Tuesday, March 31, 2009

ममता की गली में वामपंथ के विकल्प की खोज !

कालीघाट की मुख्य सड़क छोड़कर गाड़ी जैसे ही हरीश चटर्जी लेन की पतली सी सड़क में घुसी.....मुहाने पर दस बाय दस के एक छोटे से कमरे में ममता बनर्जी का एक बड़े पोस्टर को कैनवास पर रंगता पेंटर दिखा। बेहद मगन होकर इस्माइल तृणमूल कांग्रेस के चुनाव चिन्ह 'तीन पत्तियों' में उस वक्त जामुनी-गुलाबी रंग को उकेर रहा था। ड्राइवर इशाक ने बताया, यह ममता की गली है। संकरी गली । इतनी संकरी की सामने से कोई भी गाड़ी आ जाये तो एक साथ दो गाड़ियों का निकलना मुश्किल है।

ममता की गली के किनारे पर पेंटर की दुकान है तो हाजरा चौक पर निकलती इस गली के दूसरे छोर पर परचून की दुकान है। जहां दोपहरी में अतनू दुकान चलाता है। बीरभूम में बाप की पुश्तैनी जमीन थी, जिसे कभी सरकार ने कब्जे में ले लिया तो कभी कैडर ने भूमिहीनों के पक्ष में आवाज उठाकर कब्जा किया। स्थिति बिगड़ी तो इस परिवार को कलकत्ता का रुख करना पड़ा। ये परिवार कालीघाट में दो दशक पहले आकर बस गया । हरीश चन्द्र लेन यानी ममता गली में ऐसा कोई घर नहीं है, जिसके पीछे दर्द या त्रासदी ना जुड़ी हो। बेहद गरीब और पिछड़े इलाके में इस मोहल्ले का नाम शुमार है। सवाल है कि इसके बावजूद ममता बनर्जी केन्द्र में मंत्री भी बनी लेकिन उन्होने न अपना घर बदला न मोहल्ला छोड़ा। ममता का घर हरीश चटर्जी लेन में मुड़ते ही सौ मीटर बाद आ जाता है। गली के कमोवेश हर घर की तरह ही ये भी खपरैल का दरकता हुआ वैसा ही घर है, जैसा उस गली के दोनों तरफ मकानों की फेरहिस्त है। अंतर सिर्फ इतना है कि ममता के घर के ठीक सामने सड़क पर तृणमूल कांग्रेस का झंडा लहराता है और घर के सामने का प्लॉट खाली है, जिसमें गिरी ईंटे बताती हैं कि यहां कंस्ट्रक्शन का काम रोका गया है, जो चुनाव के बाद शुरु होगा। यानी थोड़ी सी खुली जगह, जिसमें प्लास्टिक की कुर्सिया बिखरी हुईं और कुरते-पैजामे में कार्यकर्ताओ की आवाजाही ही एहसास कराती है कि किसी पार्टी का दफ्तर है। लेकिन, यह माहौल इसका एहसास कतई नहीं कराता कि ममता बनर्जी तीन दशक की वाम राजनीति के लिये चेतावनी बन चुकी हैं।

लेकिन, यह पांच सौ मीटर की गली ममता की राजनीति की अनूठी दास्तान है। इसमें कभी प्रधानमंत्री रहते हुये अटल बिहारी वाजपेयी को आना पड़ा था। तो आंतकवाद और आर्थिक नीतियों से जद्दोजहद करते कांग्रेस के ट्रबल शूटर प्रणव मुखर्जी को तमाम मुश्किल दौर में कई-कई बार यहां आकर ममता को कांग्रेस के साथ लाने की मशक्कत करनी पड़ी। आखिर में ममता की गली से ऐलान हुआ कि ममता और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ेंगे। ऐलान के बाद से गली में कांग्रेस के झंडे भी छिटपुट दिखायी पड़ने लगे। काम तो इस बार बढ़ गया होगा, मैंने जैसे ही यह सवाल तीन पत्तियों को रगंते इस्माइल पेंटर से पूछा तो बेहद तल्खी और तीखे अंदाज में बोला...काम बढ़ा भी है और काम करने वाले जुटने भी लगा है। जुटने लगे हैं, मतलब...जुटने का मतलब है अब लाल झंडे का काम छोड़ ममता के बैनर को खुल्लम खुल्ला हर कोई बना रहा है। तो क्या पहले खुल्लम खुल्ला ममता का बैनर कोई नहीं बनाता था। बिलकुल नहीं ...बहुत मुश्किल होती थी। मैं तो बना लेता था क्योंकि ममता दीदी की गली में ही मेरी दुकान है, लेकिन दूसरे पेंटर अगर बनाते तो उनकी खैर नहीं होती। वैसे भी जब सत्ता लाल झंडे के पास हो तो हर चीज उनकी ही होगी।

लेकिन पहली बार लाल झंडे का बैनर बनाने वाले लड़के भी ममता दीदी का काम कर रहे हैं। कुछ इलाके तो ऐसे हैं, जहा पहली बार छुप कर कुछ पेंटरों को लाल झंडे का बैनर बनाना पड़ रहा है। पहले ठीक इसका उल्टा था । दीदी की पार्टी का झंडा कोई बनाना नहीं चाहता था। पुरुलिया-बांकुरा तो ऐसे इलाके हैं, जहां लाल झंडे के खिलाफ कुछ काम भी किया तो समझो घर को ही फूंकवाया। पहली बार गांवों में ममता दीदी का जोर बढ़ा है। इसीलिये बांकुरा,बीरभूम,दक्षिण दिनाजपुर, उत्तर दिनाजपुर, पुरुलिया, मेदनीपुर, कूच बिहार से लेकर जलपाइगुडी तक में ममता का प्रभाव नजर आ रहा है। पोस्टर पर इस्माइल की कूची लगातार चल रही थी। चुनाव चिन्ह 'तीन पत्तियों' को रंगने के बाद वह ममता की सफेद साड़ी के किनारे की तीन लकीरों को गाढ़ा करने में लग गया। उसके रंग वहां भी जामुनी और गुलाबी ही थे। मैंने कहा, जो रंग चुनाव चिन्ह का किया, वही साड़ी के किनारे का भी क्यों कर रहे हो। इस्माइल झटके से उठा और ममता बनर्जी की कई तस्वीरों को निकाल कर सामने रख कर बोला, आप ही देख लो जो रंग तीन पत्तियों का है, वही दीदी की साड़ी के किनारे की लकीर का है। जामुनी-गुलाबी-हरा रंग। मेरे मुंह से निकल पड़ा, अरे ममता ही तीन पत्ती और तीन पत्ती ही ममता हैं क्या ? मेरे इस सवाल पर इस्माइल हंसते हुये बोला, लगता है आप बाहर के हो। मैंने कहा, सही पहचाना। मै दिल्ली से आया हूं। वो बोला, बाहर का आदमी ममता को इसीलिये ठीक से समझता नहीं है। ममता को तृणमूल से हटा दीजिये तो क्या बचेगा। ममता बगैर तो पार्टी दो कदम भी नहीं चल सकती है। पार्टी में कोई दूसरे का नाम तक नहीं जानता है। जो कोई कुछ कहता है, वह भी पहले ममता दीदी का नाम लेता है फिर कुछ कह पाता है। तभी दुकान में एक बुजुर्ग घुसे। इस्माइल बिना लाग-लपेट के बोला, चाचा यह दिल्ली से आये हैं...ममता के बारे में पूछ रहे हैं। अरे पांच दुकान के बाद को उनका घर है। वहां क्यों नहीं चले गये। मेरे मुंह से निकल पड़ा, गली में घुसते ही ममता का बैनर बनते हुये देखा तो रुक गया। आप सही कह रहे हैं, यह बैनर यहां के लिये नहीं, लाल झंडा के गढ़ सॉल्टलेक में लगाने के लिये है। यहां तो बिना झंडा-बैनर भी हर कोई दीदी को जानता है। लेकिन लाल झंडा के गढ़ में दीदी का बैनर लगने का मतलब है, अब कोई इलाका किसी के डर से नहीं झुकेगा। लाल झंडे को तो पानी पिला दिया है ममता ने।

