("सत्ता सिर्फ बंदूक की नली से नहीं निकलती" पर कई प्रतिक्रियाएं आयीं,जिन्होंने कई सवाल खड़े किये । लेकिन हर में महक विकल्प के खोज की ही नजर आयी। कुमार आलोक, गोंदियाल, विपिन देव त्यागी, कपिल, निरंजन हों या स्वपनिला....आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे एक नया कंटेट दिया कि मुख्यधारा की राजनीति में ही देश को देखना होगा। मैंने कांग्रेस के राजकुमार और नक्सली नेता गणपति को मिलाकर देखने की कोशिश की है। मुझे लग रहा है समाधान यह दोनों नहीं है लेकिन पहली बार मुख्यधारा की राजनीति सत्ता की खातिर राहुल को गणपति से ज्यादा खतरनाक मानने लगी है। आप पढ़ें पिर चर्चा करेंगे।............)
" आप युवा हैं और आपके कंधों के सहारे नेता पहले टिकट पाते हैं और फिर गद्दी। नेता सत्ता की मलाई जमकर खाते है और आप यूं ही अंधेरे में गुम हो जाते हैं। इसलिये युवाओं को अब पहल करनी होगी, जिससे उम्र ढलने से पहले वह देश की कमान अपने हाथों में ले सकें। नहीं तो युवा अंधेरे में ही खो जायेगा।"
"आप मजदूर हैं और आपकी मेहनत के सहारे ही देश आगे बढ़ता है। आपके खून-पसीने को मलाई में बदलकर मालिक-सरकार जमकर मौज उड़ाते हैं और आप अंधेरे में रहते हैं। इसलिये एक वर्ग की सरकार में बगैर हिस्सेदारी के भी रणनीति के तौर पर कैसे लाभ उठाया जाये, इसे समझना होगा । नहीं तो हम सभी मारे जाएंगे।"
पहला वक्तव्य राहुल गांधी का है, जो उन्होंने दिल्ली में एनयूएसआई और यूथ कांग्रेस की सभा में 8 फरवरी 2009 को दिया। वहीं दूसरा वक्तव्य नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव गणपति का है, जो उन्होंने दिसंबर 2008 में दिया था। अपने अपने घेरे में कमोवेश दोनो बयान फार्मूले से हटकर हैं। राहुल का वक्तव्य संसदीय राजनीति की उस परिभाषा से हटकर है, जिसे पिछले साठ साल से तमाम नेता देश को पढ़ा रहे हैं। और गणपति का बयान अल्ट्रा लेफ्ट की उस राजनीति से हटकर है जिसका पाठ माओवादी पिछले चालीस साल से पढ़ रहे हैं। तो क्या देश का मिजाज हर स्तर पर बदल चुका है और जो शून्यता नजर आ रही है वह बदलते परिवेश को बदलने या ना बदले जाने के टकराव को लेकर ही है।
कमोवेश संसदीय राजनीति के भीतर राहुल गांधी की मौजूदगी और नक्सली संगठनों के अंदर संघर्ष के बदलते तौर-तरीको ने पहली बार एक नया सवाल खड़ा किया है कि दोनो अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं और अब बदलाव जरुरी है। मसला यह नहीं है कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो सपना न्यू इकनॉमी के जरिये खड़ा किया गया, उसके ढहने के बाद संसदीय राजनीति का खोखलापन खुलकर सामने आ गया। जहां उसके पास जनवादी सोच के जरिये लोकतांत्रिक पहल करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है बल्कि संवैधानिक तौर पर देश की मजबूती के लिये जो जो खम्भे अलग-अलग संस्थानों के जरिये खड़े किये गये, वह सभी संसदीय राजनीति के दायरे में ढहाये गये । उन्हें इतना निकम्मा बनाया गया कि देश की सुरक्षा को बेचकर मुनाफा कमाने और बनाने की प्रवृति पैदा होती चली गयी।
