आतंकवाद ने जहां दस्तक नहीं दी, वहां युद्ध की आहट हो रही है । आतंकवादी हिंसा ने अपना निशाना भारत की अर्थव्यवस्था को बनाया। आर्थिक सुधार की लकीर में शहरों को जिस तरह शापिंग मॉल में बदल कर नागरिकों को झटके में उपभोक्ता बना दिया गया, उसने लोगों के दिलो दिमाग में मुनाफे और सौदेबाजी की लकीर भी खींच दी। इस लकीर में संबंधो का आधार उपभोक्ता हुआ,जिसने वर्ग विशेष को बांट दिया। अगर आतंकवाद के निशाने की जमीन देखे तो मुंबई, दिल्ली, बेंगलूर जैसे महानगर सेहोते हुये, महानगर की दिशा में कदम बढाते अहमदाबाद, जयपुर, हैदराबाद जैसे शहरो की तरफ निशानदेही होगी।
इस सिलसिले ने उन छोटे शहरो को भी घेरे में लिया, जो बड़े शहरों की तर्ज पर अपनी उड़ान भरना चाहते हैं। इसमें मालेगांव हो या बनारस । दरअसल, आतंकवादी हिंसा की जमीन का सच चाहे देश को छिन्न-भिन्न करने वाला हो, लेकिन इन जगहों पर बाजार का आतंक पैदा किया जा चुका था और उपभोक्ता होकर आतंक मचाने का खेल बीते दशक से लगातार बढता जा रहा था। इसलिये यह सवाल भी बार-बार उठता रहा कि आतंकवाद ने लोगों के भीतर जीने की जीजीविषा को नहीं तोड़ा है । हकीकत में यह जीजीविषा बाजार की है। जिसके भीतर समाने का तनाव व्यक्ति को किसी भी आतंक से लड़ने से ज्यादा उसे जल्दी से जल्दी भुल जाने का हुनर सिखा जाता है। इसीलिये आतंकवाद की दस्तक उन जगहों पर नहीं आयी, जहां बाजार ने अपना हुनर दिखाना शुरु नहीं किया है।
देश के सैकड़ों शहर हैं, जहां लोगों के लिये आतंकवादी हिंसा किसी किस्सागोई की तरह है । उत्तराखंड के कुमाऊँ में आतंकवाद उसी तरह है, जैसे महानगरों के शापिंग मॉल या फिर बड़े बड़े शहरों की भागती दौड़ती जिन्दगी को जीने के लिये तल्खी और तेवर भरे मुनाफे का ऑक्सीजन लगातार चाहिये । वहा सरोकार यानी किसी भी आम शख्स के साथ जुड़ाव का मतलब है मुनाफे भरी सौदेबाजी । जबकि कुमाऊँ के किसी भी इलाके में आप इस एहसास को जी सकते है कि आपका होना ही सामने वाले को सुकून देता है। आपकी जेब से उसे कुछ भी लेना देना नहीं है । यह हुनर देश की संस्कृति का हिस्सा है लेकिन बाजार आतंकवाद की गिरफ्त में समाकर विकसित होने का जो ख्वाब सरकार की नीतियों ने परोसा है, उसने संस्कृति को बेचने और खरीदने का हुनर भी उपभोक्ता में पैदा कर दिया। दरअसल, देश के भीतर दो तरह के भारत की समझ तो पूंजी के आसरे गाहे-बगाहे खूब उभरी है । लेकिन पहली बार जब आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान से दो दो हाथ करने का सवाल उठ रहा है तो कुमाऊँ इलाके में युद्द की उस स्थिति को महसूस किया जा सकता है, जिसने आतंकवाद न तो देखा है न ही भोगा। समूचे इलाके में कुमाऊँ रेजीमेंट की पहचान उत्तराखंड के उन परिवारो की है, जिनकी जिन्दगी शुरु ही बंदूक के साये में सैनिक बनने के लिये होती है। ऐसे परिवारों की लंबी फेहरिस्त है जो सेना में शामिल होने का ख्वाब उसी समय देख चुके होते हैं, जब आतंकवाद की गिरफ्त में आये शहरों के बच्चे मां के पल्लू में तकनीकी खिलौने का सुकून पाकर खेल खेलते