देश दुखी है । देश चलाने वाले दुखी हैं। मुंबई हमलों पर देश को न्याय दिलाने के बदले देश दुखी है। लोग इतने दुखी हैं कि होली का रंग उन्हे खून के रंग से ज्यादा खतरनाक लग रहा है। 26/11 का दर्द इस हद तक है कि हमलावर कौन थे...कहां से आये थे सब मालूम होने के बावजूद करना क्या चाहिये, यह देश को मालूम नहीं है।
एक हजार पन्नों की चार्जशीट में सबकुछ लिखा है, जिसे देश का कोई भी नागरिक पढ़ कर समझ सकता है कि देश चलाने वालों को हमलावरो के घर-ठिकाने-हथियार मुहैया कराने वालो से लेकर उनके पीछे परछाई की तरह खड़े होकर सबकुछ अंजाम देने वालों के पल पल की जानकारी है, लेकिन देश दुखी है। इतना दुखी कि उसका खून भी रंग में बदल गया। रंग लाल ही है...लेकिन लाल रंग गाढ़ा हो चला है । इतना गाढा की रंग से भी डर लगने लगे । देश की बागडोर हाथ में लेने के लिये बैचेन आ़डवाणी हो या देश को पर्दे के पीछे से चलाने के हुनर में माहिर दस जनपथ या फिर सदी के महानायक बच्चन- सभी दुखी हैं।
देश चलाने वाले जो दुखी हैं, वह होली नहीं खेलेगे । हर किसी को लग रहा है कि होली खेल ली तो देश के साथ फरेब हो जायेगा । होली में क्या बढ़ा क्या छोटा की जगह फिर देश कहने से नहीं चूक रहा है कि कौन बड़ा कौन छोटा । गजब की महिमा है देश पर राज करने वालो की। मुबंई हमलों में 177 लोगो की जान गयी...पड़ोसी देश को कुछ इस तरह आंखे तरेर कर दिखायी गयी कि देश को लगा शायद यह न्याय दिलाने की हुंकार है । लेकिन यह हुंकार भांग और नशे से कहीं ज्यादा तीखी हो सकती है, यह होली के दिन ही पता चला कि सत्ता पाने का नशा देश को दुखी भी कर सकता है। अद्भभुत दुख है यह ....जो पांच साल तक," हर दिन होली रात दिवाली " की तर्ज पर पांच सितारा जीवन भोगता है । पांच साल में आंतकवाद की हिंसा में चालीस हजार लोगो की जान जाती है लेकिन देश दुखी नहीं होता । पांच साल में पच्चीस हजार किसान आत्महत्या करता है लेकिन देश दुखी नहीं होता है । पांच साल में पांच करोड़ परिवार को अपनी पुस्तैनी जमीन से बेदखल होना पड़ता है लेकिन देश दुखी नहीं होता । पांच सालो में आर्थिक सुधार का पाठ पढ़कर विकास की अनूठी गाथा लिखने की पहल देश चलाने वाले कुछ इस तरह करते हैं कि खेती पर टिके दस करोड़ लोगों के सामने दो जून की रोटी का जुगाड़ मुश्किल हो जाता है । लेकिन देश दुखी नहीं होता । पांच सालो में रिटेल सेक्टर से जुडे सत्तर लाख लोग सड़क पर आ जाते हैं लेकिन देश दुखी नहीं होता। इस दौर में नून-रोटी की कीमत में चार सौ फिसदी का इजाफा हो जाता है लेकिन देश को कोई दर्द नहीं होता ।
इन पांच सालो में आधुनिक अर्थव्यवयवस्था का थर्मामीटर शेयर बाजार के हिचकोले खाने से मध्यम वर्ग के एक करोड़ से ज्यादा लोग खुद को ठगा महसूस करते हैं, लेकिन देश उनके दर्द में शामिल नहीं हो पाता । इन पांच सालो में करोड़पतियो की तादाद में तीन सौ फीसदी का इजाफा होता है , देश फक्र महसूस करता है। इन पांच सालो में औधोगिक और कारपोरेट सेक्टर के मुनाफे से देश का दो फिसदी दुनिया पर काबिज होने का