तीसरे मोर्चे की दस्तक, बीजू जनता दल की पहल और शरद पवार के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा ने पहली बार लोकसभा चुनाव से पहले इसके संकेत दे दिये हैं कि सत्ता के लिये जीत से पहले और सत्ता भोगने के लिये जीत के बाद के गठबंधन में खासा बदलाव तय है। तीसरे मोर्चे की कवायद में वाममोर्चा एकजुट है। लेकिन, वाम मोर्चे को लेकर उसका वोट बैंक पहली बार एकजुट नहीं है। सिर्फ पश्चिम बंगाल ही नही केरल में भी सेंध लगनी तय है। बंगाल में नंदीग्राम-सिंगूर-लालगढ तो केरल में भष्ट्राचार का मुद्दा वाममोर्चा की कम से कम 10 सीटों पर झटका देगा।
वहीं, तीसरे मोर्चे को जमा करने वाले देवगौड़ा का संकट अपनी चार सीटों को बरकरार रखने का है। यही संकट टीआरएस का है। तेलागंना का मुद्दा केन्द्र की पहल के बगैर अंजाम तक पहुंच नहीं सकता है इसलिये चन्दशेखर राव की मजबूरी चुनाव के बाद दिल्ली में बनती सरकार की तरफ झुकना तय है। उनके पांच सांसद अभी हैं, जिसमें एक सीट का इजाफा हो सकता है। लेकिन राज्य में विधानसभा चुनाव भी हैं, इसलिये इसका खामियाजा टीआरएस को उठाना पड़ सकता है। तीन सीटें कम भी हो सकती हैं। चूंकि चन्द्रबाबू नायडू वामपंथियों के साथ तीसरे मोर्चे में खड़े हैं तो टीआरएस के लिये और मुश्किल होगी कि वह भी तीसरे मोर्चे में आ जाये।
उधर, जयललिता का हाथ खाली है । इसलिये जयललिता के जरिये सर तो गिनाये जा सकते हैं लेकिन सौदेबाजी को कोई अमली जामा नहीं पहनाया जा सकता । बड़ा सवाल नवीन पटनायक या कहें उनकी पार्टी बीजू जनतादल का है । दस साल से बीजेपी की गोद में बैठकर राजनीति करने वाले नवीन पटनायक के लिये नये हालात में अपनी 11 सीटों को बरकरार रखना ही सबसे बड़ी चुनौती होगी। चूंकि विधानसभा चुनाव राज्य में साथ ही हैं तो नवीन पटनायक सत्ता बरकरार रखने की राजनीति को ज्यादा तवज्जो देंगे इसलिये दिल्ली की सरकार में उनका योगदान आंकडों को बनाने और समर्थन दलों के सर की तादाद बढाने में ही होगा । इसलिये तीसरे मोर्चे में सीधी पहल से बचकर राज्य की राजनीति में कोई सेंध लगे इसके लिये फूंक-फूंक कर कदम रखेंगे।
हरियाणा से विश्नोई की मौजूदगी भी सरों की तादाद को बढाने वाली ही है । जाहिर है ऐसे में तीसरे मोर्चे की इस नयी दस्तक का आंकडा सौ को भी नही छू पायेगा , यह हकीकत है। लेफ्ट की पहल हर हाल में मायावती को साथ लाने की होगी। लेकिन मायावती का सोशल इंजीनियरिंग यहा फिट नही बैठता है। मायावती अपने पत्ते चुनाव परिणाम से पहले खोलना नहीं चाहती हैं। लेकिन वह किसी को निराश भी करना नहीं चाहती हैं। इसलिये तीसरे मोर्चे की पहल में सतीश मिश्रा के जरीये एक ऐसी नुमाइन्दगी कर रही हैं, जिसे झटके में झटका भी जा सके। वहीं तीसरे मोर्चे की अकसर खुली वकालत करने वाले मुलायम-मायावती-अजित सिंह-चौटाला जैसे दिग्गज खामोश होकर सत्ता समीकरण को अपने अनुकूल होते हुये अब भी देखना चाह रहे हैं। यानी तीसरा समीकरण कोई सकारात्मक रुप लेगा, इसकी संभावना बेहद कम है लेकिन बनते हर समीकरण में पहली बार इसका खांचा जरुर उभर रहा है कि यूपीए और एनडीए अपने बूते सत्ता बना नहीं पायेंगे और आंकडों की सौदेबाजी सबसे बड़ी हकीकत बनेगी।
