़ा सा कन्टेम्प्रराइज़ कर दिया है आजकल के ज़माने के लिए।

यह जवाब एक कलाकार दे तो ठीक है लेकिन अमिताभ बच्चन दे, ये पचता नहीं है।
नहीं, सही कह रहा हूँ मैं। इसके अलावा मेरे मन के अन्दर कुछ और बात ही नहीं है।

हरिवंशराय बच्चन के बेटे हैं, नेहरू परिवार के क़रीबी, उस दशक को देखा, उस दौर को देखा जिस दौर में इमरजेंसी, उस दौर को देखा जब राजनीति हाशिए पर, जनता के बीच एक कुलबुलाहट... तमाम चरित्रों को जीने के बाद अब लगता है कि समाज में एक जिन्न की जरूरत आन पड़ी है?
काश कि ऐसा हो सकता, तो मैं अवश्य जिन्न बनता और बहुत सारे सुधार लाने का प्रयत्न करता। लेकिन हूँ नहीं ऐसा।

इस फ़िल्म के जरिए लगता नहीं है कि वो तमाम मिथ टूटेंगे, जो नॉस्टालजिआ है आपको लेकर?
नहीं, ऐसा तो नहीं है। मैं नहीं मानता हूँ कि... ये जीवन है, ये संसार है, इसमें मुलाक़ातें होती रहती हैं, लोग बिछड़ जाते हैं, नए मित्र मिलते हैं, सब जीवन है, इसके साथ हम...

ये नॉस्टेलजिआ हमने देखा कि हाल में जब छोटे पर्दे पर आप दुबारा आए बिग बी के जरिए, तो शुरुआत में उन तमाम चरित्रों के उन बेहतरीन डायलॉग्स को दुबारा दिखाया गया, जिसके जरिए आपकी पहचान है और लोगों की कहें तो आप शिराओं में दौड़ते थे। उसको उभारने की जरूरत क्यों पड़ी? क्योंकि मेरे ख्याल से आपकी छवि उसी में दिखाई देती है।
ये जो प्रोड्यूसर हैं टेलिविज़न चैनल के, उनकी ऐसी धारणा थी कि इस तरह का कुछ एक प्रज़ेंटेशन करना चाहिए, ये उनका क्रियेटिव डिसीज़न था। मैं उसमें मानता नहीं हूँ। ये केवल एक किरदार है और यदि लोग उन किरदारों से मेरा संबंध बनना चाहते हैं, तो मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ।

अमिताभ बच्चन महज एक किरदार हैं?
सिनेमा के लिए... और व्यक्तिगत जीवन में एक अलग किरदार है।

निजी जीवन का निर्णय था या सिनेमाई जीवन की तर्ज पर निर्णय था कि कभी राजनीति में आ गए थे आप?
हाँ, उसमें व्यक्तिगत निर्णय था ये। हमारे मित्र थे राजीवजी और लगा कि उस समय जो दुर्घटना हुई देश में, उस समय एक नौजवान देश की बागडोर को सम्हालने के लिए खड़ा हो रहा है। तो ऐसा मन हुआ कि हमें उसके साथ रहना चाहिए, उसके पीछे रहना चाहिए, उसका हाथ बँटाना चाहिए, तो हमने अपने आप को समर्पित किया और उन्होंने हमसे कहा कि आप चुनाव लड़िए, तो हम इलाहबाद से चुनाव लड़ गए और भाग्यवश उसे जीत गए बहुत ही दिग्गज हेमवती नन्दन बहुगणा जी के सामने। और फिर जब पार्लियामेंट में आए और धीरे-धीरे जब राजनीति को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला, तो लगा कि हम इस लायक नहीं है कि हम राजनीति कर सकें, हमें राजनीति आती नहीं थी और हमने अपने आप को असमर्थ समझा राजनीति में रहने के क़ाबिल और इसलिए हमने वहाँ से त्यागपत्र दे दिया।

आपकी हम एक किताब देख रहे थे, सुदीप बंधोपाध्याय ने लिखी है, उस पीरियड में आपने कहा है कि पिताजी कहते थे कि जिन्दगी में मन का हो तो अच्छा और न हो तो बहुत अच्छा...
ज़्यादा अच्छा।

...तो ज्यादा अच्छा, तो आपको क्या लगता है कि ज्यादा अच्छा हुआ कि कम अच्छा हुआ?
ज़्यादा अच्छा हुआ।

और व्यक्तिगत तौर पर आपके जीवन में सब कुछ ज्यादा ही अच्छा होता रहा है?
जब कभी ऐसा लगा कि मन का नहीं हो रहा है या मन के अन्दर ऐसी भावना पैदा हुई कि अरे! यदि ये ऐसा क्यों नहीं हुआ, ये तो ग़लत हो गया... लेकिन फिर थोड़ी-सी सांत्वना हम लेते हैं जो बाबूजी की सिखाई बातें हैं, कि अगर हमारे मन का नहीं हो रहा है तो फिर ईश्वर के मन का हो रहा है। और फिर वो तो हमारे लिए अच्छा ही चाहेगा।

कुछ पीड़ा नहीं होती है कि एक दौर में अमिताभ बच्चन सिल्वर स्क्रीन के जरिए लोगों के अन्दर समाया हुआ था... वो कह सकते हैं कि वो टीम-वर्क था, सलीम-जावेद की अपनी जोड़ी थी, किशोर कुमार का गीत था, लेकिन धीरे-धीरे जो सारी चीजें खत्म होती गयीं, तो अमिताभ भी खत्म होता गया।
कलाकार के जीवन में होगा ऐसा। एक बार शुरुआत में अगर आप चरम सीमा छू लेंगे तो वहाँ से फिर आपको नीचे ही उतरना है। ये जीवन है।

नहीं-नहीं, चरम पर तो अब भी आप ही हैं...
नहीं-नहीं, ऐसा कहना ग़लत है। न...

कोई और लगता है?
और क्या, बहुत सारे। जितनी नौजवान पीढ़ी है, वो सब है।

नहीं, नौजवान पीढ़ी उम्र के लिहाज से है। हम एक्टिंग के लिहाज से कह रहे हैं।
नहीं-नहीं, वो तो जनता बताएगी न।

जनता तो बताती है। तभी तो आपको एक्सेप्ट करती है।
तो ये मेरा भाग्य है कि कुछ फ़िल्में जो हैं देख लेती है, कुछ नहीं देखती है, कुछ उसकी आलोचना करती है। पर ये उम्र के साथ होगा... अब धीरे-धीरे हमारा जो है शान्ति हो जाएगी, हमारी जो लौ है वो धीमी पड़ जाएगी और एक दिन बुझ जाएगी।

अक्सर कहते थे... कि उस दौर में आपसे पूछा जाता था कि ये आक्रोश आपके भीतर कहाँ से आता है? आप कहते मैंने वो पीड़ा देखी है, पीड़ा भोगी है, पिता के संघर्ष को देखा है।
नहीं, मैंने ये कहा था कि मैं मानता हूँ कि प्रत्येक इंसान के अन्दर कहीं-न-कहीं क्रोध होता है, और वो सबके अन्दर होता है और यदि उसके साथ अन्याय होगा तो वो क्रोध निकलता है। मेरे अन्दर से इस प्रकार से निकला जिस प्रकार लेखकों ने जो पटकथा थी, उसे लिखा और जिस प्रकार जनता ने जो देखा, उसे पसंद आया, तो वो एक व्यवसाय बन गया। लेकिन मैं ऐसा मानता हूँ कि आपके अन्दर भी उतना ही क्रोध है जितना मेरे अन्दर है और यदि आपके साथ भी वही अन्याय होगा जो आम आदमी के साथ होता है, तो आपके अन्दर से भी वही क्रोध निकलेगा। उसमें कोई ऐसी बड़ी बात नहीं है।

अब नहीं आता है किसी बात पर क्रोध?
नहीं, अब आता है और उसे हम व्यक्त भी करते हैं।

मसलन?
कई ऐसी बातें होती हैं, निजी बातें होती हैं, व्यक्तिगत बातें होती हैं।

कोई पीड़ा नहीं होती है कि जिस मित्र की वजह से आप उस चीज को छोड़ के आ गए जो आपके जीवन का एक बड़ा हिस्सा था, एक सपना था? आप राजनीति में आ गए और उसी परिवार की वजह से आपको कहना पड़ता है “वो राजा हैं, हम रंक हैं”। ये सब भाव कहीं आता है?
मैंने उस बात से कभी अपने आप को दूर नहीं किया है। मैं तब भी मानता था और अब भी मानता हूँ।

आप छवि देखते हैं अपने मित्र की राहुल के भीतर?
हो सकता है...

नहीं, आप देखते हैं?
वो हमारे सामने पैदा हुए हैं और वो होनहार हैं, शिक्षित हैं और उनके हृदय में, मैं ऐदा मानता हूँ, दिल है।

नहीं, अकस्मात राजीव गांधी को देश सम्हालना पड़ा था। अकस्मात आपका आगमन हो गया था। शायद कहा गया बाद में कि आपने भावावेश में एक निर्णय ले लिया था?
हो सकता है। मैंने स्वयं माना है इस बात को कि ये एक भावनात्मक निर्णय था और मैं ऐसा मानता हूँ कि राजनीति में भावना जो है, उसका कोई दर्जा नहीं होता है।

भावनाएँ मायने नहीं रखती हैं?
नहीं।

ईमानदारी?
हो सकता है। मैं ऐसा मानाता हूँ कि बहुत से लोग हैं जो ईमानदारी से राजनीति करते हैं। वो चलती है, नहीं चलती – इसका मैं विवरण नहीं कर सकता।

वो लायक हैं, समझदार हैं, पढ़े-लिखे हैं...
जी, सभी हैं।

उनमें एक छवि भी देखते हैं कि वो देश को भी सम्हाल सकते हैं वो शख्स... राहुल गांधी?
क्यों नहीं, क्यों नहीं सम्हाल सकते। अगर जिस तरह से... और ये तो जनता बताएगी जब वो...