राहुल गांधी का भाषण या उनके राजनीतिक तौर-तरीके साठ साल की संसदीय राजनीति के सामने बचकाने हो सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि देश के किसी भी रंग को राहुल ने देखा समझा नहीं है इसलिये दलित के घर रात गुजारना और अगली सुबह पैरा-ग्लाइडिंग करना उनके राजनीतिक नौसिखियेपन को ही उभारता है। जिसमें राहुल ना राजनेता लगते हैं ना बिगडे युवा नेता। लेकिन जो मौजूदा राजनीति चालू है, उसमें किस नेता या किस राजनीति का दामन देश थामना चाहता है , यही सवाल राहुल की दिशा में युवा होने का नया पाठ पढ़ाता है।
दूसरी तरफ नक्सली गणपति माओवाद की उस थ्योरी से अलग रणनीति की बात कर रहे हैं जो सत्ता बधूक की नली से निकलती है का पाठ पढती रही। संसदीय राजनीति में घुसे बगैर उसके अंतर्विरोध का लाभ लोगों के आक्रोष को गोलबंद कर ही उठाया जा सकता है। इसलिये मुंबई हमलों में मारे गये शहीद पुलिसकर्मियो को लाल सलाम देने के साथ साथ राजनेताओं को निशाना बनाने के बदले उनके निर्देश पर तैनात पुलिसकर्मियों को ही निशाना बनाने की थ्योरी ने माओवादियो के बीच भी एक नयी बहस शुरु की है। बहस इसलिये क्योंकि जिस संसदीय राजनीति को लेकर आम जनता में आक्रोष है अगर उस राजनीति से सत्ता साधने वाले नेताओं को माओवादी अपने निशाने पर नहीं ले सकते तो बदलाव या विकल्प को कैसे सामने लाया जा सकता है। माओवादियों की सेन्ट्रल कमिटी में पोलित ब्यूरो का एक सदस्य सवाल उठाता है कि पीपुल्स वार ग्रुप के पूर्व महासचिव सितारमैय्या 1987 में आंध्र प्रदेश के सात विधायको का अपहरण करने के बाद यह कहने से नही घबराते की राजनीतिक जरुरत के लिये राजीव गांधी का भी अपहरण किया जा सकता है। लेकिन इस सभा में चर्चा यही आकर खत्म होती है कि नेताओं को लेकर आम जनता के बीच आक्रोष जब संसदीय राजनीति और राज्य सत्ता पर सवालिया निशान खुद-ब-खुद लगा रहा है तो ऐसे में नेताओं को निशाने बनाने का मतलब होगा उनके प्रति जनता की संवेदनाओं को जोड़ना । या फिर माओवादी विचारधारा के खिलाफ लोगों की भावनाओं को जगाने का मौका देना। इससे अच्छा है हर ढहते संस्थान के समानांतर अपने संसथान को खड़ा करना। न्याय देने के लिये गांव गांव में अपनी पंचायत लगाकर तुरंत सुनावई और फैसला देना । यानी सजा भी तुरंत । जिसमें हाथ-पांव तोड़ने से लेकर मौत की सजा और भारी जुर्माने का भी प्रावधान। जंगल नष्ट करने वाले उघोगों और खनिज संपदा समेटकर देश के बाहर लेजाकर मुनाफा कमाने वालो के खिलाफ स्थानीय लोगो को गोलबंद कर आंदोलन की शुरुआत करना । जो बंगाल-उड़ीसा-झारखंड-छत्तीसगढ़ में जारी है। जिले और गांव के विकास के लिये आने वाले सरकारी धन की लूट कर स्थानीय जरुरत के मुताबिक विकास की लकीर खींचना। ट्रेड यूनियन से लेकर सरकारी कामगारों को साथ जोड़ना, जिससे मौका पड़ने पर आंदोलन खड़ा किया जा सके और सरकारी लूट को रोका जा सके। इसलिये सत्ता के तौर तरीको में सुधार की बात कर अतिवाम आंदोलन का घेरा पहले व्यापक करना होगा इसलिये इसे रणनीति के तौर पर उभारने की जरुरत है नही तो हम सभी मारे जायेगे । यह समझ गणपति के जरीय माओवादियो में निकली है।