ये सौदेबाजी भारतीय राजनीति में कोई बड़ा बदलाव कर सकती है, यह सबसे बड़ा सवाल है। अगर 14वीं लोकसभा में एनडीए और यूपीए की तस्वीर को अब के हालात से जोड़कर देखें तो वाकई नयी परिस्थितियां एक नये मोर्चे की दिशा में ले जाती हुई भी दिख सकती है। पिछले चुनाव में एनडीए को कुल 185 सीटें मिली थीं, जिसमें से बीजू जनता दल, टीडीपी और तृणमूल खिसक चुकी हैं । यानी 18 सीटों का झटका लग चुका है। हालांकि अजित सिंह की रालोद और असमगण परिषद एनडीए के नये साथी हैं, लेकिन इनके पास कुल 5 सीटे है। यानी एनडीए का आंकडा पिछले चुनाव की तुलना में 13 सीट कम का ही है।
वहीं, यूपीए की कुल सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में 219 थी। जिसमें से टीआरएस खिसक चुकी है और एमडीएमके की लिट्टे राजनीति तमिलनाडु में कांग्रेस के साथ खड़े होने नही देगी। यानी कुल नौ सीटे यहां भी कम हो रही है । डीएमके की मजबूरी है कि वह कांग्रेस के साथ रहे क्योकि राज्य में उनकी सरकार को कांग्रेस का समर्थन है। जो निकला तो सरकार भी गिर जायेगी । यूपीए को नया मुनाफा ममता बनर्जी के साथ जुड़ने से हुआ है। ममता एकमात्र ऐसी सहयोगी हैं, जिनकी सीटो में इजाफा तय माना जा रहा है। फिलहाल दो सीटे हैं, जो आधे दर्जन को पार कर सकती हैं। इसका मतलब है यूपीए की स्थिति कमोवेश यही बनी रह सकती है। लेकिन सरकार बनाने में 272 का जादुई आंकडा जो पिछली बार वाममोर्चे के जरीये पूरा हो गया, इस बार वह फिसलेगा ही । क्योंकि बंगाल में ममता-कांग्रेस गठबंधन वामपंथियो को ही तोड़ेगा। और यूपीए कितनी भी मशक्कत कर ले, वह सेक्यूलरवाद के नारे तले वामपंथियो को साथ ला तो सकता है लेकिन 272 का आंकड़ा नहीं छू पायेगा।
यह हालात एनडीए और यूपीए की उस धारणा को तोडेंगे, जिसमें वैचारिक मतभेद का सवाल अकसर दोनो से जुड़ जाता है । यानी सत्ता समीकरण के लिये ठीक वैसा ही कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम निकलेगा, जैसा एनडीए की सत्ता बनाने के लिये वाजपेयी सरकार ने अयोध्या-कामन सिविल कोड-धारा-370 को दरकिनार कर दिया था। लेकिन तब और अब के हालात खासे बदल चुके है । तब मुद्दो पर खामोश होना था, वहीं अब मुद्दों का समाधान देश को चाहिये। जो दो मुद्दे देश के सामने खड़े हैं, उसमें सुरक्षा और अर्थव्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण हैं । संयोग से आंतकवाद से लड़ने और देश की सुरक्षा में सेंध ना लगने देने को लेकर कोई बहुत अलग राय एनडीए और यूपीए की नहीं है। पोटा सरीखे कड़े कानून को देखने का नजरिया भी बदल चुका है। वहीं, आर्थिक सुधार को लेकर भी एनडीए-यूपीए की सहमति रही है। विरोध के सुर वामपंथियो ने गाहे-बगाहे जरुर उठाये लेकिन सत्ता का सुख भोगते वक्त वो भी लगाम पूरी तरह छोडे रहे।
