Thursday, April 9, 2009

कौन ज्यादा अस्वस्थ है - जॉर्ज फर्नांडिस या संसदीय राजनीति?

नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान का साथ छोड़कर आये गुलाम रसूल बलियावी का हाथ आपने हाथ में लेकर जैसे ही उन्हें जनतादल यूनाईटेड में शामिल करने का ऐलान किया वैसे ही दीवार पर टंगे तीन बोर्ड में से एक नीचे आ गिरा। गिरे बोर्ड में तीर के निशान के साथ जनतादल यूनाइटेड लिखा था। बाकी दो बोर्ड दीवार पर ही टंगे थे, जिसमें बांयी तरफ के बोर्ड में शरद यादव की तस्वीर थी तो दांयी तरफ वाले में नीतीश कुमार की तस्वीर थी। जैसे ही एक कार्यकर्ता ने गिरे हुये बोर्ड को उठाकर शरद यादव और नीतीश कुमार के बीच दुबारा टांगा, वैसे ही कैमरापर्सन के हुजूम की हरकत से वह बोर्ड एकबार फिर गिर गया। इस बार उस बोर्ड को टांगने की जल्दबाजी किसी कार्यकर्ता ने नहीं दिखायी। पता चला इस बोर्ड को 2 अप्रैल की सुबह ही टांगा गया था। इससे पहले वर्षों से दीवार पर शरद यादव और नीतीश कुमार की तस्वीर के बीच जॉर्ज फर्नांडिस की तस्वीर लगी हुई थी। और तीन दिन पहले ही शरद यादव की प्रेस कॉन्फ्रेन्स के दौरान पत्रकारों ने जब शरद यादव से पूछा था कि जॉर्ज की तस्वीर लगी रहेगी या हट जायेगी तो शरद यादव खामोश रह गये थे।

लेकिन 30 मार्च को शरद यादव के बाद 2 अप्रैल को नीतीश की मौजूदगी में जॉर्ज की जगह लगाया गया यह बोर्ड तीसरी बार तब गिरा, जब प्रेस कॉन्फ्रेन्स के बाद नीतीश कुमार जदयू मुख्यालय छोड़ कर निकल रहे थे । मुख्यालय में यह तीनों तस्वीरें नीतीश के पहली बार मुख्यमंत्री बनने के दौरान लगायी गयी थीं। उस दिन गुलाल और फूलों से नीतीश के साथ साथ जॉर्ज और शरद यादव भी सराबोर थे। उस वक्त तीनों नेताओ को देखकर ना तो कोई सोच सकता था कि कोई अलग कर दिया जायेगा या तीनों तस्वीरों को देख कर कभी किसी ने सोचा नहीं था की जॉर्ज की तस्वीर ही दीवार से गायब हो जायेगी। और इसके पीछे वही तस्वीर होगी, जिन्हें राजनीति के फ्रेम में मढ़ने का काम जॉर्ज फर्नांडिस ने किया।

जार्ज फर्नांडिस कितने भी अस्वस्थ क्यों ना हों, लेकिन जो राजनीति देश में चल रही है उससे ज्यादा स्वस्थ्य जॉर्ज हैं, यह कोई भी ताल ठोंक कर कह सकता है। शरद यादव को जबलपुर के कॉलेज से राजनीति की मुख्यधारा में लाने से लेकर लालू यादव की राजनीति को काटने के लिये नीतीश कुमार में पैनापन लाने के पीछे जॉर्ज ही हैं। लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस की जगह नीतीश कुमार को वह जय नारायण निषाद मंजूर हैं, जो लालू यादव का साथ छोड़ टिकट के लिये नीतीश के साथ आ खड़े हुये हैं।

सवाल जॉर्ज की सिर्फ एक सीट का नहीं है, सवाल उस राजनीतिक सोच का है जिसमें खुद का कद बढ़ाने के लिये हर बड़ी लकीर को नेस्तानाबूद करना शुरु हुआ है। और यह खेल संयोग से उन नेताओं में शुरु हुआ है, जो इमरजेन्सी के खिलाफ जेपी आंदोलन से निकले हैं। हांलाकि सत्ता की राजनीतिक लकीर में जॉर्ज ज्यादा बदनाम हो गये क्योंकि अयोध्या से लेकर गुजरात दंगो के दौरान जॉर्ज बीजेपी को अपनी राजनीति विश्वनियता के ढाल से बचाने की कोशिश करते रहे। लेकिन गुजरात दंगो के दौरान नीतीश और शरद यादव में भी हिम्मत नहीं थी कि वह जॉर्ज से झगडा कर एनडीए गठबंधन से अलग होने के लिये कहते। दोनो ही सत्ता में मंत्रीपद की मलाई खाते रहे।