सपना संजोने लगता है, देश को गर्व होता है । एसईजेड का एक ऐसा ताना-बाना बुना जाता है, जिससे चार हजार लोग झटके में अरब पति होते हैं । जमीनो की खरीद फरोख्त से करीब पांच लाख लोग अरबपति होने की दिशा में बढ़ जाते हैं और देश के पच्चीस लाख लोगो का धंधा चल पडता है । लेकिन इन तीस लाख चार हजार के मुनाफे के उलट देश के दो करोड़ से ज्यादा परिवार तहस -नहस हो जाते हैं । लेकिन देश को यह गणित समझ में नहीं आता, वह ठहाके लगाता है । पांच साल में देश के सौ से ज्यादा सांसद विधायक भष्ट्राचार और अपराधी करार दिये जाते हैं । लेकिन कानून के आगे भी सभी ठहाके लगाते हैं । संसद के भीतर नोटो के बंडल लहराये जाते हैं लेकिन सासंद सत्ता बचाने और बनाने का खेल खेल कर ठहाके लगाते हैं । ठहाकों की यह अठ्टास देश में पहली बार उन युवाओं के सपनो को भी कुरच-कुरच देती है, जो लाखो की पढाई कर करोड़ों बनाने के धंधे को जिन्दगी का फलसफा बनाये हुये थे । खुला बाजार ढहता हो तो घाव से रिसते खुन पर भी भिनभिनाती मक्खखियो की तरह देश चलाने वाले उसके रस को भी चूस लेना चाहते है । आम जनता की पूंजी से देश की रईसी थमती नहीं है । बेल-आउट के नाम पर कंपनियो को अगर 90 हजार करोड़ बांटे जाते है तो देश चलाने वालो की कौम का पांच सितारा जीवन बरकरार रहे, इसके लिये देश के खजाने से दो लाख करोड़ से ज्यादा की राशि व्यवस्था के नाम पर लुटा दी जाती है । देश को ठहाके इतने पंसद है कि संसद से लेकर कमोवेश हर राज्य की विधानसभा में सांसद-विधायक आपस में गुंडागर्दी का खुला खेल खेलते है,फिर अगले दिन गलबहिया डाल कर लोकतंत्र का कुछ ऐसा जाप करते है जिससे लगता है कि वाकई मेरा देश महान है ।
लेकिन इन पांच सालो में इस गुंडागर्दी की वजह से देश को तीन सौ करोड़ का चूना लगता है मगर देश दुखी नहीं होता क्योकि देश चलाने वाले जब आपस में दुखी होते हैं तो ऐसी हरकत लोकतंत्र की परंपरा हो जाती है। लेकिन होली तो सबका त्यौहार है और हर रंग में डूबकर या डूबाकर जीने की सीख देती है होली पर दुखी होने के लिये महज मुंबई हमले से काम कैसे चलेगा।
तो लालू कोसी नदी से मिले दर्द से कराह रहे हैं । ममता बनर्जी नंदीग्राम में अस्मत लुटी महिलाओ के दर्द में शामिल हैं । वामपंथी न्यूक्लियर डिल के जरीये अमेरिकी साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेकने से लेकर मंहगाई में आम आदमी के खाली पेट के कुलहाने से दुखी हैं । पवार से लेकर बालासाहेब ठाकरे मुंबई हमलो से दुखी है । जयललिता श्रीलंका में तमिलो के साथ हो रहे अत्याचार से दुखी हैं । नरेन्द्र मोदी मुंबई हमलो का जबाब ना पाने से दुखी हैं । सत्यम घोटाले के सहयोगी मुक्यमंत्री वाय.एस.आर रेड्डी मंदी में युवाओं की जाती नौकरी में सुनसान पड़ते साइबर शहर से दुखी है । तो दर्द देने वाले दुखी हैं और वह होली नहीं खेलेगे और जो जनता हर दर्द को सहे जा रही है, वह होली के ही मौके पर रंगों में खुद को सराबोर कर चंद क्षणों के लिये ही सही होली के आसरे दर्द को भुलाना चाह रही है.. यह जानते समझते हुये कि चुनाव खत्म होते ही, " दिन को होली रात दिवाली" का गान देश चलाने वाले फिर गायेगे.... और घाव-दर-घाव देश के सीने पर पड़ते जायेंगे।