एक तरफ राहुल गांधी की राजनीति समझ में युवा शक्ति के जरीये पांरपरिक संसदीय राजनीति को ढेंगा दिखाना और दूसरी तरफ गणपति की अतिवाम राजनीति में संसदीय राजनीति के सामानांतर सुधारवादी वाम राजनीति का खाका रखने की थ्योरी ने इसके संकेत दे दिये है कि बदलाव का पहला तरीका अपने अपने घेरे में टकराव से ही होना है। पहले बात राजनीति की। पिछले एक दशक में हर राजनीतिक दल ने सत्ता का स्वाद गठबंधन के जरीये चखा। इसलिये 2009 के चुनाव में हर राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिये गठबंधन की सौदेबाजी का ही आंकलन ज्यादा कर रहा है कि उसे लाभ कहां-कैसे होगा । सत्ता के सामने विचारधारा की मौत हो चुकी है यह बात गठबंधन से लेकर सत्ता चलाने के दौरान नीतियों के जरीये खूब उभरी है।
इन परिस्थितियो में राहुल गांधी का मतलब क्या है। राहुल गांधी के आने का मतलब उस लीक का टूटना है, जिसे अपने अनुकूल जनता पार्टी के प्रयोग से निकले नेता अभी तक चला रहे हैं । यानी 1977 के बाद से देश के सामाजिक-आर्थिक चेहरे में बदलाव आया लेकिन राजनीतिक सत्ता जस की तस चलती रही और उसी अनुरुप समाज को मानना और बनाने की थ्योरी संसदीय राजनीति रखती है। जाहिर है, ऐसे में राहुल की राजनीति का मतलब उन नेताओ का रिटायरमेंट है, जो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ध्रुवतारे की तरह चमक रहे हैं। प्रधानमंत्री से लेकर देश के मुख्य ओहदों के लिये नेताओं की फेरहिस्त तैयार है। कांग्रेस के प्रणव मुखर्जी, चिदबंरम, एंटोनी, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, शिवराज पाटिल, एसएम कृष्णा सहित कोई भी नाम किसी भी ओहदे पर बैठकर देश चलाने का सपना संजोये हुये है। वहीं, शरद पवार, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधी, पासवान से लेकर कोई भी क्षेत्रीय झंडबरदार देश की बागडोर संभालने के लिये बेकरार है। इन हालात में राहुल गांधी के मैदान में आने के तरीके ने कई सवाल एकसाथ खड़े किये हैं। क्योकि राहुल गांधी अगर सत्ता में आ जाते हैं तो उनका काम करने का तरीका जाहिर तौर पर उस प्रक्रिया सरीखा नहीं होगा, जहां दिल्ली से चला एक रुपया गांव तक पहुंचते पहुंचते छह पैसे में बचा रहे। देश की सुरक्षा के लिये हथियार खरीदी से लेकर आत्महत्या करते किसानों की जान बचाने के लिये पैकेज देने का जो तरीका अभी तक अपनाया जाता रहा है जाहिर है, वह बदल जायेगा । यानी कमेटियों और संस्थाओं के निरीक्षण-परिक्षण में ही कई साल गुजरते है और उसके बाद जो राशि निर्धारित होती है उसी की कीमत निर्धारित से कई गुना ज्यादा हो चुकी होती है। जाहिर है, राहुल के सत्ता में आने का मतलब महज युवाओं को सत्ता से जोड़कर देश चलाने का सपना जिलाना नहीं है। पहली बार परंपराओं से इतर राजनीतिक प्रक्रिया को चलाना होगा जो परिणाम दे। यह अच्छा-बुरा दोनो हो सकता है। लेकिन राहुल के तरीके नये और चौकाने वाले होगे क्योकि जो अपराध और भष्ट्राचार संसदीय राजनीति में घुस चुका है और पीढियों के लिये पूंजी बनाने से लेकर राजनीतिक जगह बनाने तक के लिये जद्दोजहद कर रही है, उसे युवा तबका तत्काल खारिज करेगा।