नहीं, हमें लगता है कि पता नहीं खाली बात कहते हैं, निकल जाते हैं दाएँ-बाएँ से, देश कोई और सम्हाल रहा है, आपके पास पावर है आप कुछ भी कह दीजिए... हमें ऐसा लगता है।
इतनी अगर मुझमें जिज्ञासा होती तो मैं राजनीति में होता, लेकिन मैं हूँ नहीं। इतनी जिज्ञासा मुझमें है नहीं कि किसी को परख सकूँ।

आपके मित्र राजनीति में हैं, पत्नी राजनीति में हैं।
जी।

फिर कैसे माना जाए आप नहीं हैं?
ये उनका अपना निर्णय है। मैं अमर सिंह जी से न कभी राजनीति की बात करता हूँ और न ही जया से। और न ही अमर सिंह जी मेरे से फ़िल्मों की बातें करते हैं कि आपने ऐसा किरदार क्यों किया, या ऐसी एक्टिंग क्यों की।

नहीं, वो तमाम प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में आपकी बड़ी तारीफ़ करते हैं आपकी - देखिए कमाल की एक्टिंग की है।
ठीक है, हम भी उनकी तारीफ़ करते हैं। और मैं उनको मित्र थोड़े न मानता हूँ, उनको परिवार का एक सदस्य मानता हूँ।

क्या आपको कहीं महसूस कभी होता है कि अब जो बॉलीवुड जिस रंग में रंग चुका है...
भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री, “बॉलीवुड” शब्द से हमको...

अच्छा ठीक है, भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री... इंडस्ट्री ही हो गयी है सिर्फ़, फ़िल्म गायब हो गया है?
नहीं, ऐसा नहीं है। फ़िल्म की वजह से ही है। इंडस्ट्री एक नाम कहते हैं, क्योंकि यहाँ पर व्यवसाय होता है। लोग काम करते हैं।

हम प्रोमो देख रहे हैं अलादीन का। आप नाक पकड़ते हैं, वो कुछ गुब्बारे की तरह फूल... क्या है ये? मतलब ये तो कमाल है न? ऐसा होता नहीं है जबकि।
जादू है, जिन्न का जादू। सिनेमा भी तो एक तरह से जादू है। सिंगल डाइमेंशन है, कहाँ थ्री डाइमेंशन है। कहाँ बैकग्राउण्ड म्यूज़िक बजता है, जब आप अपने निजी जीवन में किसी को मारते हैं या किसी के साथ प्रेम करते हैं। कभी सुना है आपने? यह एक मीडियम है।

ये भटकाव नहीं है?
नहीं।

वजह क्या है इसकी कि इस तरह की फ़िल्में होने लगीं?
हर क्रियेटिव इंसान को ये छूट मिलनी चाहिए कि वो अपनी क्रिएटिविटी को व्यक्त करे और फ़्रीडम मिले उसे। अगर हम एक प्रजातन्त्र में रह रहे हैं, तो हमें फ़्रीडम मिलना चाहिए एक्स्प्रेशन का, वो हमारे कॉन्स्टिट्यूशन में लिखा हुआ है।

कुछ भी किया जाए? कैसे भी पैसा कमाया जाए?
नहीं-नहीं, पैसा तो आप सभी कमा रहे हैं। आप भी कमा रहे हैं, हम भी कमा रहे हैं।

तरीका कुछ भी हो?
हाँ।

कोई भी तरीका आजमाया जा सकता है?
नहीं, हम यह नहीं कह रहे हैं। कानून के अनुसार, माध्यम के जो... जो माध्यम हमको दिया हुआ है कॉन्स्टीट्यूशन के अनुसार, उसके माध्यम से हम अगर पैसा कमा रहे हैं तो सही है।

कई बार पता नहीं क्यों ये फ़ीलिंग होती है कि अमिताभ बच्चन अपनी जो मौलिक चीज़ें थीं, उसे छोड़ रहा है। मसलन हमने बिग बॉस में बड़ा लम्बा-चौड़ा आप पर आर्टिकल लिखा भी है। आपका चश्मा जो है, आपकी आई कॉण्टेक्ट में रुकावट डालता है जो दर्शकों के साथ होता था। और उसमें वो नजर आ रहा था बहुत क्लीयर। तो हमें बड़ा अजीबो-गरीब लग रहा था, हम बोले ये यार क्या मतलब है इससे ये आई कॉण्टेक्ट...
अब क्या करें अगर वृद्धावस्था है, नज़र धुंधली हो गयी है।

अच्छा, राजनीति में जिस समय आपमें अरुचि पैदा हो रही थी, उस समय एक मीटिंग करायी गयी थी केतन देसाई के द्वारा आपकी और अनिल अम्बानी की। उस समय उन्होंने एक पत्र दिया था आपको, जो फ़ेयरफ़ेक्स के जरिए जांच का था, वो भी हमने आपकी बायोग्राफ़ी में चूँकि देखा है, तो हमें लगता है कि वो हिस्सा होगा आपके...
मुझे इसका कोई ज्ञान नहीं है।

नहीं याद है?
न।

तब से आपकी दोस्ती हो चली अनिल अम्बानी से और अम्बानी परिवार से। तभी से वो चली आ रही है?
जी हाँ, जी हाँ। बहुत पुरानी दोस्ती है।

एक तरफ़ अमर सिंह हैं, एक तरफ़ अनिल अम्बानी, बीच में अमिताभ – ये शख्सियत तो देश को भी हिला सकते हैं अगर तय कर लें कि राजनीति...
ये आप लोगों की नज़र से ऐसा होगा, हम तो कभी इसे ऐसा देखते नहीं और न ही कभी हम मानते हैं। हमें जो चीज़ें एक मित्र की हैसियत से अच्छी लगती हैं, उसे हम करते हैं। हमने कभी इसको इस नज़र से नहीं देखा कि ये बहुत बड़े उद्योगपति हैं या अमर सिंह जी बहुत बड़े राजनीतिज्ञ हैं। हमें उनकी दोस्ती, उनका प्यार, उनका स्नेह मिलता है और उसी के अनुसार हम अपना जीवन व्यतीत करते हैं।

फ़िल्म इंडस्ट्री में माना जाता है एक तरफ़ ख़ान बन्धु, हम उसका जिक्र नहीं करेंगे, लेकिन दूसरी तरफ़ ठाकरे बंधु – ये जीवन को प्रभावित करता है आपके?
किस नज़रिए से आप कहना चाह रहे हैं प्रभावित करता है?

एक ऐसा शख्स जो आपका फ़ैन भी है, वही शख्स कहता है कि अमिताभ बच्चन तो यूपी चले जाएँ।
जी, जी।

दर्द नहीं होता है कि क्या है ये?
ये प्रजातन्त्र है। हर एक को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की छूट है। ये भारत देश जो है, यहाँ सबको उतनी ही आज़ादी है, वो किसी भी जगह पर जा कर रहें। मैंने ऐसे चुना है कि मैं मुम्बई में आ कर के रहूँ और वहाँ पर रहूँ, जियूँ, सब-कुछ मुझे उसी शहर से मिला है। अब मैं उसे छोड़कर कहाँ जाऊँगा? अब उनके कहने से और करने से इसपर मैं आलोचना करूँ या उसको स्वीकार करूँ, इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। उनको जो कहना था, सो उन्होंने कह दिया है। लेकिन मैं तो मुम्बई में ही रहूँगा। क़ानूनन मुझे बताइए अगर मैं कोई ग़लत काम कर रहा हूँ?

नहीं-नहीं, आप गलत नहीं कह रहे हैं। हम कह रहे हैं कि आपकी अपनी शख्सियत, अपनी जो पहचान है...
ये होना चाहिए, ये होता है कई बार। कई लोग ऐसे होते हैं जो जब पब्लिक लाइफ़ में होते हैं या जो सिलेब्रिटी होते हैं, उनके ख़िलाफ़ बहुत-सी बातें कही जाती हैं। उनके ऊपर अन्याय होता है, क़ानूनन बहुत-सी चीज़ें हो जाती हैं, आरोप लगाए जाते हैं। ये होता है, ये जीवन है। हमारे साथ बहुत हुआ है। शायद ज़रूरत से ज़्यादा हुआ है। लेकिन मैं ऐसे मानता हूँ कि शुरु-शुरू में जब ये इसकी शुरुआत हुई थी, तो मुझे लगा कि ये क्यों हो रहा है और ये ग़लत चीज़ हो रही है और उससे बहुत कष्ट हुआ है, दुःख हुआ है। लेकिन अब मैंने मान लिया है कि हमारा जीवन ऐसा है, जहाँ पर हमारे ऊपर इस तरह के आरोप लगाए जाएंगे। यदि वो आरोप सही हैं, तो उसका हमें दण्ड दीजिए। लेकिन अगर सही नहीं हैं, तो हमें उसे सहना पड़ेगा।

कई दशकों से आपका एक दौर देखा गया है...
अरे, तो क्या... उसमें कौन-सी बड़ी बात हो गयी?