एक हजार पन्नों की चार्जशीट में सबकुछ लिखा है, जिसे देश का कोई भी नागरिक पढ़ कर समझ सकता है कि देश चलाने वालों को हमलावरो के घर-ठिकाने-हथियार मुहैया कराने वालो से लेकर उनके पीछे परछाई की तरह खड़े होकर सबकुछ अंजाम देने वालों के पल पल की जानकारी है, लेकिन देश दुखी है। इतना दुखी कि उसका खून भी रंग में बदल गया। रंग लाल ही है...लेकिन लाल रंग गाढ़ा हो चला है । इतना गाढा की रंग से भी डर लगने लगे । देश की बागडोर हाथ में लेने के लिये बैचेन आ़डवाणी हो या देश को पर्दे के पीछे से चलाने के हुनर में माहिर दस जनपथ या फिर सदी के महानायक बच्चन- सभी दुखी हैं।
देश चलाने वाले जो दुखी हैं, वह होली नहीं खेलेगे । हर किसी को लग रहा है कि होली खेल ली तो देश के साथ फरेब हो जायेगा । होली में क्या बढ़ा क्या छोटा की जगह फिर देश कहने से नहीं चूक रहा है कि कौन बड़ा कौन छोटा । गजब की महिमा है देश पर राज करने वालो की। मुबंई हमलों में 177 लोगो की जान गयी...पड़ोसी देश को कुछ इस तरह आंखे तरेर कर दिखायी गयी कि देश को लगा शायद यह न्याय दिलाने की हुंकार है । लेकिन यह हुंकार भांग और नशे से कहीं ज्यादा तीखी हो सकती है, यह होली के दिन ही पता चला कि सत्ता पाने का नशा देश को दुखी भी कर सकता है। अद्भभुत दुख है यह ....जो पांच साल तक," हर दिन होली रात दिवाली " की तर्ज पर पांच सितारा जीवन भोगता है । पांच साल में आंतकवाद की हिंसा में चालीस हजार लोगो की जान जाती है लेकिन देश दुखी नहीं होता । पांच साल में पच्चीस हजार किसान आत्महत्या करता है लेकिन देश दुखी नहीं होता है । पांच साल में पांच करोड़ परिवार को अपनी पुस्तैनी जमीन से बेदखल होना पड़ता है लेकिन देश दुखी नहीं होता । पांच सालो में आर्थिक सुधार का पाठ पढ़कर विकास की अनूठी गाथा लिखने की पहल देश चलाने वाले कुछ इस तरह करते हैं कि खेती पर टिके दस करोड़ लोगों के सामने दो जून की रोटी का जुगाड़ मुश्किल हो जाता है । लेकिन देश दुखी नहीं होता । पांच सालो में रिटेल सेक्टर से जुडे सत्तर लाख लोग सड़क पर आ जाते हैं लेकिन देश दुखी नहीं होता। इस दौर में नून-रोटी की कीमत में चार सौ फिसदी का इजाफा हो जाता है लेकिन देश को कोई दर्द नहीं होता ।
इन पांच सालो में आधुनिक अर्थव्यवयवस्था का थर्मामीटर शेयर बाजार के हिचकोले खाने से मध्यम वर्ग के एक करोड़ से ज्यादा लोग खुद को ठगा महसूस करते हैं, लेकिन देश उनके दर्द में शामिल नहीं हो पाता । इन पांच सालो में करोड़पतियो की तादाद में तीन सौ फीसदी का इजाफा होता है , देश फक्र महसूस करता है। इन पांच सालो में औधोगिक और कारपोरेट सेक्टर के मुनाफे से देश का दो फिसदी दुनिया पर काबिज होने का सपना संजोने लगता है, देश को गर्व होता है । एसईजेड का एक ऐसा ताना-बाना बुना जाता है, जिससे चार हजार लोग झटके में अरब पति होते हैं । जमीनो की खरीद फरोख्त से करीब पांच