ममता ने क्या बदला है कोलकत्ता में, इस सवाल पर चाचा फखरुद्दीन ने कहा, कोलकत्ता में तो ममता ने कुछ नहीं बदला है लेकिन ममता की वजह से डर जरुर यहां खत्म हुआ है। इसकी वजह गांव के लोगों का भरोसा लाल झंडे से उठना है। गांव में हमारे परिवार के लोग भी कहते हैं। मैंने पूछा, आप हैं कहां के । हम पुरुलिया के हैं। जहां हर बंगाली मुस्लिम को लगता है कि वामपंथी जमीन से बेदखल कर देंगे और ममता दीदी ही जमीन बचा सकती हैं। लेकिन वामपंथियो ने ही तो भूमिहीनों को जमीन दी। जिनके पास बहुत जमीन थी, उनकी जमीन पर कब्जा कर के बिना जमीन वालो के बीच जमीन बांटी। यह काम तो ममता ने कभी नहीं किया। मेरे इस सवाल ने फखरुद्दीन चाचा के जख्मों को हरा कर दिया। बोले, मैं 1974 में कलकत्ते आया था। तब कलकत्ते का मतलब सबका पेट भरना था। रोजी रोटी का जुगाड़ देश में चाहे कहीं ना हो लेकिन कलकत्ते में कोई भूखा नहीं रहता, यह सोचकर मै आया भी था और मैंने यह देखा भी। कीमत दो पैसे बढ़ जाती तो लोग सड़क पर आ जाते। ट्राम के भाड़े में एक आना ही तो बढ़ाया था ज्याति बाबू ने, लेकिन तीन दिन तक सड़कों पर हंगामा होता रहा और बढ़ा किराया वापस लेना पड़ा। लेकिन बुद्धदेव बाबू ने पता नही कौन सी किताब पढ़ी है कि जनता से जमीन सरकार पानी के भाव लेती है लेकिन उसे सोने के भाव बेचती है। आप तो हवाई जहाज से आये होंगे। राजहाट का पूरा इलाका देखा होगा आपने। वहां पहले खेती होती थी या पानी भरा रहता था, जिसमें जल कुभडी लगी रहती। लेकिन उस पूरे इलाके की जमीन से सरकार ने अरबों रुपये बनाये होंगे। वहां बीस-पच्चीस मंजिल की इमारतें बन कर खड़ी हो गयीं । बड़ी बड़ी कंपनियों के ऑफिस खुल गये। लेकिन अब सब काम रुक गया है। लगता है सरकार को भी सिर्फ पैसा चाहिये। लेकिन पैसा ना होगा तो सरकार विकास कैसे करेगी....और मैं कुछ और कहता इससे पहले ही फखरुद्दीन कह पड़े....सही फरमाया आपने। पैसा ही भगवान हो गया है। सरकार दलाली करेगी तो दलालों को कौन रोकेगा । हर जगह कॉन्ट्रेक्टरों का कब्जा है। तीन हजार पगार की कोई नौकरी किसी को मिले तो एक हजार कान्ट्रेक्टर खा जाता है। हालत यह है कि दो हजार लेकर किसी ने मुंह खोला तो डेढ हजार में भी कोई दूसरा नौकरी करने को तैयार हो जायेगा। और अगर यह सभी बातें लाल झंडे का कैडर खुद को कहेगा तो क्या होगा । सिंगूर-नंदीग्राम में यही तो हुआ । वहां बुद्दू बाबू की सरकार कोई विकास तो कर नहीं रही थी । वह तो अपने उसी धंधे वाले कैडर की कमाई करवा रही थी । जबकि, ज्योति बाबू के दौर में कैडर को पैसा सरकार की तरफ से आता था। वही बैनर बनाने में मशगूल इस्माइल बीच में ही बोल पड़ा...चाचा लेकिन अब सरकार अपने कैडर को सुरक्षा देती है कि जहां चाहो वहीं लूट लो...इसीलिये तो नंदीग्राम में पुलिस को भी बुद्दु बाबू अपना कैडर ही कह रहे थे। यह कितने दिन चलेगा। लेकिन सरकार सुधर भी तो सकती है। बुद्दुबाबू को हटाकर किसी दूसरे को मुख्यमंत्री बना देगी सीपीएम।

ऐसे में ममता बनर्जी ने क्या किया...वह तो सरकार की गलती का फायदा उठाकर लोगों को अपने साथ जोड़ रही हैं। मेरे इस सवाल ने चाचा भतीजे को बांट दिया। भतीजा इस्माइल बीच में बोल पड़ा, आप यह तो माने हैं कि जब लाल झंडे के आंतक के आगे हर कोई झुक गया तो ममता ने ही हिमम्त दी। वह लड़ीं और इस बार एक दर्जन सीट पर चुनाव जीतेंगी। वहीं चाचा बोले, लाल झंडा का विकल्प ममता नहीं हो सकती हैं, यह सही है । लेकिन ममता ने पहली बार वामपंथियो को डरा दिया है और डर से ही अगर वामपंथी अच्छा काम करने लगे तो ममता की जरुरत तो हर वक्त चाहिये, जिससे लाल झंडा पटरी से ना उतरे...जो अब उतर चुका है।

Monday, March 23, 2009

“मिलिनियर मीडियाडॉग”

एंकर के कान में आवाज गूंजती है....

...तालिबान ने स्वात घाटी पर कब्जा कर लिया है । एंकर स्क्रीन पर तालिबान के खौफ का समूचा खांका खींचता है। फिर पाकिस्तान के स्वात इलाके में तालिबान के कब्जे की बात कहता है। अभी बात अधूरी ही थी कि एंकर के कान में फिर आवाज गूंजती है....रुको--रुको । कब्जा नहीं किया है शरीयत कानून लागू करने पर तालिबान के साथ पाकिस्तान ने समझौता कर लिया है। एंकर कब्जे की बात को झटके में शरीयत कानून से जोड़ता है। तभी एंकर के कान में शाहरुख कान के कंधों के ऑपरेशन की खबर पहले बताने को कहा जाता है। शरीयत कानून पर शाहरुख का कंधा नाचने लगता है और टीवी स्क्रीन पर शहरुख "डॉन" का गाना गाते नाचते नजर आते है। एंकर शब्द दर शब्द के जरिये शाहरुख की कहानी गढ़ना शुरु ही करता है.....कि कानों में अचानक एक नया निर्देश आता है- डिफेन्स बजट में पैंतीस फीसदी की बढोत्तरी कर दी गयी है। एंकट लटपटा जाता है और उसके मुंह से निकलता है शाहरुख की सुरक्षा में पैंतीस फीसदी की बढोत्तरी। देखने वाल ठहाके लगाते है और कानो में नया निर्देश देते है ...हर खबर को मिलाकर रैप-अप कीजिये और ब्रेक का ऐलान कर दिजिये।

बात पीछे छूट जाती है और न्यूज चैनल अपनी रफ्तार में चलता रहता है। पांच दिनो बाद हफ्ते भर की टीआरपी के आंकडे आते हैं । एंकर टीआरपी में अपनी एंकरिंग के वक्त की टीआरपी खोजता है। उसे पता चलता है, जिस वक्त वह तालिबान से लेकर शाहरुख तक को एक दम में साधता जा रहा था, वही बुलेटिन टीआरपी में अव्वल है तो उसकी बांछें खिल जाती हैं। अचानक न्यूज रुम का वह हीरो हो जाता है। न्यूज डायरेक्टर उसकी पीठ ठोंकते हैं ।

अब एंकर हर बार खबर बताते वक्त इंतजार करता है कि एक साथ कई खबरें उसके बुलेटिन में आये, जिससे उत्तर आधुनिक खबर का कोलाज बनाकर वह दर्शकों के सामने कुछ इस तरह रखे की टीआरपी में उसके नाम का तमगा हर बार लगता रहे। न्यूज डायरेक्टर उसकी पीठ ठोंकता रहे और न्यूज रुम का असल हीरो वह करार दे दिया जाये।

यह टीवी पत्रकारिता का ऐसा पाठ है जो हर कोई पढ़ने के लिये बेताब है । लेकिन न्यूज चैनल के रोमांच का यह एक छोटा सा हिस्सा है । हर खबर को वक्त से पहले दिखाने की छटपटाहट से लेकर खबर गूदने की कला अगर न्यूज रुम में नहीं है तो सर्कस चल ही नहीं सकता। सुबह के दस या कभी ग्यारह बजे की न्यूज मीटिंग में क्रिएटिव खबरों को लेकर हर पत्रकार की जुबान कैसे फिसलती है और कैसे वह झटके में सबसे समझदार करार दिया जाता है...यह भी एक हुनर है । एक ने कहा, आज किसानों के पैकेज का ऐलान हो सकता है । उन इलाकों से रिपोर्ट की व्यवस्था करनी चाहिये जहां किसानो ने सबसे ज्यादा आत्महत्या की हैं। तभी दूसरा ज्यादा जोर से बोल पड़ा...अरे छोड़िये कौन देखेगा। आज रितिक रोशन का जन्मदिन है । उसके घर पर ओबी वैन खड़ी कर दिजिये और उसके फिल्मीसफर को लेकर कोई घांसू सा प्रोग्राम बनाना चाहिये। चलेगा यही । देश युवा हो चुका है । नयी पीढी को तो बताना होगा किसान चीज क्या होती है । सही है तभी एक तीसरे पत्रकार ने बारीकी से कहा...आज दोपहर बाद दिल्ली में एश्वर्या बच्चन एक अंतर्राष्ट्रीय घडी का ब्रांड एम्बेसडर बनेंगी तो उनसे भी रितिक के जन्मदिन पर सवाल किया जा सकता है । धूम फिल्म में दोनो ने एकसाथ काम भी किया था फिर उस फिल्म के जरीये घूम का वह किस सीन भी दिखा सकते है, जिसे लेकर खासा हंगामा मचा था और बच्चन परिवार आहत था।

तभी कार्डिनेशन वाले ने कहा, आधे धंटे का विशेष "किस-सीन" पर ही करना चाहिये। जिसका पेग रितिक-एश्रवर्य की किस सीन होगा । इसमें अमिताभ-रेखा से लेकर रणबीर-दीपिका का "किस -सीन" भी दिखाया जायेगा । आइडिया हवा में कुचांले मार रहा था तो आउटपुट को कवर करने वाले पत्रकार को आइडिया आया कि इस पर एसएमएस पोल भी करा सकते हैं कि दर्शको को कौन सा किस सीन सबसे ज्यादा पंसद है । खामोश न्यूज डायरेक्टर अचानक बोल पडे...आइडिया तो सही है। एसाइन्मेंट चीफ कहां खामोश रहते, बोले हां ...अगर इसका प्रोमो दोपहर से ही चलवा दिया जाये कि दर्शको को कौन सा "किस-सीन" सबसे ज्यादा पंसद है तो एसएमएस की बाढ़ आ जायेगी । फाइनल हुआ चैनल आज रितिक रोशन को बेचेगा ।

