Monday, March 23, 2009

“मिलिनियर मीडियाडॉग”

एंकर के कान में आवाज गूंजती है....

...तालिबान ने स्वात घाटी पर कब्जा कर लिया है । एंकर स्क्रीन पर तालिबान के खौफ का समूचा खांका खींचता है। फिर पाकिस्तान के स्वात इलाके में तालिबान के कब्जे की बात कहता है। अभी बात अधूरी ही थी कि एंकर के कान में फिर आवाज गूंजती है....रुको--रुको । कब्जा नहीं किया है शरीयत कानून लागू करने पर तालिबान के साथ पाकिस्तान ने समझौता कर लिया है। एंकर कब्जे की बात को झटके में शरीयत कानून से जोड़ता है। तभी एंकर के कान में शाहरुख कान के कंधों के ऑपरेशन की खबर पहले बताने को कहा जाता है। शरीयत कानून पर शाहरुख का कंधा नाचने लगता है और टीवी स्क्रीन पर शहरुख "डॉन" का गाना गाते नाचते नजर आते है। एंकर शब्द दर शब्द के जरिये शाहरुख की कहानी गढ़ना शुरु ही करता है.....कि कानों में अचानक एक नया निर्देश आता है- डिफेन्स बजट में पैंतीस फीसदी की बढोत्तरी कर दी गयी है। एंकट लटपटा जाता है और उसके मुंह से निकलता है शाहरुख की सुरक्षा में पैंतीस फीसदी की बढोत्तरी। देखने वाल ठहाके लगाते है और कानो में नया निर्देश देते है ...हर खबर को मिलाकर रैप-अप कीजिये और ब्रेक का ऐलान कर दिजिये।

बात पीछे छूट जाती है और न्यूज चैनल अपनी रफ्तार में चलता रहता है। पांच दिनो बाद हफ्ते भर की टीआरपी के आंकडे आते हैं । एंकर टीआरपी में अपनी एंकरिंग के वक्त की टीआरपी खोजता है। उसे पता चलता है, जिस वक्त वह तालिबान से लेकर शाहरुख तक को एक दम में साधता जा रहा था, वही बुलेटिन टीआरपी में अव्वल है तो उसकी बांछें खिल जाती हैं। अचानक न्यूज रुम का वह हीरो हो जाता है। न्यूज डायरेक्टर उसकी पीठ ठोंकते हैं ।

अब एंकर हर बार खबर बताते वक्त इंतजार करता है कि एक साथ कई खबरें उसके बुलेटिन में आये, जिससे उत्तर आधुनिक खबर का कोलाज बनाकर वह दर्शकों के सामने कुछ इस तरह रखे की टीआरपी में उसके नाम का तमगा हर बार लगता रहे। न्यूज डायरेक्टर उसकी पीठ ठोंकता रहे और न्यूज रुम का असल हीरो वह करार दे दिया जाये।

यह टीवी पत्रकारिता का ऐसा पाठ है जो हर कोई पढ़ने के लिये बेताब है । लेकिन न्यूज चैनल के रोमांच का यह एक छोटा सा हिस्सा है । हर खबर को वक्त से पहले दिखाने की छटपटाहट से लेकर खबर गूदने की कला अगर न्यूज रुम में नहीं है तो सर्कस चल ही नहीं सकता। सुबह के दस या कभी ग्यारह बजे की न्यूज मीटिंग में क्रिएटिव खबरों को लेकर हर पत्रकार की जुबान कैसे फिसलती है और कैसे वह झटके में सबसे समझदार करार दिया जाता है...यह भी एक हुनर है । एक ने कहा, आज किसानों के पैकेज का ऐलान हो सकता है । उन इलाकों से रिपोर्ट की व्यवस्था करनी चाहिये जहां किसानो ने सबसे ज्यादा आत्महत्या की हैं। तभी दूसरा ज्यादा जोर से बोल पड़ा...अरे छोड़िये कौन देखेगा। आज रितिक रोशन का जन्मदिन है । उसके घर पर ओबी वैन खड़ी कर दिजिये और उसके फिल्मीसफर को लेकर कोई घांसू सा प्रोग्राम बनाना चाहिये। चलेगा यही । देश युवा हो चुका है । नयी पीढी को तो बताना होगा किसान चीज क्या होती है । सही है तभी एक तीसरे पत्रकार ने बारीकी से कहा...आज दोपहर बाद दिल्ली में एश्वर्या बच्चन एक अंतर्राष्ट्रीय घडी का ब्रांड एम्बेसडर बनेंगी तो उनसे भी रितिक के जन्मदिन पर सवाल किया जा सकता है । धूम फिल्म में दोनो ने एकसाथ काम भी किया था फिर उस फिल्म के जरीये घूम का वह किस सीन भी दिखा सकते है, जिसे लेकर खासा हंगामा मचा था और बच्चन परिवार आहत था।