इन हालात में जब सरकार बनाने के लिये आंकडों के जुगाड़ की जरुरत पड़ेगी तो कई राजनीतिक दल इधर से उधर यह कहते हुये जरुर होंगे कि देश को स्थिरता देना उनकी पहली जरुरत है। फिर चुनाव नहीं चाहिये। एक कॉमन मिनिमम कार्यक्रम के जरीये गठबंधन की सरकारें पिछले दस साल से जब यूपीए-एनडीए के जरीये चली है तो इसको जारी रखने में फर्क क्या पड़ता है।
लेकिन तीसरे मोर्चे की आहट और न्यूक्लियर डील के विरोध में वामपंथियो का सरकार को बीच में छोड़ने के बाद एक साथ कई सवालों ने भी जन्म लिया है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि देश जिन हालातों से गुजर रहा है, उसमे सत्ता से जुड़कर मलाई खाने की जो परंपरा राजनीतिक दलों की बन पड़ी है, उसमें सरकार चलाने की कांग्रेस और बीजेपी की अपनी सोच कहां टिकती है । बीजेपी दिन्दुत्व के नाम पर राजनीति करती है लेकिन मंदिर नहीं बनवा सकती । बनवायेगी तो सरकार गिर जायेगी । कांग्रेस जिस महिला-आदिवासी-पिछडों-किसानों का सवाल खड़ा कर उन्हे मुख्य़धारा से जोड़ने और राहत देने की बात करती है, वह कोई ऐसी नीति बना नही सकती जिससे उसके किसी सहयोगी का वोट बैंक आहत हो तो सरकार का मतलब है क्या।
जाहिर है सरकार देश में होनी चाहिये। जिसकी नजर में आम आदमी हो। हर धर्म-प्रांत का व्यक्ति हो। देश की अर्थव्यवस्था बाजार पर नहीं खुद पर निर्भर हो। आतंकवाद के जरीये बंटते समाज को बांधा जा सके। पड़ोसी देश आंखे न तरेरे । सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद हो । यानी देश में कही सरकार है, इसका एहसास देश को हो । जिसमें राजनीतिक दलो की सौदेबाजी के बदले मुद्दो के समाधान के तौर तरीकों पर सहमति -असहमति के बीच नीतियों को अमली जामा पहनाने की पहल हो। मुश्किलों में मुहाने खड़े देश को लेकर कोई सहमति राजनीतिक दलों में बनती है तो आसान और मुश्किल दोनों तरीका बीजेपी और कांग्रेस को एक साथ देश चलाने के लिये ला सकती है। पिछले आम चुनाव में बीजेपी को 138 और कांग्रेस को 145 सीटे मिली थीं। दोनों को जोड़ने पर 278 का आंकड़ा पहुचता है यानी जादुई 272 से ऊपर । अगर यही स्थिति दोबारा देश में बन भी रही है तो सरकार नहीं देश चलाने के नाम पर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम क्या नही बन सकता । मंत्री पदो का बंटवारा नीतियो के तहत हो सकता है। जिसकी ज्यादा सीटे हों उसका प्रधानमंत्री । सहयोगी का उप-प्रधानमंत्री । सुरक्षा बीजेपी के पास तो गृहमंत्रालय कांग्रेस के पास । वित्त मंत्रालय कांग्रेस के पास तो वाणिज्य बीजेपी के पास। उघोग काग्रेस तो कृर्षि बीजेपी के पास । रेल काग्रेस के पास तो उड्डयन बीजेपी के पास । कोयला कांग्रेस के पास तो स्टील बीजेपी के पास । आईटी सेक्टर बीजेपी के पास तो दूर संचार कांग्रेस के पास । महिला कल्याण बीजेपी के पास तो युवा-खेल कांग्रेस के पास । पिछड़ा कांग्रेस का पास तो अल्पसंख्यक बीजेपी के पास । आपसी सहमति के जरीये कुछ नये मंत्रालय भी बनाये जा सकते है जो चैक एंड बैलैंस की तरह काम करे।