है । शहरो के ये बच्चे हाथों में लेजर गन या गोलियों की आवाज निकालती बंदूक के सहारे दुशमन को ढेर कर खुश हो जाते हैं। यही बच्चे जब बड़े होते हैं तो कुछ बचपन को खरीदने के इस मुनाफे वाले धंधे को समझकर बिजनेस मैनेजमेंट की पढाई से गुर सिखते है तो कुछ बच्चे हिंसक हो कर स्कूल कालेजो में रिवाल्वर की नोंक पर अपने होने का अहसास अपने ही साथियों को कराकर कुछ अलग दिखने लगते है। जिनकी राह हर वस्तु को जल्दी से जल्दी पा लेना होता है। मां-बाप के लिए भी बच्चे की हर वह राह हसीन लगती है जिससे मुनाफा हो सकता है ।
लेकिन कुमाऊँ रेजीमेंट में शामिल होकर देश के लिये मर मिटने का जज्बा पहाड़ के बच्चे अपने परिवार के भीतर ही पा लेते हैं । हवालदार से लेफ्टि. कर्नल की जो भी पोस्ट हो, उसका स्वाद बालपन में ही अपने पिता या चाचा के जरिए यह जीते हैं। यही वजह है कि मुंबई में आतंकवादी हमलों के बाद जब पाकिस्तान पर उंगली उठी है और युद्दोन्माद का वातावरण समूचे देश में गहरा रहा है तो आतंकवाद के किस्से पहाड़ के परिवारो में युद्द की स्थितियों में जीने की तैयारी करने लगे हैं । कुमाऊँ रेजीमेंट में सभी की छुट्टी रद्द की जा चुकी है । हर कोई ड्यूटी पर है । कोई डिप्लायमेंट अभी नहीं हुआ है। लेकिन हल्की सी हवा रेजीमेंट के भीतर और जिन परिवारो के बच्चे सेना में शामिल है उनकी चारदीवारी में चल पड़ी है ।
यह हवा एक तरह का जोश भी पैदा कर रही है और उन भावनाओं का एहसास भी करा रही है, जो बाजार के आतंक के सामने घुटने टेक चुके है। यह भावनाये सरोकार की है । महानगर के जीवन के लिये यह सरोकार हाथ में मोमबत्ती लेकर राजनेताओ को खारिज कर या न्याय की मांग वाली नही है । बल्कि इस सरोकार में देश की मिट्टी को बचाने का जुनून है। राष्ट्रवाद की भावनाओ से ओत-प्रोत होकर सबकुछ गंवाते हुये भी जीने और मरने का सुकून है। बच्चों के सवाल अपने सैनिक बाप से यह नहीं होते की वह लौटेंगे या नहीं और सैनिक बाप का प्यार बेटे को यह एहसास नही कराता कि वह जल्द छुट्टी लेकर लौट आयेगा । बेटा बाप की बंदूक उठाने में और वर्दी सहेजने में प्यार पाता है और बाप बेटे को बंदूक उठवाकर जल्दी बड़ा होकर सेना में शामिल होने का प्यार देता है।
कुमाऊँ रेजीमेंट में यह किस्से आम हैं कि युद्द को देखे बिना या उसमें शामिल हुये बगैर एक पीढी रिटायरमेंट के कगार पर पहुंच गयी। और रिटायरमेंट से पहले बंदूक साफ करने का मौका मिले तो बात ही क्या है। कुमाऊं के इलाके में करगिल से ज्यादा 1984 में पंजाब में भिंडरावाला को लेकर आये उस मौके की याद ज्यादा ताजा है, जिसमें सबसे ज्यादा कुमाऊँ रेजीमेट के जवान शहीद हुये थे । जवानों के परिवारों के साथ बैठिये तो इंदिरा गांधी की हत्या से पहले के पंजाब के हर दश्य आंखो के सामने रेंगते है । कैसे सेना को भेजने के फैसले को कुमाऊँ रेजीमेंट के जवानों के सामने रखा गया । कैसे स्वर्ण मंदिर के भीतर रेजीमेंट के जवान हाथ उठाकर अंदर घुसे और मरते चले गये । कैसे मोर्चा संभाल कर पंजाब के आतंकवाद को हाशिये पर ढकेला। और