असल में जार्ज अगर ढाल बने तो उसके पीछे उनकी वह राजनीतिक यात्रा भी है, जो बेंगलूर के कैथोलिक सेमीनरी को छोड़ कर मुंबई के फुटपाथ से राजनीति का आगाज करती है। मजदूरों के हक के लिये होटल-ढाबा के मालिकों से लेकर मिल मालिकों के खिलाफ आवाज उठाकर मुंबई में हड़ताल-बंद और अपने आंदोलन से शहर को ठहरा देने की हिम्मत जॉर्ज ने ही इस शहर को दी। 1949 में मुंबई पहुंचे जॉर्ज ने दस साल में ही मजदूरों की गोलबंदी कर अगर 1959 में अपनी ताकत का एहसास हडताल और बंद के जरीये महाराष्ट्र की राजनीति को कराया तो 1967 में कांग्रेस के कद्दावर एस के पाटिल को चुनाव में हराकर संसदीय राजनीति में नेहरु काल के बाद पहली लकीर खिंची, जहां आंदोलन राजनीति की जान होती है, इसे भी देश समझे। जॉर्ज उस दौर के युवाओं के हीरो थे । क्योंकि वह रेल यूनियन के जरीये दुनिया की सबसे बड़ी हडताल करते हैं। सरकार उनसे डरकर उनपर सरकारी प्रतिष्ठानों को डायनामाइट से उड़ाने का आरोप लगाती है। इसीलिये इमरजेन्सी के बाद 1977 के चुनाव में जब हाथों में हथकडी लगाये जॉर्ज की तस्वीर पोस्टर के रुप में आती है, तो मुज्जफरपुर के लोगों के घरों के पूजाघर में यह पोस्टर दीवार पर चस्पा होती है। जिस पर छपा था, यह हथकड़ी हाथों में नही लोकतंत्र पर है। और नीचे छपा था- जेल का ताला टूटेगा जॉर्ज फर्नाडिस छूटेगा।

जाहिर है बाईस साल पहले के चुनाव और अब के चुनाव में एक नयी पीढ़ी आ चुकी है, जिसे न तो जेपी आंदोलन से मतलब है, न इमरजेन्सी उसने देखी है। और जॉर्ज सरीखा व्यक्ति उसके लिये हीरो से ज्यादा उस गंदी राजनीति का प्रतीक है, जिस राजनीति को जनता से नही सत्ता से सरोकार होते है। इस पीढी ने बिहार में लालू का शासन देखा है और नीतीश को अब देख रहा है। नीतीश उसके लिये नये हीरो हो सकते हैं क्योकि लालू तंत्र ने बिहार को ही पटरी से उतार दिया था। लेकिन लालू के खिलाफ नीतीश को हिम्मत जॉर्ज फर्नाडिस से ही मिली चाहे वह समता पार्टी से हो या जनतादल यूनाईटेड से। लेकिन केन्द्र में एनडीए की सत्ता जाने के बाद बिहार में लालू सत्ता के आक्रोष को भुनाने के लिये जो रणनीति नीतीश ने बनायी, उसमें अपने कद को बढाने के लिये जॉर्ज को ही दरकिनार करने की पहली ताकत उन्होने 12 अप्रैल 2006 में दिखा दी। जब पार्टी अध्यक्ष चुनाव में शरद यादव और जॉर्ज आमने सामने खड़े थे । बिलकुल गुरु और चेले की भिंडत । मगर बिसात नीतिश की थी । जार्ज को 25 वोट मिले और शरद यादव को 413 । लेकिन चुनाव के तरीके ने यह संकेत तो दे दिये की नीतीश की बिसात पर जॉर्ज का कोई पांसा नहीं चलेगा और जॉर्ज को खारिज करने के लिये नीतीश अपने हर पांसे को जार्ज की राजनीतिक लकीर मिटाकर अपनी लकीर को बड़ा दिखाने के लिये ही करेंगे ।

लेकिन, इसका अंदाजा किसी को नहीं था कि इस तिगडी की काट वही राजनीति होगी, जिस राजनीति के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने की बात तीनों ने ही अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत में की थी । इसीलिये जॉर्ज को अस्वस्थ बताकर मुज्जफरपुर से टिकट काटने के बाद नीतीश ठहाका लगा रहे हैं कि बिना उनके समर्थन के जॉर्ज चुनाव मैदान में कूदकर अपनी भद ही करायेंगे । वहीं, जॉर्ज अपना राजनीतिक निर्वाण लोकसभा चुनाव लड़कर ही चाहते हैं। इसीलिये जॉर्ज ने पर्चा भरने के बाद अपने मतदाताओं से जिताने की तीन पन्नो की जो अपील की है, उसका सार यही है कि जिस तरह गौतम बुद्द के दो शिष्यों में एक देवदत्त था, जो बुद्ध को मुश्किलों में ही डालता रहा, वहीं उनके दोनों शिष्य ही देवदत्त निकले । आनंद जैसा कोई शिष्य नहीं है इसलिये इंतजार मुज्जफरपुर की जनता का करना होगा, जो बताये जॉर्ज अस्वस्थ है या राजनीति।

Sunday, April 5, 2009

क्या वरुण गांधी एक नयी राजनीति के संकेत हैं? !

राहुल गांधी से दस साल कम उम्र के वरुण गांधी हैं। लेकिन दोनों ने कमोवेश राजनीति में एक ही वक्त कदम रखा। राहुल चुनाव लड़कर संसद पहुंच गये लेकिन वरुण गांधी उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के साथ एक मंच पर बैठकर अपने राजनीतिक इरादों को हवा देते रहे। राहुल को सोनिया ने अमेठी लोकसभा विरासत में दी तो वरुण को पीलीभीत सीट मेनका गांधी ने। राहुल जिस दौर से राजनीतिक उड़ान की शुरुआत करते हैं और दलितों-पिछडों के घर रात बिताने से लेकर कलावती में विकास का अनूठा सच टटोलना चाहते हैं, उस दौर में वरुण कागज पर अपने दर्द को कविता की शक्ल देकर प्रिंस आफ वाड्स यानी जख्मों का राजकुमार रचते हैं।

वह लिखते हैं- मैं मानता हूं /मै अपने पाप के साथ थोड़ी सी मुहब्बत में हूं/ क्योंकि मैं भटका हुआ हूं / इसलिये मुझे बताया गया है / सोचो मत सिर्फ देखो / चलना ही रास्ता दिखायेगा / इसलिये वहां कोई जवाबदेही नहीं है / एक अजनबी सिर्फ पीड़ित है / जिससे तुम कभी मिले नहीं..... तो क्या पीलीभीत में चली उन्मादी हवा ने पहली बार वरुण और राहुल को आमने सामने ला खड़ा किया है। बेटे की रक्षा के इरादे से पीलीभीत पहुंच कर मेनका गांधी कभी गांधी परिवार की दुहायी नहीं देती। वह खुद को सिख परिवार का बता कर हिन्दुओं की रक्षा का सवाल खड़ा करती हैं । ताल ठोंक कर वरुण के बयान को हिन्दुओं की रक्षा से जोड़कर छुपे संकेत भी देती हैं कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चाहे बरगद गिरा हो लेकिन मेनका हिन्दुत्व की जमीन पर इंदिरा की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ भड़के दंगो पर मलहम लगाने को भी तैयार हैं।

तो क्या राहुल-वरुण से पहले सोनिया-मेनका आमने सामने खड़ी हैं? सोनिया गांधी जब कांग्रेस में ही नहीं बल्कि सहयोगियों को खारिज कर राहुल के लिये एक नयी राजनीतिक बिसात बिछाने की तैयारी में है तो क्या मेनका गांधी वरुण के जरीये देश को यह एहसास कराना चाहती है कि इंदिरा-नेहरु की असल विरासत उनके परिवार से जुड़ी है। पीलीभीत के राजनीतिक समीकरण साफ बताते है कि वरुण वहां ना भी जाये तो भी उन्हें चुनाव में जीत हासिल करने में कोई बड़ी मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। तो क्या वरुण की पीलीभीत स्क्रिप्ट महज साप्रदायिकता को उभारने के लिये नहीं लिखी गयी बल्कि उसके पिछे वरुण के उस तेवर-तल्खी को भी उभारना है जो कभी संजय गांधी में देखी गयी थी।