लेकिन सर..दिल्ली में और भी बहुत कुछ है ....उस पर भी ठप्पा लगा दे....यह आवाज पीएमओ और विदेश मंत्रालय देखने वाले पत्रकार की थी । संयोग से आज दिल्ली में पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी हैं। एक तरफ सरकार तालिबान का राग अलाप रही है और पाकिस्तान से युद्द के लिये दो-दो हाथ की तैयारी कर रही है...उस वक्त कसूरी का इंटरव्यू किया जा सकता है कि तालिबान का मतलब है क्या । बीच में ही आउटपुट-एसाइनमेंट के लोग एक साथ बोल पडे...कहां फंसते हैं, तालिबान का खौफ जब टीआरपी दे रहा है तो कसूरी के जरिये सबकी हवा क्यों निकालना चाहते हैं । तो सर एलटीटीआई को लेकर श्रीलंका की पूर्व राष्टरपति चन्द्रिका कुमारतुंगा से बात की जा सकती है । उनका इंटरव्यू लिया जा सकता है..संयोग से वह भी दिल्ली में हैं। एसाइन्टमेंट वाले को आश्चर्य हुआ कि उसे जानकारी ही नहीं कि यह सब दिल्ली में हैं तो सवाल किया, मामला क्या है..क्यों दोनो नेता दिल्ली पहुंचे हैं । जी..अय्यर की किताब का विमोचन है । कौन अय्यर.... मणिशंकर अय्यर । जी..वहीं । अरे अय्यर को कौन जानता है, उनकी क्रिडेबिलेटी या कहिये कांग्रेस के भीतर उन्हे पूछता ही कौन है । कौन देखेगा इनके गेस्ट को । छोड़िये। खामोश न्यूज डायरेक्टर फिर उचके और कहा, नजर रखिये प्रोग्राम पर कहीं कुछ कह दिया या फिर किसी ने कुछ दिखाया तो बताइयेगा...ऐसे कोई मतलब नहीं है इनके इंटरव्यू का ।
खैर छिट-पुट खबरों पर चिंतन-मनन के बाद दो घंटे की बैठक खत्म हुई । दोपहर के खाने को लेकर चर्चा हुई । कैंटिन और नये जायके को लेकर मंदी पर फब्ती कसी गयी । किसानों ने देश बचाया है...गर्व से कई तर्क कईयों ने दिये....उन्होंने भी जिन्होंने किसानों को टीवी स्क्रीन पर दिखाने को महा-बेवकूफी करार दिया था । खैर दिन बीता । समूची मीटिंग और रिपोर्ट करने ...खबर दिखाने की बहस हर दिन की तरह खत्म हुई । अगले दिन राजनीतिक दल को कवर करने वाला रिपोर्टर देश की राष्ट्रीय पार्टी के दफ्तर में बैठा था । तभी पता चला आज प्रेस कान्फ्रेन्स वरिष्ट नेता और सरकार में कबिना मंत्री रह चुके राष्ट्रीय दल के नेता लेंगे । पत्रकारों से बातचीत के बाद जब वह रिपोर्टर किसी सवाल पर प्रतिक्रिया लेने इस नेता के पास पहुंचा तो नेता-पूर्व मंत्री ने रिपोर्टर से कहा..आपके चैनल ने कल कमाल का प्रोग्राम दिखाया । किस हीरो का किस-सीन सबसे बेहतर है । क्रिएटिव था प्रोग्राम । मैंने तो कुछ देर ही देखा । तभी इस राष्ट्रीय पार्टी के कई छुटमैया नेता बोल पड़े । जबरदस्त था प्रोग्राम....हमने पूरा देखा । इसे रीपीट कब किजियेगा । अरे सर जरुर देखियेगा...खास कर इसका अंत जहां राजकपूर-नर्गिस और रितिक-एश्वर्या को एक साथ दिखाया गया है।

रिपोर्टर ने नेताओं की प्रतिक्रिया को हुबहू अगले दिन की न्यूज मीटिंग में बताया । न्यूज डायरेक्टर की बांछें खिल गयी । उन्हें व्यक्तिगत तौर पर लगा कि उनसे बेहतर कोई संपादक हो ही नही सकता है । न्यूज डायरेक्टर ने प्रोग्राम बनानेवाले प्रोडूसर को बधाई दी । फिर आधे दर्जन पत्रकारों ने एक-दूसरे की पीठ ठोंकी कि यह आईडिया उन्हीं का था । खैर पांच दिन बाद आयी टीआरपी में भी यह प्रोग्राम अव्वल रहा। चैनल ने एक पायदान ऊपर कदम बढाया।

दो हफ्ते बाद मुबंई के एक पांच सितारा होटल में विज्ञापनदाताओं की एक पार्टी हुई, जिसमं पहली बार एंकरो को भी बुलाया गया । विज्ञापन देने वाले एंकरो से मिलकर बहुत खुश हुये । विज्ञापन देने वालों के जहन में हर एंकर की याद उसके किसी ना किसी प्रोग्राम को लेकर थी तो कई तरह के प्रोग्राम का जिक्र हुआ तो एंकर ने भी छाती फुलायी और खुद को इस तरह पेश किया जैसे वह न होता तो उनका पंसदीदा प्रोग्राम टीवी स्क्रीन पर चल ही नहीं पाता। दो युवा एंकर तो खुद को हीरो-हीरोइन समझ कर फोटो खिंचवाने से लेकर ऑटोग्राफ देने और संगीत की धुन पर इस तरह मचले की लाइव शो हो जाता तो टीआरपी छप्पर फाड़ कर मिलती। उस रात के हीरो भी वही रहे और विज्ञापन देने वालो ने दोनो युवा एंकरो की पीठ ठोंकी और सीओ ने भी जब खुली तारीफ कर दी तो परिणाम अगले दिन से ही स्क्रीन पर नजर आने लगा। दोनो एंकरो को कई प्रोग्राम की एंकरिंग का मौका मिलने लगा । और न्यूज डायरेक्टर ने दिल खोलकर दोनो एंकरों को सबसे बेहतर करार दिया। दोनों ने खुद को सबसे बेहतरीन पत्रकार मान लिया । आफिस में रिपोर्टर-पत्रकारो की धडकन बढ़ गयी।

खबर परोसते न्यूज चैनलो की असल पहचान कमोवेश इसी वातावरण के इर्द-गिर्द घूमती है । यह एक ऐसा घेरा है, जिसमें समाने और ना समा पाने का सुकुन भी एक सा है । इस वातावरण को किसी एक न्यूज चैनल के घेरे में रखना वैसी ही मूर्खता होगी जैसे चैनलों पर परोसे जा रहे सच पर वाहवाही सिर्फ किसी एक नेता की मानी जाये या फिर जिन विज्ञापनदाताओ की पूंजी के जरीये न्यूज चैनल चलते हैं, उनमें सिर्फ चंद के खुश होने की बात कही जाये। यानी नेताओं की कमी नहीं और विज्ञापन देने वालो में भी इस विचार की भरमार है कि जो टीवी न्यूज चैनल पर दिखायी दे रहा है उन्हे देखने में मजा आता है । असल में हिन्दी पट्टी में हिन्दी के न्यूज चैनलों ने पहली बार भाषायी क्रांति के साथ साथ मुनाफे और बाजार की एक ऐसा परिभाषा गढ़ी है, जिसने समाज के भीतर एक नया समाज गढ़ दिया है । इस समझ के दायरे में जाति-शिक्षा-लिंग सब बराबर हैं। यानी जो समाज राजनीतिक तौर पर बंटा है या सामाजिक विसंगतियो का शिकार होकर दकियानुसी संवाद बनाता है, उसे टीवी के जरीये एक ऐसा जुबान दी गयी कि उसका विशलेषण राजनीतिक तौर पर होने लगे । मंगलौर के पब में लडकियो के साथ मारपीट जैसी स्थिति अगर बिना टीवी न्यूज चैनल के होती तो उसका स्वरुप यही होता कि जिन लडकों ने लडकियो के साथ बदसलूकी की उनका शहर में रहना दुभर हो जाता। या फिर लड़कियों के परिजन लुंपन लडकों की ऐसी पिटाई करते और मुथालिक का चेहरा काला कर शहर भर में घुमाते की उसकी हिम्मत नहीं पड़ती कि लडकियों की तरफ आंख भी उठा सके।
लेकिन कमाल टीवी का है । जिसने मुथालिक की गुंडागर्दी को नैतिकता के उस पाठ का हिस्सा बना दिया जिसकी दुहायी संघ परिवार गाहे-बगाहे देता रहता है । अब विशलेषण होगा तो मुथालिक महज पूंछ की तरह होंगे और आरएसएस सूंड की तरह नजर आयेगा। हुआ भी यही । और यही सूंड धीरे धीरे बीजेपी की राजनीति का हिस्सा बनी और बीजेपी इस मुद्दे को आत्मसात कर ले, इसका प्रयास कांग्रेस ने खुल्लमखुल्ला संघ से जोड़कर कर दिया । जो न्यूज "किस-सीन" के प्रोग्राम में खोये रहते, जब उनके माइक और कैमरा नेताओ की प्रतिक्रिया लेने निकले तो कौन नेता बेवकूफ होगा जो घटना पर अपनी जुबान न खोले । किसी को तालिबानी कल्चर दिखा तो किसी को हिन्दु समाज की नैतिकता । किसी को हिन्दु वोट नजर आया तो किसी को युवा वोट । जाहिर है क्या नेता, क्या सरकार, क्या गुंडा और क्या समाज सुधारक न्यूज चैनल के पर्दे पर कोई भी आये लगते सभी एक सरीखे है । कोई खबर किसी भी रुप में दिखायी जाये, उसके तरीके उसी मनोरंजन का हिस्सा बन जाते है जिसे खारिज करने के लिये मीडिया की जरुरत हुई । और उसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा माना गया।

लेकिन मीडिया का यह पहला चैप्टर है, जो न्यूज रुम से शुरु होता है। दूसरा चैप्टर मीडिया का मतलब बिजनेस और चलाने का मतलब मुनाफा वसूली से जुड़ा है। ये चैप्टर उस न्यू इकॉनमी की देन है, जिसमें न्यूज चैनल के लिये लाइसेंस खरीदने से चौथा पाया होने की शुरुआत होती है।

न्यूज चैनल के लिये लाइसेंस का मतलब आपका हाथ-चेहरा । अगला-पिछला सबकुछ सफेद हो । वैचारिक तौर पर सेक्यूलर और लोकतांत्रिक होने की पहचान आपके साथ जुड़ी हो । अपराध या भ्रष्टाचार का तमगा आपकी छाती पर न टंगा हो। जाहिर है यह ऐसी नियमावली है, जिसकी कोई कीमत नहीं लगा सकता और जो लगायेगा वह वसूली भी ऐसी करेगा कि सामने वाले का सबकुछ काला हो, तभी संभव है। तो सरकार के मंत्री से लेकर चढ़ावा लेते बाबूओ की पूरी फौज, एनओसी की मुहर की व्यवस्था आईबी रिपोर्ट से लेकर थाने की रिपोर्ट तक की करा देती है।

सवाल है कि किसी के पास न्यूज चैनल का लाइसेंस जब इतने चढ़ावे के बाद आ ही जाता है तो वह अपनी मुनाफा वसूली कैसे करेगा । पहला तरीका है लाइसेंस को एक साल के लिये किसी बेहतरीन पार्टी को बेच देना। कीमत एक करोड़ से लेकर कुछ भी । यानी सामने वाला लाइसेंस लेकर बाजार को किस तरह दुह सकता है....यह उसकी काबिलियत पर है । और अगर लाइसेंस के जरुरतमंद की पहुंच-पकड़ राजनीतिक पूंजी से जुड़ी होगी तो लाइसेंस की कीमत पांच करोड़ तक लगती है। न्यूज चैनल के कई लाइसेंस इस तरह खुले बाजार में लगातार घुम रहे हैं। कुछ खरीदे भी गये और चल भी रहे हैं। लेकिन सवाल है इस हालात में न्यूज रुम को भी करोड़ों के वारे न्यारे करने हैं...और चूकि चैनल का प्रोडक्ट खबर है तो खेल को पूंजी में बदलने का खेल यहीं से शुरु होता है। सबसे पहले खबर को कवर करने वाले पत्रकारों को चैनल का मंच देकर वसूली के नियम कायदे बता दिये जाते हैं। उसके भी दो तरीके हैं। खबरों को दिखाने के बदले सीधे पांच से पचास लाख तक का टारगेट सालाना पूरा करना । या फिर राज्यों के ब्यूरो को पचास लाख से लेकर एक करोड़ तक में बेच देना। यह तरीका सीधे खबरों को बिजनेस में फुटकर तौर पर भी बदलना माना जा सकता है।

लेकिन संभ्रात तरीका किसी राजनीतिक दल या किसी राज्य सरकार से सौदेबाजी को मूर्त रुप में ढालना है । यह सौदा चुनाव के वक्त जोर पकड़ता है। जिसमें पांच करोड़ से लेकर पचास करोड़ तक सौदा हो सकता है। राज्यों के चुनाव में यह सौदा राजनीतिक दलों में खूब गूंजता है। पिछले चुनाव में जो पांच राज्यों के चुनाव हुये, उसमें कई चैनलों के वारे न्यारे इसी सौदे से हो गये। चुनाव चाहे लोकतंत्र की पहचान हो लेकिन चुनाव का मतलब लोकतांत्रिक तरीके से पूंजी और मुनाफा वसूली की सौदेबाजी का तंत्र भी है, जो सभी को फलने फूलने का मौका देता है । लेकिन यह तंत्र इतना मजबूत है कि इसके घेरे में समूचा मीडिया घुसने को बेताब रहता है। यानी यहां टीवी या अखबार की लकीर मिट जाती है। लोकतंत्र में चुनाव का मतलब महज यही नहीं है, मायावती टिकटो को बेचती हैं या फिर बीजेपी और कांग्रेस में पहली बार टिकट बेचे गये। असल में चुनाव में खबरों को बेचने का सिलसिला भी शुरु हुआ। इसका मतलब है अखबारों में जो छप रहा है, न्यूज चैनलो में जो दिख रहा है, वह खबरें बिकी हुई हैं। इसके लिये भी रिपोर्टर को टारगेट दिया जाता है। और संस्थान संभ्रात है तो हर सीट पर सीधे चुनाव लड़ने वाले प्रमुख या तीन उम्मीदवार से वसूली कर एडिटोरियल पॉलिसी बना देता है कि खबरो का मिजाज क्या होगा। यह सौदेबाजी प्रति उम्मीदवार अखबार के प्रचार प्रसार और उसकी विश्वसनीयता के आधार पर तय होती है, जो एक लाख से लेकर एक करोड़ तक होती है। मसलन उत्तर प्रदेश के बहुतेरे अखबार इस तैयारी में है कि लोकसभा चुनाव में कम से कम पचास से सौ करोड़ तो बनाये ही जा सकते हैं। बेहद रईस क्षेत्र या वीवीआईपी सीट की सौदेबाजी का आंकलन करना बेवकूफी होती है क्यकि उस सौदेबाजी के इतने हाथ और चेहरे होते हैं कि उसे नंबरो से जोड़कर नहीं आंका जा सकता है। इन परिस्थितियो में खबरों को लिखना सबसे ज्यादा हुनर का काम होता है, क्योंकि खबरों को इस तरह पाठको के सामने परोसना होता है, जिससे वह विज्ञापन भी न लगे और अखबार की विश्वसनीयता भी बरकार रहे। मतलब खबरों के दो चेहरे है मगर मकसद एक है। पहला "किस-सीन" सरीखे प्रोग्राम टीआरपी देंगे और समाज को जो लुभायेगा,उसे बिजनेस और मुनाफे में बदला जा सकता है । दुसरा खबर को ही धंधे में बदल दिया जाये, जिससे मुनाफा वसूली के लिये टीआरपी ना देखनी पडी और न्यूज प्रोडक्ट का जामा भी बरकरार रहे ।

असल में यह परिस्थितियां किसी एक न्यूज चैनल या नेताओं या फिर ब्रांड चमकाने के लिये बाजार से मुनाफा बटोरने भर की नहीं हैं। यह एक पूरा समाज है जो देश को अपने घेरे में लाना चाहता है या फिर अपने घेरे से ही देश की लीक बनाना चाहता है। इन हालात के बीच मीडिया में खबरों के लौटने का मतलब एक ऐसे लोकतंत्र का जाप करना है, जिसमें सत्ता का चेहरा कभी खुरदुरा ना दिखे । क्योंकि चैक एंड बैलेंस की जो थ्योरी संविधान के जरीये लोकतंत्र के हर पाये को एक दूसरे की निगरानी के तहत खड़ा किया गया और अगर साठ साल बाद यही पाये अपने को बचाये रखने के लिये चैक एंड बैलेस का खेल खेल रहे है तो देश की बहुसंख्यक जनता को यह महसूस होता रहेगा कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश का वह नागरिक है। और चुनाव के दिन आप वोट नहीं डाल रहे हो तो आप सो रहे हैं का ताना आपको आपकी जिम्मेदारी का एहसास करा कर एक नयी सौदेबाजी में निकल सकता है। वैसे भी खुद को लोकतांत्रिक कहलाने का प्रोगपेंडा सबसे मंहगा सौदा होता है। और इस सौदे के घेरे में जब लोकतंत्र का ही पाया हो तो बात ही क्या है ।

Monday, March 16, 2009

रंगों की होली वाकई बेमानी है

देश दुखी है । देश चलाने वाले दुखी हैं। मुंबई हमलों पर देश को न्याय दिलाने के बदले देश दुखी है। लोग इतने दुखी हैं कि होली का रंग उन्हे खून के रंग से ज्यादा खतरनाक लग रहा है। 26/11 का दर्द इस हद तक है कि हमलावर कौन थे...कहां से आये थे सब मालूम होने के बावजूद करना क्या चाहिये, यह देश को मालूम नहीं है।

एक हजार पन्नों की चार्जशीट में सबकुछ लिखा है, जिसे देश का कोई भी नागरिक पढ़ कर समझ सकता है कि देश चलाने वालों को हमलावरो के घर-ठिकाने-हथियार मुहैया कराने वालो से लेकर उनके पीछे परछाई की तरह खड़े होकर सबकुछ अंजाम देने वालों के पल पल की जानकारी है, लेकिन देश दुखी है। इतना दुखी कि उसका खून भी रंग में बदल गया। रंग लाल ही है...लेकिन लाल रंग गाढ़ा हो चला है । इतना गाढा की रंग से भी डर लगने लगे । देश की बागडोर हाथ में लेने के लिये बैचेन आ़डवाणी हो या देश को पर्दे के पीछे से चलाने के हुनर में माहिर दस जनपथ या फिर सदी के महानायक बच्चन- सभी दुखी हैं।

