22 मार्च को करीब रात साढ़े दस बजे वरुण गांधी के खिलाफ चुनाव आयोग का फैसला आया। 11 बजने से पहले ही संघ के नये मुखिया मोहनराव मधुकर भगवत का नागपुर से ये निर्देश दिल्ली पहुंच गया कि वरुण का साथ संघ परिवार देगा और वह इसी मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे । राजनीतिक मुद्दे को लेकर इतनी तत्परता इससे पहले कभी किसी सरसंघचालक ने दिखायी तो वह गुरु गोलवरकर थे। उन्होंने गांधी की हत्या के बाद मुस्लिमों को पुचकारने की सोच के खिलाफ आक्रोष को एक नयी जगह दी थी। हालांकि, उसके बाद संघ पर प्रतिबंध भी लगा।
लेकिन देश के हालात साठ दशक में जिस तरह बदल चुके हैं, उसमें गीता की कमस खाकर हिन्दुओं पर उठे हाथ को काट लेने का वचन समाज में जगह पायेगा यह सोचना मुश्किल है लेकिन संघ की आंखों से देखे तो हालात साठ साल पहले जैसे हो चुके हैं और इसको अपने तरीके से मोहन भागवत न सिर्फ परिभाषित करने को तैयार है बल्कि बीजेपी के जरीये भारतीय राजनीति को भी नया मूलमंत्र देने की तैयारी कर रहे हैं। इसके संकेत संघ ने परंपरा तोड़ कर मोहन भागवत को सरसंघचालक बना कर की तो मोहन भागवत ने पहले भाषण में कर दिया ।
संघ के मुखिया का पद संभालते ही मोहनराव मधुकर भागवत ने जो-जो बातें कहीं उसका लब्बो-लुआब यही निकला-"यह देश हिन्दुओं का है । हिन्दुस्तान छोड़कर दुनिया में हिन्दुओं की अपनी कहीं जाने वाली भूमि नहीं है । वह इस घर का मालिक है । लेकिन उसकी असंगठित अवस्था और उसकी दुर्बलता के कारण वह अपने ही घर में पिट रहा है। इसलिये हिन्दुओं को संगठित होना होगा । क्योंकि भारत हिन्दु राष्ट्र है।"
असल में हेडगेवार के बाद सिर्फ गुरु गोलवरकर ही थे, जिन्होंने सरसंघचालक बनने के बाद बिना हेडगेवार का जिक्र किये सीधे उन्हीं की बात कही। यानी स्वयंसेवकों को इसका एहसास कराया कि हिन्दुत्व की सोच उनकी अपनी है, जो हेडगेवार की भी रही होगी। उसके बाद यह हिम्मत बालासाहब देवरस, रज्जू भैया और सुदर्शन दिखला नहीं पाये। नौ साल पहले सुदर्शन ने जब सरसंघचालक का पद संभाला था तो अपने पहले भाषण का निन्यानवे फीसदी संघ के गौरवशाली अतीत को समर्पित करते हुए हर बयान के साथ हेडगेवार का नाम लेते रहे थे। वह अपनी सोच को नहीं रख पाये। वहीं नौ साल पहले मार्च 2000 में जब मोहनराव भागवत ने सरकार्यवाह का पद संभाला तो हर बात अपनी कही..यहां तक की उन्हें सरकार्यवाह बनाने के बीच में जो स्वयंसेवक विरोध कर रहे थेस उन पर सीधा निशाना साध कर कहा," मेरे नाम के प्रस्ताव तथा अनुमोदन में बहुत सारी बातें जो कहीं गयी, वे क्यों कहीं गयी, यह मै जानता हूं। मै जानवरों का डॉक्टर हूं। जानवरों को इंजेक्शन देते समय सुई घोपना पड़ता है, उसके पहले उस जगह को हाथ से सहलाकर उस पशु का ध्यान बटाने की पद्दती मेरे शास्त्र में बतायी गयी है। इसलिये मैं भी और आप भी मेरी कमियो को जानते हैं।"
वहीं नौ साल बाद जब उन्हे सरसंघचालक का पद मिला तो उन्होंने बेहिचक हेडगेवार का नाम लिये बगैर उनकी हर सोच को अपनी भाषा में ढाल कर स्वंयसेवको को इसका एहसास कराया कि वह हिन्दुत्व को किस रफ्तार से देखना चाहते हैं। असल में भागवत अब समझ चुके है कि संघ की सोच उन्हें लागू कर दिखानी है, इसलिये वह कोई वैसा भ्रम रखना नहीं चाहते है जैसा सुदर्शन के दौर में रहा। भागवत उस तरह के किसी राजनीतिक प्रयोग के भी पक्ष में नहीं है, जैसा देवरस ने इमरजेन्सी में कमाल कर दिखाया था । भागवत