तभी कार्डिनेशन वाले ने कहा, आधे धंटे का विशेष "किस-सीन" पर ही करना चाहिये। जिसका पेग रितिक-एश्रवर्य की किस सीन होगा । इसमें अमिताभ-रेखा से लेकर रणबीर-दीपिका का "किस -सीन" भी दिखाया जायेगा । आइडिया हवा में कुचांले मार रहा था तो आउटपुट को कवर करने वाले पत्रकार को आइडिया आया कि इस पर एसएमएस पोल भी करा सकते हैं कि दर्शको को कौन सा किस सीन सबसे ज्यादा पंसद है । खामोश न्यूज डायरेक्टर अचानक बोल पडे...आइडिया तो सही है। एसाइन्मेंट चीफ कहां खामोश रहते, बोले हां ...अगर इसका प्रोमो दोपहर से ही चलवा दिया जाये कि दर्शको को कौन सा "किस-सीन" सबसे ज्यादा पंसद है तो एसएमएस की बाढ़ आ जायेगी । फाइनल हुआ चैनल आज रितिक रोशन को बेचेगा ।

लेकिन सर..दिल्ली में और भी बहुत कुछ है ....उस पर भी ठप्पा लगा दे....यह आवाज पीएमओ और विदेश मंत्रालय देखने वाले पत्रकार की थी । संयोग से आज दिल्ली में पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद कसूरी हैं। एक तरफ सरकार तालिबान का राग अलाप रही है और पाकिस्तान से युद्द के लिये दो-दो हाथ की तैयारी कर रही है...उस वक्त कसूरी का इंटरव्यू किया जा सकता है कि तालिबान का मतलब है क्या । बीच में ही आउटपुट-एसाइनमेंट के लोग एक साथ बोल पडे...कहां फंसते हैं, तालिबान का खौफ जब टीआरपी दे रहा है तो कसूरी के जरिये सबकी हवा क्यों निकालना चाहते हैं । तो सर एलटीटीआई को लेकर श्रीलंका की पूर्व राष्टरपति चन्द्रिका कुमारतुंगा से बात की जा सकती है । उनका इंटरव्यू लिया जा सकता है..संयोग से वह भी दिल्ली में हैं। एसाइन्टमेंट वाले को आश्चर्य हुआ कि उसे जानकारी ही नहीं कि यह सब दिल्ली में हैं तो सवाल किया, मामला क्या है..क्यों दोनो नेता दिल्ली पहुंचे हैं । जी..अय्यर की किताब का विमोचन है । कौन अय्यर.... मणिशंकर अय्यर । जी..वहीं । अरे अय्यर को कौन जानता है, उनकी क्रिडेबिलेटी या कहिये कांग्रेस के भीतर उन्हे पूछता ही कौन है । कौन देखेगा इनके गेस्ट को । छोड़िये। खामोश न्यूज डायरेक्टर फिर उचके और कहा, नजर रखिये प्रोग्राम पर कहीं कुछ कह दिया या फिर किसी ने कुछ दिखाया तो बताइयेगा...ऐसे कोई मतलब नहीं है इनके इंटरव्यू का ।
खैर छिट-पुट खबरों पर चिंतन-मनन के बाद दो घंटे की बैठक खत्म हुई । दोपहर के खाने को लेकर चर्चा हुई । कैंटिन और नये जायके को लेकर मंदी पर फब्ती कसी गयी । किसानों ने देश बचाया है...गर्व से कई तर्क कईयों ने दिये....उन्होंने भी जिन्होंने किसानों को टीवी स्क्रीन पर दिखाने को महा-बेवकूफी करार दिया था । खैर दिन बीता । समूची मीटिंग और रिपोर्ट करने ...खबर दिखाने की बहस हर दिन की तरह खत्म हुई । अगले दिन राजनीतिक दल को कवर करने वाला रिपोर्टर देश की राष्ट्रीय पार्टी के दफ्तर में बैठा था । तभी पता चला आज प्रेस कान्फ्रेन्स वरिष्ट नेता और सरकार में कबिना मंत्री रह चुके राष्ट्रीय दल के नेता लेंगे । पत्रकारों से बातचीत के बाद जब वह रिपोर्टर किसी सवाल पर प्रतिक्रिया लेने इस नेता के पास पहुंचा तो नेता-पूर्व मंत्री ने रिपोर्टर से कहा..आपके चैनल ने कल कमाल का प्रोग्राम दिखाया । किस हीरो का किस-सीन सबसे बेहतर है । क्रिएटिव था प्रोग्राम । मैंने तो कुछ देर ही देखा । तभी इस राष्ट्रीय पार्टी के कई छुटमैया नेता बोल पड़े । जबरदस्त था प्रोग्राम....हमने पूरा देखा । इसे रीपीट कब किजियेगा । अरे सर जरुर देखियेगा...खास कर इसका अंत जहां राजकपूर-नर्गिस और रितिक-एश्वर्या को एक साथ दिखाया गया है।

