Monday, October 20, 2008

अमेरिका में बाजार हारा है, भारत में लोकतंत्र !

आर्थिक मंदी को लेकर दुनिया की नामी गिरामी कंपनिया दिवालिया होने की राह पर हैं। असर अमेरिका से भारत तक में नज़र आ रहा है। यह सवाल भी उठ रहा है कि कल तक जो फार्मूले वित्तीय इंजीनियरिंग का कमाल थे, आज वही खलनायक साबित हो चुके हैं। हीरो का खलनायक में बदलना उस व्यवस्था को कैसे बर्दाश्त हो सकता है जो खुद खलनायकी के अंदाज में हीरो की भूमिका में जी रही हो। इसलिये सवाल यह नहीं है कि बुश से लेकर मनमोहन सिंह तक उसी फार्मूले को जिलाने में लगे हैं, जो बाजार व्यवस्था को चलाते हुये खुद फेल हो रहा है। असल में संकट विचारधारा की शून्यता का पैदा होना है।
समाजवादी थ्योरी चल नहीं सकती, सर्वहारा की तानाशाही का रुसी अंदाज बाजार व्यवस्था के आगे घुटने टेक चुका है और अब बाजार व्यवस्था की थ्योरी फेल हो रही है। इसलिये संकट मंदी से कहीं आगे का है। नया सवाल उस राजनीतिक व्यवस्था का है, जिसमें विचारधारा को परोस कर लोकतंत्र की दुहायी दी जायेगी। यह विचारधारा कौन सी होगी?
अगर भारतीय राजनीति को इस बात पर गर्व है कि अमेरिकी व्यवस्था से हटकर भारतीय व्यवस्था है , तो फिर भारतीय व्यवस्था के आधारों को भी समझना होगा जो अमेरिकी परिपेक्ष्य में फिट नहीं बैठती हैं। लेकिन अपने अपने घेरे में दोनों का संकट एक सा है। मंदी का असर अमेरिकी समाज पर आत्महत्या को लेकर सामने आया है और भारत में कृषि अर्थव्यवस्था को बाजार के अनुकुल पटरी पर लाने के दौर में आत्महत्या का सिलसिला सालों साल से जारी है।
दरअसल, जो बैकिंग प्रणाली ब्रिटेन और अमेरिका में फेल हुई है या खराब कर्जदारों के जरिए फेल नज़र आ रही है , कमोवेश खेती से लेकर इंडस्ट्री विकास के नाम पर भारत में यह खेल 1991 के बाद से शुरु हो चुका है। देश के सबसे विकसित राज्यों में महाराष्ट्र आता है, जहां उघोगो को आगे बढ़ाने के लिये अस्सी के दशक से जिले दर जिले एमआईडीसी के नाम पर नये प्रयोग किये गये। इसी दौर में किसान के लिये बैकिग का इन्फ्रास्ट्रक्चर आत्महत्या की दिशा में ले जाने वाला साबित हुआ।
अमेरिका की बिगडी अर्थव्यवस्था से वहां के समाज के भीतर का संकट जिस तरह अमेरिकियो को डरा रहा है, कमोवेश यही डर महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के किसानों में उसी दौर में बढ़ा है, जिस दौर में भारत और अमेरिकी व्यवस्था एकदूसरे के करीब आए। दोनों देशों का आर्थिक घेरा अलग अलग है, समझ एक जैसी ही रही।
बीते दस साल में विदर्भ के बाइस हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है । लेकिन इसी दौर में विदर्भ में उघोगपतियो की फेरहिस्त में सौ गुना की बढोतरी हुई है । इसकी सबसे बडी वजह उघोगों का दिवालिया होना रहा है । लेकिन फेल या दिवालिया होना उघोगपतियो के लिये मुनाफे का सौदा है। नागपुर शहर से महज अठारह किलोमिटर दुर हिगंना में अस्सी के दशक में महाराष्ट्र औघौगिक विकास निगम यानी एमआईडीसी वनाया गया। छोटे-बडे करीब दो सौ उघोगो को सस्ते में जमीन समेत इन्फ्रास्ट्रक्चर की सुविधा दी गयी। नब्बे का दशक बीतते बीतते करीब नब्बे फिसदी उधोगों ने खुद को फेल करार दिया। उघोगो के बीमार होने पर कर्ज देने वाले बैको ने मुहर लगा दी। बैक अधिकारियो के साथ सांठ-गांठ ने करोड़ों के वारे न्यारे झटके में कर दिये। दिवालिया होने का ऐलान करने वाले किसी भी उघोगपति ने आत्महत्या नहीं की। उल्टे सभी की चमक में तेजी आयी और सरकार भी नही रुकी।