इस सच को समझ रहे है कि देवरस के पीछे सपना देखने वाले स्वयंसेवकों की फौज थी। वहीं भागवत के पीछे सपना टूटता हुआ देखने वालो की फौज है इसलिये कोई भी राजनीतिक प्रयोग संघ की विचारधारा के आसरे नहीं चल पायेगा जबकि विचारधारा विकसित होकर स्वयंसेवकों को जोड़ ले तो राजनीति को प्रयोग के लिये एक धारा तो मिल जायेगी । इसलिये भागवत ने उन मदनदास देवी को संघ की टीम में दरकिनार किया है, जो तीन दशको से राजनीति के खिलाडी के तौर पर संघ के भीतर से काम करते हुये बीजेपी को प्रभावित करते रहे। मदनदास देवी को प्रचारक प्रमुख बनाकर बुजुर्ग प्रचारको की सुविधा-असुविधा देखने में लगा दिया गया है। वहीं इमरजेन्सी में जो साथी प्रचारक भूमिगत होकर भागवत के साथ काम करते रहे उन्हे भागवत ने सहसरकार्यवाह बनाकर संघ में सीधा संदेश दिया है कि अब एक ही धारा पर संघ चलेगा। मन भेद का सवाल ही पैदा नहीं होता। भैयाजी जोशी ने इसीलिये अपनी टीम में विचारधारा और राजनीतिक नौकरशाही को जोडा है । सुरेश सोनी के साथ दत्तात्रेय होसबोले भी सह सर कार्यवाह बनाये गये है । कमोवेश यह मिजाज हर क्षेत्र में है लेकिन बडा सवाल उस राजनीति का है जिसपर बीजेपी को चलना है । भागवत ने सांगठनिक तौर पर संघ को एक धागे में जोड़ने की पहल जिन नौ सालो में की, संयोग से उस दौर में संघ के तेवर और समझ उस राजनीतिक प्रयोग की तरह होते गये, जिस पर चलते हुये बीजेपी ने सत्ता गंवायी और खुद का कांग्रेसीकरण किया।
संघ के भीतर भी स्वयंसेवको की जमात सत्ता की मलाई को ही असल विचारधारा का परिणाम मानने लगी । पहली बार यह एहसास उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के तेवरो ने बार-बार कराया । वाजपेयी को रिटायमेंट की सीख देने से लेकर हिन्दुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने की नसीहत देना और मुस्लिम समुदाय के बारे में ज्ञान दिखला कर आडवाणी के जिन्ना प्रेम को लोकतांत्रिक पहलुओं से जोड़कर देखना । भागवत ही नहीं संघ के भीतर एक पूरी पीढी पहली बार सरसंघचालक सुदर्शन के खिलाफ हो चली थी, जो खुलेतौर पर मान रही थी कि सुदर्शन के बने रहने का मतलब है संघ का बंटाधार । लेकिन संघ की पारंपरिक स्थितयां इस बात की इजाजत देती नहीं कि सरकार्यवाह जो सोचे वह सरसंघचालक की सहमति के बगैर पूरा हो सकती हैं। वहीं, सरसंघचालक के खिलाफ जाकर सरकार्यवाह संघ के नवनिर्माण का सवाल खडा करें, यह भी संभव नहीं है।
लेकिन 1925 में गठित आरएसएस में पहली बार यह देखने को मिला कि सरसंघचालक को हटाने के लिये संघ के भीतर ही गोलबंदी शुरु हुई । मार्च के पहले हफ्ते में दिल्ली के झंडेवालान मुख्यालय में यह मुहर लग गयी कि सुदर्शन को अब अपनी गद्दी भागवत के लिये छोड़ देनी चाहिये । लेकिन संघ में यह परंपरा रही नहीं है कि दिल-दिमाग-शरीर से मजबूत सरसंघचालक अपनी विरासत कैसे किसी दूसरे को दे दे । संघ ने कितना कुछ गंवाया है और दोबारा खुद को खड़ा करने की कुलबुलाहट उसके भीतर कैसे हिलोरे मार रही है, इसका एहसास सुदर्शन का आखिरी भाषण कराता है । जिसमें एक मजबूत दिमाग और शरीर रखने वाला व्यक्ति बताता है कि सालो से जो रसोईया उसे खाना खिलाता रहा, अब वह उसको पहचान नहीं पा रहे हैं। तस्वीर देखने पर भी पहचान नहीं पाते हैं। मेडिकली कितना कमजोर हो चला था सरसंघचालक और अगर वह पद ना छोड़े तो संघ को आगे बढाने या सांगठनिक तौर पर मजबूत करने में संघ सक्षम नहीं हो पायेगा । जिस शख्स ने सरसंघचालक बनने के बाद अपने पहले भाषण में दसियों बार डॉ हेडगेवार का नाम लिया..वही शख्स पद छोडने का ऐलान करते वक्त सिर्फ अपने बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में ही बताये। असल में सुदर्शन की विदाई ने ना सिर्फ संघ को अंदर से चेताया है, बल्कि बीजेपी के लिये भी भागवत एक नयी चेतावनी के साथ आये हैं।