नहीं देखा गया?
नहीं।

चलिए आगे बढ़ते हैं। जो बालीवुड में अभी फ़िल्में बन रही हैं, आपको अच्छी लगती हैं। गुरुदत्त भी अच्छे लगते हैं, दिलीप कुमार साहब की आपको एक्टिंग भी अच्छी लगती थी और माना जाता था कुछ छवि भी वो दिखाई देती थी। अब के दौर में जब शाहरुख खान खड़े होते हैं, सलमान खान खड़े होते हैं। लगता क्या है कि अमिताभ बच्चन एक ऐसी जगह खड़ा है, जो एक तरफ़ यह परिस्थितियाँ थीं और दूसरी तरफ़ ये परिस्थितियाँ हैं।
नहीं, जो आपने कहा “ये परिस्थितियाँ हैं”, इस पर मुझे ऐसा लगा कि आप कह रहे हैं थोड़ी-सी कमज़ोरी है उनमें। मैं ऐसा नहीं मानता हूँ कि उनमें कोई कमज़ोरी है। सब अपनी-अपनी जगह सक्षम हैं और सब अपनी-अपनी जगह पर हैं। मैं ऐसा मानता हूँ कि हर युग में नई पीढ़ी को सामने आना चाहिए। नए कलाकार आएँ। कहाँ तक हम लोग उसको खीचेंगे या हम लोग ऐसा सोचेंगे कि सारी ज़िन्दगी जो है, जनता हमें ही प्रेम करती रहे, ऐसा होगा नहीं। और इस बात को हमने पहले ही मान लिया था।

बड़े लिब्रल डेमोक्रेटिक आन्सर होते हैं आपके।
नहीं-नहीं, बिल्कुल सही बात है। ये बिल्कुल सही बात है। प्रत्येक युग में आप देखेंगे या प्रत्येक दशक में नये कलाकार आए... और ये नयी पीढ़ी है। आपके हर व्यवसाय में ऐसा ही होगा। पिता जो है अपनी ज़िम्मेदारी पुत्र पर छोड़ देता है, चाहे वो बड़ा बिज़नेस हो, या वो मीडिया हो, चाहे वो फ़िल्म कलाकार हो, राजनीति हो। सब जगह ऐसा ही होता है।

एक सवाल बताइएगा। आखिरी सवाल आपसे जानना चाहेंगे कि ये आपका कमाल है या आपको लगता है कि हर चीज़ सिनेमाई हो गयी है। क्योंकि जब सिलसिला आयी थी तब ये कहा गया था कि अमिताभ बच्चन ही वह शख्स है जो पत्नी को भी ले आया और रेखा जी को भी ले आया...
वो दो कलाकार की हैसियत से लाए हम...

हम उसको आगे बढ़ा रहे हैं, उसको आगे बढ़ा रहे हैं... और एक वो दौर आता है जहाँ बेटा भी है, बहू भी है। सभी करेक्टर्स एक साथ स्क्रीन पर हैं।
अगर निर्देशक की नज़रों में कोई ऐसा कलाकार है, जो उनको लगता है कि ये सही है, ये जो सक्षम है इस रोल को निभाने के लिए, तो उसमें हम कभी भी रुकाव नहीं डालेंगे। मैंने आजतक कभी भी किसी निर्देशक से ये नहीं कहा, किभी निर्माता से नहीं कहा कि फ़लाँ को लो या फ़लाँ को न लो। ये उनके ऊपर निर्भर है। हाँ, वो मुझसे पूछते हैं कि हम फ़लाँ को ले रहे हैं, ये करेक्टर सूट करता है? मैं कहता हूँ ठीक है भैया। ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। मेरी ज़िम्मेदारी थोड़े ही न है। जो मेरी ज़िम्मेदारी है...

निजीपन स्क्रीन पर आ गया है?
कहाँ आया निजीपन?

नहीं आया?
नहीं, कैसे आ सकता है?

नहीं, वो केरेक्टर्स में तब्दील हो गए और वो परिवार के हिस्से भी हैं। जिन्दगी के हिस्से भी हैं।
नहीं, वो तो केवल एक इत्तेफ़ाक था। लेकिन वो केरेक्टर जो था, वो उसके अनुसार उन्होंने उन किरदारों को लिया। अब चाहे वो हमारी बहू हो, चाहे बेटा हो, चाहे पत्नी हो।

अलादीन की तीन इच्छाएँ हैं जिसे जिन्न पूरी करेगा, जो जीनियस है। आपकी भी कोई इच्छा है?
इक्यावनवाँ प्रश्न है जिसका अभी तक मैं उत्तर नहीं दे पाया। (हँसते हैं)

चलिए सर, बहुत-बहुत शुक्रिया। तो ये हैं अमिताभ बच्चन। इक्कसवीं सदी में पा की भूमिका के बाद जीनियस यानी अब जिन्न। और वो दौर भूल जाइए... भूल जाएँ न हम लोग... आक्रोश, विद्रोह, बगावत, शहंशाह...?
क्या पता कल फिर से जीवित हो जाए! कोई भरोसा नहीं है। (फिर हँसते हैं)

ये है मन का हो तो ठीक, न हो तो और ठीक। बहुत-बहुत शुक्रिया अमिताभ जी, बहुत-बहुत शुक्रिया।
धन्यवाद सर, धन्यवाद।


बच्चे....

सोचा था 14 नवबंर को बच्चों के बारे में लिखूंगा । लेकिन हिम्मत पड़ी नहीं...क्योंकि बच्चों के लिये हमने छोड़ा ही क्या है या क्या बना रहे हैं....जो लिखकर संतोष हो। अर्से पहले हरीश चन्द्र पाण्डे की एक कविता पढ़ी थी । याद आ गयी । तो आप भी इसे पढ़ें । इसका शीर्षक ‘बच्चे’ है।

बच्चे
चूंकि बच्चे
विपक्षी की भूमिका नहीं निभा सकते
चूंकि बच्चों की
कोई सरकार नहीं होती
चूंकि बच्चे
अपने खिलाफ जांच में
जेबों के अस्तर तक उलट कर रख देते है
इसलिये बच्चो के बारे में
गंभीरता से सोचो
सोचो
केवल भूख लगने पर ही क्यों रोते हैं बच्चे
ब्रेक फास्ट के समय
राष्ट्रगान गाते हैं बच्चे
हंसी के एवज में
कभी वोट नहीं मांगते बच्चे
बच्चे / पेड़ पर लटके फल होते हैं
इसलिये
संजीदगी से सोचो / बच्चो के बारे में
बच्चों के बारे में किए गए निर्णय
कागज पर कुएं खोदने या
वृक्षारोपण के निर्णय नहीं
बच्चो के बारे में किए गए निर्णय
काली मिट्टी में
कपास उगाने का निर्णय है ।

............और अब

सामने प्रभाष जोशी और सन्नाटा छा जाए। जो डराने लगे। असम्भव है। लेकिन यह भी हुआ। पहली बार डर लगा... दिमाग में कौंधा, अब। एम्बुलेंस का दरवाजा बंद होते ही खामोशी इस तरह पसरी कि अंदर चार लोगों की मौजूदगी के बीच भी हर कोई अकेला हो गया और साथ कोई रहा तो चिरनिद्रा में प्रभाष जोशी। पहली बार लगा...अब सन्नाटे को कौन तोड़ेगा ? हर खामोशी को भेदने वाला शख्स अगर खामोश हो गया तो अब ? लगा शायद एकटक प्रभाष जोशी को देखते रहने से वही हौसला और गर्व महसूस हो, जिसे बीते 25 बरस की पहचान में हर क्षण प्रभाषजी के भीतर देखा। अचानक लगा प्रभाष जी बात कर रहे हैं। और खुद ही कह रहे हैं...पंडित....अब ?



अब........के इस सवाल ने मेरे भीतर प्रभाष जी के हर तब को जिला दिया। गुरुवार 1 नवंबर 1984 को सुबह साठ पैसे खुले लेकर जनसत्ता की तलाश में पटना रेलवे स्टेशन तक गया। "इंदिरा गांधी की हत्या"। काले बार्डर से खींची लकीरों के बीच अखबार के पर सिर्फ यही शीर्षक था। और उसके नीचे प्रभाष जी का संपादकीय, जिसकी शुरुआत..... "वे महात्मा गांधी की तरह नहीं आई थीं, न उनके सिद्दांतों पर उनकी तरह चल रही थीं। लेकिन गईं तो महात्मा गांधी की तरह गोलियों से छलनी होकर ।"

चार साल बाद 1988 में प्रभाष जी से जब पहली बार मिलने का मौका जनसत्ता के चड़ीगढ़ संस्करण के लिये इंटरव्यू के दौरान मिला तो उनके किसी सवाल से पहले ही मैंने उसी संपादकीय का जिक्र कर सवाल पूछा...1984 में इंदिरा की हत्या पर गांधी को याद कर आप कहना क्या चाहते थे ? उन्होंने कहा, चडीगढ़ घूमे..काम करोगे जनसत्ता में ? पहले जवाब दीजिये तो सोचेंगे। उन्होंने कहा, गांधी होते तो देश में आपातकाल नहीं लगता, लेकिन इंदिरा की हत्या के दिन इंदिरा पर लिखते वक्त आपातकाल के घब्बे को कैसे लिखा जा सकता है....फिर कुछ खामोश रह कर कहा , लेकिन भूला भी कैसे जा सकता है। मेरे मुंह से झटके में निकला... जी, काम करुंगा...लेकिन बीए का रिजल्ट अभी निकला नहीं है। तो जिस दिन निकल आये, रिजल्ट लेकर आ जाना। नौकरी दे दूंगा। अभी बाहर जा कर पटना से आने-जाने का किराया ले लो। और हां, घूमना-फिरना ना छोड़ना।