लाख लोग अरबपति होने की दिशा में बढ़ जाते हैं और देश के पच्चीस लाख लोगो का धंधा चल पडता है । लेकिन इन तीस लाख चार हजार के मुनाफे के उलट देश के दो करोड़ से ज्यादा परिवार तहस -नहस हो जाते हैं । लेकिन देश को यह गणित समझ में नहीं आता, वह ठहाके लगाता है । पांच साल में देश के सौ से ज्यादा सांसद विधायक भष्ट्राचार और अपराधी करार दिये जाते हैं । लेकिन कानून के आगे भी सभी ठहाके लगाते हैं । संसद के भीतर नोटो के बंडल लहराये जाते हैं लेकिन सासंद सत्ता बचाने और बनाने का खेल खेल कर ठहाके लगाते हैं । ठहाकों की यह अठ्टास देश में पहली बार उन युवाओं के सपनो को भी कुरच-कुरच देती है, जो लाखो की पढाई कर करोड़ों बनाने के धंधे को जिन्दगी का फलसफा बनाये हुये थे । खुला बाजार ढहता हो तो घाव से रिसते खुन पर भी भिनभिनाती मक्खखियो की तरह देश चलाने वाले उसके रस को भी चूस लेना चाहते है । आम जनता की पूंजी से देश की रईसी थमती नहीं है । बेल-आउट के नाम पर कंपनियो को अगर 90 हजार करोड़ बांटे जाते है तो देश चलाने वालो की कौम का पांच सितारा जीवन बरकरार रहे, इसके लिये देश के खजाने से दो लाख करोड़ से ज्यादा की राशि व्यवस्था के नाम पर लुटा दी जाती है । देश को ठहाके इतने पंसद है कि संसद से लेकर कमोवेश हर राज्य की विधानसभा में सांसद-विधायक आपस में गुंडागर्दी का खुला खेल खेलते है,फिर अगले दिन गलबहिया डाल कर लोकतंत्र का कुछ ऐसा जाप करते है जिससे लगता है कि वाकई मेरा देश महान है ।
लेकिन इन पांच सालो में इस गुंडागर्दी की वजह से देश को तीन सौ करोड़ का चूना लगता है मगर देश दुखी नहीं होता क्योकि देश चलाने वाले जब आपस में दुखी होते हैं तो ऐसी हरकत लोकतंत्र की परंपरा हो जाती है। लेकिन होली तो सबका त्यौहार है और हर रंग में डूबकर या डूबाकर जीने की सीख देती है होली पर दुखी होने के लिये महज मुंबई हमले से काम कैसे चलेगा।
तो लालू कोसी नदी से मिले दर्द से कराह रहे हैं । ममता बनर्जी नंदीग्राम में अस्मत लुटी महिलाओ के दर्द में शामिल हैं । वामपंथी न्यूक्लियर डिल के जरीये अमेरिकी साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेकने से लेकर मंहगाई में आम आदमी के खाली पेट के कुलहाने से दुखी हैं । पवार से लेकर बालासाहेब ठाकरे मुंबई हमलो से दुखी है । जयललिता श्रीलंका में तमिलो के साथ हो रहे अत्याचार से दुखी हैं । नरेन्द्र मोदी मुंबई हमलो का जबाब ना पाने से दुखी हैं । सत्यम घोटाले के सहयोगी मुक्यमंत्री वाय.एस.आर रेड्डी मंदी में युवाओं की जाती नौकरी में सुनसान पड़ते साइबर शहर से दुखी है । तो दर्द देने वाले दुखी हैं और वह होली नहीं खेलेगे और जो जनता हर दर्द को सहे जा रही है, वह होली के ही मौके पर रंगों में खुद को सराबोर कर चंद क्षणों के लिये ही सही होली के आसरे दर्द को भुलाना चाह रही है.. यह जानते समझते हुये कि चुनाव खत्म होते ही, " दिन को होली रात दिवाली" का गान देश चलाने वाले फिर गायेगे.... और घाव-दर-घाव देश के सीने पर पड़ते जायेंगे।
No comments:
Post a Comment