नब्बे के दशक के आखिरी होते होते नागपुर से 25 किलोमीटर दूर इक नयी जगह एमआईडीसी के लिये तैयार की । बुटीबोरी नाम की इस जगह में इस बार करीब साढे चार सौ उघोगो को जमीन दी गयी । हिगना की जमीन पर अब बिल्डरो का कब्जा है । 40 फीसदी उघोगपति खुद बिल्डर हो गये तो 60 फीसदी उघोगपतियों ने अपने अपने मुनाफे को देखते हुये जमीन की उपयोग खूब किया । हिगना की जमीन पर पहले खेती होती थी । फिर औघोगिक विकास के नाम पर किसानों से जमीन ली गयी । अब वहीं कंक्रीट के जंगलो का बनना देखा जा सकता है। यही स्थिति नये एमआईडीसी की है। बुटीबोरी का इलाका खेती के लिये ना सिर्फ अर्से से पहचान वाला रहा बल्कि संतरे के बगान के तौर पर इस इलाके की पहचान रही । वहीं अब यहां उघोग कुकुरमुत्ते की तर्ज पर उगने को तैयार है।
लेकिन विदर्भ में ही उघोगो को लेकर कैसे कैसे सपने संजोये जा सकते है, यह खेती के फेल होने से नही समझा जा सकता । विदर्भ में उघोगों के फेल होने का मतलब है करोड़ों का कर्ज झटके में साफ। मसलन हरिगंगा एलाय एंड स्टील लिंमेटेड ने साढे बारह करोड़ आज तक नही चुकाये। प्रभु स्टील इंडस्ट्री लिमिटेड ने 9.69 करोड रुपये नही चुकाये । रविन्द्र स्टील इंडस्ट्री लिमिटेड ने 26.31 करोड रुपये नही चुकाये । अगर विदर्भ के उघोगपतियो की फेरहिस्त देखे तो 75 उघोगों पर बैको का करीब तीन सौ करोड का कर्ज है। यह कर्ज 31 मार्च 2001 तक का है । बीते सात साल में इसमे दो सौ गुना की बढोतरी हुई है। उघोगो के लिये कर्ज लेने वाले कर्जदारो को लेकर रिजर्व बैक की सूची ही कयामत ढाने वाली है। जिसके मुताबिक सिर्फ राष्ट्रीयकृत बैकों से दस लाख करोड से ज्यादा का चूना देश के उघोगपति लगा चुके है । जिसमे महाराष्ट्र का सबसे ज्यादा 90 हजार करोड रुपये का कर्ज उघोगपतियो पर है। लेकिन किसी भी उघोगपति ने उस एक दशक में आत्महत्या नही की, जिस दौर में महाराष्ट्र के 42 हजार किसानो ने आत्महत्या की ।
इसी दौर में नागपुर को ही अंतर्राष्ट्रीय कारगो के लिये चुना गया। इसके लिये भी जो जमीन विकास के नाम पर ली गयी वह भी खेतीयोग्य जमीन ही है। करीब पांच सौ एकड खेती वाली जमीन कारगो हब के लिये घेरी जा चुकी है। कुल दो हजार परिवार झटके में खेत मजदूर से अकुशल मजदूर में तब्दील हो चुके है । शहर से 15 किलोमीटर बाहर इस पूरे इलाके की जमीन की कीमत दिन-दुगुनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ रही है। नागपुर शहर देश के पहले पांच सबसे तेजी से विकसित होते शहरो में से है। कारगो हब ने इलाके के किसानो में एक नयी उम्मीद पैदा की है, किसानों को लगने लगा है परियोजनाये और भी आयोगी। वह किसान खुश हैं, जिनकी जमीन कारगो के साथ हवाईअड्डे को भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बनाने-बढाने के घेरे में आ रही है। आंदोलन का नया चेहरा भी नजर आ रहा है। किसान मुआवजे की रकम बढाने के लिये एकजुट हैं। कल तक की पच्चतर हजार की जमीन की कीमत बाजार भाव में पच्चीस लाख तक पहुच चुकी है । अलग अलग योजनाओ के बीच किमत पचास लाख एकड़ तक जा रही है । ऐसे में किसानो की आत्महत्या रुकेगी या टलेगी इसे किसान ही यह जानते-समझते हुये कयास लगाने लगे है कि देश में किसानी का युग बीत रहा है। नया युग मुआवजे और राहत में सौदेबाजी कर जीवन काटने का ही है, क्योकि इन इलाको में घूम कर आप इस बात का एहसास कर सकते है कि देश का प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री कौन है हर किसान जानता है और किसान आत्महत्या करते रहे इसके लिये जमीन तैयार करने वाले कर्मचारी-अधिकारी-नौकरशाह-नेता-पुलिस हर कोई बात बात में मनमोहन सिंह और चिदंबरम का नाम यह कह कर लेने से नहीं चुकते की यह तो उन्ही का आर्थिक सुधार है । इतने प्रचारित पीएम और वित्त मंत्री पहले कहां हुये है। जहां घर-घर में किसान आत्महत्या की तरफ बढे तो उसके पूरे परिवार ही नही समूचे गांव में चर्चा चिदबंरम और मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था की हो।