राजनीति में सिर्फ इंदिरा गांधी का ही नाम उभरता है, जो विरोधियो के मुंह से अपनी तारीफ करवाकर उन्हें हटाती थी । भागवत का आना कुछ ऐसा ही है । इसका पहला स्वाद वरुण गांधी को लेकर संघ के तौर तरीको ने दिखालाया । वरुण गांधी के आसरे संघ ने आडवाणी को भी संकेत दिये की उनकी आखिरी पारी में अगर बीजेपी को सत्ता मिलती है तो उन्हे अपने रहते संघ परिवार के अनुकुल नीतियो पर चलना हैं और अगर हार मिलती है तो भी जाते जाते संघ परिवार के अनुकुल ही लकीर खिंचनी है । यानी चुनाव के तुरंत बाद बीजेपी का नवनिर्माण की पहल तय है । असल में मोहन भागवत अपने नौ साल के उस कठिन दौर को भूले नहीं है जो बतौर सर कार्यवाह उन्होंने भोगे।
कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार ठंडे बस्ते में डल चुका था।
पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोड़ने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमों को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे, उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।
जाहिर है, इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देखकर खुद को अलग थलग समझ रहा था, बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो जुड़ा तो संघ परिवार के साथ, लेकिन बार बार सावरकर की सोच उन्हे संघ से दूर ले जाती । इसी लिये भागवत ने संघ की जो नयी टीम बनायी, उसमें मराठियो को सबसे ज्यादा तरजीह ही नहीं दी बल्कि हर निर्णायक पद पर मराठी स्वयं सेवक को स्थापित किया । मोहन भागवत बीजेपी की नीतियों को संघ के ढर्रे पर लाकर परिवार को एकजुट करना चाहते हैं, जिससे किसी को ना लगे कि संघ को अपने संगठनों की लगाम कसनी नहीं आती । क्योंकि ढीली लगाम का असर उन्होने सुदर्शन के दौर में देखा है, जब 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया, जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनों में जाना शुरु कर दिया। महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी, जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया । भागवत इसी डोर को थामना चाह रहे हैं ।
ऐसे में भागवत बीजेपी को खुला छोडेंगे, यह सोचना भी मुश्किल है । भागवत के सामने बोजेपी को लेकर जो चुनौती है, उसमें उनके पंसदीदा नेताओं के अंतर्विरोध हैं । बाल आप्टे को कोई जानता नहीं । नरेन्द्र मोदी को लेकर संघ के भीतर मनभेद है। जेटली सीधे जनता से चुनकर कर आते नहीं है । यानी जिस सोच को बीजेपी के जरीये भागवत को आगे बढाना है, उसमें यही तीन नेताओं के नाम अगर सबसे ऊपर होंगे, तो सवाल राजनाथ सिंह के उस संघ प्रेम का होगा जो एक साथ संघ की सोच को अकाट्य मानता हो तो दूसरी तरफ टेंटवाला यानी मित्तल के जरीये बीजेपी में बवाल भी खड़ा कराता है। भागवत को जानने वाले मानते हैं कि वह परिणाम प्रेमी है। यानी हाथ में रुद्दाक्ष की माला जप कर हिन्दुत्व का राग से बेहतर उन्हे लाठी लेकर जयश्रीराम का नारा लगाना भाता है । यह समझ अगर देश के भविष्य की राजनीति को साप्रायिकता के चोला ओढे दिखायी दे रही है तो इसके लिये देश को तैयार तो होना ही पड़ेगा क्योंकि भागवत वाकई एक ऐसे डाक्टर हैं, जिनकी सूरत डाक्टर हेडगेवार से मिलती है और सीरत वेटेनरी डाक्टर की है, जो पहले सहलायेगा और जैसे ही ध्यान बंटेगा वैसे ही इंजेक्शन घोप देगा।
लेकिन देश के हालात साठ दशक में जिस तरह बदल चुके हैं, उसमें गीता की कमस खाकर हिन्दुओं पर उठे हाथ को काट लेने का वचन समाज में जगह पायेगा यह सोचना मुश्किल है लेकिन संघ की आंखों से देखे तो हालात साठ साल पहले जैसे हो चुके हैं और इसको अपने तरीके से मोहन भागवत न सिर्फ परिभाषित करने को तैयार है बल्कि बीजेपी के जरीये भारतीय राजनीति को भी नया मूलमंत्र देने की तैयारी कर रहे हैं। इसके संकेत संघ ने परंपरा तोड़ कर मोहन भागवत को सरसंघचालक बना कर की तो मोहन भागवत ने पहले भाषण में कर दिया ।
संघ के मुखिया का पद संभालते ही मोहनराव मधुकर भागवत ने जो-जो बातें कहीं उसका लब्बो-लुआब यही निकला-"यह देश हिन्दुओं का है । हिन्दुस्तान छोड़कर दुनिया में हिन्दुओं की अपनी कहीं जाने वाली भूमि नहीं है । वह इस घर का मालिक है । लेकिन उसकी असंगठित अवस्था और उसकी दुर्बलता के कारण वह अपने ही घर में पिट रहा है। इसलिये हिन्दुओं को संगठित होना होगा । क्योंकि भारत हिन्दु राष्ट्र है।"
असल में हेडगेवार के बाद सिर्फ गुरु गोलवरकर ही थे, जिन्होंने सरसंघचालक बनने के बाद बिना हेडगेवार का जिक्र किये सीधे उन्हीं की बात कही। यानी स्वयंसेवकों को इसका एहसास कराया कि हिन्दुत्व की सोच उनकी अपनी है, जो हेडगेवार की भी रही होगी। उसके बाद यह हिम्मत बालासाहब देवरस, रज्जू भैया और सुदर्शन दिखला नहीं पाये। नौ साल पहले सुदर्शन ने जब सरसंघचालक का पद संभाला था तो अपने पहले भाषण का निन्यानवे फीसदी संघ के गौरवशाली अतीत को समर्पित करते हुए हर बयान के साथ हेडगेवार का नाम लेते रहे थे। वह अपनी सोच को नहीं रख पाये। वहीं नौ साल पहले मार्च 2000 में जब मोहनराव भागवत ने सरकार्यवाह का पद संभाला तो हर बात अपनी कही..यहां तक की उन्हें सरकार्यवाह बनाने के बीच में जो स्वयंसेवक विरोध कर रहे थेस उन पर सीधा निशाना साध कर कहा," मेरे नाम के प्रस्ताव तथा अनुमोदन में बहुत सारी बातें जो कहीं गयी, वे क्यों कहीं गयी, यह मै जानता हूं। मै जानवरों का डॉक्टर हूं। जानवरों को इंजेक्शन देते समय सुई घोपना पड़ता है, उसके पहले उस जगह को हाथ से सहलाकर उस पशु का ध्यान बटाने की पद्दती मेरे शास्त्र में बतायी गयी है। इसलिये मैं भी और आप भी मेरी कमियो को जानते हैं।"
वहीं नौ साल बाद जब उन्हे सरसंघचालक का पद मिला तो उन्होंने बेहिचक हेडगेवार का नाम लिये बगैर उनकी हर सोच को अपनी भाषा में ढाल कर स्वंयसेवको को इसका एहसास कराया कि वह हिन्दुत्व को किस रफ्तार से देखना चाहते हैं। असल में भागवत अब समझ चुके है कि संघ की सोच उन्हें लागू कर दिखानी है, इसलिये वह कोई वैसा भ्रम रखना नहीं चाहते है जैसा सुदर्शन के दौर में रहा। भागवत उस तरह के किसी राजनीतिक प्रयोग के भी पक्ष में नहीं है, जैसा देवरस ने इमरजेन्सी में कमाल कर दिखाया था । भागवत इस सच को समझ रहे है कि देवरस के पीछे सपना देखने वाले स्वयंसेवकों की फौज थी। वहीं भागवत के पीछे सपना टूटता हुआ देखने वालो की फौज है इसलिये कोई भी राजनीतिक प्रयोग संघ की विचारधारा के आसरे नहीं चल पायेगा जबकि विचारधारा विकसित होकर स्वयंसेवकों को जोड़ ले तो राजनीति को प्रयोग के लिये एक धारा तो मिल जायेगी । इसलिये भागवत ने उन मदनदास देवी को संघ की टीम में दरकिनार किया है, जो तीन दशको से राजनीति के खिलाडी के तौर पर संघ के भीतर से काम करते हुये बीजेपी को प्रभावित करते रहे। मदनदास देवी को प्रचारक प्रमुख बनाकर बुजुर्ग प्रचारको की सुविधा-असुविधा देखने में लगा दिया गया है। वहीं इमरजेन्सी में जो साथी प्रचारक भूमिगत होकर भागवत के साथ काम करते रहे उन्हे भागवत ने सहसरकार्यवाह बनाकर संघ में सीधा संदेश दिया है कि अब एक ही धारा पर संघ चलेगा। मन भेद का सवाल ही पैदा नहीं होता। भैयाजी जोशी ने इसीलिये अपनी टीम में विचारधारा और राजनीतिक नौकरशाही को जोडा है । सुरेश सोनी के साथ दत्तात्रेय होसबोले भी सह सर कार्यवाह बनाये गये है । कमोवेश यह मिजाज हर क्षेत्र में है लेकिन बडा सवाल उस राजनीति का है जिसपर बीजेपी को चलना है । भागवत ने सांगठनिक तौर पर संघ को एक धागे में जोड़ने की पहल जिन नौ सालो में की, संयोग से उस दौर में संघ के तेवर और समझ उस राजनीतिक प्रयोग की तरह होते गये, जिस पर चलते हुये बीजेपी ने सत्ता गंवायी और खुद का कांग्रेसीकरण किया।
संघ के भीतर भी स्वयंसेवको की जमात सत्ता की मलाई को ही असल विचारधारा का परिणाम मानने लगी । पहली बार यह एहसास उस दौर में सरसंघचालक सुदर्शन के तेवरो ने बार-बार कराया । वाजपेयी को रिटायमेंट की सीख देने से लेकर हिन्दुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने की नसीहत देना और मुस्लिम समुदाय के बारे में ज्ञान दिखला कर आडवाणी के जिन्ना प्रेम को लोकतांत्रिक पहलुओं से जोड़कर देखना । भागवत ही नहीं संघ के भीतर एक पूरी पीढी पहली बार सरसंघचालक सुदर्शन के खिलाफ हो चली थी, जो खुलेतौर पर मान रही थी कि सुदर्शन के बने रहने का मतलब है संघ का बंटाधार । लेकिन संघ की पारंपरिक स्थितयां इस बात की इजाजत देती नहीं कि सरकार्यवाह जो सोचे वह सरसंघचालक की सहमति के बगैर पूरा हो सकती हैं। वहीं, सरसंघचालक के खिलाफ जाकर सरकार्यवाह संघ के नवनिर्माण का सवाल खडा करें, यह भी संभव नहीं है।
लेकिन 1925 में गठित आरएसएस में पहली बार यह देखने को मिला कि सरसंघचालक को हटाने के लिये संघ के भीतर ही गोलबंदी शुरु हुई । मार्च के पहले हफ्ते में दिल्ली के झंडेवालान मुख्यालय में यह मुहर लग गयी कि सुदर्शन को अब अपनी गद्दी भागवत के लिये छोड़ देनी चाहिये । लेकिन संघ में यह परंपरा रही नहीं है कि दिल-दिमाग-शरीर से मजबूत सरसंघचालक अपनी विरासत कैसे किसी दूसरे को दे दे । संघ ने कितना कुछ गंवाया है और दोबारा खुद को खड़ा करने की कुलबुलाहट उसके भीतर कैसे हिलोरे मार रही है, इसका एहसास सुदर्शन का आखिरी भाषण कराता है । जिसमें एक मजबूत दिमाग और शरीर रखने वाला व्यक्ति बताता है कि सालो से जो रसोईया उसे खाना खिलाता रहा, अब वह उसको पहचान नहीं पा रहे हैं। तस्वीर देखने पर भी पहचान नहीं पाते हैं। मेडिकली कितना कमजोर हो चला था सरसंघचालक और अगर वह पद ना छोड़े तो संघ को आगे बढाने या सांगठनिक तौर पर मजबूत करने में संघ सक्षम नहीं हो पायेगा । जिस शख्स ने सरसंघचालक बनने के बाद अपने पहले भाषण में दसियों बार डॉ हेडगेवार का नाम लिया..वही शख्स पद छोडने का ऐलान करते वक्त सिर्फ अपने बिगड़ते स्वास्थ्य के बारे में ही बताये। असल में सुदर्शन की विदाई ने ना सिर्फ संघ को अंदर से चेताया है, बल्कि बीजेपी के लिये भी भागवत एक नयी चेतावनी के साथ आये हैं।
राजनीति में सिर्फ इंदिरा गांधी का ही नाम उभरता है, जो विरोधियो के मुंह से अपनी तारीफ करवाकर उन्हें हटाती थी । भागवत का आना कुछ ऐसा ही है । इसका पहला स्वाद वरुण गांधी को लेकर संघ के तौर तरीको ने दिखालाया । वरुण गांधी के आसरे संघ ने आडवाणी को भी संकेत दिये की उनकी आखिरी पारी में अगर बीजेपी को सत्ता मिलती है तो उन्हे अपने रहते संघ परिवार के अनुकुल नीतियो पर चलना हैं और अगर हार मिलती है तो भी जाते जाते संघ परिवार के अनुकुल ही लकीर खिंचनी है । यानी चुनाव के तुरंत बाद बीजेपी का नवनिर्माण की पहल तय है । असल में मोहन भागवत अपने नौ साल के उस कठिन दौर को भूले नहीं है जो बतौर सर कार्यवाह उन्होंने भोगे।
कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार ठंडे बस्ते में डल चुका था।
पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोड़ने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमों को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे, उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।
जाहिर है, इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देखकर खुद को अलग थलग समझ रहा था, बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो जुड़ा तो संघ परिवार के साथ, लेकिन बार बार सावरकर की सोच उन्हे संघ से दूर ले जाती । इसी लिये भागवत ने संघ की जो नयी टीम बनायी, उसमें मराठियो को सबसे ज्यादा तरजीह ही नहीं दी बल्कि हर निर्णायक पद पर मराठी स्वयं सेवक को स्थापित किया । मोहन भागवत बीजेपी की नीतियों को संघ के ढर्रे पर लाकर परिवार को एकजुट करना चाहते हैं, जिससे किसी को ना लगे कि संघ को अपने संगठनों की लगाम कसनी नहीं आती । क्योंकि ढीली लगाम का असर उन्होने सुदर्शन के दौर में देखा है, जब 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया, जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनों में जाना शुरु कर दिया। महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी, जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया । भागवत इसी डोर को थामना चाह रहे हैं ।
ऐसे में भागवत बीजेपी को खुला छोडेंगे, यह सोचना भी मुश्किल है । भागवत के सामने बोजेपी को लेकर जो चुनौती है, उसमें उनके पंसदीदा नेताओं के अंतर्विरोध हैं । बाल आप्टे को कोई जानता नहीं । नरेन्द्र मोदी को लेकर संघ के भीतर मनभेद है। जेटली सीधे जनता से चुनकर कर आते नहीं है । यानी जिस सोच को बीजेपी के जरीये भागवत को आगे बढाना है, उसमें यही तीन नेताओं के नाम अगर सबसे ऊपर होंगे, तो सवाल राजनाथ सिंह के उस संघ प्रेम का होगा जो एक साथ संघ की सोच को अकाट्य मानता हो तो दूसरी तरफ टेंटवाला यानी मित्तल के जरीये बीजेपी में बवाल भी खड़ा कराता है। भागवत को जानने वाले मानते हैं कि वह परिणाम प्रेमी है। यानी हाथ में रुद्दाक्ष की माला जप कर हिन्दुत्व का राग से बेहतर उन्हे लाठी लेकर जयश्रीराम का नारा लगाना भाता है । यह समझ अगर देश के भविष्य की राजनीति को साप्रायिकता के चोला ओढे दिखायी दे रही है तो इसके लिये देश को तैयार तो होना ही पड़ेगा क्योंकि भागवत वाकई एक ऐसे डाक्टर हैं, जिनकी सूरत डाक्टर हेडगेवार से मिलती है और सीरत वेटेनरी डाक्टर की है, जो पहले सहलायेगा और जैसे ही ध्यान बंटेगा वैसे ही इंजेक्शन घोप देगा।
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