कमाल है, जिस अखबार को खरीदने और फिर हर दिन पढ़ने का नशा लिये मैं पटना में रहता हूं उसके संपादक से मिलने में कहीं ज्यादा नशा हो सकता है। प्रभाष जी जैसे संपादक से मिलने का नशा क्या हो सकता है, यह नागपुर, औरंगाबाद, छत्तीसगढ़, तेलांगना, मुंबई,भोपाल की पत्रकारीय खाक छानते रहने के दौरान हर मुलाकात में समझा। विदर्भ के आदिवासियों को नक्सली करार देने का जिक्र 1990 में जब दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग के एक्सप्रेस बिल्डिंग के उनके कैबिन में दोपहर दो-ढाई बजे के दौरान किया तो वे अचानक बोले- जो कह रहे हो लिखने में कितना वक्त लगाओगे ? मैंने कहा, आप जितना वक्त देंगे। दो घंटे काफी होंगे ? यह परीक्षा है या छाप कर पैसे भी दीजियेगा । वे हंसते हुये बोले...घूमते रहना पंडित। फिर मेरे लिये कैबिन के किनारे में कुर्सी लगायी। टाइपिस्ट सफेद कागज लाया। सवा चार बजे मैंने विदर्भ के आदिवासियों की त्रासदी लिखी..जिसे पढ़कर शीर्षक बदल दिया...आदिवासियों पर चला पुलिसिया हंटर। कंपोजिंग में भिजवाते हुये कहा, इसे आज ही छापें और लेख का पेमेंट करा दें। जहां जाओ, वहीं लिखो। घूमना...लिखना दोनों न छोड़ो। अगली बार जरा शंकर गुहा नियोगी के आंदोलन पर लिखवाऊंगा। और हां, संभव हो तो पीपुल्सवार के सीतारमैय्या का इंटरव्यू करो। पता तो चले कि नक्सली जमीन की दिशा क्या है।

संपादक में कितनी भूख हो सकती है, खबरों को जानने की। प्रभाष जी, नब्ज पकड़ना चाहते हैं और वह अपने रिपोर्टरों को दौड़ाते रहते है लेकिन मैं तो उनका रिपोर्टर भी नही था फिर भी संपादकीय पेज पर मेरी बड़ी बड़ी रिपोर्ट को जगह देते। और हमेशा चाहते कि मै रिपोर्टर के तौर पर आर्टिकल लिखूं।

6 दिसबंर 1992 की घटना के बाद प्रभाष जी ने किस तरह अपनी कलम से संघ की ना सिर्फ घज्जियां उड़ायीं बल्कि सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष का जो बिगुल बजाया, वह किसी से छुपा नहीं है। फरवरी 1993 में जब दिल्ली में जनसत्ता के कैबिन में उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने नागपुर के हालात पर चर्चा कर अचानक कहा , पंडित तुम तो ऐसी जगह हो जहां संघ भी है और अंबेडकर भी और तो और नक्सली भी। अच्छा यह बताओ तुम्हारा जन्मदिन कब है ?......18 मार्च । तो रहा सौदा । मुझे आर्टिकल चाहिये संघ, दलित और नक्सली के सम्मिश्रण का सच। जो बताये कि आखिर व्यवस्था परिवर्तन क्यों नहीं हो रहा है। और 18 मार्च को उनका बधाई कार्ड मिला। जनसत्ता मिले तो देखना..."आखिर क्यों नहीं हो पा रहा है व्यवस्था परिवर्तन"। जन्मदिन की बधाई..घूमना और लिखना । प्रभाष जोशी।

कमाल है क्या यह वही शख्स है जो मेरे सामने चिरनिद्रा में है। व्यवस्था परिवर्तन का ही तो सवाल इसी शख्स ने मनमोहन सरकार की दूसरी पारी शुरु होने वाले दिन शपथ ग्रहण समारोह के वक्त ज़ी न्यूज में चर्चा के दौरान कहा था...बाजारवाद ने सबकुछ हड़प लिया है । व्यवस्था परिवर्तन का माद्दा भी। फिर लगे बताने कि कौन से सासंद का कौन का जुगाड या जरुरत है, जो मंत्री बन रहा है । खुद कितनी यात्रा कर कितनों के बारे में क्या क्या जानते, यह सब किदवंती की तरह मेरे दिमाग में बार बार कौंध रहा था कि तभी सिसकियों के बीच बगल में बैठे रामबहादुर राय ने मेरे कंघे पर हाथ रख दिया। अचानक अतीत से जागा तो देखा राय साहब ( अपनत्व में रामबहादुर राय को यही कहता रहा हूं) की आंखों से आंसू टपक रहे हैं। अकेले हो गये ना । ऐसा पत्रकार कहां मिलेगा। मैं तो पिछले 50 दिनों से जुटा हूं उन वजहों को तलाशने, जिसने जनसत्ता को पैदा किया। प्रभाष जी के बारे जितना खोजता हूं, उतना ही लगता है कि कुछ नहीं जानता। प्रभाष जी ने पत्रकारिता हथेली पर नोट्स लिखकर रिपोर्टिग करते हुये शुरु की थी। 1960 में विनोबा भावे जब इंदौर पहुचे तो नई दुनिया के संपादक राहुल बारपुते और राजेन्द्र माथुर ने प्रभाष जी को ही रिपोर्टिंग पर लगाया। इंटर की परीक्षा छोड़ इंदौर से सटे एक गांव सुनवानी महाकाल में जा कर प्रभाषजी अकेले रहने लगे। दाढ़ी बढ़ी तो कुछ ने कहा की साधु हो गये हैं। गांववालों को पढ़ाने और उनकी मुश्किलों को हल करने पर कांग्रेसी सोचने लगे कि यह व्यक्ति अपना चुनावी क्षेत्र बना रहा है। लेकिन विनोबा भावे के इंदौर प्रवास पर प्रभाष जी की रिपोर्टिंग इतनी लोकप्रिय हुई कि फिर रास्ता पत्रकारिता....

लेकिन इस रिपोर्टिंग की तैयारी पिताजी को रात ढाई बजे ही करनी पड़ती थी। एम्बुलेंस में साथ प्रभाष जी के सिर की तरफ बैठे सोपान (प्रभाष जी के छोटे बेटे) ने बीच में लगभग भर्राते हुये कहा । विनोबा जी सुबह तीन बजे से काम शुरु कर देते थे तो पिताजी ढाई बजे ही तैयार होकर विनोबा जी के निवास स्थान पर पहुंच जाते। राय साहब बोले उस वक्त गांववाले इंदौर अनाज बेचने जाते तो प्रभाष जी के कोटे का दाना-पानी उनके दरवाजे पर रख जाते। और प्रभाष जी खुद ही गेंहू पीसते। और गांव की महिलायें उन्हें गद्दी-गद्दी कहती। सोपान यह कह कर बोले कि चक्की को वहां गद्दी ही कहा जाता है।

फिर रामनाथ गोयनका से मुलाकात भी तो एक इतिहास है। सोपान के यह कहते ही राय साहब कहने लगे जेपी ने ही आरएनजी के पास प्रभाष जी को भेजा था। और प्रभाष जी ने जनसत्ता तो जिस तरह निकाला यह तो सभी जानते है लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के तीन एडिशन चड़ीगढ़, अहमदाबाद और दिल्ली के संपादक भी रहे और चडीगढ़ के इंडियन एक्सप्रेस को दिल्ली से ज्यादा क्रेडेबल और लोकप्रिय बना दिया। अंग्रेजी अखबार में ऐसा कभी होता नहीं है कि संपादक के ट्रांसफर पर समूचा स्टाफ रो रहा हो। चड़ीगढ़ से दिल्ली ट्रासंपर होने पर इस नायाब स्थिति की जानकारी आरएनजी को भी मिली। वह चौंके भी। लेकिन जब जनसत्ता का सवाल आया तो प्रभाष जी ने आरएनजी को संकेत यही दिया कि पटेगी नहीं और झगड़ा हो जायेगा। आरएनजी ने कहा झगड़ लेंगे। लेकिन जनसत्ता तुम्ही निकालो।

राय साहब और सोपान लगातार झलकते आंसूओं के बीच हर उस याद को बांट रहे थे जो बार बार यह एहसास भी करा रहा था कि इसे बांटने के लिये अब हमें खुद की ही खामोशी तोड़नी होगी। तभी ड्राइवर ने हमें टोका और पूछा गांधी शांति प्रतिष्ठान आ गया है, किस गेट से गांडी अंदर करुं ? सोपान बोले, पहले वाले से फिर कहा यहां तो रुकना ही होगा। इमरजेन्सी की हर याद तो यहीं दफ्न है। पिताजी भी इमरजेन्सी के दिन अगर दिल्ली में रहते हैं तो गांधी पीस फाउंडेशन जरुर आते हैं। हमने भी कई काली राते सन्नाटे और खौफ के बीच काटी हैं। लेकिन मुझे लगा पत्रकारिता आज जिस मुहाने पर है और प्रभाष जोशी जिस तरह अकेले उससे दो दो हाथ करने समूचे देश को लगातार नाप रहे थे, उसमें सवाल अब कहीं ज्यादा बड़ा हो चुका है क्योकि एम्बुलेंस के भीतर की खामोशी तो आपसी दर्द बांटकर टूट गयी लेकिन बाहर जो सन्नाटा है, उसे कौन तोड़ेगा ? मैंने देखा गांधी पीस फाउंडेशन से हवाई अड्डे के लिये एम्बुलेंस के रवाना होने से चंद सेकेंड पहले प्रधानमंत्री की श्रदांजलि लिये एक अधिकारी भी पहुंच गया। और फिर मेरे दिमाग में यही सवाल कौंधा.......और अब।