जाहिर है यह समझ देश चलाने के लिये होगी तो सौदेबाजी की राजनीति कर अपने वोटबैंक को सत्ता से मलाई दिलाने की क्षेत्रिय राजनीति बंद हो जायेगी। और जनता भी समझेगी नेताओ के जरीये बेल-आउट से काम नही चलेगा। और अगर यह भी तरीका फेल हो जायेगा तो नयी स्थितियां नये समीकरण की दिशा में ले ही जायेगी...लोकतंत्र का मिजाज तो यही है ।
वहीं, तीसरे मोर्चे को जमा करने वाले देवगौड़ा का संकट अपनी चार सीटों को बरकरार रखने का है। यही संकट टीआरएस का है। तेलागंना का मुद्दा केन्द्र की पहल के बगैर अंजाम तक पहुंच नहीं सकता है इसलिये चन्दशेखर राव की मजबूरी चुनाव के बाद दिल्ली में बनती सरकार की तरफ झुकना तय है। उनके पांच सांसद अभी हैं, जिसमें एक सीट का इजाफा हो सकता है। लेकिन राज्य में विधानसभा चुनाव भी हैं, इसलिये इसका खामियाजा टीआरएस को उठाना पड़ सकता है। तीन सीटें कम भी हो सकती हैं। चूंकि चन्द्रबाबू नायडू वामपंथियों के साथ तीसरे मोर्चे में खड़े हैं तो टीआरएस के लिये और मुश्किल होगी कि वह भी तीसरे मोर्चे में आ जाये।
उधर, जयललिता का हाथ खाली है । इसलिये जयललिता के जरिये सर तो गिनाये जा सकते हैं लेकिन सौदेबाजी को कोई अमली जामा नहीं पहनाया जा सकता । बड़ा सवाल नवीन पटनायक या कहें उनकी पार्टी बीजू जनतादल का है । दस साल से बीजेपी की गोद में बैठकर राजनीति करने वाले नवीन पटनायक के लिये नये हालात में अपनी 11 सीटों को बरकरार रखना ही सबसे बड़ी चुनौती होगी। चूंकि विधानसभा चुनाव राज्य में साथ ही हैं तो नवीन पटनायक सत्ता बरकरार रखने की राजनीति को ज्यादा तवज्जो देंगे इसलिये दिल्ली की सरकार में उनका योगदान आंकडों को बनाने और समर्थन दलों के सर की तादाद बढाने में ही होगा । इसलिये तीसरे मोर्चे में सीधी पहल से बचकर राज्य की राजनीति में कोई सेंध लगे इसके लिये फूंक-फूंक कर कदम रखेंगे।
हरियाणा से विश्नोई की मौजूदगी भी सरों की तादाद को बढाने वाली ही है । जाहिर है ऐसे में तीसरे मोर्चे की इस नयी दस्तक का आंकडा सौ को भी नही छू पायेगा , यह हकीकत है। लेफ्ट की पहल हर हाल में मायावती को साथ लाने की होगी। लेकिन मायावती का सोशल इंजीनियरिंग यहा फिट नही बैठता है। मायावती अपने पत्ते चुनाव परिणाम से पहले खोलना नहीं चाहती हैं। लेकिन वह किसी को निराश भी करना नहीं चाहती हैं। इसलिये तीसरे मोर्चे की पहल में सतीश मिश्रा के जरीये एक ऐसी नुमाइन्दगी कर रही हैं, जिसे झटके में झटका भी जा सके। वहीं तीसरे मोर्चे की अकसर खुली वकालत करने वाले मुलायम-मायावती-अजित सिंह-चौटाला जैसे दिग्गज खामोश होकर सत्ता समीकरण को अपने अनुकूल होते हुये अब भी देखना चाह रहे हैं। यानी तीसरा समीकरण कोई सकारात्मक रुप लेगा, इसकी संभावना बेहद कम है लेकिन बनते हर समीकरण में पहली बार इसका खांचा जरुर उभर रहा है कि यूपीए और एनडीए अपने बूते सत्ता बना नहीं पायेंगे और आंकडों की सौदेबाजी सबसे बड़ी हकीकत बनेगी।