इंदिरा गांधी पर जितना हक राहुल का है उतना ही वरुण गांधी का है । राहुल में अगर राजीव गांधी का बिंब दिखाने में सोनिया जुटी है तो वरुण में संजय गांधी का बिंब दिखाने से मेनका चूकना नहीं चाहती हैं। और कांग्रेस के भीतर कद्द्दावर या ठसक वाले नेता को लेकर जो कसमसाहट लगातार महसूस की जा रही है तो क्या उसमें संजय गांधी के हारमोन्स की खोज हो रही है, जो युवा तुर्क पीढ़ी को दिशा दे सके । मेनका ने पहला राजनीतिक पाठ चन्द्रशेखर से पढ़ा था । माना जाता है इंदिरा गांधी के घर से बहु मेनका की विदाई को राजनीतिक तौर पर साधने की बात भी मेनका अक्सर चन्द्रशेखर से ही करती थी । सोनिया ने जब राजनीति का कहकरा नही पढ़ा था, उस वक्त मेनका राजनीतिक व्याकरण समझने लगी थीं। लेकिन मेनका जिस राजनीतिक जमीन पर खड़ी थीं, उसमें व्याकरण की नहीं फ्रंट रनर बनने के लिये अगुवायी करने की भाषा समझनी थी। यह भाषा इसलिये जरुरी थी क्योकि सोनिया के सामानातंर बगैर इसके, मेनका हो ही नहीं सकती थी।

लेकिन,यह दांव मेनका के हाथ कभी नहीं लगा। राहुल के खड़े होने के बाद भी सिमटती कांग्रेस में सबसे बड़ा सवाल सभी के सामने यही उभरा कि लोकप्रियता वोट बैक में तब्दील नहीं हो पा रही है। राहुल गांधी परिवार के चिराग हैं, इसे देखने तो लोग जुट जाते है लेकिन वोट नहीं डालते। यह तथ्य राहुल से भी जुड़ा और सोनिया गांधी के साथ भी। यह कमजोरी मेनका के साथ भी रही । लेकिन वरुण की उन्मादी स्क्रिप्ट ने गांधी परिवार के भीतर पहली बार ठीक इसके उलट स्थिति बनायी है। यानी मुद्दे को राजनीतिक तौर पर मान्यता देने के लिये ना सिर्फ समूची बीजेपी जुट गयी बल्कि जो हालात मुलायम-लालू -पासवान के हाथ मिलाने से मंडल के दौर की जातीय गोलबंदी होने के कयास लगाये जा रहे थे, उसे भी वरुण की राजनीतिक तिकडम के आगे नये सिरे से सोचना पड़ रहा है।

इतना ही नहीं मायावती की सोशल इंजीनियरिंग की बिसात भी इसमें उलझी । धार्मिक उन्माद दलित और ब्राहमण को नये सीरे से साधेगा। मायावती इमसे इस तरह उलझी भी कि पीलीभीत की कानून व्यवस्था भी मुद्दा बना और रासुका लगाना भी। यानी दोनों स्थिति में बीजेपी के खेल में वरुण के पतीले को लगातार सुलगाने की सोच मायावती के दामन से जुड़ गयी । असल में वरुण गांधी ने सिर्फ वोट जुगाड़ने या बिगाड़ने का खेल नहीं खेला बल्कि इंदिरा गांधी के बाद पहली बार गांधी परिवार के किसी शख्स ने राजनीतिक जमीन को हर पार्टी के लिये उर्वर बनाकर खुद को महज प्यादे के तौर पर रखा है। असल में सोनिया गांधी इस हकीकत को समझ रही हैं कि काग्रेस के भीतर भी साफ्ट हिन्दुत्व का रोग है, जो आज से नहीं नेहरु युग से चला आ रहा है। सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण के पीछे सरदार पटेल की ही सोच थी। अयोध्या को लेकर नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के खेल ने ही कभी जनसंघ तो अब बीजेपी को मुद्दा थमाया। लेकिन इसके पिछे कहीं ना कही मुस्लिम समुदाय को साथ खड़ा करने की चाहत कांग्रेस के भीतर हमेशा रही।

वरुण गांधी का हिन्दु रक्षा के उन्मादी भाषण सरीखा ही भाषण 15 मार्च को कांग्रेस के इमरान किदवई ने दिया। चूंकि वह अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के चेयरमैन हैं तो उन्होने साफ कहा कि, अगर मै मुफ्ती होता तो फतवा जारी कर देता कि भाजपा को वोट देना क्रुफ है। यानी इस्लाम विरोधी है। असल में वरुण ने गांधी परिवार को लेकर वही दुविधा खड़ी कर दी है, जिसे आजादी से पहले तक कांग्रेस भोग रही थी। कांग्रेस जन्म के साथ ही मुस्लिमो को कभी साथ नहीं ला पायी। मुस्लिम समाज कांग्रेस के अधिवेशनों में शामिल होता नहीं था। उस दौर के तीन बड़े मुस्लिम नेता , सर सैयद अहमद खान, जस्टिस अमिर अली और लतीफ खान कांग्रेस को बंगाली हिन्दुओं की संस्था मानते थे। 1937 के चुनाव में 482 मुस्लिम सीटों में से कांग्रेस को सिर्फ 25 सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस ने मुस्लिमों को आकर्षित करने के लिये कुरान के अधिकारी व्ख्याकार मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को अध्यक्ष बनाया लेकिन सफलता तब भी नहीं मिली। 1945 के नेशनल असेंबली के चुनाव हों या 1946 के प्रांतीय असेम्बली के चुनाव, कांग्रेस का मुस्लिम सीटों पर जहां सूपडा साफ था, वहीं हिन्दु बहुल सीटो पर नब्बे फिसदी से ज्यादा सफलता मिली थी।