पहले दुश्मन बनाओ फिर सेना खुद खड़ी होगी

बालासाहेब से राज ठाकरे तक का राजनीतिक मंत्र

महाराष्ट्रियनों को एक दुश्मन चाहिये और राज ठाकरे उसी की संरचना में जुटे हैं। और उन दुश्मनों पर हमला करने के लिय राज की सेना धीरे धीरे महाराष्ट्र निर्माण सेना के नाम पर गढ़ी जा रही है। यह मराठी मानुस राजनीति की हकीकत है, जिसे साठ के दशक में बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरिये उभारा और 21 वी सदी में राजठाकरे उभार रहे है । राज ठाकरे का उभार महज लुंपन राजनीति की देन नहीं है ना ही 40 साल पहले बालासाहेब का उभार लुंपन राजनीति की देन थी। याद कीजिये बीस के दशक से लेकर 40 के दशक तक महाराष्ट्रीय नेता भाषा, संस्कृति,इतिहास और परंपरा के नाम पर अलग महाराष्ट्र गठित करवाने का प्रयास चलाते रहे। आजादी के बाद संयुक्त महाराष्ट्र समिति ने एकीकृत महाराष्ट्र का आंदोलन चलाया और उस दौर में ना सिर्फ महाराष्ट्रीय अस्मिता एकबद्द् हुई बल्कि राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशो से जितने भी राज्य बने उसमें केवल महाराष्ट्र ही था जिसने आयोग के प्रस्ताव के खिलाफ संघर्ष किया।

विदर्भ के उन जिलो को अपने में शामिल करने की कोशिश की जिनका अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव था । फिर सुनिश्तचित किया किया की मुंबई अलग राज्य ना बने । फिर गुजरात को द्विभाषी राज्य से बाहर निकालवाने में सफलता प्राप्त की। अभी भी कर्नाटक के बेलगांव और करवार जिलों का करीब 2806 वर्ग मील क्षेत्र को महाराष्ट्रीय अपना मानते है और गाहे बगाहे दावा ठोकते हैं। वहीं गोवा का महाराष्ट्र में विलय उनका अधूरा सपना है। असल में माराठी मानुस की समझ सिर्फ युवा पीढ़ी को लुभाने या उत्तर भारतीयों के खिलाफ जहर उगने भर की नहीं है। आजादी के बाद मराठाभाषियों की स्मृति में दो ही बाते रहीं । पहली शिवाजी और उनके उत्ताराधिकारियों द्वारा स्थापित किये गये शानदार मराठा साम्राज्य की यादें जो मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लडने वाले मराठों को एक पराक्रमी जाति के रुप में गौरान्वित करती है और दूसरी स्वतंत्रता आंदोलन में तिलक, गोखले और रानाडे जैसे महान नेताओ की भूमिका जो उन्हे आजादी के लाभो में अपने हिस्से के दावे का हक देती हैं।

मराठी मानुस की महक हुतात्मा चौक से भी समझी जा सकती है जो कभी फलोरा फाउन्टेन के नाम से जाना जाता था लेकिन इस चौक को संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से जोड़ दिया गया । वहीं गेटवे आफ इंडिया पर शिवाजी की घोड़े पर सवार प्रतिमा के मुकाबले पूरे महाराष्ट्र में गांधी की कोई प्रतिमा नहीं मिलेगी। गांधी जी के बारे में मराठी मानुस की समझ निजी बातचीत में समझी जा सकती है, गांधी मराठियो की एकजुटता से घबराते थे कि कही फिर मराठे सूरत को ना लूट लें। एक तरह से गांधी को सिर्फ गुजराती बनिये के तौर पर सीमित कर मराठी मानुस आज भी मराठों के विगत साम्राज्य को याद कर लेता है। असल में शिवसेना ने जब 60 के दशक में मराठी मानुस का आंदोलन थामा और जिस मराठी मिथक का निर्माण किया , वह कुछ इस तरह का था जिसमें साजिश की बू आती। यानी मुबंई में मराठी लोगो की हैसियत अगर सिर्फ क्लर्क, मजदूर,अध्यापक और घरेलू नौकर से ज्यादा की नहीं थी तो वह साजिश के तहत की गयी। बालासाहेब की राजनीति के दौर में गुजराती,पारसी,पंजाबी, दक्षिण भारतीयों का प्रभाव मुबंई में था और शिवसेना इसे साजिश बताते हुये दुश्मन भी बना रही थी और उनसे लडने के लिये मराठियों को एकजुट कर अपनी सेना भी बना रही थी।

ठीक इसी तर्ज पर राज ठाकरे भी दुश्मन खोज उनसे लड़ने के लिये अपनी सेना को बनाने में जुटे हैं । बालासाहेब ने लुंगी को पुंगी पहनाने की बात कर दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अपनी सेना बढ़ायी तो राज ठाकरे भईया और दूध वालो पर चोट कर उत्तर भारतीयों को दुश्मन बनाकर अपनी सेना बनाना चाहते हैं। यानी दुशमन की जरुरत सेना को बढाने के लिये जरुरी है इसका एहसास बाला साहेब को भी था और राजठाकरे को भी है। इस सेना में युवा मराठी मानुस सबसे ताकतवर हो सकता है, इसका अहसास बाला साहेब को भी रहा और अब राजठाकरे भी समझ चुके हैं। 60 के दशक में मुंबई में अधिकांश निवेश पूंजीप्रधान क्षेत्रो में हुआ जिससे रोजगार के मौके कम हुये । फिर साक्षरता बढने की सबसे धीमी दर महाराष्ट्रीयों की ही थी । इन परिस्थितयों में नौकरियों में पिछड़ना महाराष्ट्रियनों के लिये एक बडा सामाजिक और आर्थिक आघात था । बालासाहेब ठाकरे ने इसी मर्म को छुआ और अपने अखबार मार्मिक के जरीये महाराष्ट्र और मुबंई के किन रोजगार में कितने मराठी है इसका आंकडा रखना शुरु किया।

बालासाहेब ने बेरोजगारी को भी हथियार बनाते हुये उसकी वजह दूसरे राजनीतिक दलों का लचीलापन करार दिया और अगले दौर में कामगारों को साथ करने के लिये वाम ट्रेड यूनियनों पर निसाना साधा और भारतीय कामगार सेना बनाकर एक तीर से कई निशाने साधे । दक्षिण भारतीयों के खिलाफ युवा मराठी को खडा करने के लिये यहां तक कहा कि सभी लुंगी वाले अपराधी , जुआरी , अबैध शराब खींचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट हैं। ....मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्ट्रीय हो, गुंडा भी महाराष्ट्रीयन हो, और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो । इस तेवर के बीच जैसे ही ठाकरे ने ट्रेड यूनियन बनायी वैसे ही कई उघोगपतियों ने बाल ठाकरे के साथ दोस्ती कर ली । नयी परिस्थियो में राज ठाकरे भईया यानी उत्तर भारतीयों पर अपराधी, जुआरी,दलाल,अंडरवर्ल्ड से जुड़े होने के आरोप लगाते हुये युवा मराठी के बीच उनके हक को छिने जाने को साजिश ही करार दे रहे हैं। राज ठाकरे की राजनीति अभी ट्रेड यूनियन के जरिए शुरु नहीं हुई है लेकिन चाचा बालासाहेब की ही तर्ज पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का पेंपलेट छपवा कर नौकरी के लिये कामगारों की नियुक्ति को प्रभावित करने लगे हैं।

बाला साहेब से इतर राज की राजनीति आधुनिक परिपेक्ष्य में उघोगपतियों से संबंध गांठकर अपनों के लिये रोजगार और पूंजी बनाने की जगह सीधे पूंजी पर कब्जा करने की रमनीति ज्यादा है। मुंबई, पुणे, नासिक, कोल्हापुर से लेकर कोंकण के इलाके में राजठाकरे सीधे जमीन को हथियाने पर ज्यादा जोर देते हैं। कोई उघोग या मिल बीमार होकर बंद होती है तो उसकी जमीन पर पहला कब्जा उनका खुद का हो या फिर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के ही किसी बंदे का हो, इस दिशा में उनकी पहल सीधी होती है। बाला साहेब के दौर में कामगारो को साथ जोडने में खाली नौकरियों पर शिवसैनिक ध्यान रखते थे और फिर कामगार सेना के पर्चे पर फार्म भर कर नौकरी देने के लिये उघोगपतियों को हडकाया जाता था। वहीं राज ठाकरे के दौर में महाराष्ट्र के हर जिले में एमआईडीसी यानी महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम बन चुका है तो नयी पहल के तहत राजठाकरे की नजर हर एमआईडीसी पर है । अपने जोर पर एमआईडीसी में अपने से जुडे कामगारों को नौकरिया दिलाना और एमआईडीसी में उघोग के लिये जमीन चाहने वाले किसी को भी सरकार पर दबाब बनाकर जमीन दिलवाना और फिर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से जोड़ना नयी रणनिति है। बाल ठाकरे राजनीति करते हुये स्टार वेल्यू के महत्व को भी बाखूबी समझते ते और अब राज ठाकरे भी इस स्टार वेल्यू को समझने लगे हैं। बालासाहेब ने युसुफ भाई यानी दिलीप कुमार पर पहला निशाना साधा था तो राज ठाकरे ने अमिताभ बच्चन पर निशाना साधा। बाला साहेब से समझौता करने एक वक्त शत्रुध्न सिन्हा को ठाकरे के घर मातोश्री जाना पडा था तो करण जौहर को राज के घर कृष्ण निवास जाना पड़ा। यानी दुश्मन हर वक्त ठाकरे ने बनाया और सेना को मजबूत किया। बालासाहेब ने तो बकायदा चित्रपट शाखा खोली। जहां शुरुआती दौर में मराठी कलाकारो को ईगे बढाने की बात कही गयी लेकिन बाद में यह बालठाकरे की स्टार वेल्यू से जुड़ गया। कमोवेश यही स्टार वेल्यू का अंदाज राजठाकरे ने भी समझा । कांग्रेस के जरीये राजनीति आगे बढायी जा सकती है और खुद को खड़ाकर कांग्रेस से सौदेबाजी की जा सकती है , यह पाठ सिर्फ राजठाकरे के भूमिपुत्र आंदोलन में ही सामने आया ऐसा भी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के हस्ताक्षेप के बावजूद राज को लेकर महाराष्ट्र सरकार की ढिलायी ने भी राज को हिरो बना दिया इसमें दो मत नहीं।