ये सौदेबाजी भारतीय राजनीति में कोई बड़ा बदलाव कर सकती है, यह सबसे बड़ा सवाल है। अगर 14वीं लोकसभा में एनडीए और यूपीए की तस्वीर को अब के हालात से जोड़कर देखें तो वाकई नयी परिस्थितियां एक नये मोर्चे की दिशा में ले जाती हुई भी दिख सकती है। पिछले चुनाव में एनडीए को कुल 185 सीटें मिली थीं, जिसमें से बीजू जनता दल, टीडीपी और तृणमूल खिसक चुकी हैं । यानी 18 सीटों का झटका लग चुका है। हालांकि अजित सिंह की रालोद और असमगण परिषद एनडीए के नये साथी हैं, लेकिन इनके पास कुल 5 सीटे है। यानी एनडीए का आंकडा पिछले चुनाव की तुलना में 13 सीट कम का ही है।
वहीं, यूपीए की कुल सीटें पिछले लोकसभा चुनाव में 219 थी। जिसमें से टीआरएस खिसक चुकी है और एमडीएमके की लिट्टे राजनीति तमिलनाडु में कांग्रेस के साथ खड़े होने नही देगी। यानी कुल नौ सीटे यहां भी कम हो रही है । डीएमके की मजबूरी है कि वह कांग्रेस के साथ रहे क्योकि राज्य में उनकी सरकार को कांग्रेस का समर्थन है। जो निकला तो सरकार भी गिर जायेगी । यूपीए को नया मुनाफा ममता बनर्जी के साथ जुड़ने से हुआ है। ममता एकमात्र ऐसी सहयोगी हैं, जिनकी सीटो में इजाफा तय माना जा रहा है। फिलहाल दो सीटे हैं, जो आधे दर्जन को पार कर सकती हैं। इसका मतलब है यूपीए की स्थिति कमोवेश यही बनी रह सकती है। लेकिन सरकार बनाने में 272 का जादुई आंकडा जो पिछली बार वाममोर्चे के जरीये पूरा हो गया, इस बार वह फिसलेगा ही । क्योंकि बंगाल में ममता-कांग्रेस गठबंधन वामपंथियो को ही तोड़ेगा। और यूपीए कितनी भी मशक्कत कर ले, वह सेक्यूलरवाद के नारे तले वामपंथियो को साथ ला तो सकता है लेकिन 272 का आंकड़ा नहीं छू पायेगा।
यह हालात एनडीए और यूपीए की उस धारणा को तोडेंगे, जिसमें वैचारिक मतभेद का सवाल अकसर दोनो से जुड़ जाता है । यानी सत्ता समीकरण के लिये ठीक वैसा ही कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम निकलेगा, जैसा एनडीए की सत्ता बनाने के लिये वाजपेयी सरकार ने अयोध्या-कामन सिविल कोड-धारा-370 को दरकिनार कर दिया था। लेकिन तब और अब के हालात खासे बदल चुके है । तब मुद्दो पर खामोश होना था, वहीं अब मुद्दों का समाधान देश को चाहिये। जो दो मुद्दे देश के सामने खड़े हैं, उसमें सुरक्षा और अर्थव्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण हैं । संयोग से आंतकवाद से लड़ने और देश की सुरक्षा में सेंध ना लगने देने को लेकर कोई बहुत अलग राय एनडीए और यूपीए की नहीं है। पोटा सरीखे कड़े कानून को देखने का नजरिया भी बदल चुका है। वहीं, आर्थिक सुधार को लेकर भी एनडीए-यूपीए की सहमति रही है। विरोध के सुर वामपंथियो ने गाहे-बगाहे जरुर उठाये लेकिन सत्ता का सुख भोगते वक्त वो भी लगाम पूरी तरह छोडे रहे।
इन हालात में जब सरकार बनाने के लिये आंकडों के जुगाड़ की जरुरत पड़ेगी तो कई राजनीतिक दल इधर से उधर यह कहते हुये जरुर होंगे कि देश को स्थिरता देना उनकी पहली जरुरत है। फिर चुनाव नहीं चाहिये। एक कॉमन मिनिमम कार्यक्रम के जरीये गठबंधन की सरकारें पिछले दस साल से जब यूपीए-एनडीए के जरीये चली है तो इसको जारी रखने में फर्क क्या पड़ता है।
