अमेरिका में बराक ओबामा की जीत एक ऐसा इतिहास रचने को तैयार है, जिसका सपना कभी मार्टिन लूथर किंग ने देखा था। अप्रैल 1963 में जब ओबामा की उम्र दो साल रही होगी, उस वक्त मार्टिन लूथर किंग ने वाशिंगटन में करीब ढाई लाख लोगों की मौजूदगी में हक और बराबरी का सवाल खड़ा किया। अपने सोलह मिनट के भाषण में मार्टिन लूथर ने श्वेत-अश्वेत के बीच खिंची लकीर को मिटाने से लेकर दुनियाभर में चल रहे मानवाधिकार संघर्ष को एक ऐसी आवाज दी, जिसे पहली बार अमेरिका समेत समूची दुनिया ने महसूस किया कि लूथर एक ऐसा सपना दिखा रहे हैं जिसे हकीकत में बदलना चाहिए। मगर यह सपना ही है क्योंकि यह आवाज उस ताकतवर देश से उठी है जो खुद कई लकीर समूची दुनिया में खींचे हुए है।
लेकिन बीसवीं सदी में हाशिये पर पड़े इस सपने को इक्कीसवीं सदी में कोई मुख्यधारा में ले आयेगा, यह लूथर किंग ने भी नही सोचा होगा। अमेरिकी अश्वेतों को सपना दिखाने के महज 45 साल बाद बराक ओबामा उसी सपने को पूरा कर इतिहास रचने को तैयार हैं। दरअसल जिस दौर में मार्टिन लूथर किंग ने बराबरी का सपना देखा था, उस दौर में भारत में बाबा साहेब आंबेडकर ने सपना देखा। लूथर किंग के ऐतिहासिक भाषण से सात साल पहले अक्तूबर 1956 में आंबेडकर ने नागुर में करीब दस लाख लोगों की मौजूदगी में धम्मचक्र परिवर्तन को लेकर जो कहा, वह भारतीय समाज में बराबरी के सपने से आगे खुद को संघर्ष के लिये तैयार करने का सपना था। जातीय आधार पर बंटे समाज और धर्म के आसरे भारत का नागरिक होने का जो गर्व हिन्दू अपनी छाती पर तमगे की तरह गाढ़े हुए था, उसे बाबा साहेब आंबेडकर ने चुनौती दी। चुनौती ही नहीं, बल्कि उसके सामानातंर दलित समाज को अपनी अस्मिता, अपनी पहचान को बिना गिरवी रखे हक और बराबरी का जो बिगुल बजाया उसने हिन्दुस्तान की राजनीति में एक ऐसा बीज बो दिया जो कालातंर में पनपा तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सुरसा की तरह निगलता गया।
कमोबेश श्वेत-अश्वेत को लेकर संघर्ष का जो चेहरा लूथर किंग की 1969 में हत्या के दौर में था, उसने अमेरिकी समाज को लूथर के सपनो के आसरे पूरी तरह बदल भी दिया। लेकिन अमेरिका में किसे पता था कि ओबामा जब लूथर के सपनों को मुख्यधारा में लाएंगे तो वह विचारधारा सपनों में बदलते दिखेगी, जिसपर अमेरिकी समाज ने अपनी जीत कई दशकों पर दर्ज कर ली थी। विलासिता के आसरे विचारधारा रख कर नई विश्व व्यवस्था का सपना संजोए अमेरिका में रोटी-कपड़ा और मकान को पूरा करने की थ्योरी मुंह बाए खड़ी होगी, किसने सोचा होगा! बुश की सोच को आगे बढ़ाने के लिए तैयार रिपब्लिकन मैककेन का नारा यही है, पहले देश। जिसमें सुधार-खुशहाली-शांति की बात है। यह नारा उस वक्त लगाया जा रहा है, जब अर्थव्यवस्था के ढहने से अमेरिकी खुशहाली बदहाल हो चली है। सुधार की बाजार व्यवस्था को संभालने के लिये सरकार को जनता के पैसे का सहारा लेना पड़ रहा है। और आंतकवाद के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाईयों ने अमेरिका की ही शांति में सेंध लगा दी है। वहीं आंबेडकर जब बराबरी और हक का सपना संजोये थे और नागपुर में धम्म परिवर्तन कर रहे थे उस दौर में मायावती की उम्र महज नौ महीने की थी। कांग्रेस के बार बार हाशिए पर ढकेले जाने के दौर में अंबेडकर ने पहले कांग्रेस को पहले जलता हुआ घर करार दिया और फिर दलितों को यह सपना दिखाया कि उनके हाथ में सत्ता हो। शिक्षा और रोजगार को दलित की अस्मिता से जोड़कर आंबेडकर ने जाति और धर्म की उस दीवार को तोड़ना चाहा, जिसके अंदर घुट-घुट कर दलित की मौत हो जाती है। आंबेडकर का सपना दलित को उस मुख्यधारा से जोड़ना था, जहाँ से दलित-नीति बनने का सवाल सत्ता खड़ा करती है। आंबेडकर का मानना थी कि बराबरी का तरीका बदलना होगा और मापदंड भी, क्योंकि कोई दलित होकर ही दलितों की मानसिकता को समझ सकता है। इसलिये संविधान में आरक्षण का सवाल जोड़ा गया, जिससे एक ही देश में दो परिस्थितियो में पनप रहे दो समाजों में तालमेल हो सके।