लेकिन याद किजिये 1995 में शिवसेना के महाराष्ट्र में सत्ता में आने से पहले की राजनीति । शिवसेना के मुखपत्र में विधानसभा अध्यक्ष का अपमानजनक कार्टून छपा । विधानसभा में हंगामा हुआ । विशेषाधिकार समिति के अध्यक्ष शंकर राव जगताप ने ठाकरे को सात दिन का कारावास देने की सिफारिश की । मुख्यमंत्री शरद पवार ने मामला टालने के लिये और ज्यादा कड़ी सजा देने की सिफारिश कर दी । पवार के सुझाव पर पुनर्विचार की बात उठी और माना गया कि टेबल के नीचे पवार और सेना ने हाथ मिला लिया। लेकिन 1995 के चुनाव में बालासाहेब ने पवार को अपना दुश्मन बना लिया और सेना के गढ़ को मजबूत करने में जुटे। विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही बालासाहेब ने पवार को झटका दिया और दाउद इब्राहिम के ओल्गा टेलिस को दिये उस इटरव्यू को खूब उछाला जिसमें दाउद ने पवार से पारिवारिक रिश्ते होने का दावा किया था। फिर खैरनार के आरोपों को भी पवार के मत्थे सेना ने जमकर फोड़ा। परिणाम यही हुआ मुंबई के मंत्रालय पर भगवा लहराने का बालासाहेब ठाकरे का सपना साकार हो गया। और शपथ समारोह में मंच पर और कोई नहीं वही खैरनार अतिथि के तौर पर आंमत्रित थे जिन्होने पवार के खिलाफ भ्रष्ट्राचार की मुहिम चलायी थी । संयोग से राज ठकरे का कद अभी इतना नहीं बढा है कि वह महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का झंडा मंत्रालय पर लहरा सके लेकिन जिस तर्ज पर कांग्रेस की राजनीति पवार को शह और शिवसेना को मात देने के लिये राजठाकरे सरीखे प्यादे से एकसाथ कई चाल चलवा रही है उसमें आने वाले दिनो में राज को रोकना मुश्किल भी होगा यह भी तय है । क्योंकि दुश्मन बनाकर सेना जुगाड़ना राज ने भी सिखा है और महाराष्ट्र में चाहे कांग्रेस-एनसीपी की सत्ता तीसरी बार लगातार मिल गयी हो लेकिन महाराष्ट्र के सामाजिक आर्थिक हालात इस दौर में बद से बदतर हुये है , इसे हर राजनीतिक दल समझ रहा है। शहर बिजली से और गांव खेती से परेशान है। युवा बेरोजगारी से और बुजुर्ग महंगाई से मुश्किल में है। यह परिस्थितियां कब अशोक चव्हाण की कलई खोल देगी कहना मुश्किल है। और तबतक राजठाकरे ऐसे ही औने बौने रहेंगे-सोचना नादानी होगी । 19 अगस्त 1967 को बालासाहेब ने कहे था, -- " हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है ? आज भारत को तो हिटलर की आवश्कता है। ....भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहा तो हमें हिटलर चाहिये । " इसी बात को 2009 में राजठाकरे कुछ यूं कहते है..."मै तानाशाह नहीं हूं । लेकिन ऐसी राजनीति मुझे नहीं करनी । जो साजिश करें । मराठी मानुस को ही मुबंई से महाराष्ट्र से बेदखल कर दे। अब हम विधानसभा में पहुंचे है और अंदर मेरी सेना है तो सड़क पर मै हूं । देखे अब मुंबई या महाराष्ट्र में किसकी चलती है।"


Sunday, November 1, 2009

पूंजी, पॉलिटिक्स और पत्रकारिता

वैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने समान है। क्योंकि विकल्प किसी भी तरह का हो उसमें सवाल सिर्फ श्रम और विजन का नहीं होता बल्कि इसके साथ ही चली आ रही लीक से एक ऐसे संघर्ष का होता है जो विकल्प साधने वाले को भी खारिज करने की परिस्थितियां पैदा कर देती हैं । राजनीतिक तौर पर शायद इसीलिये अक्सर यही सवाल उठता है कि विकल्प सोचना नहीं है और मौजूदा परिस्थितियो में जो संसदीय राजनीति का बंदरबांट करे वही विकल्प है। चाहे यह रास्ते उसी सत्ता की तरफ जाते हैं, जहां से गड़बड़ी पैदा हो रही है। मीडिया या कहें न्यूज चैनलों को लेकर यह सवाल बार बार उठता है कि जो कुछ खबरों के नाम पर परोसा जा रहा है, उससे इतर पत्रकारिता की कोई सोचता क्यों नहीं है।

सवाल यह नहीं है कि राजनीति अगर आम-जन से कटी है तो पत्रकारिता भी कमरे में सिमटी है। बड़ा सवाल यह है कि एक ऐसी व्यवस्था न्यूज चैनलों को खड़ा करने के लिये बना दी गयी है, जिसमें पत्रकारिता शब्द बेमानी हो चला है और धंधा समूची पत्रकारिता के कंधे पर सवार होकर बाजार और मुनाफे के घालमेल में मीडिया को ही कटघरे में खड़ा कर मौज कर रहा है। और इसका दूसरा पहलू कहीं ज्यादा खतरनाक है कि हर रास्ता राजनीति के मुहाने पर जाकर खत्म हो रहा है, जहां से राजनीति उसे अपने गोद में लेती है। नया पक्ष यह भी है कि राजनीति ने अब पत्रकारिता को अपने कोख में ही बड़ा करना शुरु कर दिया है।

कोख की बात बाद में पहले गोद की बात। न्यूज चैनलों में राजनीति की गोद का मतलब संपादक के साथ साथ मालिक बनने की दिशा में कॉरपोरेट स्टाइल में कदम बढ़ाना है। यानी उस बाजार की मुश्किलात से न्यूज चैनल संपादक को रुबरु होना है जो राजनीतिक सत्ता के इशारे पर चलती है । यानी मीडिया हाउस का मुनाफा अपरोक्ष तौर पर उसी राजनीति से जुड़ता है, जिस राजनीतिक सत्ता पर मीडिया को बतौर चौथे खम्बे नज़र रखनी है । कोई संपादक कितनी क्रियेटिव है, उससे ज्यादा उस संपादक का महत्व है कि वह कितना मुनाफा बाजार से बटोर सकता है। और मुनाफा बटोरने में राजनीतिक सत्ता की कितनी चलती है या सत्ता जिसके करीब होती है उसके अनुरुप मुनाफा कैसे हो जाता है यह किसी भी राज्य या केन्द्र में सरकारो के आने जाने से ठीक पहले बाजार के रुख से समझा जा सकता है। बाजार कितना भी खुला हो और अंबानी से लेकर टाटा-बिरला तक आर्थिक सुधार के बाद जितना भी खुली अर्थव्यवनस्था में व्यवसाय अनुकूल व्यवस्था की बात कहे , लेकिन बड़ा सच अभी भी यही है कि जिसके साथ सत्ता खड़ी है वह सबसे ज्यादा मुनाफा बना सकता है और अपने पैर फैला सकता है। कमोवेश यही हालत मीडिया की भी की गयी है। लेकिन न्यूज चैनलों की लकीर दूसरे धंधों से कुछ अलग है। यहां प्रोडक्ट उसी आम-जन को तय करना होता है जो राजनीतिक सत्ता के उलट-फेर का माद्दा भी रखती है। इसलिये राजनीति सत्ता ने मीडिया हाउसों को अगर मुनाफे से लुभाया है तो संपादकों को पत्रकारिता से आगे राजनीति का पाठ बताने में भी गुरेज नहीं किया और उस सच को भी सामने रखा कि मीडिया हाउसों से झटके में बडा होने का एकमात्र मंत्र यही है कि राजनीति से दोस्ती करने हुये सत्ताधारियों की फेरहिस्त में शामिल हो जाइये। यह बेहद छोटी परिस्थिति है कि न्यूज चैनल राजनेताओं के साथ चुनाव में पैकेज डील कर के खबरों को छापते -दिखाते हों या राजनेता खुद ही प्रचार तत्व को खबरों में तब्दील करा कर न्यूज चैनलों को मुनाफा दिला दें। उससे आगे की फेरहिस्त में संपादक किसी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ने के लिये टिकट अपने या अपनों के लिये मांगता है और बात आगे बढती हा तो राज्य सभा में जाने के लिेये पत्रकारिता को सौदेबाजी की भेंट चढा देता है।