देश चलाने वाले जो दुखी हैं, वह होली नहीं खेलेगे । हर किसी को लग रहा है कि होली खेल ली तो देश के साथ फरेब हो जायेगा । होली में क्या बढ़ा क्या छोटा की जगह फिर देश कहने से नहीं चूक रहा है कि कौन बड़ा कौन छोटा । गजब की महिमा है देश पर राज करने वालो की। मुबंई हमलों में 177 लोगो की जान गयी...पड़ोसी देश को कुछ इस तरह आंखे तरेर कर दिखायी गयी कि देश को लगा शायद यह न्याय दिलाने की हुंकार है । लेकिन यह हुंकार भांग और नशे से कहीं ज्यादा तीखी हो सकती है, यह होली के दिन ही पता चला कि सत्ता पाने का नशा देश को दुखी भी कर सकता है। अद्भभुत दुख है यह ....जो पांच साल तक," हर दिन होली रात दिवाली " की तर्ज पर पांच सितारा जीवन भोगता है । पांच साल में आंतकवाद की हिंसा में चालीस हजार लोगो की जान जाती है लेकिन देश दुखी नहीं होता । पांच साल में पच्चीस हजार किसान आत्महत्या करता है लेकिन देश दुखी नहीं होता है । पांच साल में पांच करोड़ परिवार को अपनी पुस्तैनी जमीन से बेदखल होना पड़ता है लेकिन देश दुखी नहीं होता । पांच सालो में आर्थिक सुधार का पाठ पढ़कर विकास की अनूठी गाथा लिखने की पहल देश चलाने वाले कुछ इस तरह करते हैं कि खेती पर टिके दस करोड़ लोगों के सामने दो जून की रोटी का जुगाड़ मुश्किल हो जाता है । लेकिन देश दुखी नहीं होता । पांच सालो में रिटेल सेक्टर से जुडे सत्तर लाख लोग सड़क पर आ जाते हैं लेकिन देश दुखी नहीं होता। इस दौर में नून-रोटी की कीमत में चार सौ फिसदी का इजाफा हो जाता है लेकिन देश को कोई दर्द नहीं होता ।

इन पांच सालो में आधुनिक अर्थव्यवयवस्था का थर्मामीटर शेयर बाजार के हिचकोले खाने से मध्यम वर्ग के एक करोड़ से ज्यादा लोग खुद को ठगा महसूस करते हैं, लेकिन देश उनके दर्द में शामिल नहीं हो पाता । इन पांच सालो में करोड़पतियो की तादाद में तीन सौ फीसदी का इजाफा होता है , देश फक्र महसूस करता है। इन पांच सालो में औधोगिक और कारपोरेट सेक्टर के मुनाफे से देश का दो फिसदी दुनिया पर काबिज होने का सपना संजोने लगता है, देश को गर्व होता है । एसईजेड का एक ऐसा ताना-बाना बुना जाता है, जिससे चार हजार लोग झटके में अरब पति होते हैं । जमीनो की खरीद फरोख्त से करीब पांच लाख लोग अरबपति होने की दिशा में बढ़ जाते हैं और देश के पच्चीस लाख लोगो का धंधा चल पडता है । लेकिन इन तीस लाख चार हजार के मुनाफे के उलट देश के दो करोड़ से ज्यादा परिवार तहस -नहस हो जाते हैं । लेकिन देश को यह गणित समझ में नहीं आता, वह ठहाके लगाता है । पांच साल में देश के सौ से ज्यादा सांसद विधायक भष्ट्राचार और अपराधी करार दिये जाते हैं । लेकिन कानून के आगे भी सभी ठहाके लगाते हैं । संसद के भीतर नोटो के बंडल लहराये जाते हैं लेकिन सासंद सत्ता बचाने और बनाने का खेल खेल कर ठहाके लगाते हैं । ठहाकों की यह अठ्टास देश में पहली बार उन युवाओं के सपनो को भी कुरच-कुरच देती है, जो लाखो की पढाई कर करोड़ों बनाने के धंधे को जिन्दगी का फलसफा बनाये हुये थे । खुला बाजार ढहता हो तो घाव से रिसते खुन पर भी भिनभिनाती मक्खखियो की तरह देश चलाने वाले उसके रस को भी चूस लेना चाहते है । आम जनता की पूंजी से देश की रईसी थमती नहीं है । बेल-आउट के नाम पर कंपनियो को अगर 90 हजार करोड़ बांटे जाते है तो देश चलाने वालो की कौम का पांच सितारा जीवन बरकरार रहे, इसके लिये देश के खजाने से दो लाख करोड़ से ज्यादा की राशि व्यवस्था के नाम पर लुटा दी जाती है । देश को ठहाके इतने पंसद है कि संसद से लेकर कमोवेश हर राज्य की विधानसभा में सांसद-विधायक आपस में गुंडागर्दी का खुला खेल खेलते है,फिर अगले दिन गलबहिया डाल कर लोकतंत्र का कुछ ऐसा जाप करते है जिससे लगता है कि वाकई मेरा देश महान है ।

लेकिन इन पांच सालो में इस गुंडागर्दी की वजह से देश को तीन सौ करोड़ का चूना लगता है मगर देश दुखी नहीं होता क्योकि देश चलाने वाले जब आपस में दुखी होते हैं तो ऐसी हरकत लोकतंत्र की परंपरा हो जाती है। लेकिन होली तो सबका त्यौहार है और हर रंग में डूबकर या डूबाकर जीने की सीख देती है होली पर दुखी होने के लिये महज मुंबई हमले से काम कैसे चलेगा।

तो लालू कोसी नदी से मिले दर्द से कराह रहे हैं । ममता बनर्जी नंदीग्राम में अस्मत लुटी महिलाओ के दर्द में शामिल हैं । वामपंथी न्यूक्लियर डिल के जरीये अमेरिकी साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेकने से लेकर मंहगाई में आम आदमी के खाली पेट के कुलहाने से दुखी हैं । पवार से लेकर बालासाहेब ठाकरे मुंबई हमलो से दुखी है । जयललिता श्रीलंका में तमिलो के साथ हो रहे अत्याचार से दुखी हैं । नरेन्द्र मोदी मुंबई हमलो का जबाब ना पाने से दुखी हैं । सत्यम घोटाले के सहयोगी मुक्यमंत्री वाय.एस.आर रेड्डी मंदी में युवाओं की जाती नौकरी में सुनसान पड़ते साइबर शहर से दुखी है । तो दर्द देने वाले दुखी हैं और वह होली नहीं खेलेगे और जो जनता हर दर्द को सहे जा रही है, वह होली के ही मौके पर रंगों में खुद को सराबोर कर चंद क्षणों के लिये ही सही होली के आसरे दर्द को भुलाना चाह रही है.. यह जानते समझते हुये कि चुनाव खत्म होते ही, " दिन को होली रात दिवाली" का गान देश चलाने वाले फिर गायेगे.... और घाव-दर-घाव देश के सीने पर पड़ते जायेंगे।

तीसरा मोर्चा का गठन बनाम कांग्रेस-बीजेपी एक साथ

तीसरे मोर्चे की दस्तक, बीजू जनता दल की पहल और शरद पवार के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा ने पहली बार लोकसभा चुनाव से पहले इसके संकेत दे दिये हैं कि सत्ता के लिये जीत से पहले और सत्ता भोगने के लिये जीत के बाद के गठबंधन में खासा बदलाव तय है। तीसरे मोर्चे की कवायद में वाममोर्चा एकजुट है। लेकिन, वाम मोर्चे को लेकर उसका वोट बैंक पहली बार एकजुट नहीं है। सिर्फ पश्चिम बंगाल ही नही केरल में भी सेंध लगनी तय है। बंगाल में नंदीग्राम-सिंगूर-लालगढ तो केरल में भष्ट्राचार का मुद्दा वाममोर्चा की कम से कम 10 सीटों पर झटका देगा।

वहीं, तीसरे मोर्चे को जमा करने वाले देवगौड़ा का संकट अपनी चार सीटों को बरकरार रखने का है। यही संकट टीआरएस का है। तेलागंना का मुद्दा केन्द्र की पहल के बगैर अंजाम तक पहुंच नहीं सकता है इसलिये चन्दशेखर राव की मजबूरी चुनाव के बाद दिल्ली में बनती सरकार की तरफ झुकना तय है। उनके पांच सांसद अभी हैं, जिसमें एक सीट का इजाफा हो सकता है। लेकिन राज्य में विधानसभा चुनाव भी हैं, इसलिये इसका खामियाजा टीआरएस को उठाना पड़ सकता है। तीन सीटें कम भी हो सकती हैं। चूंकि चन्द्रबाबू नायडू वामपंथियों के साथ तीसरे मोर्चे में खड़े हैं तो टीआरएस के लिये और मुश्किल होगी कि वह भी तीसरे मोर्चे में आ जाये।

उधर, जयललिता का हाथ खाली है । इसलिये जयललिता के जरिये सर तो गिनाये जा सकते हैं लेकिन सौदेबाजी को कोई अमली जामा नहीं पहनाया जा सकता । बड़ा सवाल नवीन पटनायक या कहें उनकी पार्टी बीजू जनतादल का है । दस साल से बीजेपी की गोद में बैठकर राजनीति करने वाले नवीन पटनायक के लिये नये हालात में अपनी 11 सीटों को बरकरार रखना ही सबसे बड़ी चुनौती होगी। चूंकि विधानसभा चुनाव राज्य में साथ ही हैं तो नवीन पटनायक सत्ता बरकरार रखने की राजनीति को ज्यादा तवज्जो देंगे इसलिये दिल्ली की सरकार में उनका योगदान आंकडों को बनाने और समर्थन दलों के सर की तादाद बढाने में ही होगा । इसलिये तीसरे मोर्चे में सीधी पहल से बचकर राज्य की राजनीति में कोई सेंध लगे इसके लिये फूंक-फूंक कर कदम रखेंगे।