किस तरह पंजाब आपरेशन के बाद वापस लौटते वक्त अपने साथियो के कंधो पर सिर रखकर अपने ही कई साथियों को गंवाने का दर्द उभरा। स्वर्ण मंदिर आपरेशन राजनीति ने चाहे कई सवाल खड़े किये और गाहे-बगाहे समाज के बीच लकीर भी समुदायों के जरीये खींची गयी लेकिन कुमाऊँ के इलाके में यह बहस कभी नही चली कि उस दौर में इंदिरा गांधी का फैसला कितना सही कितना गलत था । आपरेशन सफल होने की याद भी पहाड़ के इन परिवारो में खूब है। उसके बाद शहीद हुये परिवार के बच्चों ने कैसे बंदूक थामी । और देश के लिये मर मिटने का जज्बा कैसे पीढ़ी दर पीढ़ी इनके भीतर समाते चला जाता है, यह समझ परिवारों के बीच रह कर ही महसूस की जी सकती है ।
मुंबई हमलो के बाद टीवी न्यूज चैनलों की बहस-मुहासिब में जब पुलिस या एनएसजी या सेना के जवानों के लेकर यह बहस चल पड़ी कि सरकार उनकी सुविधाओं का ख्याल नहीं रखती। उन्हें और ज्यादा तनख्वाह मिलनी चाहिये। उम्दा हथियार मिलने चाहिये । तो पहाड के सैनिक परिवारों में यह सवाल भी हुआ कि ज्यादा देने या मिलने से देश का जज्बा पैदा नहीं होता। दिल्ली या मुंबई में लोगों को अपनी रईसी काटकर सेना या जवानों को आगे बढाने की सोच चाहिये । पहाड़ में तो शिद्दत के साथ यह सवाल कहीं ज्यादा तेजी से उभर रहा है कि जिस जिन्दगी को जीने की चाहत में देश को बढाया जा रहा है, उसकी कितनी जरुरत है। पूंजी बनाने के नाम पर देश की एकता को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है..तो सेंध समाज के भीतर तो लगेगी ही।
कुमाऊँ रेजीमेंट का हेडक्वाटर रानीखेत में है। कुमाऊँ के किसी भी इलाके में खड होकर चीन की सीमा की दिशा देखी समझी जा सकती है। क्योंकि हिमालय की समूची रेंज रानीखेत से दिखायी देती है जिसके पार चीन है। और चीन को लेकर कुमाऊँ के इलाके में 1961 के युद्द की बहुत सारी तस्वीरें हैं। पहाडं का जीवन यूं भी खासा कष्ट भरा होता है और चीन ने जब कई मोर्च खोले थे तो उस वक्त अब के उत्तराखंड की सीमायें खासी सक्रिय थीं । लेकिन तब हथियार के नाम पर दुनाली और डंडे हुआ करते थे । तोप ऐसी थी, जिसे छोड़ते छोड़ते दुश्मन तोप तक पहुंच जाये । समूची यादों को समेटे कुमाऊँ इस बार आतंकवाद की आहट से अछूता होकर युद्द की यादों में खोया है। ये यादें देश की रक्षा का भरोसा तो दिलाती हैं, लेकिन समूचे कुमाऊँ की माली हालत देखकर कई सवाल भी खड़े होते हैं। क्या सरकार की भूमिका युद्द की स्थिति को खड़ा करना है । क्या बाजार आतंकवाद से कटे प्रदेशो में ही देश या राष्ट्रवाद का जज्बा बचा है। क्या महानगरीय जीवन या महानगर हो कर जीने की चाहत का पाठ पढाने वाले अर्थव्यवस्था भारत को बांट रही है। क्या आने वाली पीढियों को आतंकवाद या युद्द के जरिये ही राष्ट्रवाद का पाठ पढना होगा। और चुनावी लोकतंत्र की जरुरत जल्द ही कुमाऊँ जैसे प्रदेशो को लील लेगी।क्योंकि जहां युद्द की तैयारी हो रही है, वहीं आतंकवाद के दस्तक देने की हिम्मत नहीं है।
Tuesday, December 30, 2008
जहां आतंकवाद की दस्तक नहीं,वहां युद्ध की तैयारी है !