असल में सत्ता के पास न्यूज चैनलों को कटघरे में खडा करने के इतने औजार होते हैं कि संपादक तभी संपादक रह सकता है जब पत्रकारिता को सत्ता से बडी सत्ता बना ले। लेकिन न्यूज चैनलों के मद्देनजर गोद से ज्यादा बडा सवाल कोख का हो गया है । क्योंकि यहां यह सवाल छोटा है कि ममता बनर्जी को सीपीएम प्रभावित न्यूज चैनल बर्दाश्त नहीं है और सीपीएम का मानना है कि न्यूज चैनलों ने नंदीग्राम से लेकर लालगढ तक को जिस तरह उठाया, वह उनकी पार्टी के खिलाफ इसलिये गया क्योकि दिल्ली में कांग्रेस की सत्ता है और राष्ट्रीय न्यूज चैनल कांग्रेस से प्रभावित होते हैं। बड़ा सवाल सरकार ही खड़ा कर रही है । मनमोहन सरकार अब यह कहने से नहीं चूकती कि न्यूज चैनल अब कोई ऐरा-गैरा नत्थु खैरा नहीं निकाल पायेंगे । लाइसेंस बांटने पर नकेल कसी जायेगी। यानी न्यूज चैनलों में राजनीति की दखल का यह एहसास पहली बार कुछ इस तरह सामने आ रहा है मसलन पत्रकारों के होने या ना होने का कोई मतलब नहीं है। और राजनीति की सुविधा-असुविधा से लेकर सही पत्रकारिता का समूचा ज्ञान भी राजनीति को ही है। और राजनीतिक सत्ता के आगे पत्रकार या पत्रकारिता पसंगा भर भी नहीं है।

असल में इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि तकनीकी विस्तार ने मीडिया को जो विस्तार दिया है उतना विस्तार पत्रकारों का नहीं हुआ है । और मीडिया का यही तकनीकी विस्तार ही असल में पत्रकारिता भी है और राजनीति को प्रभावित करने वाला चौथा खम्भा भी है । कह सकते है कि चौथे खम्भे की परिभाषा में पत्रकार या पत्रकारिता के मायने ही कोई मायने नहीं रखते है। लेकिन बिगड़े न्यूज चैनलों को सुधारने की जो भी बात राजनीति करती है, उसमें राजनीतिक धंधे के तहत न्यूज चैनल कैसे चलते है और चलकर सफल होने वाले न्यूज चैनल इस धंधे को बरकरार रखने में ही जुटे रहते है, समझना यह ज्यादा जरुरी है।


किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को शुरु करने के लिये चालीस से पचास करोड़ से ज्यादा नहीं चाहिये। और फैलते बाजारवाद में विज्ञापन से कोई भी न्यूज चैनल साल में औसतन 20-25 करोड आसानी से कमा सकता है। जो न्यूज चैनल टॉप पर होगा उसकी सालाना कमाई सौ करोड पार होती है। मंदी में भी यह कमाइ सौ करोड से कम नही हुई। जाहिर है न्यूज चैनल चलाने के लिये कागज पर हर न्यूज चैनल वाले के लिय न्यूज चैनल का धंधा मुनाफे वाला है। क्योंकि एक साथ छह करोड घरों में कोई अखबार पहुंच नही सकता। किसी राजनेता की सार्वजनिक सभा में लोग जुट नही सकते लेकिन कोई बड़ी खबर अगर ब्रेक हो तो इतनी बडी तादाद में एक साथ लोग खबरो को देख सुन सकते हैं। जाहिर है बीते एक दशक के दौर में न्यूज चैनलों ने जो उडान भरी उसने उस राजनीतिक सत्ता की जड़े भी हिलायी जो बिना सरोकार देश को चलाने में गर्व महसूस करते। लेकिन राजनीतिक सत्ता के सामने न्यूज चैनलों की क्या औकात। इसलिये न्यूज चैनलों को कोख में ही राजनीति ने बांधने का फार्मूला अपनाया। चैनलों को दिखाने के लिये को केबल नेटवर्क है, उसपर राजनीति ने खुद को काबिज कर एक नया पिंजरा बनाया, जिसमें न्यूज चैनलों को कैद कर दिया । किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को केबल से देश भर में जोडने के लिये सालाना 35 से 40 करोड रुपये लुटाने की ताकत चैनल के पास होनी चाहिये तभी कोई नया चैनल आ सकता है। क्योंकि हर राज्य में केबल नेटवर्क से तभी कोई चैनल जुड़ सकता है, जब वह फीस चुकता कर दे । यह रकम सफेद हो नहीं सकती क्योंकि इसका बंटवारा जिस राजनीति को प्रभावित करता है, वह राजनीतिक दल नही सत्ता देखती है और वह किसी की भी हो सकती है । सबसे ज्यादा फीस महाराष्ट्र में 8 करोड़ की है, फिर गुजरात के लिये 5 करोड़ तक देने ही होगे। बिहार-उत्तरप्रदेश-झरखंड-उत्तरा
खंड में मिलाकर 3 से 4 करोड में सालाना केबल नेटवर्क दिखाता है। मजेदार तथ्य यह है कि केबल नेटवर्क को ही चैनलों की टीआरपी से जोड़ा जाता है और टीआरपी के आधार पर ही चैनलों को विज्ञापन मिलता है । यहीं से ब्रांड और धंधे का खेल शुरु होता है । टीआरपी और विज्ञापन को इस तरह जोड़ा गया है कि जो केबल नेटवर्क में करोडो लुटा सकता है वही विज्ञापन के जरीये करोड़ों कमा सकता है। करोड़ों के वारे न्यारे का यह खेल ही उपभोक्ताओं के लिये एक ऐसा ब्रांड बनाता है, जिसमें किसी भी प्रोडक्ट की कोई भी कीमत देने के लिये एक तबका एक क्लास के तौर पर खड़ा हो जाता है।

आप कह सकते है कि इस क्लास में राजनेता और सत्ता से सटे पत्रकारो की भागेदारी बराबर की होती है क्योकि यह गठजोड़ संसदीय राजनीति तले लोकतंत्र का गीत गाता भी है और लोकतंत्र को बाजार के आइने में देखने-दिखाने को मजबूर करता भी है । लेकिन पत्रकारिता को कोख में रखने की राजनीति भी यहीं से शुरु होती है । कोई पत्रकार न्यूज चैनल ला तो सकता है लेकिन उसे केबल नेटवर्क के जरीये दिखाने के लिये फिर उसी राजनीति के सामने नतमस्तक होना पड़ता है, जिसपर नजर रखने के ख्याल से न्यूज चैनल का जन्म होता है। कमोवेश हर राज्य में सत्ताधारी राजनीतिक दल के बडे नेताओं ने ही केबल पर कब्जा कर लिया है । यानी जो राजनीति पहले न्यूज चैनलों के मालिक या संपादको से गुहार लगाती ती कि उनके खिलाफ की खबरों को ना दिखाया जाये अब वही राजनीति सीधे कहने से नहीं चूकती- आपको जो खबरे दिखानी हो दिखाइये लेकिन वह हमारे राज्य में नहीं दिखेंगी क्येकि केबल पर आपका चैनल हम आने ही नहीं देंगे। यानी केबल नेटवर्क पर सत्ता का कब्जा राजनीति का नया मंत्र है। इसका शुरुआती प्रयोग अगर छत्तीसगढ में अजित जोगी ने किया तो ताजा प्रयोग वाय एस आर रेड्डी के बेटे जगन ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिये किया । आंध्र में केबल नेटवर्क पर जगन का ही कब्जा है। छत्तीसगढ में अब रमन सिंह का कब्जा है । पंजाब में बादल परिवार का कब्जा है। महाराष्ट् में एनसीपी-काग्रेस और शिवसेना के केबल नेटवर्क युद्द में राज ठाकरे ने सेंघ लगाना शुर कर दिया है । तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार की ही न्यूज चैनलों को दिखाने ना दिखवाने की तूती बोलती है। गुजरात में मोदी की हरी झंडी के बगैर मुश्किल है कि कोई चैनल स्मूथली दिखायी दे। बंगाल में वामपंथियों को अभी तक अपने कैडर पर भरोसा था लेकिन ममता के तेवरों ने सीपीएम को जिस तरह चुनौती दी है, उसमें केबल पर कब्जे की जगह कैबल अब ममता और सीपीएम को लेकर कैडर की तर्ज पर बंट जरुर गया है।

इन हालात में न्यूज चैनल के सामने गाना-बजाना दिखाना या कहे खबरों से हटकर कुछ भी दिखाना ढाल भी है और मुनाफा बनाना भी। यह ठीक उसी तरह है जैसे सिनेमा देखने के लिये अब सौ रुपये जेब में होने चाहिये। यह बहुसंख्यक तबके के पास होते नहीं है, इसलिये पाइरेटेड का धंधा फलता फूलता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सिनेमा की हत्या भी हुई। सिनेमा अब उसी तबके के लिये बनने लगा, जो दो घंटे में मनोरंजन की नयी व्याख्या करता करता है। ऐसे में सिनेमा भी सरोकार पैदा नहीं करता। उसी तरह खबरें भी सरोकार की भाषा नहीं समझती क्योंकि उसका मुनाफा जनता से नही सत्ता से जोड़ दिया गया है और इस दौड में डीटीएच कोई मायने नहीं रखता। क्योंकि डीटीएच से न्यूज चैनल घरों में दिखायी जरुर देता है मगर विज्ञापन की वह पूंजी नही जुगाड़ी जा सकती जो केबल के जरिए टीआरपी से होती हुई न्यूज चैनलों तक पहुंचती है।