रिपोर्टर ने नेताओं की प्रतिक्रिया को हुबहू अगले दिन की न्यूज मीटिंग में बताया । न्यूज डायरेक्टर की बांछें खिल गयी । उन्हें व्यक्तिगत तौर पर लगा कि उनसे बेहतर कोई संपादक हो ही नही सकता है । न्यूज डायरेक्टर ने प्रोग्राम बनानेवाले प्रोडूसर को बधाई दी । फिर आधे दर्जन पत्रकारों ने एक-दूसरे की पीठ ठोंकी कि यह आईडिया उन्हीं का था । खैर पांच दिन बाद आयी टीआरपी में भी यह प्रोग्राम अव्वल रहा। चैनल ने एक पायदान ऊपर कदम बढाया।

दो हफ्ते बाद मुबंई के एक पांच सितारा होटल में विज्ञापनदाताओं की एक पार्टी हुई, जिसमं पहली बार एंकरो को भी बुलाया गया । विज्ञापन देने वाले एंकरो से मिलकर बहुत खुश हुये । विज्ञापन देने वालों के जहन में हर एंकर की याद उसके किसी ना किसी प्रोग्राम को लेकर थी तो कई तरह के प्रोग्राम का जिक्र हुआ तो एंकर ने भी छाती फुलायी और खुद को इस तरह पेश किया जैसे वह न होता तो उनका पंसदीदा प्रोग्राम टीवी स्क्रीन पर चल ही नहीं पाता। दो युवा एंकर तो खुद को हीरो-हीरोइन समझ कर फोटो खिंचवाने से लेकर ऑटोग्राफ देने और संगीत की धुन पर इस तरह मचले की लाइव शो हो जाता तो टीआरपी छप्पर फाड़ कर मिलती। उस रात के हीरो भी वही रहे और विज्ञापन देने वालो ने दोनो युवा एंकरो की पीठ ठोंकी और सीओ ने भी जब खुली तारीफ कर दी तो परिणाम अगले दिन से ही स्क्रीन पर नजर आने लगा। दोनो एंकरो को कई प्रोग्राम की एंकरिंग का मौका मिलने लगा । और न्यूज डायरेक्टर ने दिल खोलकर दोनो एंकरों को सबसे बेहतर करार दिया। दोनों ने खुद को सबसे बेहतरीन पत्रकार मान लिया । आफिस में रिपोर्टर-पत्रकारो की धडकन बढ़ गयी।