लेकिन तीसरे मोर्चे की आहट और न्यूक्लियर डील के विरोध में वामपंथियो का सरकार को बीच में छोड़ने के बाद एक साथ कई सवालों ने भी जन्म लिया है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि देश जिन हालातों से गुजर रहा है, उसमे सत्ता से जुड़कर मलाई खाने की जो परंपरा राजनीतिक दलों की बन पड़ी है, उसमें सरकार चलाने की कांग्रेस और बीजेपी की अपनी सोच कहां टिकती है । बीजेपी दिन्दुत्व के नाम पर राजनीति करती है लेकिन मंदिर नहीं बनवा सकती । बनवायेगी तो सरकार गिर जायेगी । कांग्रेस जिस महिला-आदिवासी-पिछडों-किसानों का सवाल खड़ा कर उन्हे मुख्य़धारा से जोड़ने और राहत देने की बात करती है, वह कोई ऐसी नीति बना नही सकती जिससे उसके किसी सहयोगी का वोट बैंक आहत हो तो सरकार का मतलब है क्या।
जाहिर है सरकार देश में होनी चाहिये। जिसकी नजर में आम आदमी हो। हर धर्म-प्रांत का व्यक्ति हो। देश की अर्थव्यवस्था बाजार पर नहीं खुद पर निर्भर हो। आतंकवाद के जरीये बंटते समाज को बांधा जा सके। पड़ोसी देश आंखे न तरेरे । सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद हो । यानी देश में कही सरकार है, इसका एहसास देश को हो । जिसमें राजनीतिक दलो की सौदेबाजी के बदले मुद्दो के समाधान के तौर तरीकों पर सहमति -असहमति के बीच नीतियों को अमली जामा पहनाने की पहल हो। मुश्किलों में मुहाने खड़े देश को लेकर कोई सहमति राजनीतिक दलों में बनती है तो आसान और मुश्किल दोनों तरीका बीजेपी और कांग्रेस को एक साथ देश चलाने के लिये ला सकती है। पिछले आम चुनाव में बीजेपी को 138 और कांग्रेस को 145 सीटे मिली थीं। दोनों को जोड़ने पर 278 का आंकड़ा पहुचता है यानी जादुई 272 से ऊपर । अगर यही स्थिति दोबारा देश में बन भी रही है तो सरकार नहीं देश चलाने के नाम पर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम क्या नही बन सकता । मंत्री पदो का बंटवारा नीतियो के तहत हो सकता है। जिसकी ज्यादा सीटे हों उसका प्रधानमंत्री । सहयोगी का उप-प्रधानमंत्री । सुरक्षा बीजेपी के पास तो गृहमंत्रालय कांग्रेस के पास । वित्त मंत्रालय कांग्रेस के पास तो वाणिज्य बीजेपी के पास। उघोग काग्रेस तो कृर्षि बीजेपी के पास । रेल काग्रेस के पास तो उड्डयन बीजेपी के पास । कोयला कांग्रेस के पास तो स्टील बीजेपी के पास । आईटी सेक्टर बीजेपी के पास तो दूर संचार कांग्रेस के पास । महिला कल्याण बीजेपी के पास तो युवा-खेल कांग्रेस के पास । पिछड़ा कांग्रेस का पास तो अल्पसंख्यक बीजेपी के पास । आपसी सहमति के जरीये कुछ नये मंत्रालय भी बनाये जा सकते है जो चैक एंड बैलैंस की तरह काम करे।
जाहिर है यह समझ देश चलाने के लिये होगी तो सौदेबाजी की राजनीति कर अपने वोटबैंक को सत्ता से मलाई दिलाने की क्षेत्रिय राजनीति बंद हो जायेगी। और जनता भी समझेगी नेताओ के जरीये बेल-आउट से काम नही चलेगा। और अगर यह भी तरीका फेल हो जायेगा तो नयी स्थितियां नये समीकरण की दिशा में ले ही जायेगी...लोकतंत्र का मिजाज तो यही है ।
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