मार्टिन लूथर किंग की तरह आंबेडकर ने भी नहीं सोचा था कि बीसवीं सदी के उनके सपने सत्ता की मुख्यधारा में तो इक्कीसवीं सदी तक आ ही जाएंगे, लेकिन जिन परिस्थियों में देश जवान हो रहा है वही स्तम्भ ढहने लगेगा। अमेरिकी राजनीति में यह पहली बार है कि कोई शख्स राष्ट्रपति पद की दावेदारी में अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी राजनीतिक शुरु कर रहा है। अभी तक राष्ट्रपति पद आखिरी पद माना जाता था। इसलिये ओबामा को लेकर अमेरिका में ही नहीं, समूची दुनिया में एक नये सपने को रचने की बात भी हो रही है। क्योकि संयोग से अमेरिका पहली बार उस दोराहे पर खड़ा है, जहाँ उसकी बनायी दुनिया पर ही संकट के बादल हैं। और वह विचारधारा मटियामेट हो रही है जिसके कंधो के आसरे हर अमेरिकी गर्व कर विकसित और विकासशील देशों की टोली को अपनी ओर लालायित करता था। साथ ही दुनिया के हर पूंजीवादी संस्थान पर उसकी पैठ रहती थी। ऐसे वक्त ओबामा के सामने भी लूथर किंग के देखे गये सपनों से कहीं बड़ा सपना देखने और पूरा करने का भार है। क्योंकि ओबामा को कुछ ऐसा रचना है जो अभी तक सोचा नहीं गया है। हालाँकि अमेरिकी चुनाव में 80 साल बाद पहला मौका आया है जब राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवार नये हैं। लेकिन ओबामा के जरिये जिस स्क्रिप्ट का इंतजार दुनिया को है, वह श्वेत-अश्वेत से कहीं आगे है। आंबेडकर के सपनों को लेकर, उनकी मौत के बाद कई दशकों से यह सवाल भारत में भी गूंजता रहा कि आंबेडकर के सपने भारतीय राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा कब और कैसे बनेंगे? आंबेडकर की सोच और कांशीराम के सांगठनिक समझ के कंधो पर चढ़कर मायावती ने आंबेडकर के सपनो को मुख्यधारा में ला तो खड़ा किया, लेकिन जब बात सपनों को पूरा करने की आयी तो वह राजनीति ही भरभराकर गिरती जा रही है जिसके आसरे आंबेडकर ने सपना देखा था। बीसवीं सदी में देखा गया आंबेडकर का सपना इक्कीसवीं सदी में जब पूरा होने को आया तो उस राजनीति को संभालना ही सबसे बड़ा सपना हो गया. जिसे आंबेडकर ने मजबूत मान लिया था। ठीक उसी तरह जैसे लूथर किंग ने अमेरिकी व्यवस्था को मजबूत मान लिया था। लेकिन ओबामा और मायावती का सच उस व्यवस्था की पूरी होती उम्र का भी प्रतीक है जिसने दोनो को कभी हाशिये पर रखा। अमेरिका के राजनीतिक इतिहास में पहला मौका आया जब किसी राजनीतिक दल ने एक अश्वेत को उम्मीदवार बनाया। भारत में पहला मौका आया जब अपने बूते कोई दलित बहुल पार्टी किसी राज्य में सत्ता बना बैठी और उसकी अगुवाई भी दलित ने ही की। अमेरिका में इससे पहले अश्वेतों को लेकर नीतियाँ बनती थीं। हर राष्ट्रपति पद का दावेदार समाज में भागीदारी या सुविधा-असुविधा को लेकर कोई-न-कोई प्रस्ताव ले कर आता ही था। लेकिन पहला मौका है कि श्वेत-अश्वेत की बहस अमेरिकी समाज में बेमानी लगने लगी है। राजनीतिक तौर पर वोट का बंटवारा नस्लीय आधार पर पिछड़ा होने का प्रतीक माना जाने लगा है। ओबामा को समाज ही नहीं, देश पाटने वाला शख्स भी माना जा रहा है।
पार्टी लाइन पर चलते हुये सभी को साथ लेकर चलने वाला डेमोक्रेट ओबामा को माना जाता है। उसके अपने वोट बैंक में सेंध लगाने की ना तो मैक्कन ने सोचा, ना ही रिपब्लिकन ने सोचा। वहीं भारत में मुख्यधारा की राजनीति में दखल के बाद मायावती की दलित राजनीति में सेंध लगाने की किसी राजनीतिक ने नहीं सोची। बल्कि मायावती के साथ हर राजनीतिक दल ने तालमेल किया। कांग्रेस-बीजेपी-सपा तीनों दलों ने अपने-अपने मौके ताड़कर मायावती का साथ लिया। और ऐसे वक्त जब केन्द्र में ही नहीं बल्कि राज्यों की राजनीति भी गठबंधन के सहारे सत्ता पाने की जोड़तोड़ में आ चुकी है, तब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अपने बूते सत्ता पाना आंबेडकर के सपने का सच होना नहीं है बल्कि उस राजनीति में ही सेंध लगना है जो आमजन के भरोसे पर लोकतंत्र का एहसास करा रही थी। इसीलिये भारतीय राजनीति में मायावती को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि केन्द्र की सत्ता अगर मायावती के पास आ गयी तो कम-से-कम कोई सपना तो उसकी आंखो में है, जो किसी दूसरे राजनेता के पास नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे बुश या मैक्कन के पास अमेरिका को लेकर कोई सपना होगा, सोचना भी मुश्किल है। लेकिन ओबामा की आँखो में सपना है। और शायद अब की दुनिया में इंतजार मरते हुये सपनों को जिलाने का ही है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment