Friday, March 6, 2009

आतंकवाद की धार के आगे भोथरी क्यों है सरकार

श्रीलंका को एक पहचान और शोहरत क्रिकेट ने दी। उसके नायक बने जयसूर्या। ठीक उसके उलट श्रीलंका को एक दूसरी पहचान एलटीटीई ने दी और उसके नायक-खलनायक रहे है प्रभाकरण। संयोग से दोनों की पहचान ही लाहौर में आमने सामने आ गयी। एलटीटीई अपने सबसे बड़े संकट के दौर से गुजर रहा है क्योंकि श्रीलंका में उसका सफाया करने के लिये फौज भिड़ी हुई है। ऐसे में सरकार से सौदेबाजी के लिये क्रिकेट टीम पर निशाना साधना उसके लिये सबसे बडी सफलता हो सकती थी। असल में लाहौर में श्रीलंका क्रिकेट खिलाड़ियों को बंधक बना कर एलटीटीई के अनुकूल स्थितियों को बनाने की साजिश हरकत-उल-मुजाहिदीन ने रची। संयोग है कि बंधक बनाया नहीं जा सका। असल में इस घटनाक्रम ने समूची दुनिया के सामने एक साथ कई सवालों को खड़ा कर दिया है।

मसलन आतंकवाद के अपने तार और उनकी अपनी प्रतिबद्दता को लेकर लोकतांत्रिक सरकारों का रुख क्या होना चाहिये। जिस तर्ज पर दुनिया में समाज बंट रहा है, उसमें जब सरकारें एक वर्ग या एक तबके के हित को ही देख कर अपनी अपनी सत्ता बरकरार रखने में जुटी हैं और हिंसा सौदेबाजी के लिये सबसे धारदार हथियार बनता जायेगा तो उस सिविल सोसायटी का क्या होगा जो लोकतंत्र को आधुनिक दौर में सबसे बेहतरीन व्यवस्था माने हुये है। लोकतंत्र के नाम पर सत्ता की तानाशाही अगर नीतियों के सहारे लोगों को मार रही हों तो बंदूक के आसरे लोगों को मौत के घाट उतारने की पहल और कथित लोकतंत्र में अंतर क्या होगा। असल में यह सारे सवाल इसलिये उठ रहे हैं क्योकि एलटीटीई के संबंध पाकिस्तान के हरकत-उल-मुजाहिदीन के साथ तब से हैं, जब उसका नाम हरकत-उल-अंसार था। उस वक्त वह इंटरनेशनल इस्लामिक संगठन का सदस्य था और दो दशक पहले इस्लामिक संगठन से जुड़े अल-कायदा के सदस्य के तौर पर न सिर्फ उसने अपनी पहचान बनायी बल्कि आतंकवादी संगठनों के बीच मादक द्रव्य और हथियारों की तस्करी का जो धंधा चलता, उसमें यह संगटन सबसे मजबूत भूमिका में था।

1993 में पहली बार बारत के कोस्टल गार्ड ने एलटीटीई के एक जहाज की बातचीत को जब पकड़ा तो उसमें यही बात सामने आयी कि कराची से चला जहाज उत्तरी श्रीलंका के वान्नी क्षेत्र में जा रहा है। इस जहाज में हथियार लिये हुये एलटीटीई का नेता किट्टू मौजूद है। एलटीटीई को भी इसकी जानकारी मिल गयी कि भारतीय नेवी पीछे लगी हुई है तो उसने उस जहाज को अरब सागर में ही जला कर डुबो दिया । लेकिन उसके बाद कई तरीकों से यह बात खुलकर उभरी की अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच हेरोईन की तस्करी में एलटीटीई का खासा सहयोग पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन लेते रहे। जिन्हे आईएसआई की भी मदद मिलती और एक वक्त नवाज शरीफ की तो खुली शह थी। उस दौर में दक्षिणी फिलिस्तीन में हथियार पहुंचाने का जिम्मा हरकत-उल-अंसार के ही जिम्मे था, जिसके पीछे आईएसआई खड़ी थी। लेकिन मदद के लिये एलटीटीई का ही साथ लिया गया। क्योंकि समुद्री रास्ते में एसटीटीई से ज्यादा मजबूत कोई दूसरा था नहीं। फिर हथियारों को लेकर जो पहुंच और पकड़ नब्बे के दशक में एलटीटीई के साथ थी, वैसी किसी दूसरे के साथ नहीं थी । 1995 से 1998 के दौरान आईएसआई ने एलटीटीई को इस मदद के बदले पहली बार एंटी एयरक्राफ्ट हथियार और जमीन से आसमान में मार करने वाली मिसाइल भी दी थीं, जिसको लेकर श्रीलंका की सरकार ने उस वक्त परेशानी जतायी और पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय दबाब भी बनाया।