आतंकवाद ने जहां दस्तक नहीं दी, वहां युद्ध की आहट हो रही है । आतंकवादी हिंसा ने अपना निशाना भारत की अर्थव्यवस्था को बनाया। आर्थिक सुधार की लकीर में शहरों को जिस तरह शापिंग मॉल में बदल कर नागरिकों को झटके में उपभोक्ता बना दिया गया, उसने लोगों के दिलो दिमाग में मुनाफे और सौदेबाजी की लकीर भी खींच दी। इस लकीर में संबंधो का आधार उपभोक्ता हुआ,जिसने वर्ग विशेष को बांट दिया। अगर आतंकवाद के निशाने की जमीन देखे तो मुंबई, दिल्ली, बेंगलूर जैसे महानगर सेहोते हुये, महानगर की दिशा में कदम बढाते अहमदाबाद, जयपुर, हैदराबाद जैसे शहरो की तरफ निशानदेही होगी।
इस सिलसिले ने उन छोटे शहरो को भी घेरे में लिया, जो बड़े शहरों की तर्ज पर अपनी उड़ान भरना चाहते हैं। इसमें मालेगांव हो या बनारस । दरअसल, आतंकवादी हिंसा की जमीन का सच चाहे देश को छिन्न-भिन्न करने वाला हो, लेकिन इन जगहों पर बाजार का आतंक पैदा किया जा चुका था और उपभोक्ता होकर आतंक मचाने का खेल बीते दशक से लगातार बढता जा रहा था। इसलिये यह सवाल भी बार-बार उठता रहा कि आतंकवाद ने लोगों के भीतर जीने की जीजीविषा को नहीं तोड़ा है । हकीकत में यह जीजीविषा बाजार की है। जिसके भीतर समाने का तनाव व्यक्ति को किसी भी आतंक से लड़ने से ज्यादा उसे जल्दी से जल्दी भुल जाने का हुनर सिखा जाता है। इसीलिये आतंकवाद की दस्तक उन जगहों पर नहीं आयी, जहां बाजार ने अपना हुनर दिखाना शुरु नहीं किया है।
देश के सैकड़ों शहर हैं, जहां लोगों के लिये आतंकवादी हिंसा किसी किस्सागोई की तरह है । उत्तराखंड के कुमाऊँ में आतंकवाद उसी तरह है, जैसे महानगरों के शापिंग मॉल या फिर बड़े बड़े शहरों की भागती दौड़ती जिन्दगी को जीने के लिये तल्खी और तेवर भरे मुनाफे का ऑक्सीजन लगातार चाहिये । वहा सरोकार यानी किसी भी आम शख्स के साथ जुड़ाव का मतलब है मुनाफे भरी सौदेबाजी । जबकि कुमाऊँ के किसी भी इलाके में आप इस एहसास को जी सकते है कि आपका होना ही सामने वाले को सुकून देता है। आपकी जेब से उसे कुछ भी लेना देना नहीं है । यह हुनर देश की संस्कृति का हिस्सा है लेकिन बाजार आतंकवाद की गिरफ्त में समाकर विकसित होने का जो ख्वाब सरकार की नीतियों ने परोसा है, उसने संस्कृति को बेचने और खरीदने का हुनर भी उपभोक्ता में पैदा कर दिया। दरअसल, देश के भीतर दो तरह के भारत की समझ तो पूंजी के आसरे गाहे-बगाहे खूब उभरी है । लेकिन पहली बार जब आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान से दो दो हाथ करने का सवाल उठ रहा है तो कुमाऊँ इलाके में युद्द की उस स्थिति को महसूस किया जा सकता है, जिसने आतंकवाद न तो देखा है न ही भोगा। समूचे इलाके में कुमाऊँ रेजीमेंट की पहचान उत्तराखंड के उन परिवारो की है, जिनकी जिन्दगी शुरु ही बंदूक के साये में सैनिक बनने के लिये होती है। ऐसे परिवारों की लंबी फेहरिस्त है जो सेना में शामिल होने का ख्वाब उसी समय देख चुके होते हैं, जब आतंकवाद की गिरफ्त में आये शहरों के बच्चे मां के पल्लू में तकनीकी खिलौने