खबर परोसते न्यूज चैनलो की असल पहचान कमोवेश इसी वातावरण के इर्द-गिर्द घूमती है । यह एक ऐसा घेरा है, जिसमें समाने और ना समा पाने का सुकुन भी एक सा है । इस वातावरण को किसी एक न्यूज चैनल के घेरे में रखना वैसी ही मूर्खता होगी जैसे चैनलों पर परोसे जा रहे सच पर वाहवाही सिर्फ किसी एक नेता की मानी जाये या फिर जिन विज्ञापनदाताओ की पूंजी के जरीये न्यूज चैनल चलते हैं, उनमें सिर्फ चंद के खुश होने की बात कही जाये। यानी नेताओं की कमी नहीं और विज्ञापन देने वालो में भी इस विचार की भरमार है कि जो टीवी न्यूज चैनल पर दिखायी दे रहा है उन्हे देखने में मजा आता है । असल में हिन्दी पट्टी में हिन्दी के न्यूज चैनलों ने पहली बार भाषायी क्रांति के साथ साथ मुनाफे और बाजार की एक ऐसा परिभाषा गढ़ी है, जिसने समाज के भीतर एक नया समाज गढ़ दिया है । इस समझ के दायरे में जाति-शिक्षा-लिंग सब बराबर हैं। यानी जो समाज राजनीतिक तौर पर बंटा है या सामाजिक विसंगतियो का शिकार होकर दकियानुसी संवाद बनाता है, उसे टीवी के जरीये एक ऐसा जुबान दी गयी कि उसका विशलेषण राजनीतिक तौर पर होने लगे । मंगलौर के पब में लडकियो के साथ मारपीट जैसी स्थिति अगर बिना टीवी न्यूज चैनल के होती तो उसका स्वरुप यही होता कि जिन लडकों ने लडकियो के साथ बदसलूकी की उनका शहर में रहना दुभर हो जाता। या फिर लड़कियों के परिजन लुंपन लडकों की ऐसी पिटाई करते और मुथालिक का चेहरा काला कर शहर भर में घुमाते की उसकी हिम्मत नहीं पड़ती कि लडकियों की तरफ आंख भी उठा सके।
लेकिन कमाल टीवी का है । जिसने मुथालिक की गुंडागर्दी को नैतिकता के उस पाठ का हिस्सा बना दिया जिसकी दुहायी संघ परिवार गाहे-बगाहे देता रहता है । अब विशलेषण होगा तो मुथालिक महज पूंछ की तरह होंगे और आरएसएस सूंड की तरह नजर आयेगा। हुआ भी यही । और यही सूंड धीरे धीरे बीजेपी की राजनीति का हिस्सा बनी और बीजेपी इस मुद्दे को आत्मसात कर ले, इसका प्रयास कांग्रेस ने खुल्लमखुल्ला संघ से जोड़कर कर दिया । जो न्यूज "किस-सीन" के प्रोग्राम में खोये रहते, जब उनके माइक और कैमरा नेताओ की प्रतिक्रिया लेने निकले तो कौन नेता बेवकूफ होगा जो घटना पर अपनी जुबान न खोले । किसी को तालिबानी कल्चर दिखा तो किसी को हिन्दु समाज की नैतिकता । किसी को हिन्दु वोट नजर आया तो किसी को युवा वोट । जाहिर है क्या नेता, क्या सरकार, क्या गुंडा और क्या समाज सुधारक न्यूज चैनल के पर्दे पर कोई भी आये लगते सभी एक सरीखे है । कोई खबर किसी भी रुप में दिखायी जाये, उसके तरीके उसी मनोरंजन का हिस्सा बन जाते है जिसे खारिज करने के लिये मीडिया की जरुरत हुई । और उसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा माना गया।