असल में एलटीटीई और आईएसआई के बीच रिश्ते यहीं खत्म नहीं होते। नौ ग्यारह के बाद पाकिस्तान और अफगानिस्तान जब अमेरिकी निगरानी में आया और नाटो सैनिको की तैनाती इन क्षेत्रो में हुई तो एलटीटीई के जरिये हथियारों को फिलिस्तीन समेत अरब देशों में पहुंचाने के लिये म्यानार और दक्षिणी थाईलैड का रास्ता चुना गया। जाहिर है इस लंबी कवायद के दौर में अगर एलटीटीई कमजोर होता है...जो वह हो चुका है तो श्रीलंकाई सरकार को झुकाने के लिय क्रिकेट खिलाडियों से बेहतर सौदेबाजी का कोई प्यादा हो नही सकता था।

दरअसल इस कार्रवाई में 37 साल पहले के उस म्यूनिख ओलंपिक की याद भी दिला दी जिसमें शामिल होने पहुंचे इजरायल के 11 एथलिट और कोच को बंधक बनाकर 234 फिलिस्तिनियों की रिहायी की मांग यासर अराफात समर्थित आंतकवादी संगठन ब्लैक सैप्टेंबर ने की थी। श्रीलंका की क्रिकेट टीम में सबसे उम्र दराज खिलाड़ी जयसूर्या है। जिनका जन्म म्यूनिख ओलंपिक के दो साल बाद हुआ था, लेकिन उस दौर की तस्वीर इस तरह पाकिस्तान में सामने आएगी, यह जयसूर्या ने सोचा ना होगा।

लेकिन इस घटना ने भारत के सामने एक साथ कई सवाल खड़े किये है । खासकर पाकिस्तान को लेकर भारत जिस लोकतंत्र के होने की दुहायी देता है, उसमें क्या वहां की व्यवस्था इसके लिये तैयार है। फिर आतंकवादी हिंसा अगर किसी देश को आगे बढ़ाने का हथियार बनती जा रही है, जिसे सैनिक और नागरिक मदद के नाम पर अमेरिका शह दे रहा है तो क्या उसे मान्यता दी जा सकती है। और इन परिस्थितयों के बीच एक तरफ क्रिकेट सरीखे खेल की पांच सितारा दुनिया और दूसरी तरफ चुनाव के जरिये लोकतंत्र का अलख जगाने की चाह....कैसे चल सकती है । फिर देश के भीतर जब पाकिस्तान से ज्यादा मुसलमान मौजूद है तो धर्म के नाम पर बांटने की राजनीति और अमेरिका की जनसंख्या से ज्यादा लोग जब गरीबी की रेखा से नीचे हो तो देश में आर्थिक सुधार का मजमून कैसे चल सकता है। कहीं किसी भी रुप में सौदेबाजी कर सत्ता या सरकार को पटखनी देने का नया रास्ता तो नहीं खुल रहा है । सवाल कई हैं लेकिन समाधान अब पहले देश को एक धागे में पिरोने का ज्यादा है...अन्यथा संगीनों की कमी का राग अलाप कर क्रिकेट टूर्नामेंट आईपीएल रद्द तो ऐलान तो किया जा सकता है लेकिन देश में भरोसा नही जगाया जा सकता ।

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