का सुकून पाकर खेल खेलते है । शहरो के ये बच्चे हाथों में लेजर गन या गोलियों की आवाज निकालती बंदूक के सहारे दुशमन को ढेर कर खुश हो जाते हैं। यही बच्चे जब बड़े होते हैं तो कुछ बचपन को खरीदने के इस मुनाफे वाले धंधे को समझकर बिजनेस मैनेजमेंट की पढाई से गुर सिखते है तो कुछ बच्चे हिंसक हो कर स्कूल कालेजो में रिवाल्वर की नोंक पर अपने होने का अहसास अपने ही साथियों को कराकर कुछ अलग दिखने लगते है। जिनकी राह हर वस्तु को जल्दी से जल्दी पा लेना होता है। मां-बाप के लिए भी बच्चे की हर वह राह हसीन लगती है जिससे मुनाफा हो सकता है ।
लेकिन कुमाऊँ रेजीमेंट में शामिल होकर देश के लिये मर मिटने का जज्बा पहाड़ के बच्चे अपने परिवार के भीतर ही पा लेते हैं । हवालदार से लेफ्टि. कर्नल की जो भी पोस्ट हो, उसका स्वाद बालपन में ही अपने पिता या चाचा के जरिए यह जीते हैं। यही वजह है कि मुंबई में आतंकवादी हमलों के बाद जब पाकिस्तान पर उंगली उठी है और युद्दोन्माद का वातावरण समूचे देश में गहरा रहा है तो आतंकवाद के किस्से पहाड़ के परिवारो में युद्द की स्थितियों में जीने की तैयारी करने लगे हैं । कुमाऊँ रेजीमेंट में सभी की छुट्टी रद्द की जा चुकी है । हर कोई ड्यूटी पर है । कोई डिप्लायमेंट अभी नहीं हुआ है। लेकिन हल्की सी हवा रेजीमेंट के भीतर और जिन परिवारो के बच्चे सेना में शामिल है उनकी चारदीवारी में चल पड़ी है ।
यह हवा एक तरह का जोश भी पैदा कर रही है और उन भावनाओं का एहसास भी करा रही है, जो बाजार के आतंक के सामने घुटने टेक चुके है। यह भावनाये सरोकार की है । महानगर के जीवन के लिये यह सरोकार हाथ में मोमबत्ती लेकर राजनेताओ को खारिज कर या न्याय की मांग वाली नही है । बल्कि इस सरोकार में देश की मिट्टी को बचाने का जुनून है। राष्ट्रवाद की भावनाओ से ओत-प्रोत होकर सबकुछ गंवाते हुये भी जीने और मरने का सुकून है। बच्चों के सवाल अपने सैनिक बाप से यह नहीं होते की वह लौटेंगे या नहीं और सैनिक बाप का प्यार बेटे को यह एहसास नही कराता कि वह जल्द छुट्टी लेकर लौट आयेगा । बेटा बाप की बंदूक उठाने में और वर्दी सहेजने में प्यार पाता है और बाप बेटे को बंदूक उठवाकर जल्दी बड़ा होकर सेना में शामिल होने का प्यार देता है।
कुमाऊँ रेजीमेंट में यह किस्से आम हैं कि युद्द को देखे बिना या उसमें शामिल हुये बगैर एक पीढी रिटायरमेंट के कगार पर पहुंच गयी। और रिटायरमेंट से पहले बंदूक साफ करने का मौका मिले तो बात ही क्या है। कुमाऊं के इलाके में करगिल से ज्यादा 1984 में पंजाब में भिंडरावाला को लेकर आये उस मौके की याद ज्यादा ताजा है, जिसमें सबसे ज्यादा कुमाऊँ रेजीमेट के जवान शहीद हुये थे । जवानों के परिवारों के साथ बैठिये तो इंदिरा गांधी की हत्या से पहले के पंजाब के हर दश्य आंखो के सामने रेंगते है । कैसे सेना को भेजने के फैसले को कुमाऊँ रेजीमेंट के जवानों के सामने रखा गया । कैसे स्वर्ण मंदिर के भीतर रेजीमेंट के जवान हाथ उठाकर अंदर घुसे और मरते चले गये । कैसे मोर्चा