इसीलिये 2009 के चुनाव संसदीय राजनीति के लिये मील का पत्थर सरीखा है। क्योंकि गठबंधन के तौर तरीके उन नेताओं को एक साथ लेकर आयेगे जो राहुल के सत्ता में आने के साथ ही रिटायर होने की स्थिति में आयेंगे । राहुल गांधी को रोकना उस संसदीय राजनीति की जरुरत है जो विशेषाधिकार की सत्ता बनाती है और जिसके घेरे में आने के लिये हर तरह के अपराधी बैचेन रहते है। 14 वीं लोकसभा इस सोच का ही प्रतीक है । इसमें सौ से ज्यादा सांसद ऐसे थे, जिनपर अपराध का कोई ना कोई मामला चल रहे हो।
लेकिन संसदीय राजनीति का विकलप राहुल दे नहीं पाएंगे । बल्कि युवा पीढी के जरीये सत्ता विरासत की राजनीति को हवा देगी, यह भी सच है । क्योंकि युवा की तादाद देश के चालीस करोड वोटर के तौर पर है लेकिन नेता के तौर पर राहुल के साथ राजेश पायलट के बेटे से लेकर सिंधिया और मुरली देवडा के बच्चे हैं। यही हाल पवार की बेटी से लेकर मुलायम के बेटे का है। जिसकी लकीर कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला और पंजाब में प्रकाश शिंह बादल ने अपने अपने बेटों के जरीये खिंच कर दिखा दी है। राजनीतिक तौर पर विचारधारा की मौत संयोग से उसी दौर में हुई है जिस वक्त मुनाफे के लिये सबकुछ बाजार व्यवस्था पर टिका और फिर वह खुद ढह गया।
सत्ता ने संसदीय राजनीति में लेफ्ट - राइट की बहस को ही बेमानी करार दिया । ऐसे में संसदीय राजनीति से इतर कहीं एक आस तो माओवादियों ने उन इलाको में दिखायी जो संसद की राजनीति और विकास की लकीर में हाशिये पर रहे। लेकिन पहली बार विचारधारा के सन्नाटे में कहीं ज्यादा घुप अंधेरा अतिवाम की राजनीतिक पहल में भी उभरा। जिस राजनीति के अंतर्विरोध को रणनीति के तौर पर साधने की पहल माओवादी गणपति ने कहीं उस दौर में नक्सल को लेकर सरकार का रवैया सामाजिक-आर्थिक समस्या से इतर कानूनी तौर पर आंतकवाद के सामानांतर मान लिया गया। सरकार ने जब नक्सलियों को आतंकवादी माना, उसी दौर में नक्सलियों के बीच सरकार के वैचारिक शून्यता को भरने की बहस गूंज रही है।
पहली बार केन्द्र सरकार ने कानून बनाकर नक्सलियो को भी उस घेरे में लाने की पहल की, वहीं नक्सलियो के बीच यह सवाल उठा कि नक्सली आंदोलन कमजोर पड़ने की वजह सिर्फ बंदूक की भाषा को समझना है। गणपति ने माओवादियों के बीच यह सवाल उठाय़ा। पिछले डेढ़ दशक में नक्सलियों को सिर्फ सत्ता की बंदूक से बचाने के लिये ही समूची रणनीति बनानी पड रही है । इसलिये उनका आंदोलन सिमटा है लेकिन अब विस्तार के लिये जरुरी है सत्ता बंदूक की नली से निकलती है कि थ्योरी को उलट कर सत्ता की कमजोर नली को ही हथियार बनाया जाये।
सवाल यही है कि क्या राजनीति इतनी पोपली हो चुकी है, जहां राहुल गांधी के तेवर उन नेताओं को खारिज करने से नही चुक रहे, जिन्हे लगता है देश अब भी वही चला सकते है और माओवादी नेता गणपति उन्हीं नेताओ को बरकरार रख नक्सली जमीन मजबूत करना चाहते है, जिनके खिलाफ आम लोगो में आक्रोष है और जिन्हें राहुल खारिज कर रहे है। कहीं यह क्रातिकारी बदलाव के संकेत तो नहीं हैं?
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