हरियाणा से विश्नोई की मौजूदगी भी सरों की तादाद को बढाने वाली ही है । जाहिर है ऐसे में तीसरे मोर्चे की इस नयी दस्तक का आंकडा सौ को भी नही छू पायेगा , यह हकीकत है। लेफ्ट की पहल हर हाल में मायावती को साथ लाने की होगी। लेकिन मायावती का सोशल इंजीनियरिंग यहा फिट नही बैठता है। मायावती अपने पत्ते चुनाव परिणाम से पहले खोलना नहीं चाहती हैं। लेकिन वह किसी को निराश भी करना नहीं चाहती हैं। इसलिये तीसरे मोर्चे की पहल में सतीश मिश्रा के जरीये एक ऐसी नुमाइन्दगी कर रही हैं, जिसे झटके में झटका भी जा सके। वहीं तीसरे मोर्चे की अकसर खुली वकालत करने वाले मुलायम-मायावती-अजित सिंह-चौटाला जैसे दिग्गज खामोश होकर सत्ता समीकरण को अपने अनुकूल होते हुये अब भी देखना चाह रहे हैं। यानी तीसरा समीकरण कोई सकारात्मक रुप लेगा, इसकी संभावना बेहद कम है लेकिन बनते हर समीकरण में पहली बार इसका खांचा जरुर उभर रहा है कि यूपीए और एनडीए अपने बूते सत्ता बना नहीं पायेंगे और आंकडों की सौदेबाजी सबसे बड़ी हकीकत बनेगी।

ये सौदेबाजी भारतीय राजनीति में कोई बड़ा बदलाव कर सकती है, यह सबसे बड़ा सवाल है। अगर 14वीं लोकसभा में एनडीए और यूपीए की तस्वीर को अब के हालात से जोड़कर देखें तो वाकई नयी परिस्थितियां एक नये मोर्चे की दिशा में ले जाती हुई भी दिख सकती है। पिछले चुनाव में एनडीए को कुल 185 सीटें मिली थीं, जिसमें से बीजू जनता दल, टीडीपी और तृणमूल खिसक चुकी हैं । यानी 18 सीटों का झटका लग चुका है। हालांकि अजित सिंह की रालोद और असमगण परिषद एनडीए के नये साथी हैं, लेकिन इनके पास कुल 5 सीटे है। यानी एनडीए का आंकडा पिछले चुनाव की तुलना में 13 सीट कम का ही है।

वहीं, यूपीए की कुल सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में 219 थी। जिसमें से टीआरएस खिसक चुकी है और एमडीएमके की लिट्टे राजनीति तमिलनाडु में कांग्रेस के साथ खड़े होने नही देगी। यानी कुल नौ सीटे यहां भी कम हो रही है । डीएमके की मजबूरी है कि वह कांग्रेस के साथ रहे क्योकि राज्य में उनकी सरकार को कांग्रेस का समर्थन है। जो निकला तो सरकार भी गिर जायेगी । यूपीए को नया मुनाफा ममता बनर्जी के साथ जुड़ने से हुआ है। ममता एकमात्र ऐसी सहयोगी हैं, जिनकी सीटो में इजाफा तय माना जा रहा है। फिलहाल दो सीटे हैं, जो आधे दर्जन को पार कर सकती हैं। इसका मतलब है यूपीए की स्थिति कमोवेश यही बनी रह सकती है। लेकिन सरकार बनाने में 272 का जादुई आंकडा जो पिछली बार वाममोर्चे के जरीये पूरा हो गया, इस बार वह फिसलेगा ही । क्योंकि बंगाल में ममता-कांग्रेस गठबंधन वामपंथियो को ही तोड़ेगा। और यूपीए कितनी भी मशक्कत कर ले, वह सेक्यूलरवाद के नारे तले वामपंथियो को साथ ला तो सकता है लेकिन 272 का आंकड़ा नहीं छू पायेगा।

यह हालात एनडीए और यूपीए की उस धारणा को तोडेंगे, जिसमें वैचारिक मतभेद का सवाल अकसर दोनो से जुड़ जाता है । यानी सत्ता समीकरण के लिये ठीक वैसा ही कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम निकलेगा, जैसा एनडीए की सत्ता बनाने के लिये वाजपेयी सरकार ने अयोध्या-कामन सिविल कोड-धारा-370 को दरकिनार कर दिया था। लेकिन तब और अब के हालात खासे बदल चुके है । तब मुद्दो पर खामोश होना था, वहीं अब मुद्दों का समाधान देश को चाहिये। जो दो मुद्दे देश के सामने खड़े हैं, उसमें सुरक्षा और अर्थव्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण हैं । संयोग से आंतकवाद से लड़ने और देश की सुरक्षा में सेंध ना लगने देने को लेकर कोई बहुत अलग राय एनडीए और यूपीए की नहीं है। पोटा सरीखे कड़े कानून को देखने का नजरिया भी बदल चुका है। वहीं, आर्थिक सुधार को लेकर भी एनडीए-यूपीए की सहमति रही है। विरोध के सुर वामपंथियो ने गाहे-बगाहे जरुर उठाये लेकिन सत्ता का सुख भोगते वक्त वो भी लगाम पूरी तरह छोडे रहे।

इन हालात में जब सरकार बनाने के लिये आंकडों के जुगाड़ की जरुरत पड़ेगी तो कई राजनीतिक दल इधर से उधर यह कहते हुये जरुर होंगे कि देश को स्थिरता देना उनकी पहली जरुरत है। फिर चुनाव नहीं चाहिये। एक कॉमन मिनिमम कार्यक्रम के जरीये गठबंधन की सरकारें पिछले दस साल से जब यूपीए-एनडीए के जरीये चली है तो इसको जारी रखने में फर्क क्या पड़ता है।

लेकिन तीसरे मोर्चे की आहट और न्यूक्लियर डील के विरोध में वामपंथियो का सरकार को बीच में छोड़ने के बाद एक साथ कई सवालों ने भी जन्म लिया है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि देश जिन हालातों से गुजर रहा है, उसमे सत्ता से जुड़कर मलाई खाने की जो परंपरा राजनीतिक दलों की बन पड़ी है, उसमें सरकार चलाने की कांग्रेस और बीजेपी की अपनी सोच कहां टिकती है । बीजेपी दिन्दुत्व के नाम पर राजनीति करती है लेकिन मंदिर नहीं बनवा सकती । बनवायेगी तो सरकार गिर जायेगी । कांग्रेस जिस महिला-आदिवासी-पिछडों-किसानों का सवाल खड़ा कर उन्हे मुख्य़धारा से जोड़ने और राहत देने की बात करती है, वह कोई ऐसी नीति बना नही सकती जिससे उसके किसी सहयोगी का वोट बैंक आहत हो तो सरकार का मतलब है क्या।

जाहिर है सरकार देश में होनी चाहिये। जिसकी नजर में आम आदमी हो। हर धर्म-प्रांत का व्यक्ति हो। देश की अर्थव्यवस्था बाजार पर नहीं खुद पर निर्भर हो। आतंकवाद के जरीये बंटते समाज को बांधा जा सके। पड़ोसी देश आंखे न तरेरे । सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद हो । यानी देश में कही सरकार है, इसका एहसास देश को हो । जिसमें राजनीतिक दलो की सौदेबाजी के बदले मुद्दो के समाधान के तौर तरीकों पर सहमति -असहमति के बीच नीतियों को अमली जामा पहनाने की पहल हो। मुश्किलों में मुहाने खड़े देश को लेकर कोई सहमति राजनीतिक दलों में बनती है तो आसान और मुश्किल दोनों तरीका बीजेपी और कांग्रेस को एक साथ देश चलाने के लिये ला सकती है। पिछले आम चुनाव में बीजेपी को 138 और कांग्रेस को 145 सीटे मिली थीं। दोनों को जोड़ने पर 278 का आंकड़ा पहुचता है यानी जादुई 272 से ऊपर । अगर यही स्थिति दोबारा देश में बन भी रही है तो सरकार नहीं देश चलाने के नाम पर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम क्या नही बन सकता । मंत्री पदो का बंटवारा नीतियो के तहत हो सकता है। जिसकी ज्यादा सीटे हों उसका प्रधानमंत्री । सहयोगी का उप-प्रधानमंत्री । सुरक्षा बीजेपी के पास तो गृहमंत्रालय कांग्रेस के पास । वित्त मंत्रालय कांग्रेस के पास तो वाणिज्य बीजेपी के पास। उघोग काग्रेस तो कृर्षि बीजेपी के पास । रेल काग्रेस के पास तो उड्डयन बीजेपी के पास । कोयला कांग्रेस के पास तो स्टील बीजेपी के पास । आईटी सेक्टर बीजेपी के पास तो दूर संचार कांग्रेस के पास । महिला कल्याण बीजेपी के पास तो युवा-खेल कांग्रेस के पास । पिछड़ा कांग्रेस का पास तो अल्पसंख्यक बीजेपी के पास । आपसी सहमति के जरीये कुछ नये मंत्रालय भी बनाये जा सकते है जो चैक एंड बैलैंस की तरह काम करे।

जाहिर है यह समझ देश चलाने के लिये होगी तो सौदेबाजी की राजनीति कर अपने वोटबैंक को सत्ता से मलाई दिलाने की क्षेत्रिय राजनीति बंद हो जायेगी। और जनता भी समझेगी नेताओ के जरीये बेल-आउट से काम नही चलेगा। और अगर यह भी तरीका फेल हो जायेगा तो नयी स्थितियां नये समीकरण की दिशा में ले ही जायेगी...लोकतंत्र का मिजाज तो यही है ।

Saturday, March 7, 2009

मुलायम की लोहिया से सोनिया तक की यात्रा !