तो क्या नया सवाल बीजेपी को लेकर कांग्रेस के भीतर कसमसा रहा है कि हिन्दु वोट बैक अगर बीजेपी के साथ है और मुस्लिम समुदाय अलग अलग क्षेत्रिय दलों में अपनी रहनुमायी देख रहा है तो कांग्रेस की जमीन बढ़ेगी कैसे। कहीं वरुण गांधी के जरीये तो भविष्य में काग्रेस अपना उत्थान नहीं देखने लगेगी। सोनिया काग्रेस के अतीत की हकीकत और भविष्य के दांव के बीच वर्तमान का संकट नहीं समझ पा रही हो, ऐसा हो नहीं सकता । राहुल गांधी की राजनीति जिस आम आदमी के हाथ का सवाल खड़ा करती है, उसमें विकास की बात अव्वल है। लेकिन आम आदमी की न्यूनतम की लड़ाई जितनी पैनी है, उसमें राहुल का नारा कांग्रेस को लोकप्रिय बना सकता है लेकिन वोट नहीं दिला सकता। जबकि आईडेंटिटी यानी पहचान की राजनीति ही कांग्रेस के साथ हमेशा जुड़ी रही। जातीय गोलबंदी से लेकर आदिवासी ,पिछडों और मुस्लिम को लेकर आईडेंटिटी की कांग्रेसी राजनीति ही चली और इसी के सामानातंर सॉफ्ट हिन्दुत्व की लकीर भी खिंची जाती रही। राहुल इस राजनीति की थाह को पकड नहीं पाये क्योंकि सोनिया गांधी ने पार्टी चलाने का समूचा खांचा इंदिरा गांधी सरीखा कर तो लिया लेकिन इंदिरा सरीखे सलाहकार नहीं रखे जो समाज की नब्ज पर उंगली रख कांग्रेस के भीतर गांधी परिवार की पैठ समाज तक ले जाते।

संयोग से सोनिया के सलाहकार भी अपने घेरे में सोनिया से कही ज्यादा अलोकतांत्रिक हैं। इसलिये वरुण गांधी को साधने का तरीका भी सतही है । जिस मुद्दे को लेकर वरुण को कांग्रेस साधना चाह रही है , उसके पीछे गांधी की समझ और सेक्यूलर भाव से मुस्लिमों को साथ खड़ा करने की चाहत है । लेकिन उम्मीद महज इतनी है कि हिन्दु-मुस्लिम की लकीर सीधे वोट बैक बांट दे। यानी जिस राजनीति ने कांग्रेस और बीजेपी सरीखे राष्ट्रीय दलों को भी क्षेत्रीय दलो के सामने झुकने के लिये मजबूर कर दिया अगर वरुण गांधी के जरीये उस राजनीतिक वोट बैक में सेंध लगायी जा सकती है
लेकिन गांधी परिवार की लड़ाई यही से शुरु होती है क्योकि वरुण से उन्मादी बोली से कही तीखे शब्द विनय कटियार कहते रहते हैं।

कल तक कल्याण सिंह भी कहते थे। नरेन्द्र मोदी ने भी उन्मादी शब्दों से परहेज अभी भी नहीं किया है। लेकिन वरुण का मतलब इन सबसे अलग है । चुनावी पटल पर मुद्दों के ही आसरे गांधी परिवार अगर दोनो तरफ खड़ा है तो बीजेपी की यह सबसे बडी हार है, उसे बीजेपी के रणनीतिकार समझ रहे है। क्योंकि मुद्दा हिन्दुत्व या सांप्रदायिकता नहीं है बल्कि गांधी परिवार है। और सोनिया के रणनीतिकारों ने अगर वरुण के जरीये ही कांग्रेस को बढ़ाने की व्यूहरचना की तो ना सिर्फ झटके में मंडल-कमंडल की राजनीति पर पनपी क्षेत्रीय राजनीति का बंटाधार होगा। बल्कि गांधी परिवार भी आधुनिक चेहरे के साथ उभरेगा, जिसमें मुखौटा नहीं होगा।

आडवाणी के बाद शुरु होगी संघ की असल पारी !