किसी भी नये चैनल की मुश्किल यही होती है कि वह खुद को केबल और टीआरपी के बीच फिट कैसे करें । किस राज्य की किस सत्ता और किस राजनेता के जरीये न्यूज चैनल के मुनाफे की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी करे । जबकि पुराने चैनलो की कैबल कनेक्टिविटी और टीआरपी में कभी बड़ा उलटफेर या परिवर्तन चार हफ्तों तक भी नहीं टिकता है, चाहे कोई न्यूज चैनल कुछ भी दिखाये । यह यथावत स्थिति हर किसी को बाजारवाद में बंदरबांट के लिये कथित स्पर्धा से जोड़े रखते हुये सभी की महत्ता बरकरार रखती है। भाजपा ने एनडीए की सरकार के दौर में इस गोरखधंधे को तोड़ने के लिये कैस लाने की सोची थी। लेकिन उसी दौर में जब यह पंडारा बाक्स खुला कि करोड़ों के वारे न्यारे से लेकर राजनीति के अनुकुल न्यूज चैनलो पर इसी माध्यम से नकेल कसी जा सकती है तो धीरे धीरे सबकुछ ठंडे बस्ते में डाला गया । लेकिन मुनाफे के धंधे को बरकरार रखने के बाजारवाद में पत्रकार किसी खूंटे से बांधा जाये यह सवाल सबसे बड़ा हो गया है । पत्रकार न्यूज चैनल के लिये मुनाफा जुगाड़ने से सीधे जुड़ जाये, पत्रकार राजनीतिक सत्ता के इशारे पर काम करने लगे , पत्रकार लोकसभा के टिकट लेने-दिलवाने से लेकर राज्यसभा तक पहुंचने के जुगाड़ को पत्रकारिता का आखिरी मिशन मान लें या फिर पत्रकार सत्ता की उस व्यवस्था के आगे घुटने टेक दें, जहां सत्ता परिवर्तन भी एक तानाशाह से दूसरे तानाशाह की ओर जाते दिखे और पत्रकारिता का मतलब इस सत्ता परिवर्तन में ही क्राति की लहर दिखला दें। इस दौर में विकल्प की पत्रकारिता करने की सोचना सबसे बड़ा अपराध तो माना ही जायेगा जैसे आज अधिकतर न्यूज चैनलो में यह कह कर ठहाका लगाया जाता है कि अरे यह तो पत्रकार है।


राजधानी की योजनाओं से दूर जंगल में 'राजधानी' फंसने का मतलब

माओवादी संकट कहीं राजनीति के अतर्विरोध को उभार तो नहीं देगा ? माओवादी संकट कहीं विकास की लकीर पर ही सवाल तो खड़ा नहीं कर देगा ? माओवादी संकट कहीं राजनीतिक मुनाफे के आगे नपुंसक होते संस्थानों के दर्द को विस्फोटक तो नहीं बना देगा ? यह सवाल खासे तेजी से उठने लगे हैं। दिल्ली में चिदंबरम चाहे माओवाद के खिलाफ आखिरी लड़ाई का ऐलान करे लेकिन राजनीतिक सत्ता के मुनाफे का टकराव हर लड़ाई को हवा-हवाई बना देगा। राजधानी एक्सप्रेस को पांच घंटे अपने कब्जे में कर अगर माओवादियों ने छत्रघर महतो की रिहायी की मांग की तो उसका दूसरा हिस्सा कहीं ज्यादा खतरनाक है। जिस वक्त जंगल में राजधानी एक्सप्रेस फंसी तो राजनीतिक सत्ता की लड़ाई में राजधानी उलझ गयी, जब हजारों यात्रियों के जेहन में यह सवाल उठ रहा होगा कि सरकार और सुरक्षा बंदोबस्त हैं कहां तो दिल्ली में रेल मंत्री ममता बनर्जी सीपीम को घेरने में लगी रहीं। एक बार भी उन्होंने यह नहीं कहा कि बंगाल के मुख्यमंत्री से वह बात कर रही हैं, उनकी जुबान पर उड़ीसा के सीएम का नाम तो आया लेकिन बंगाल के सीएम का जिक्र करना तक उन्होंने सही नहीं समझा।

पॉलिटिकली करेक्ट रहने के लिये सीपीएम ने भी ममता बनर्जी को ही इस मौके पर घेरेने का प्रयास किया। हर कोई भूल गया कि राज्य की जिम्मेदारी क्या है और केन्द्रीय मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक की भूमिका संकट के वक्त क्या होनी चाहिये। जाहिर है पॉलिटिकली करेक्ट रहने की समझ हर राजनीतिक सत्ता की जरुरत है, इसलिये दिल्ली में अगर कभी माओवादियों के खिलाफ आखिरी लड़ाई पर दिल्ली में ठप्पा लग भी जाये तो भी राज्यों की भूमिका राज्यों की सीमा-दर-सीमा बदलगी क्योंकि सीमा बदलते ही राजनीतिक सत्ता भी बदलती है। पॉलिटिकली करेक्ट होने की होड़ पुलिस-सुरक्षाबलो को कैसे तोड़ सकती है इसका अंदाजा बंगाल के पुलिसकर्मियों के टूटते मनोबल से समझा जा सकता है। असल में जिस पुलिसकर्मी की रिहायी माओवादियों ने छाती पर युद्दबंदी का पोस्टर लगाकर मीडिया के हंगामे के बीच की। उस रिहायी के 14 घंटे पहले लालगढ़ में सुरक्षाबलों ने माओवादी किशनजी को घेर लिया था। किशनजी वही शख्स हैं, जो लालगढ की हर माओवादी कार्रवाई का अगुवा है। अपने घेरेबंदी की जानकारी किशनजी को भी थी। लेकिन उसी वक्त माओवादी नेता ने न्यूज चैनलों के जरिए सीधे कहा कि अगर तैनात फोर्स ने किसी भी तरह गोलिया चलायी या कार्रवाई की तो अपहर्त पुलिसकर्मी की हत्या कर दी जायेगी।

बुद्धदेव सरकार ने तत्काल फैसला किया कि लालगढ़ में तैनात सुरक्षाकर्मी कार्रवाई नहीं करेंगे। कार्रवाई रोकी गयी और उसके बाद देश में अपनी तरह का पहला युद्दबंदी रिहा हुआ। रिहा युद्धबंदी पुलिसकर्मी ने ना सिर्फ मीडिया के सामने इलाके में विकास का सवाल उठाकर माओवादियों को सही ठहराया बल्कि पुलिस को किस रुप में सत्ता देखती है और प्रचार प्रसार के जरीये उसे हर मामले में शहीद होने का तमगा लगा कर राजनीति पल्ला झाड लेती है, इसने रिहा युद्धबंदी पुलिसकर्मी के उस तर्क के सामने सबकुछ खारिज कर दिया जब रिहायी के बाद पुलिसकर्मी ने ड्यूटी संभालना तो दूर सीधे कह दिया कि नयी परिस्थियों में वह पहले अपने परिवार से बात करेंगे।

महत्वपूर्ण है इसी दौर में राज्य और केन्द्र सरकार सुरक्षाकर्मियों को माओवादियो के खिलाफ लड़ाई तेज करने के लिये लगातार जोर दे रही हैं। ऐसे में बंगाल के पुलिसकर्मियो के सामने एक साथ कई सवाल खड़े हुये हैं कि जिन माओवादियों ने एक पुलिसकर्मी को बंधक बनाया उन्हीं माओवादियों ने उससे ठीक पहले दो एएसआई दीपांकर भट्टाचार्य और साकोल राय की हत्या भी की। फिर रिहायी के वक्त बंधक पुलिसकर्मी, जिन माओवादियों से हाथ मिला रहे थे उन्हीं माओवादियो ने थाने पर हमलाकर दो पुलिसकर्मियों को मारा था ।

जाहिर है इसके बाद सुरक्षाकर्मियों ने जब माओवादियों को घेरा और ऊपरी निर्देश पर कार्रवायी रोक दी, उनके सामने सवाल है कि कल फिर राजनीतिक सत्ता की मजबूरी उन्हें ना रोके इसकी गारंटी कौन लेगा। वहीं तीसरा सवाल भी ‘राजधानी’ के जंगल में फंसने पर उठा। भुवनेश्वर से आने वाली राजधानी को रुकवाने के बाद वहां के ग्रामीण माओवादियो ने दो ही काम सबसे पहले किये। पहला तो रेलगाड़ी के डिब्बो पर छत्रघर महतो की रिहायी की मांग को लाल रंग से लिख डाला और उससे कहीं ज्यादा तेजी से पेन्ट्री कार और कंबल लूटने के लिये हमला किया। एक बांग्ला न्यूज चैनल के रिपोर्टर ने हिम्मत दिखाकर कुछ फर्लांग दूर वंशतोल और झारग्राम के बीच एक झोपडी में जाकर कैमरे से तस्वीरे लीं तो विकास के सवाल ने पाषाण काल की तस्वीर सामने ला दी। क्योंकि उस झोपड़ी में पेन्ट्री कार से लूटे गये खाने और उसकी चमकीली चिमनी के अलावा लूटा गया कंबल था, जो एक डोरी पर झूल रहा था। इसके अलावा कमरे में चटाई, बांस के डंडे, तेन्दू पत्तों की पोटली, मिट्टी का चूल्हा और लोहे की दो कड़ाई पड़ी थी। ओसारे पर मटमैली साड़ी,धोती और फटे हुये कुछ कपडे जरुर थे । इसके अलावा पूरी झोपड़ी में कुछ नहीं था। राजधानी मे यह सारे सामान फेंकने वाले होंगे, जिसकी कीमत लगाना बेमानी है लेकिन झारग्राम के इलाके का यही सच है। जाहिर है यह सारे सवाल उसी माओवाद से जा जुड़े हैं, जिनके प्रभावित इलाको में राजधानी की कोई योजना पहुंचती नहीं और राजधानी एक्सप्रेस फंस जाये तो राज्य और देश की राजधानी में राजनीतिक ब्रेक लग जाता है।