संभाल कर पंजाब के आतंकवाद को हाशिये पर ढकेला। और किस तरह पंजाब आपरेशन के बाद वापस लौटते वक्त अपने साथियो के कंधो पर सिर रखकर अपने ही कई साथियों को गंवाने का दर्द उभरा। स्वर्ण मंदिर आपरेशन राजनीति ने चाहे कई सवाल खड़े किये और गाहे-बगाहे समाज के बीच लकीर भी समुदायों के जरीये खींची गयी लेकिन कुमाऊँ के इलाके में यह बहस कभी नही चली कि उस दौर में इंदिरा गांधी का फैसला कितना सही कितना गलत था । आपरेशन सफल होने की याद भी पहाड़ के इन परिवारो में खूब है। उसके बाद शहीद हुये परिवार के बच्चों ने कैसे बंदूक थामी । और देश के लिये मर मिटने का जज्बा कैसे पीढ़ी दर पीढ़ी इनके भीतर समाते चला जाता है, यह समझ परिवारों के बीच रह कर ही महसूस की जी सकती है ।
मुंबई हमलो के बाद टीवी न्यूज चैनलों की बहस-मुहासिब में जब पुलिस या एनएसजी या सेना के जवानों के लेकर यह बहस चल पड़ी कि सरकार उनकी सुविधाओं का ख्याल नहीं रखती। उन्हें और ज्यादा तनख्वाह मिलनी चाहिये। उम्दा हथियार मिलने चाहिये । तो पहाड के सैनिक परिवारों में यह सवाल भी हुआ कि ज्यादा देने या मिलने से देश का जज्बा पैदा नहीं होता। दिल्ली या मुंबई में लोगों को अपनी रईसी काटकर सेना या जवानों को आगे बढाने की सोच चाहिये । पहाड़ में तो शिद्दत के साथ यह सवाल कहीं ज्यादा तेजी से उभर रहा है कि जिस जिन्दगी को जीने की चाहत में देश को बढाया जा रहा है, उसकी कितनी जरुरत है। पूंजी बनाने के नाम पर देश की एकता को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है..तो सेंध समाज के भीतर तो लगेगी ही।
कुमाऊँ रेजीमेंट का हेडक्वाटर रानीखेत में है। कुमाऊँ के किसी भी इलाके में खड होकर चीन की सीमा की दिशा देखी समझी जा सकती है। क्योंकि हिमालय की समूची रेंज रानीखेत से दिखायी देती है जिसके पार चीन है। और चीन को लेकर कुमाऊँ के इलाके में 1961 के युद्द की बहुत सारी तस्वीरें हैं। पहाडं का जीवन यूं भी खासा कष्ट भरा होता है और चीन ने जब कई मोर्च खोले थे तो उस वक्त अब के उत्तराखंड की सीमायें खासी सक्रिय थीं । लेकिन तब हथियार के नाम पर दुनाली और डंडे हुआ करते थे । तोप ऐसी थी, जिसे छोड़ते छोड़ते दुश्मन तोप तक पहुंच जाये । समूची यादों को समेटे कुमाऊँ इस बार आतंकवाद की आहट से अछूता होकर युद्द की यादों में खोया है। ये यादें देश की रक्षा का भरोसा तो दिलाती हैं, लेकिन समूचे कुमाऊँ की माली हालत देखकर कई सवाल भी खड़े होते हैं। क्या सरकार की भूमिका युद्द की स्थिति को खड़ा करना है । क्या बाजार आतंकवाद से कटे प्रदेशो में ही देश या राष्ट्रवाद का जज्बा बचा है। क्या महानगरीय जीवन या महानगर हो कर जीने की चाहत का पाठ पढाने वाले अर्थव्यवस्था भारत को बांट रही है। क्या आने वाली पीढियों को आतंकवाद या युद्द के जरिये ही राष्ट्रवाद का पाठ पढना होगा। और चुनावी लोकतंत्र की जरुरत जल्द ही कुमाऊँ जैसे प्रदेशो को लील लेगी।क्योंकि जहां युद्द की तैयारी हो रही है, वहीं आतंकवाद के दस्तक देने की हिम्मत नहीं है।
इस सिलसिले ने उन छोटे शहरो को भी घेरे में लिया, जो बड़े शहरों की तर्ज पर अपनी उड़ान भरना चाहते हैं। इसमें मालेगांव हो या बनारस । दरअसल, आतंकवादी हिंसा की जमीन का सच चाहे देश को छिन्न-भिन्न करने वाला हो, लेकिन इन जगहों पर बाजार का आतंक पैदा किया जा चुका था और उपभोक्ता होकर आतंक मचाने का खेल बीते दशक से लगातार बढता जा रहा था। इसलिये यह सवाल भी बार-बार उठता रहा कि आतंकवाद ने लोगों के भीतर जीने की जीजीविषा को नहीं तोड़ा है । हकीकत में यह जीजीविषा बाजार की है। जिसके भीतर समाने का तनाव व्यक्ति को किसी भी आतंक से लड़ने से ज्यादा उसे जल्दी से जल्दी भुल जाने का हुनर सिखा जाता है। इसीलिये आतंकवाद की दस्तक उन जगहों पर नहीं आयी, जहां बाजार ने अपना हुनर दिखाना शुरु नहीं किया है।
देश के सैकड़ों शहर हैं, जहां लोगों के लिये आतंकवादी हिंसा किसी किस्सागोई की तरह है । उत्तराखंड के कुमाऊँ में आतंकवाद उसी तरह है, जैसे महानगरों के शापिंग मॉल या फिर बड़े बड़े शहरों की भागती दौड़ती जिन्दगी को जीने के लिये तल्खी और तेवर भरे मुनाफे का ऑक्सीजन लगातार चाहिये । वहा सरोकार यानी किसी भी आम शख्स के साथ जुड़ाव का मतलब है मुनाफे भरी सौदेबाजी । जबकि कुमाऊँ के किसी भी इलाके में आप इस एहसास को जी सकते है कि आपका होना ही सामने वाले को सुकून देता है। आपकी जेब से उसे कुछ भी लेना देना नहीं है । यह हुनर देश की संस्कृति का हिस्सा है लेकिन बाजार आतंकवाद की गिरफ्त में समाकर विकसित होने का जो ख्वाब सरकार की नीतियों ने परोसा है, उसने संस्कृति को बेचने और खरीदने का हुनर भी उपभोक्ता में पैदा कर दिया। दरअसल, देश के भीतर दो तरह के भारत की समझ तो पूंजी के आसरे गाहे-बगाहे खूब उभरी है । लेकिन पहली बार जब आतंकवाद को लेकर पाकिस्तान से दो दो हाथ करने का सवाल उठ रहा है तो कुमाऊँ इलाके में युद्द की उस स्थिति को महसूस किया जा सकता है, जिसने आतंकवाद न तो देखा है न ही भोगा। समूचे इलाके में कुमाऊँ रेजीमेंट की पहचान उत्तराखंड के उन परिवारो की है, जिनकी जिन्दगी शुरु ही बंदूक के साये में सैनिक बनने के लिये होती है। ऐसे परिवारों की लंबी फेहरिस्त है जो सेना में शामिल होने का ख्वाब उसी समय देख चुके होते हैं, जब आतंकवाद की गिरफ्त में आये शहरों के बच्चे मां के पल्लू में तकनीकी खिलौने का सुकून पाकर खेल खेलते है । शहरो के ये बच्चे हाथों में लेजर गन या गोलियों की आवाज निकालती बंदूक के सहारे दुशमन को ढेर कर खुश हो जाते हैं। यही बच्चे जब बड़े होते हैं तो कुछ बचपन को खरीदने के इस मुनाफे वाले धंधे को समझकर बिजनेस मैनेजमेंट की पढाई से गुर सिखते है तो कुछ बच्चे हिंसक हो कर स्कूल कालेजो में रिवाल्वर की नोंक पर अपने होने का अहसास अपने ही साथियों को कराकर कुछ अलग दिखने लगते है। जिनकी राह हर वस्तु को जल्दी से जल्दी पा लेना होता है। मां-बाप के लिए भी बच्चे की हर वह राह हसीन लगती है जिससे मुनाफा हो सकता है ।