22 मार्च को करीब रात साढ़े दस बजे वरुण गांधी के खिलाफ चुनाव आयोग का फैसला आया। 11 बजने से पहले ही संघ के नये मुखिया मोहनराव मधुकर भगवत का नागपुर से ये निर्देश दिल्ली पहुंच गया कि वरुण का साथ संघ परिवार देगा और वह इसी मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे । राजनीतिक मुद्दे को लेकर इतनी तत्परता इससे पहले कभी किसी सरसंघचालक ने दिखायी तो वह गुरु गोलवरकर थे। उन्होंने गांधी की हत्या के बाद मुस्लिमों को पुचकारने की सोच के खिलाफ आक्रोष को एक नयी जगह दी थी। हालांकि, उसके बाद संघ पर प्रतिबंध भी लगा।

लेकिन देश के हालात साठ दशक में जिस तरह बदल चुके हैं, उसमें गीता की कमस खाकर हिन्दुओं पर उठे हाथ को काट लेने का वचन समाज में जगह पायेगा यह सोचना मुश्किल है लेकिन संघ की आंखों से देखे तो हालात साठ साल पहले जैसे हो चुके हैं और इसको अपने तरीके से मोहन भागवत न सिर्फ परिभाषित करने को तैयार है बल्कि बीजेपी के जरीये भारतीय राजनीति को भी नया मूलमंत्र देने की तैयारी कर रहे हैं। इसके संकेत संघ ने परंपरा तोड़ कर मोहन भागवत को सरसंघचालक बना कर की तो मोहन भागवत ने पहले भाषण में कर दिया ।

संघ के मुखिया का पद संभालते ही मोहनराव मधुकर भागवत ने जो-जो बातें कहीं उसका लब्बो-लुआब यही निकला-"यह देश हिन्दुओं का है । हिन्दुस्तान छोड़कर दुनिया में हिन्दुओं की अपनी कहीं जाने वाली भूमि नहीं है । वह इस घर का मालिक है । लेकिन उसकी असंगठित अवस्था और उसकी दुर्बलता के कारण वह अपने ही घर में पिट रहा है। इसलिये हिन्दुओं को संगठित होना होगा । क्योंकि भारत हिन्दु राष्ट्र है।"

असल में हेडगेवार के बाद सिर्फ गुरु गोलवरकर ही थे, जिन्होंने सरसंघचालक बनने के बाद बिना हेडगेवार का जिक्र किये सीधे उन्हीं की बात कही। यानी स्वयंसेवकों को इसका एहसास कराया कि हिन्दुत्व की सोच उनकी अपनी है, जो हेडगेवार की भी रही होगी। उसके बाद यह हिम्मत बालासाहब देवरस, रज्जू भैया और सुदर्शन दिखला नहीं पाये। नौ साल पहले सुदर्शन ने जब सरसंघचालक का पद संभाला था तो अपने पहले भाषण का निन्यानवे फीसदी संघ के गौरवशाली अतीत को समर्पित करते हुए हर बयान के साथ हेडगेवार का नाम लेते रहे थे। वह अपनी सोच को नहीं रख पाये। वहीं नौ साल पहले मार्च 2000 में जब मोहनराव भागवत ने सरकार्यवाह का पद संभाला तो हर बात अपनी कही..यहां तक की उन्हें सरकार्यवाह बनाने के बीच में जो स्वयंसेवक विरोध कर रहे थेस उन पर सीधा निशाना साध कर कहा," मेरे नाम के प्रस्ताव तथा अनुमोदन में बहुत सारी बातें जो कहीं गयी, वे क्यों कहीं गयी, यह मै जानता हूं। मै जानवरों का डॉक्टर हूं। जानवरों को इंजेक्शन देते समय सुई घोपना पड़ता है, उसके पहले उस जगह को हाथ से सहलाकर उस पशु का ध्यान बटाने की पद्दती मेरे शास्त्र में बतायी गयी है। इसलिये मैं भी और आप भी मेरी कमियो को जानते हैं।"

