लोकसभा चुनाव के ऐलान से करीब चार घंटे पहले यानी मुलायम सिंह जब दस जनपथ में सोनिया गांधी से मुलाकात कर बाहर आये तो अपने कुर्ते के भीतर पसीने को सुखाने के लिये मुंह से हवा कर रहे थे। पत्रकारों ने पूछा, कांग्रेस से गठबंधन होगा या नहीं... तो बदन सुखाते मुलायम झिड़क उठे... होगा क्यों नहीं गठबंधन? सब ठीक होगा!
यह वही मुलायम हैं, जिन्हे रतन सिंह, अभय सिंह, राजपाल और शिवपाल की जगह अखाड़े में ले जाने के लिये पिता ने चुना था। वो खुद मुलायम की वर्जिश करते और दंगल में जब मुलायम बड़े-बड़े पहलवानों को चित्त कर देते तो बेटे की मिट्टी से सनी देह से लिपट जाते और उसमें से आती पसीने की गंध को ही मुलायम की असल पूंजी बताते। इस पूंजी का एहसास लोहिया ने 1954 में मुलायम को तब करवाया, जब उत्तर प्रदेश में सिंचाई दर बढ़वाने के लिये किसान आंदोलन छेड़ा गया। लोहिया इटावा पहुँचे और वहाँ स्कूली छात्र भी मोर्चा निकालने लगे। मुलायम स्कूली बच्चों में सबसे आगे रहते। लोहिया ने स्कूली बच्चों को समझाया कि पढ़ाई जरुरी है लेकिन जब किसान को पूरा हक ही नहीं मिलेगा तो पढ़ाई कर के क्या होगा। इसलिये पसीना तो बहाना ही होगा। लेकिन लोहिया से मुलायम की सीधी मुलाकात 1966 में हुई। तब राजनीतिक कद बना चुके मुलायम को देखकर लोहिया ने कल का भविष्य बताते हुये उनकी पीठ ठोंकी और कांग्रेस के खिलाफ जारी आंदोलन को तेज करने का पाठ यह कह कर पढ़ाया कि कांग्रेस को साधना जिस दिन सीख लोगे उस दिन आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकेगा।
मुलायम ने 1967 में जसवंतनगर विधानसभा में कांग्रेस के दिग्गज लाखन सिंह को चुनाव में चित्त कर कांग्रेस को साधना भी साबित भी कर दिया। लेकिन 2 मार्च को सोनिया गांधी से मुलाकात कर 10 जनपथ से बाहर निकले मुलायम को देखकर यही लगा कि उनकी राजनीति 360 डिग्री में घूम चुकी है। मुलायम जिस राजनीति को साधते हुये कांग्रेस के दरवाजे पर पहुँचे हैं, असल में वह राजनीति देश में उस वक्त की पहचान है, जब गांधीवादी प्रयोग अपनी सार्थकता खो चुके हैं। मार्क्सवादी क्रांति की बातों से खुद ही बोरियत महसूस करने लगे हैं। राजनीतिक दलों का क्षेत्रीयकरण हो चुका है। क्षेत्रिय-भाषाई-जातिगत नेता सौदेबाजी में राजनीतिक मुनाफा बटोर रहे हैं। सत्ता और आर्थिक लाभों का संघर्ष सामाजिक क्षेणी में पहले से जमी जातियों के हाथो से निकल कर हर निचले-पिछडी जातियो के दायरे में जा पहुंचा है। सत्ता के लाभ की आंकाक्षा का दायरा ब्राह्मण से लेकर दलित के सोशल इंजियरिंग के अक्स में देखा-परखा जा रहा है। यानी संसदीय राजनीति का वह पाखंड, जिसे लोकतंत्र के नाम पर राजनेता जिलाये रखते रहे, वह टूट चुका है। ऐसे में मुलायम की लोहिया से सोनिया के दरवाजे तक की यात्रा के मर्म को समझना होगा।
मुलायम सिंह ने 1992 में यह कहते हुये लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की थ्योरी को बदला था कि "..अब राजनीति में गैरकांग्रेसवाद के लिये कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। कांग्रेस की चौधराहट खत्म करने के लिये डा लोहिया ने यह कार्यनीतिक औजार 1967 में विकसित किया था।....अब कांग्रेस की सत्ता पर इजारेदारी का क्षय हो चुका है । इसलिये राजनीति में गैर कांग्रेसवाद की कोई जगह नहीं है। इसका स्थान गैरभाजपावाद ने ले लिया है।" उत्तर प्रदेश की राजनीतिक जमीन पर समाजवादी पार्टी के जरीये बीजेपी को शिकस्त देकर बीएसपी के साथ सत्ता पाने के खेल में जातीय राजनीति को खुलकर हवा देते हुये मुलायम ने उस जातीय राजनीति में सेंध लगाने की कोशिश भी कि जो जातीय आधार पर बीएसपी को मजबूत किये हुये थी। उस वक्त मुलायम ने अतिपिछड़ी जातियों मसलन गडरिया, नाई, सैनी, कश्यप और जुलाहों से एकजुट हो जाने की अपील करते हुये बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर और चरण सिंह सरीखे नेताओं का नाम लेकर कहा कि, "कर्पूरी ठाकुर की जात के कितने लोग बिहार में रहे होगे लेकिन वह सबसे बड़े नेता बने। दो बार सीएम भी बने। चरण सिंह तो सीएम-पीएम दोनो बने। वजह उनकी जाति नहीं थी। बाबू राजेन्द्र प्रसाद अपने बूते राष्ट्रपति बने। जेपी हो या लोहिया कोई अपनी जाति के भरोसे नेता नहीं बना। राजनारायण भी जाति से परे थे।"
