Tuesday, October 7, 2008

सौम्या की हत्या से ज्यादा खतरनाक क्यों है शीला दीक्षित का बयान !

सौम्या की हत्या से ज्यादा खतरनाक क्यों है शीला दीक्षित का बयान Posted: 05 Oct 2008 09:27 PM CDTबीस बाईस साल की एक लड़की अचानक मेरे कुर्सी के पास आयी। उसने सीधा सवाल किया-" बिना किसी आरोप के पुलिस-अदालत-सरकार किसी को भी बारह साल तक जेल में कैसे बंद रख सकती है।" मैंने भी कहा- "बिलकुल...असंभव है।" इस पर उस लडकी का मासूम सा जबाब था –"दैन वाट्स द मिनिंग आफ गवर्नमेंट।" मैंने कहा- "सवाल सरकार के होते हुये भी न होने का नहीं है, बल्कि नयी परिस्थितियां तो सराकार के होने पर सवाल खड़ा कर रही है । यानी सरकार है तो स्थिति खराब है..... । जी, मैंने कहा... स्थितियां इससे भी बदतर हो रही है..हम दिल्ली में रहते है ...काम करते हैं, इसलिये अंदाज नहीं लगा पाते कि सरकार का होना भी कितना खतरनाक होता जा रहा है।" सॉरी सर ..बट आई डांट थिंक लाइक दिस...मुझे लगता है कि सरकार है तो सुरक्षा है...एक सिस्टम है...नहीं तो कुछ नहीं बचेगा । ऐसा ही हम सभी को सोचना चाहिये.....ओके सर कांगरेट्स..गोयनका अवार्ड के लिये....मैं हेडलाइंस टुडे में हूं । आई एम सौम्या विश्वानाथन । 18 अप्रैल 2005 में रात नौ बजे के आसपास का वक्त था..जब मैं "आजतक" में 'दस तक' की तैयारी में था। आंतकवादी कानून टाडा के तहत विदर्भ के सैकडों आदिवासियों को सालों साल जेल में बंद किया गया था और मैंने उन्हीं आदिवासियों पर रिपोर्ट की थी, जिस पर इंडियन एक्सप्रेस का अवार्ड मिला था। उसमे एक आदिवासी को बारह साल जेल में गुजारने पड़े थे, जिसकी रिपोर्ट दिखायी गई तो अदालत और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पहल के बाद उसे छोडा गया था।
संयोग से 18 अप्रैल 2005 को वह आदिवासी भी नागपुर से हमारे प्रोग्राम में जुड़ा। जिस पर "हेडलाइन्स टुडे" की उस लडकी ने सवाल उठाया था । वहीं सौम्या का पहला परिचय मेरे लिये था। सामान्यता "हेडलाइन्स टुडे" की कोई लड़की आजतक वालों से खबरो को लेकर बातचीत करते मैंने न कभी देखा था, न ही किया था। इसलिये मेरे लिये भी यह एक आश्चर्य की बात थी। जिसका जिक्र मैंने उस वक्त हेडलाइन्स को हेड कर रहे श्रीनिवासन को बधाई देते हुये किया था – "लगता है आपकी मेहनत रंग ला रही है जो खबरो को लेकर हेडलाइन्स की लडकियां बातचीत करने लगी है।"
सौम्या का यह पहला संवाद एक झटके मेरे दिमाग में घुमड गया 30 सितबंर 2008 को। सुबह सुबह हरपाल को मैसेज आया...."जस्ट गॉट ए कॉल फ्रॉम राशिम, सौम्या विश्वानाथन पास्ड् एवे लेट लास्ट नाइट आफ्टर ए कार एक्सीडेंट.. हर क्रिमिनेशन विल टेक प्लेस एट 3 पीएम एट लोधी क्रिमिटोरियम ।" यह मैसेज मेरे लिये विश्वास करने वाला नहीं था। क्योंकि मेरे दिमाग में सौम्या की हर वह तस्वीर घुमड़ रही थी, जो इस भरोसे को डिगा रही थी कि सौम्या चाहती तो भी उसकी उम्र..उसकी समझ...उसके अंदर की कुलबुलाहट...उसकी सरलता..उसकी सादगी उसे मरने नहीं देती । क्योंकि मेरे आंखो के सामने पहली मुलाकात के अगले ही दिन 19 अप्रैल 2005 की सौम्या की वह तस्वीर भी आ गयी, जब वह अचानक सामने आकर खड़ी हो गयी और कहने लगी.. "सर कल जो मैंने कहा आप उससे नाराज तो नहीं है।" मै आश्चर्य में आता..इससे पहले ही वह कह पड़ी "सिस्टम है तो ही सब चल रहा है । इसे नकारा कैसे जा सकता है।" मुझे लगा यह लड़की किसी को नाराज या दुखी करना तो दूर, , इस सोच से भी घबराती है कि कोई उसकी बात से कहीं दुखी या नाराज तो नहीं हो गया । मुझे लगा भी कि जिस तरह की व्यवस्था देश में बनती जा रही है और पत्रकारिता भी जिस लीक पर चल पडी है, उसमें इतना संवेदनशील होना किस हद तक सही है।