वहीं नौ साल बाद जब उन्हे सरसंघचालक का पद मिला तो उन्होंने बेहिचक हेडगेवार का नाम लिये बगैर उनकी हर सोच को अपनी भाषा में ढाल कर स्वंयसेवको को इसका एहसास कराया कि वह हिन्दुत्व को किस रफ्तार से देखना चाहते हैं। असल में भागवत अब समझ चुके है कि संघ की सोच उन्हें लागू कर दिखानी है, इसलिये वह कोई वैसा भ्रम रखना नहीं चाहते है जैसा सुदर्शन के दौर में रहा। भागवत उस तरह के किसी राजनीतिक प्रयोग के भी पक्ष में नहीं है, जैसा देवरस ने इमरजेन्सी में कमाल कर दिखाया था । भागवत इस सच को समझ रहे है कि देवरस के पीछे सपना देखने वाले स्वयंसेवकों की फौज थी। वहीं भागवत के पीछे सपना टूटता हुआ देखने वालो की फौज है इसलिये कोई भी राजनीतिक प्रयोग संघ की विचारधारा के आसरे नहीं चल पायेगा जबकि विचारधारा विकसित होकर स्वयंसेवकों को जोड़ ले तो राजनीति को प्रयोग के लिये एक धारा तो मिल जायेगी । इसलिये भागवत ने उन मदनदास देवी को संघ की टीम में दरकिनार किया है, जो तीन दशको से राजनीति के खिलाडी के तौर पर संघ के भीतर से काम करते हुये बीजेपी को प्रभावित करते रहे। मदनदास देवी को प्रचारक प्रमुख बनाकर बुजुर्ग प्रचारको की सुविधा-असुविधा देखने में लगा दिया गया है। वहीं इमरजेन्सी में जो साथी प्रचारक भूमिगत होकर भागवत के साथ काम करते रहे उन्हे भागवत ने सहसरकार्यवाह बनाकर संघ में सीधा संदेश दिया है कि अब एक ही धारा पर संघ चलेगा। मन भेद का सवाल ही पैदा नहीं होता। भैयाजी जोशी ने इसीलिये अपनी टीम में विचारधारा और राजनीतिक नौकरशाही को जोडा है । सुरेश सोनी के साथ दत्तात्रेय होसबोले भी सह सर कार्यवाह बनाये गये है । कमोवेश यह मिजाज हर क्षेत्र में है लेकिन बडा सवाल उस राजनीति का है जिसपर बीजेपी को चलना है । भागवत ने सांगठनिक तौर पर संघ को एक धागे में जोड़ने की पहल जिन नौ सालो में की, संयोग से उस दौर में संघ के तेवर और समझ उस राजनीतिक प्रयोग की तरह होते गये, जिस पर चलते हुये बीजेपी ने सत्ता गंवायी और खुद का कांग्रेसीकरण किया।

संघ के भीतर भी स्वयंसेवको की जमात सत्ता की मलाई को ही असल विचारधारा का परिणाम मानने लगी । पहली बार यह एहसास उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के तेवरो ने बार-बार कराया । वाजपेयी को रिटायमेंट की सीख देने से लेकर हिन्दुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने की नसीहत देना और मुस्लिम समुदाय के बारे में ज्ञान दिखला कर आडवाणी के जिन्ना प्रेम को लोकतांत्रिक पहलुओं से जोड़कर देखना । भागवत ही नहीं संघ के भीतर एक पूरी पीढी पहली बार सरसंघचालक सुदर्शन के खिलाफ हो चली थी, जो खुलेतौर पर मान रही थी कि सुदर्शन के बने रहने का मतलब है संघ का बंटाधार । लेकिन संघ की पारंपरिक स्थितयां इस बात की इजाजत देती नहीं कि सरकार्यवाह जो सोचे वह सरसंघचालक की सहमति के बगैर पूरा हो सकती हैं। वहीं, सरसंघचालक के खिलाफ जाकर सरकार्यवाह संघ के नवनिर्माण का सवाल खडा करें, यह भी संभव नहीं है।

लेकिन 1925 में गठित आरएसएस में पहली बार यह देखने को मिला कि सरसंघचालक को हटाने के लिये संघ के भीतर ही गोलबंदी शुरु हुई । मार्च के पहले हफ्ते में दिल्ली के झंडेवालान मुख्यालय में यह मुहर लग गयी कि सुदर्शन को अब अपनी गद्दी भागवत के लिये छोड़ देनी चाहिये । लेकिन संघ में यह परंपरा रही नहीं है कि दिल-दिमाग-शरीर से मजबूत सरसंघचालक अपनी विरासत कैसे किसी दूसरे को दे दे । संघ ने कितना कुछ गंवाया है और दोबारा खुद को खड़ा करने की कुलबुलाहट उसके भीतर कैसे हिलोरे मार रही है, इसका एहसास सुदर्शन का आखिरी भाषण कराता है । जिसमें एक मजबूत दिमाग और शरीर रखने वाला व्यक्ति बताता है कि सालो से जो रसोईया उसे खाना खिलाता रहा, अब वह उसको पहचान नहीं पा रहे हैं। तस्वीर देखने पर भी पहचान नहीं पाते हैं। मेडिकली कितना कमजोर हो चला था सरसंघचालक और अगर वह पद ना छोड़े तो संघ को आगे बढाने या सांगठनिक तौर पर मजबूत करने में संघ सक्षम नहीं हो पायेगा । जिस शख्स ने सरसंघचालक बनने के बाद अपने पहले भाषण में दसियों बार डॉ हेडगेवार का नाम लिया..वही शख्स पद छोडने का ऐलान करते वक्त सिर्फ अपने बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में ही बताये। असल में सुदर्शन की विदाई ने ना सिर्फ संघ को अंदर से चेताया है, बल्कि बीजेपी के लिये भी भागवत एक नयी चेतावनी के साथ आये हैं।