मुलायम उस दौर में समझ रहे थे कि एक तरफ बीजेपी है दूसरी तरफ बीएसपी यानी जातियों की राजनीतिक गोलबंदी करते हुये उन्हे राष्ट्रीय राजनीति के लिये जातियों की गोलबंदी से परे जाने की राजनीति को भी समझना और समझाना होगा। लेकिन 1993 में बीएसपी के सहयोग से बीजेपी को हरा कर इतिहास रचने के बाद मुलायम को समझ में आ गया कि उत्तर प्रदेश में सवर्ण मतदाताओ को ध्रुवीकरण के लिये बीजेपी के पाले में नहीं छोड़ा जा सकता है । इस स्थिति को मुलायम ने पहले समझा जरुर लेकिन मायावती ने इसका प्रयोग पहले किया। क्योकि सपा-बीएसपी दोनों ने देखा कि जैसे ही वह सामाजिक ध्रुवीकरण की वजह से साथ हुये उसकी प्रतिक्रिया में ब्रहाण वोट फौरन हिन्दुत्व ध्रुव में चले जाते हैं। ऐसे में, बीएसपी ने जब मुलायम का दामन छोड़ा तो बीजेपी का दामन थाम कर उस जातीय गोलबंदी के अपने बनाये मिथ को ही तोड़ने की कोशिश की जो मनुवाद के नाम पर बीजेपी या उच्च जाति को राजनीतिक तौर पर खारिज करती थी। हालाँकि मुलायम बीएसपी के इस प्रयोग को झटके में समझ नहीं पाये इसलिये बीएसपी-बीजेपी के साथ आने पर कहा "...अब बसपा क्या कहेगी? क्या वह अब भी भाजपा को मनुवादी या सांप्रदायिक कह सकेगी? ....मुसलमानों को फिर सोचना होगा उन्हें लगातार धोखा दिया गया है। इसलिये अब हर मोर्चे पर मैदान साफ हो गया है। अब सेक्यूलर और कम्यूनल शक्तियों की लड़ाईं साफ है।"
लेकिन राजनीति का जातीय गणित मुलायम को इसकी भी चेतावनी देता रहा कि सेक्यूलर बनाम कम्यूनल की लड़ाई का मतलब कांग्रेस को भी रिंग के भीतर लाना होगा। ऐसे में दलित-अयोध्या-मुसलमान-विकास की चौकड़ी के महामंत्र का सिलसिलेवार तरीके से जाप की रणनीति ही मुलायम की राजनीति का औजार बनी। इस महामंत्र के बडे औजार कल्य़ाण सिंह आज से नहीं मुलायम के लिये डेढ़ दशक से निशाने पर है। 1995 में बीजेपी ने जब कांशीराम को फुसला कर सपा-बसपा गठजोड़ तोड़ दिया तो विधानसभा में मुलायम ने कल्याण सिंह से पूछा कि , "कहिये अब आपके क्या हाल है। मुलायम ने विपक्ष के नेता की खाली पड़ी कुर्सी की तरफ इशारा करके कहा कि आप वहा से उठकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहते थे, लेकिन आप न तो वहा पहुंच पाये और विपक्ष के नेता की कुर्सी भी चली गयी। आमतौर पर वाकपटु कल्याण भी इस कटाक्ष का कोई जबाब नही देपाये और खामोश रहे।"
कल्याण को लगातार टटोलते मुलायम ने डिबाई उपचुनाव में भी उनके मर्म को छुआ। उन्होंने अपने लोध उम्मीदवार को जिताने की अपील करते हुये जो भाषण दिया उसके जरिये एक नयी राजनीतिक लकीर खींच दी। मुलायम ने कहा, "अगर कल्याण सिंह की इज्जत बचाना चाहते हो तो सपा को जिताओ। जब तक मैं मजबूत रहूंगा तभी तक कल्याण सिंह की इज्जत है। भाजपा में उनकी पूछ तभी तक है।" यानी कम्यूनल कल्याण हो या दलित राजनीति के सिरमौर कांशीराम, मुलायम ने दोनो को साधा। 1985 में इटावा से कांशीराम को मुलायम की राजनीति ने ही जिताया। दलित-मुसलमान-पिछड़े गठजोड़ की राजनीति में बीजेपी के सवर्ण वोटबैक को जोड़ने का खेल भी मुलायम ने ही खेला। यानी संसदीय राजनीति में विचारधारा से इतर समीकरण को ही वैचारिक आधार दे कर सत्ता कैसे बनायी जा सकती है, इसका पाठ पढ़ाने में कोई चूक मुलायम ने नहीं की। जो राजनीति मौजूद है, उसमे लालू यादव से लेकर पवार और जयललिता से लेकर ममता बनर्जी के राजनीतिक तौर-तरीके महज एक हिस्सा भर है। क्योंकि तमाम राजनीतिक दलों ने संसदीय राजनीति के अंतर्विरोध का लाभ उठाकर पार्टी का विस्तार किया तो उसकी विंसगतियों को ही राजनीतिक औजार बनाकर नेताओ ने अपना कद बढ़ाया है।
वहीं, मुलायम का राजनीतिक प्रयोग राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों का ऐसा आईना है, जिसमें लोहिया से सोनिया तक की यात्रा सत्ता की आंकाक्षा में ही सिमटे और सत्ता ही हर विचारधारा और व्यवस्था हो जाये।
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