लेकिन मीडिया का यह पहला चैप्टर है, जो न्यूज रुम से शुरु होता है। दूसरा चैप्टर मीडिया का मतलब बिजनेस और चलाने का मतलब मुनाफा वसूली से जुड़ा है। ये चैप्टर उस न्यू इकॉनमी की देन है, जिसमें न्यूज चैनल के लिये लाइसेंस खरीदने से चौथा पाया होने की शुरुआत होती है।

न्यूज चैनल के लिये लाइसेंस का मतलब आपका हाथ-चेहरा । अगला-पिछला सबकुछ सफेद हो । वैचारिक तौर पर सेक्यूलर और लोकतांत्रिक होने की पहचान आपके साथ जुड़ी हो । अपराध या भ्रष्टाचार का तमगा आपकी छाती पर न टंगा हो। जाहिर है यह ऐसी नियमावली है, जिसकी कोई कीमत नहीं लगा सकता और जो लगायेगा वह वसूली भी ऐसी करेगा कि सामने वाले का सबकुछ काला हो, तभी संभव है। तो सरकार के मंत्री से लेकर चढ़ावा लेते बाबूओ की पूरी फौज, एनओसी की मुहर की व्यवस्था आईबी रिपोर्ट से लेकर थाने की रिपोर्ट तक की करा देती है।

सवाल है कि किसी के पास न्यूज चैनल का लाइसेंस जब इतने चढ़ावे के बाद आ ही जाता है तो वह अपनी मुनाफा वसूली कैसे करेगा । पहला तरीका है लाइसेंस को एक साल के लिये किसी बेहतरीन पार्टी को बेच देना। कीमत एक करोड़ से लेकर कुछ भी । यानी सामने वाला लाइसेंस लेकर बाजार को किस तरह दुह सकता है....यह उसकी काबिलियत पर है । और अगर लाइसेंस के जरुरतमंद की पहुंच-पकड़ राजनीतिक पूंजी से जुड़ी होगी तो लाइसेंस की कीमत पांच करोड़ तक लगती है। न्यूज चैनल के कई लाइसेंस इस तरह खुले बाजार में लगातार घुम रहे हैं। कुछ खरीदे भी गये और चल भी रहे हैं। लेकिन सवाल है इस हालात में न्यूज रुम को भी करोड़ों के वारे न्यारे करने हैं...और चूकि चैनल का प्रोडक्ट खबर है तो खेल को पूंजी में बदलने का खेल यहीं से शुरु होता है। सबसे पहले खबर को कवर करने वाले पत्रकारों को चैनल का मंच देकर वसूली के नियम कायदे बता दिये जाते हैं। उसके भी दो तरीके हैं। खबरों को दिखाने के बदले सीधे पांच से पचास लाख तक का टारगेट सालाना पूरा करना । या फिर राज्यों के ब्यूरो को पचास लाख से लेकर एक करोड़ तक में बेच देना। यह तरीका सीधे खबरों को बिजनेस में फुटकर तौर पर भी बदलना माना जा सकता है।

