इन सब के बीच लिट्टे के आखिरी गढ़ का खत्म होना। 27 जनवरी को जैसे ही श्रीलंकाई सेना के लिट्टे के हर गढ़ को ध्वस्त करने की खबर आयी दिमाग में कोलंबो से निकलने वाले 'द संडे' लीडर के संपादक का लेख दिमाग में रेंगने लगा। हर खबर से ज्यादा घाव किसी खबर ने दिया तो पत्रकार की ही खबर बनने की। पन्द्रह दिन पहले की ही तो बात है। लासांथा विक्रमातुंगा का आर्टिकल छपा । कोलंबो से निकलने वाले द संडे लीडर का संपादक लासांथा विक्रमातुंगा। जिसने अपनी हत्या से पहले आर्टिकल लिखा था। और हत्या के बाद छापने की दरखास्त करके मारा गया। बतौर पत्रकार तथ्यों को न छिपाना और श्रीलंका को पारदर्शी-धर्मनिरपेक्ष-उदार लोकतांत्रिक देश के तौर पर देखने की हिम्मत संपादक लासांथा ने दिखायी। जिसने अपने आर्टिकल के अंत में श्रीलंका को ठीक उसी तरह हर जाति-समुदाय-कौम के लिये देखा जैसे ओबामा ने अमेरिका को इसाई-यहुदी-मुस्लिम-हिन्दु...
दरअसल, लासांथा का विश्वास था कि सरकार के इशारे पर उसकी हत्या कर दी जायेगी । और हत्या के पीछे राष्ट्रपति महिन्द्रा का ही इशारा होगा । खुद संपादक लासांथा के मुताबिक 2005 में महिन्द्रा जब राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे, तब उसके साथ श्रीलंका के बेहतरी को लेकर चर्चा करते और राष्ट्पति बनने के बाद दर्जनों ऑफर राष्ट्रपति महिन्द्रा ने संपादक लासांथा को दिये। लेकिन लासांथा पत्रकार थे। सरकार का ऑफर ठुकराने के बाद जब मौत का ऑफर आने लगा तो भी अपने छोटे-छोटे बच्चों के मासूम चेहरों की खुशी से ज्यादा संपादक लासंथा को सरकार के आंतकित करते तरीको ने अंदर से हिलाया।
लासांथा यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे कि तमिल-सिंहली के नाम पर देश के नागरिकों को ही बम में बदलने का काम सरकार कर रही है। 8 जनवरी को लासांथा की हत्या कर दी गयी और ठीक वैसे ही जांच का आदेश राष्ट्रपति महिन्द्रा ने दिया जैसा मारे जाने से पहले संपादक लासांथा आर्टिकल में लिख गये थे। कमोवेश हालात तो भारत में भी वैसे ही हैं।
सवाल बटाला या ताज-नरीमन पर हमलों के बाद सरकार की लाचारी का नहीं है। सवाल समाज के भीतर पैदा होती लकीर का है । जिसमें सड़क पर खड़ा होकर कोई मुसलमान चिल्ला कर कह नहीं सकता कि वह मियां महमूद है और हिन्दुस्तानी है । दूसरी तरफ कोई बजरंगी-रामसेना का भगवा चोला ओढ़कर चिल्ला सकता है कि देश को बचाना है।
लगातार अखबारों में लिखा गया। न्यूज चैनलों में बहस में गूंजा...वे कितने टफ थे..बादाम, काजू खाकर मरने मारने के बीच का जीवन...खिलौने की तरह बंदूकों को हाथ में संभाले...समूची कमांडो फोर्स लगी तब.... सवाल है आतंकवादियों को महिमामंडित करने की जरुरत क्या है। आतंकवादियों के इरादे ने तो भारतीय समाज में कोई लकीर नहीं खिंची...मुंबई में जब गोलियां चलीं तो मुस्लिम भी मारे गये और हिन्दू भी । सिख और इसाई भी मारे गये । हमला तो भारत पर था और इसी इरादे से आतंकवादी आये थे लेकिन हमले के बाद किसने लकीर खींचनी शुरु की । अगर मियां महमूद को चिल्ला कर अपने हिन्दुस्तानी कहने की तरुरत नहीं है तो किसी को भगवा चोला ओढकर या गले में पट्टा लटकाकर देश बचाने का नारा लगाकर आतंकित करने की जरुरत क्या है। दोनों तनाव पैदा कर रहे है तो क्या प्रिंट और क्या इलेक्ट्रॉनिक....दोनो के लिये यही तथ्य हो चला है जैसे ही यह लिखा जायेगा या दिखाया जायेगा पढने या देखने वाला चौकेगा जरुर।
यकीन जानिये ताज-नरीमन के हमले ने देश को चौंकाया और 60 घंटे तक जो अखबारों के पन्नों पर लिखा जा रहा था और न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर दिखाया जा रहा था, उसे कवर करने गये मीडिया के शब्दो को अगर मिटा दें तो आपको अंदाज होगा आतंकवादी घटना थी क्या। घटना को समूचा देश कैमरों के जरिये देख रहा था । लेकिन कैमरापर्सन का नाम न्यूज चैनलों की चिल्लाती आवाज में कहीं नही उभरा । अखबार के जरिये भी पहली बार फोटोग्राफर को ही काम करने का मौका मिला लेकिन रिपोर्टरों और संपादकों की कलम ने तस्वीरों में ऐसा हरा और भगवा रंगा भरा जो तिरंगे को चुनौती देता ही लगा। जिन्हे नाज है कि 60 घंटे तक अखबार या न्यूज चैनलों ने मीडिया का मतलब देश को समझा दिया, अगर वही पत्रकार इमानदारी के साथ अखबार में बिना तस्वीरों के रिपोर्ट पढ़े और न्यूज चैनल के पत्रकार विजुअल की जगह अंधेरा कर एक बार सुन ले कि क्या रिपोर्टिंग की जा रही थी। और उसके बाद सिर्फ तस्वीरों को देखें तो काफी हकीकत सामने आ जायेगी।
शायद इसीलिये कसाब की तस्वीर खिचने वाले डिसूबा और वसंतु प्रफु का पत्रकारीय सम्मान कहीं नही हुआ । और 26 जनवरी को ऐलान हुये सरकार के सम्मान को ठुकराने की ताकत किसी पत्रकार ने नहीं दिखायी। यही वजह है कि अखबार की रिपोर्टिंग राहुल गांधी-आडवाणी से होते हुये संजय दत्त में देशभक्ति का सिरा ढूढ रही है और चैनल तालिबानी गीत में मशगूल है।
इसलिये मामला महारथियो का नहीं...अपराधियों का है...और 'जो अपराधी नहीं होंगे मारे जायेंगे।'
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