दरअसल, मनमोहन और चिदबंरम महज अमेरिकी सोच के प्रतीक नहीं है । भारतीय समाज के भीतर एक दूसरा समाज बनाकर छलने का मंत्र भी नयी आर्थिक व्यवस्था ने दिया है । चूंकि संसदीय राजनीति सर्वहारा की तानाशाही को लोकतंत्र के खिलाफ मानती है, लेकिन राजनेताओ की तानाशाही को संसदीय व्यवस्था में प्रजातंत्र करार देती है तो आर्थिक संकट में मुनाफा कमाने की थ्योरी भी राजनेताओ के ही पास है । बैकिंग प्रणाली का साथ लेकर उघोगपतियो की फेरहिस्त अगर देश को चूना लगाती है तो राजनेता एकसाथ बैक और ब्रोकर बन कर किसानो की जान से खेलते है। विदर्भ में कांग्रेस-बीजेपी से जुडे नौ राजनेता ऐसे है, जो कर्ज देने के अपने फार्मूले गढ़ते हैं जिससे मुनाफा भी बढे, साथ ही किसान कर्ज संकट से उबरने के लिये उनकी चमकती राजनीति का सबसे बडा औजार बन जाये। जो सरकार आईसीआईसीआई बैंक के बेलआउट को लेकर परेशान हो गयी । निजी बैंक को सुरक्षा देने के लिये वित्तमंत्री से लेकर रिजर्व बैंक तक सामने आ गये वही सार्वजनिक बैंक प्रणाली को राजनीति का दास बनाने से लेकर नेताऔ की सामानातंर व्यवस्था को कैसे बढाते हैं, यह ढहती अमेरिकी व्यवस्था से कही ज्यादा घातक है, लेकिन सरकार आंखे मूंदे है। विदर्भ के 22 ग्रामीण बैंक और 16 सरकारी सहकारी बैंक इलाके के नेताओ के प्रभाव पर चलते है । ग्रामीण इलाको के 25 से ज्यादा सार्वजनिक बैको के ब्रांच में उघोगो को कर्ज देने और कर्ज दिये उघोगो के दिवालिया होने का खाका भी विधायक और सासंदो की मिलीभगत से बैंक ही खिचते है । विकास का अनूठा प्रभाव इस क्षेत्र में बढते उघोगों से सरकार लगाती है । बैंक कर्ज देने और उघोगो को जन्म देने से खुद को जोड़ते हैं । इलाके के विधायक-सांसद-नेता इस गोरखधंधे में अपने कमीशन से राजनीति को आगे बढाते है । और जिनके नाम पर बैकिंग प्रणाली यहा चलती है उनको सुविधा मिलनी तो दूर, उनकी राहत के लिये प्रधानमंत्री राहत कोष से चला पैसा भी उन्ही प्रभावी तबको में बंदरबांट हो जाता है । सरकार ने दिल्ली में तो यह ऐलान करने में देर नही लगायी कि बैक में जमा खाताधारियो और निवेशको का पैसा सुरक्षित है,
लेकिन, किसानो को दी गयी राहत रकम किसानो तक पहुंची भी या नहीं इसको लेकर सरकार ने कभी चिंता ना जतायी। सौ करोड से ज्यादा की पूंजी विदर्भ के बैकों में राहत के लिये पहुची लेकिन जिले-दर जिले यह तेजी से दस्तावेजों में बंटती भी चली गयी । सिर्फ बुलढाणा जिले के लिये आये करीब चौदह करोड़ का लाभ लेने के लिये ढाई लाख किसान अब भी बैको के चक्कर लगाते हैं, लेकिन बैको का जबाब है कि राहत पैकेज बंट चुका है। कागजों पर धन लेने वालो के दस्तख्त हैं। हकीकत में जिनके पास किसान क्रेडिट कार्ड हैं, उन्हे रकम मिली है, लेकिन यह कार्ड महज दस फीसदी किसानों के पास है । विकास की इस अनूठी व्यवस्था की वजह से किसानों की आत्महत्या रोकने के लिये केन्द्र सरकार के राहत पैकेज के रिलिज होने के बाद किसानो की हर महीने आत्महत्या 46 से बढकर 58 हो चुकी है । साल भर में विदर्भ के छोटे बडे सवा सौ उघोग दिवालिया हुये है लेकिन इन दिवालिया उघोगो के मालिको की चमक और बढ़ी है । इस चमक ने बैकों को ढाई सौ करोड़ से ज्यादा का चूना लगाया है।
सवाल है मनमोहन और चिदंबरम का यह न्यूइक्नामिक्स माडल जो लोकतंत्र का मात दे रहा है वह अमेरिकी मंदी से मात कैसे खा सकता है ।

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