लोकसभा चुनाव के ऐलान से करीब चार घंटे पहले यानी मुलायम सिंह जब दस जनपथ में सोनिया गांधी से मुलाकात कर बाहर आये तो अपने कुर्ते के भीतर पसीने को सुखाने के लिये मुंह से हवा कर रहे थे। पत्रकारों ने पूछा, कांग्रेस से गठबंधन होगा या नहीं... तो बदन सुखाते मुलायम झिड़क उठे... होगा क्यों नहीं गठबंधन? सब ठीक होगा!

यह वही मुलायम हैं, जिन्हे रतन सिंह, अभय सिंह, राजपाल और शिवपाल की जगह अखाड़े में ले जाने के लिये पिता ने चुना था। वो खुद मुलायम की वर्जिश करते और दंगल में जब मुलायम बड़े-बड़े पहलवानों को चित्त कर देते तो बेटे की मिट्टी से सनी देह से लिपट जाते और उसमें से आती पसीने की गंध को ही मुलायम की असल पूंजी बताते। इस पूंजी का एहसास लोहिया ने 1954 में मुलायम को तब करवाया, जब उत्तर प्रदेश में सिंचाई दर बढ़वाने के लिये किसान आंदोलन छेड़ा गया। लोहिया इटावा पहुँचे और वहाँ स्कूली छात्र भी मोर्चा निकालने लगे। मुलायम स्कूली बच्चों में सबसे आगे रहते। लोहिया ने स्कूली बच्चों को समझाया कि पढ़ाई जरुरी है लेकिन जब किसान को पूरा हक ही नहीं मिलेगा तो पढ़ाई कर के क्या होगा। इसलिये पसीना तो बहाना ही होगा। लेकिन लोहिया से मुलायम की सीधी मुलाकात 1966 में हुई। तब राजनीतिक कद बना चुके मुलायम को देखकर लोहिया ने कल का भविष्य बताते हुये उनकी पीठ ठोंकी और कांग्रेस के खिलाफ जारी आंदोलन को तेज करने का पाठ यह कह कर पढ़ाया कि कांग्रेस को साधना जिस दिन सीख लोगे उस दिन आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकेगा।

मुलायम ने 1967 में जसवंतनगर विधानसभा में कांग्रेस के दिग्गज लाखन सिंह को चुनाव में चित्त कर कांग्रेस को साधना भी साबित भी कर दिया। लेकिन 2 मार्च को सोनिया गांधी से मुलाकात कर 10 जनपथ से बाहर निकले मुलायम को देखकर यही लगा कि उनकी राजनीति 360 डिग्री में घूम चुकी है। मुलायम जिस राजनीति को साधते हुये कांग्रेस के दरवाजे पर पहुँचे हैं, असल में वह राजनीति देश में उस वक्त की पहचान है, जब गांधीवादी प्रयोग अपनी सार्थकता खो चुके हैं। मार्क्सवादी क्रांति की बातों से खुद ही बोरियत महसूस करने लगे हैं। राजनीतिक दलों का क्षेत्रीयकरण हो चुका है। क्षेत्रिय-भाषाई-जातिगत नेता सौदेबाजी में राजनीतिक मुनाफा बटोर रहे हैं। सत्ता और आर्थिक लाभों का संघर्ष सामाजिक क्षेणी में पहले से जमी जातियों के हाथो से निकल कर हर निचले-पिछडी जातियो के दायरे में जा पहुंचा है। सत्ता के लाभ की आंकाक्षा का दायरा ब्राह्मण से लेकर दलित के सोशल इंजियरिंग के अक्स में देखा-परखा जा रहा है। यानी संसदीय राजनीति का वह पाखंड, जिसे लोकतंत्र के नाम पर राजनेता जिलाये रखते रहे, वह टूट चुका है। ऐसे में मुलायम की लोहिया से सोनिया के दरवाजे तक की यात्रा के मर्म को समझना होगा।

मुलायम सिंह ने 1992 में यह कहते हुये लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की थ्योरी को बदला था कि "..अब राजनीति में गैरकांग्रेसवाद के लिये कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। कांग्रेस की चौधराहट खत्म करने के लिये डा लोहिया ने यह कार्यनीतिक औजार 1967 में विकसित किया था।....अब कांग्रेस की सत्ता पर इजारेदारी का क्षय हो चुका है । इसलिये राजनीति में गैर कांग्रेसवाद की कोई जगह नहीं है। इसका स्थान गैरभाजपावाद ने ले लिया है।" उत्तर प्रदेश की राजनीतिक जमीन पर समाजवादी पार्टी के जरीये बीजेपी को शिकस्त देकर बीएसपी के साथ सत्ता पाने के खेल में जातीय राजनीति को खुलकर हवा देते हुये मुलायम ने उस जातीय राजनीति में सेंध लगाने की कोशिश भी कि जो जातीय आधार पर बीएसपी को मजबूत किये हुये थी। उस वक्त मुलायम ने अतिपिछड़ी जातियों मसलन गडरिया, नाई, सैनी, कश्यप और जुलाहों से एकजुट हो जाने की अपील करते हुये बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर और चरण सिंह सरीखे नेताओं का नाम लेकर कहा कि, "कर्पूरी ठाकुर की जात के कितने लोग बिहार में रहे होगे लेकिन वह सबसे बड़े नेता बने। दो बार सीएम भी बने। चरण सिंह तो सीएम-पीएम दोनो बने। वजह उनकी जाति नहीं थी। बाबू राजेन्द्र प्रसाद अपने बूते राष्ट्रपति बने। जेपी हो या लोहिया कोई अपनी जाति के भरोसे नेता नहीं बना। राजनारायण भी जाति से परे थे।"

मुलायम उस दौर में समझ रहे थे कि एक तरफ बीजेपी है दूसरी तरफ बीएसपी यानी जातियों की राजनीतिक गोलबंदी करते हुये उन्हे राष्ट्रीय राजनीति के लिये जातियों की गोलबंदी से परे जाने की राजनीति को भी समझना और समझाना होगा। लेकिन 1993 में बीएसपी के सहयोग से बीजेपी को हरा कर इतिहास रचने के बाद मुलायम को समझ में आ गया कि उत्तर प्रदेश में सवर्ण मतदाताओ को ध्रुवीकरण के लिये बीजेपी के पाले में नहीं छोड़ा जा सकता है । इस स्थिति को मुलायम ने पहले समझा जरुर लेकिन मायावती ने इसका प्रयोग पहले किया। क्योकि सपा-बीएसपी दोनों ने देखा कि जैसे ही वह सामाजिक ध्रुवीकरण की वजह से साथ हुये उसकी प्रतिक्रिया में ब्रहाण वोट फौरन हिन्दुत्व ध्रुव में चले जाते हैं। ऐसे में, बीएसपी ने जब मुलायम का दामन छोड़ा तो बीजेपी का दामन थाम कर उस जातीय गोलबंदी के अपने बनाये मिथ को ही तोड़ने की कोशिश की जो मनुवाद के नाम पर बीजेपी या उच्च जाति को राजनीतिक तौर पर खारिज करती थी। हालाँकि मुलायम बीएसपी के इस प्रयोग को झटके में समझ नहीं पाये इसलिये बीएसपी-बीजेपी के साथ आने पर कहा "...अब बसपा क्या कहेगी? क्या वह अब भी भाजपा को मनुवादी या सांप्रदायिक कह सकेगी? ....मुसलमानों को फिर सोचना होगा उन्हें लगातार धोखा दिया गया है। इसलिये अब हर मोर्चे पर मैदान साफ हो गया है। अब सेक्यूलर और कम्यूनल शक्तियों की लड़ाईं साफ है।"

लेकिन राजनीति का जातीय गणित मुलायम को इसकी भी चेतावनी देता रहा कि सेक्यूलर बनाम कम्यूनल की लड़ाई का मतलब कांग्रेस को भी रिंग के भीतर लाना होगा। ऐसे में दलित-अयोध्या-मुसलमान-विकास की चौकड़ी के महामंत्र का सिलसिलेवार तरीके से जाप की रणनीति ही मुलायम की राजनीति का औजार बनी। इस महामंत्र के बडे औजार कल्य़ाण सिंह आज से नहीं मुलायम के लिये डेढ़ दशक से निशाने पर है। 1995 में बीजेपी ने जब कांशीराम को फुसला कर सपा-बसपा गठजोड़ तोड़ दिया तो विधानसभा में मुलायम ने कल्याण सिंह से पूछा कि , "कहिये अब आपके क्या हाल है। मुलायम ने विपक्ष के नेता की खाली पड़ी कुर्सी की तरफ इशारा करके कहा कि आप वहा से उठकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहते थे, लेकिन आप न तो वहा पहुंच पाये और विपक्ष के नेता की कुर्सी भी चली गयी। आमतौर पर वाकपटु कल्याण भी इस कटाक्ष का कोई जबाब नही देपाये और खामोश रहे।"

कल्याण को लगातार टटोलते मुलायम ने डिबाई उपचुनाव में भी उनके मर्म को छुआ। उन्होंने अपने लोध उम्मीदवार को जिताने की अपील करते हुये जो भाषण दिया उसके जरिये एक नयी राजनीतिक लकीर खींच दी। मुलायम ने कहा, "अगर कल्याण सिंह की इज्जत बचाना चाहते हो तो सपा को जिताओ। जब तक मैं मजबूत रहूंगा तभी तक कल्याण सिंह की इज्जत है। भाजपा में उनकी पूछ तभी तक है।" यानी कम्यूनल कल्याण हो या दलित राजनीति के सिरमौर कांशीराम, मुलायम ने दोनो को साधा। 1985 में इटावा से कांशीराम को मुलायम की राजनीति ने ही जिताया। दलित-मुसलमान-पिछड़े गठजोड़ की राजनीति में बीजेपी के सवर्ण वोटबैक को जोड़ने का खेल भी मुलायम ने ही खेला। यानी संसदीय राजनीति में विचारधारा से इतर समीकरण को ही वैचारिक आधार दे कर सत्ता कैसे बनायी जा सकती है, इसका पाठ पढ़ाने में कोई चूक मुलायम ने नहीं की। जो राजनीति मौजूद है, उसमे लालू यादव से लेकर पवार और जयललिता से लेकर ममता बनर्जी के राजनीतिक तौर-तरीके महज एक हिस्सा भर है। क्योंकि तमाम राजनीतिक दलों ने संसदीय राजनीति के अंतर्विरोध का लाभ उठाकर पार्टी का विस्तार किया तो उसकी विंसगतियों को ही राजनीतिक औजार बनाकर नेताओ ने अपना कद बढ़ाया है।

वहीं, मुलायम का राजनीतिक प्रयोग राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों का ऐसा आईना है, जिसमें लोहिया से सोनिया तक की यात्रा सत्ता की आंकाक्षा में ही सिमटे और सत्ता ही हर विचारधारा और व्यवस्था हो जाये।

Friday, March 6, 2009

आतंकवाद की धार के आगे भोथरी क्यों है सरकार

श्रीलंका को एक पहचान और शोहरत क्रिकेट ने दी। उसके नायक बने जयसूर्या। ठीक उसके उलट श्रीलंका को एक दूसरी पहचान एलटीटीई ने दी और उसके नायक-खलनायक रहे है प्रभाकरण। संयोग से दोनों की पहचान ही लाहौर में आमने सामने आ गयी। एलटीटीई अपने सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रहा है क्योंकि श्रीलंका में उसका सफाया करने के लिये फौज भिड़ी हुई है। ऐसे में सरकार से सौदेबाजी के लिये क्रिकेट टीम पर निशाना साधना उसके लिये सबसे बडी सफलता हो सकती थी। असल में लाहौर में श्रीलंका क्रिकेट खिलाड़ियों को बंधक बना कर एलटीटीई के अनुकूल स्थितियों को बनाने की साजिश हरकत-उल-मुजाहिदीन ने रची। संयोग है कि बंधक बनाया नहीं जा सका। असल में इस घटनाक्रम ने समूची दुनिया के सामने एक साथ कई सवालों को खड़ा कर दिया है।

मसलन आतंकवाद के अपने तार और उनकी अपनी प्रतिबद्दता को लेकर लोकतांत्रिक सरकारों का रुख क्या होना चाहिये। जिस तर्ज पर दुनिया में समाज बंट रहा है, उसमें जब सरकारें एक वर्ग या एक तबके के हित को ही देख कर अपनी अपनी सत्ता बरकरार रखने में जुटी हैं और हिंसा सौदेबाजी के लिये सबसे धारदार हथियार बनता जायेगा तो उस सिविल सोसायटी का क्या होगा जो लोकतंत्र को आधुनिक दौर में सबसे बेहतरीन व्यवस्था माने हुये है। लोकतंत्र के नाम पर सत्ता की तानाशाही अगर नीतियों के सहारे लोगों को मार रही हों तो बंदूक के आसरे लोगों को मौत के घाट उतारने की पहल और कथित लोकतंत्र में अंतर क्या होगा। असल में यह सारे सवाल इसलिये उठ रहे हैं क्योकि एलटीटीई के संबंध पाकिस्तान के हरकत-उल-मुजाहिदीन के साथ तब से हैं, जब उसका नाम हरकत-उल-अंसार था। उस वक्त वह इंटरनेशनल इस्लामिक संगठन का सदस्य था और दो दशक पहले इस्लामिक संगठन से जुड़े अल-कायदा के सदस्य के तौर पर न सिर्फ उसने अपनी पहचान बनायी बल्कि आतंकवादी संगठनों के बीच मादक द्रव्य और हथियारों की तस्करी का जो धंधा चलता, उसमें यह संगटन सबसे मजबूत भूमिका में था।

1993 में पहली बार बारत के कोस्टल गार्ड ने एलटीटीई के एक जहाज की बातचीत को जब पकड़ा तो उसमें यही बात सामने आयी कि कराची से चला जहाज उत्तरी श्रीलंका के वान्नी क्षेत्र में जा रहा है। इस जहाज में हथियार लिये हुये एलटीटीई का नेता किट्टू मौजूद है। एलटीटीई को भी इसकी जानकारी मिल गयी कि भारतीय नेवी पीछे लगी हुई है तो उसने उस जहाज को अरब सागर में ही जला कर डुबो दिया । लेकिन उसके बाद कई तरीकों से यह बात खुलकर उभरी की अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच हेरोईन की तस्करी में एलटीटीई का खासा सहयोग पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन लेते रहे। जिन्हे आईएसआई की भी मदद मिलती और एक वक्त नवाज शरीफ की तो खुली शह थी। उस दौर में दक्षिणी फिलिस्तीन में हथियार पहुंचाने का जिम्मा हरकत-उल-अंसार के ही जिम्मे था, जिसके पीछे आईएसआई खड़ी थी। लेकिन मदद के लिये एलटीटीई का ही साथ लिया गया। क्योंकि समुद्री रास्ते में एसटीटीई से ज्यादा मजबूत कोई दूसरा था नहीं। फिर हथियारों को लेकर जो पहुंच और पकड़ नब्बे के दशक में एलटीटीई के साथ थी, वैसी किसी दूसरे के साथ नहीं थी । 1995 से 1998 के दौरान आईएसआई ने एलटीटीई को इस मदद के बदले पहली बार एंटी एयरक्राफ्ट हथियार और जमीन से आसमान में मार करने वाली मिसाइल भी दी थीं, जिसको लेकर श्रीलंका की सरकार ने उस वक्त परेशानी जतायी और पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय दबाब भी बनाया।

असल में एलटीटीई और आईएसआई के बीच रिश्ते यहीं खत्म नहीं होते। नौ ग्यारह के बाद पाकिस्तान और अफगानिस्तान जब अमेरिकी निगरानी में आया और नाटो सैनिको की तैनाती इन क्षेत्रो में हुई तो एलटीटीई के जरिये हथियारों को फिलिस्तीन समेत अरब देशों में पहुंचाने के लिये म्यानार और दक्षिणी थाईलैड का रास्ता चुना गया। जाहिर है इस लंबी कवायद के दौर में अगर एलटीटीई कमजोर होता है...जो वह हो चुका है तो श्रीलंकाई सरकार को झुकाने के लिय क्रिकेट खिलाडियों से बेहतर सौदेबाजी का कोई प्यादा हो नही सकता था।

दरअसल इस कार्रवाई में 37 साल पहले के उस म्यूनिख ओलंपिक की याद भी दिला दी जिसमें शामिल होने पहुंचे इजरायल के 11 एथलिट और कोच को बंधक बनाकर 234 फिलिस्तिनियों की रिहायी की मांग यासर अराफात समर्थित आंतकवादी संगठन ब्लैक सैप्टेंबर ने की थी। श्रीलंका की क्रिकेट टीम में सबसे उम्र दराज खिलाड़ी जयसूर्या है। जिनका जन्म म्यूनिख ओलंपिक के दो साल बाद हुआ था, लेकिन उस दौर की तस्वीर इस तरह पाकिस्तान में सामने आएगी, यह जयसूर्या ने सोचा ना होगा।

लेकिन इस घटना ने भारत के सामने एक साथ कई सवाल खड़े किये है । खासकर पाकिस्तान को लेकर भारत जिस लोकतंत्र के होने की दुहायी देता है, उसमें क्या वहां की व्यवस्था इसके लिये तैयार है। फिर आतंकवादी हिंसा अगर किसी देश को आगे बढ़ाने का हथियार बनती जा रही है, जिसे सैनिक और नागरिक मदद के नाम पर अमेरिका शह दे रहा है तो क्या उसे मान्यता दी जा सकती है। और इन परिस्थितयों के बीच एक तरफ क्रिकेट सरीखे खेल की पांच सितारा दुनिया और दूसरी तरफ चुनाव के जरिये लोकतंत्र का अलख जगाने की चाह....कैसे चल सकती है । फिर देश के भीतर जब पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान मौजूद है तो धर्म के नाम पर बांटने की राजनीति और अमेरिका की जनसंख्या से ज्यादा लोग जब गरीबी की रेखा से नीचे हो तो देश में आर्थिक सुधार का मजमून कैसे चल सकता है। कहीं किसी भी रुप में सौदेबाजी कर सत्ता या सरकार को पटखनी देने का नया रास्ता तो नहीं खुल रहा है । सवाल कई हैं लेकिन समाधान अब पहले देश को एक धागे में पिरोने का ज्यादा है...अन्यथा संगीनों की कमी का राग अलाप कर क्रिकेट टूर्नामेंट आईपीएल रद्द तो ऐलान तो किया जा सकता है लेकिन देश में भरोसा नही जगाया जा सकता ।