लेकिन संभ्रात तरीका किसी राजनीतिक दल या किसी राज्य सरकार से सौदेबाजी को मूर्त रुप में ढालना है । यह सौदा चुनाव के वक्त जोर पकड़ता है। जिसमें पांच करोड़ से लेकर पचास करोड़ तक सौदा हो सकता है। राज्यों के चुनाव में यह सौदा राजनीतिक दलों में खूब गूंजता है। पिछले चुनाव में जो पांच राज्यों के चुनाव हुये, उसमें कई चैनलों के वारे न्यारे इसी सौदे से हो गये। चुनाव चाहे लोकतंत्र की पहचान हो लेकिन चुनाव का मतलब लोकतांत्रिक तरीके से पूंजी और मुनाफा वसूली की सौदेबाजी का तंत्र भी है, जो सभी को फलने फूलने का मौका देता है । लेकिन यह तंत्र इतना मजबूत है कि इसके घेरे में समूचा मीडिया घुसने को बेताब रहता है। यानी यहां टीवी या अखबार की लकीर मिट जाती है। लोकतंत्र में चुनाव का मतलब महज यही नहीं है, मायावती टिकटो को बेचती हैं या फिर बीजेपी और कांग्रेस में पहली बार टिकट बेचे गये। असल में चुनाव में खबरों को बेचने का सिलसिला भी शुरु हुआ। इसका मतलब है अखबारों में जो छप रहा है, न्यूज चैनलो में जो दिख रहा है, वह खबरें बिकी हुई हैं। इसके लिये भी रिपोर्टर को टारगेट दिया जाता है। और संस्थान संभ्रात है तो हर सीट पर सीधे चुनाव लड़ने वाले प्रमुख या तीन उम्मीदवार से वसूली कर एडिटोरियल पॉलिसी बना देता है कि खबरो का मिजाज क्या होगा। यह सौदेबाजी प्रति उम्मीदवार अखबार के प्रचार प्रसार और उसकी विश्वसनीयता के आधार पर तय होती है, जो एक लाख से लेकर एक करोड़ तक होती है। मसलन उत्तर प्रदेश के बहुतेरे अखबार इस तैयारी में है कि लोकसभा चुनाव में कम से कम पचास से सौ करोड़ तो बनाये ही जा सकते हैं। बेहद रईस क्षेत्र या वीवीआईपी सीट की सौदेबाजी का आंकलन करना बेवकूफी होती है क्यकि उस सौदेबाजी के इतने हाथ और चेहरे होते हैं कि उसे नंबरो से जोड़कर नहीं आंका जा सकता है। इन परिस्थितियो में खबरों को लिखना सबसे ज्यादा हुनर का काम होता है, क्योंकि खबरों को इस तरह पाठको के सामने परोसना होता है, जिससे वह विज्ञापन भी न लगे और अखबार की विश्वसनीयता भी बरकार रहे। मतलब खबरों के दो चेहरे है मगर मकसद एक है। पहला "किस-सीन" सरीखे प्रोग्राम टीआरपी देंगे और समाज को जो लुभायेगा,उसे बिजनेस और मुनाफे में बदला जा सकता है । दुसरा खबर को ही धंधे में बदल दिया जाये, जिससे मुनाफा वसूली के लिये टीआरपी ना देखनी पडी और न्यूज प्रोडक्ट का जामा भी बरकरार रहे ।

असल में यह परिस्थितियां किसी एक न्यूज चैनल या नेताओं या फिर ब्रांड चमकाने के लिये बाजार से मुनाफा बटोरने भर की नहीं हैं। यह एक पूरा समाज है जो देश को अपने घेरे में लाना चाहता है या फिर अपने घेरे से ही देश की लीक बनाना चाहता है। इन हालात के बीच मीडिया में खबरों के लौटने का मतलब एक ऐसे लोकतंत्र का जाप करना है, जिसमें सत्ता का चेहरा कभी खुरदुरा ना दिखे । क्योंकि चैक एंड बैलेंस की जो थ्योरी संविधान के जरीये लोकतंत्र के हर पाये को एक दूसरे की निगरानी के तहत खड़ा किया गया और अगर साठ साल बाद यही पाये अपने को बचाये रखने के लिये चैक एंड बैलेस का खेल खेल रहे है तो देश की बहुसंख्यक जनता को यह महसूस होता रहेगा कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश का वह नागरिक है। और चुनाव के दिन आप वोट नहीं डाल रहे हो तो आप सो रहे हैं का ताना आपको आपकी जिम्मेदारी का एहसास करा कर एक नयी सौदेबाजी में निकल सकता है। वैसे भी खुद को लोकतांत्रिक कहलाने का प्रोगपेंडा सबसे मंहगा सौदा होता है। और इस सौदे के घेरे में जब लोकतंत्र का ही पाया हो तो बात ही क्या है ।

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