राजनीति में सिर्फ इंदिरा गांधी का ही नाम उभरता है, जो विरोधियो के मुंह से अपनी तारीफ करवाकर उन्हें हटाती थी । भागवत का आना कुछ ऐसा ही है । इसका पहला स्वाद वरुण गांधी को लेकर संघ के तौर तरीको ने दिखालाया । वरुण गांधी के आसरे संघ ने आडवाणी को भी संकेत दिये की उनकी आखिरी पारी में अगर बीजेपी को सत्ता मिलती है तो उन्हे अपने रहते संघ परिवार के अनुकुल नीतियो पर चलना हैं और अगर हार मिलती है तो भी जाते जाते संघ परिवार के अनुकुल ही लकीर खिंचनी है । यानी चुनाव के तुरंत बाद बीजेपी का नवनिर्माण की पहल तय है । असल में मोहन भागवत अपने नौ साल के उस कठिन दौर को भूले नहीं है जो बतौर सर कार्यवाह उन्होंने भोगे।

कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार ठंडे बस्ते में डल चुका था।

पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोड़ने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमों को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे, उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।

जाहिर है, इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देखकर खुद को अलग थलग समझ रहा था, बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो जुड़ा तो संघ परिवार के साथ, लेकिन बार बार सावरकर की सोच उन्हे संघ से दूर ले जाती । इसी लिये भागवत ने संघ की जो नयी टीम बनायी, उसमें मराठियो को सबसे ज्यादा तरजीह ही नहीं दी बल्कि हर निर्णायक पद पर मराठी स्वयं सेवक को स्थापित किया । मोहन भागवत बीजेपी की नीतियों को संघ के ढर्रे पर लाकर परिवार को एकजुट करना चाहते हैं, जिससे किसी को ना लगे कि संघ को अपने संगठनों की लगाम कसनी नहीं आती । क्योंकि ढीली लगाम का असर उन्होने सुदर्शन के दौर में देखा है, जब 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया, जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनों में जाना शुरु कर दिया। महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी, जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया । भागवत इसी डोर को थामना चाह रहे हैं ।

ऐसे में भागवत बीजेपी को खुला छोडेंगे, यह सोचना भी मुश्किल है । भागवत के सामने बोजेपी को लेकर जो चुनौती है, उसमें उनके पंसदीदा नेताओं के अंतर्विरोध हैं । बाल आप्टे को कोई जानता नहीं । नरेन्द्र मोदी को लेकर संघ के भीतर मनभेद है। जेटली सीधे जनता से चुनकर कर आते नहीं है । यानी जिस सोच को बीजेपी के जरीये भागवत को आगे बढाना है, उसमें यही तीन नेताओं के नाम अगर सबसे ऊपर होंगे, तो सवाल राजनाथ सिंह के उस संघ प्रेम का होगा जो एक साथ संघ की सोच को अकाट्य मानता हो तो दूसरी तरफ टेंटवाला यानी मित्तल के जरीये बीजेपी में बवाल भी खड़ा कराता है। भागवत को जानने वाले मानते हैं कि वह परिणाम प्रेमी है। यानी हाथ में रुद्दाक्ष की माला जप कर हिन्दुत्व का राग से बेहतर उन्हे लाठी लेकर जयश्रीराम का नारा लगाना भाता है । यह समझ अगर देश के भविष्य की राजनीति को साप्रायिकता के चोला ओढे दिखायी दे रही है तो इसके लिये देश को तैयार तो होना ही पड़ेगा क्योंकि भागवत वाकई एक ऐसे डाक्टर हैं, जिनकी सूरत डाक्टर हेडगेवार से मिलती है और सीरत वेटेनरी डाक्टर की है, जो पहले सहलायेगा और जैसे ही ध्यान बंटेगा वैसे ही इंजेक्शन घोप देगा।