ऐसे में जब शाम ढलते ढलते यह खबर मिली कि सौम्या की मौत एक्सीडेंट से नहीं गोली लगने से हुई है तो एकसाथ सौम्या की मौत की वजह और सौम्या की सरलता दिमाग में घुमने लगी। करीब दो साल के दौर की कोई घटना मुझे याद नहीं आ रही थी, जिससे सौम्या को लेकर यह लकीर खींची जा सकती हो कि सौम्या को गोली मारने वालो ने इस या उस वजह से मारा हो। या फिर मारने वालों को सौम्या ने किसी तरह उकसाया भी होगा। इन सब के बीच मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बयान ने कई सवाल खड़े कर दिये। शीला दीक्षित ने कैमरे के सामने भी ये कहने से नहीं हिचकिचायीं कि "इतनी रात में सौम्या को इतना एडवेंचर्स होने की क्या ज़रुरत थी।" सवाल ये कि क्या रात में लड़कियो के अकेले निकलने का मतलब उनके साथ कुछ भी होने की स्थिति है और उसके बाद राज्य पल्ला झाड लेगा ? या फिर रात में किसी लड़की को राज्य सुरक्षा देने की स्थिति में नहीं है , उसके साथ छेड़-छाड़ होती है...बलात्कार होता है ....गोली मार दी जाती है ...यानी कुछ भी हो सकता है इसकी समझ हर लड़की को अपने अंदर पैदा कर लेनी चाहिये।
मेरे सामने सवाल है कि सौम्या खुले आसमान तले घर से बाहर अपने पैरो पर जब से निकली ..दिल्ली की सत्ता शीला दीक्षित के ही हाथ में है। तो शीला दीक्षित लड़कियो को लेकर जो सौम्या की मौत पर सबको समझाना चाहती है, वह सौम्या जीते जी क्यों न समझ सकी। जब दिल्ली में सीलिंग का हंगामा था तो गुडगांव रोड के फैशनस्ट्रीट की दुकानों को तोड़े जाने पर उच्च वर्ग की महिलाओ की आंखों से आंसू गिरने को दिखाए जाने के दौरान सौम्या भी भावुक थी । उस समय हेडलाइन्स टुडे के हरपाल ने मुझे बताया कि उसके यहां की लड़किया सीलिंग को लेकर भावुक हैं मगर सभी सरकार के रुख का समर्थन भी कर रही हैं। दिल्ली को दिल्ली की तरह सभी देखना चाहते हैं। तो जिस सिस्टम की बात सौम्या ने एक आदिवासी के 12 साल बेवजह जेल में बंद होने पर उठाया था, लेकिन उसके बावजूद सरकार पर भरोसा उसका था और सिस्टम खत्म नहीं हुआ है, इसे वह मानती थी, तो माना जा सकता है युवा तबके के भीतर आस बरकरार है। लेकिन सौम्या की हत्या के हालात ने यह सवाल तो पैदा कर ही दिया कि न्यूज-चैनलों के भीतर का समाज और खुले आसमान के नीचे का समाज अलग अलग है। इस पर युवा पीढी जिस बाजार व्यवस्था को देखकर विकसित भारत का सपना संजोये हुये है, उसमें पहला खतरा ही जान जाने का है । क्योंकि देश - राजनीति- या समाज में कहीं ज्यादा खुरदरापन उसी दौर में आया है, जिस दौर में एक तबके के भीतर चकाचौध आयी है।
सौम्या को न्याय दिलाने की मांग लिये शनिवार को प्रेस क्लब में जब पत्रकार और उसके संगी साथी जमा हुये और एक लड़की ने जब यह बताया कि हेडलाइन्स टुडे की उस कुर्सी पर कोई बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है, जिस पर सौम्या बैठती थी। तो मुझे लगा समाज के भीतर बनते दो समाज की अगली लड़ाई भरोसे के टूटने की होगी। और युवा पीढी का भरोसा अगर सिस्टम को लेकर टूटा तो अंधेरा कहीं ज्यादा घना होगा।

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