लेकिन कुमाऊँ रेजीमेंट में शामिल होकर देश के लिये मर मिटने का जज्बा पहाड़ के बच्चे अपने परिवार के भीतर ही पा लेते हैं । हवालदार से लेफ्टि. कर्नल की जो भी पोस्ट हो, उसका स्वाद बालपन में ही अपने पिता या चाचा के जरिए यह जीते हैं। यही वजह है कि मुंबई में आतंकवादी हमलों के बाद जब पाकिस्तान पर उंगली उठी है और युद्दोन्माद का वातावरण समूचे देश में गहरा रहा है तो आतंकवाद के किस्से पहाड़ के परिवारो में युद्द की स्थितियों में जीने की तैयारी करने लगे हैं । कुमाऊँ रेजीमेंट में सभी की छुट्टी रद्द की जा चुकी है । हर कोई ड्यूटी पर है । कोई डिप्लायमेंट अभी नहीं हुआ है। लेकिन हल्की सी हवा रेजीमेंट के भीतर और जिन परिवारो के बच्चे सेना में शामिल है उनकी चारदीवारी में चल पड़ी है ।
यह हवा एक तरह का जोश भी पैदा कर रही है और उन भावनाओं का एहसास भी करा रही है, जो बाजार के आतंक के सामने घुटने टेक चुके है। यह भावनाये सरोकार की है । महानगर के जीवन के लिये यह सरोकार हाथ में मोमबत्ती लेकर राजनेताओ को खारिज कर या न्याय की मांग वाली नही है । बल्कि इस सरोकार में देश की मिट्टी को बचाने का जुनून है। राष्ट्रवाद की भावनाओ से ओत-प्रोत होकर सबकुछ गंवाते हुये भी जीने और मरने का सुकून है। बच्चों के सवाल अपने सैनिक बाप से यह नहीं होते की वह लौटेंगे या नहीं और सैनिक बाप का प्यार बेटे को यह एहसास नही कराता कि वह जल्द छुट्टी लेकर लौट आयेगा । बेटा बाप की बंदूक उठाने में और वर्दी सहेजने में प्यार पाता है और बाप बेटे को बंदूक उठवाकर जल्दी बड़ा होकर सेना में शामिल होने का प्यार देता है।
कुमाऊँ रेजीमेंट में यह किस्से आम हैं कि युद्द को देखे बिना या उसमें शामिल हुये बगैर एक पीढी रिटायरमेंट के कगार पर पहुंच गयी। और रिटायरमेंट से पहले बंदूक साफ करने का मौका मिले तो बात ही क्या है। कुमाऊं के इलाके में करगिल से ज्यादा 1984 में पंजाब में भिंडरावाला को लेकर आये उस मौके की याद ज्यादा ताजा है, जिसमें सबसे ज्यादा कुमाऊँ रेजीमेट के जवान शहीद हुये थे । जवानों के परिवारों के साथ बैठिये तो इंदिरा गांधी की हत्या से पहले के पंजाब के हर दश्य आंखो के सामने रेंगते है । कैसे सेना को भेजने के फैसले को कुमाऊँ रेजीमेंट के जवानों के सामने रखा गया । कैसे स्वर्ण मंदिर के भीतर रेजीमेंट के जवान हाथ उठाकर अंदर घुसे और मरते चले गये । कैसे मोर्चा संभाल कर पंजाब के आतंकवाद को हाशिये पर ढकेला। और किस तरह पंजाब आपरेशन के बाद वापस लौटते वक्त अपने साथियो के कंधो पर सिर रखकर अपने ही कई साथियों को गंवाने का दर्द उभरा। स्वर्ण मंदिर आपरेशन राजनीति ने चाहे कई सवाल खड़े किये और गाहे-बगाहे समाज के बीच लकीर भी समुदायों के जरीये खींची गयी लेकिन कुमाऊँ के इलाके में यह बहस कभी नही चली कि उस दौर में इंदिरा गांधी का फैसला कितना सही कितना गलत था । आपरेशन सफल होने की याद भी पहाड़ के इन परिवारो में खूब है। उसके बाद शहीद हुये परिवार के बच्चों ने कैसे बंदूक थामी । और देश के लिये मर मिटने का जज्बा कैसे पीढ़ी दर पीढ़ी इनके भीतर समाते चला जाता है, यह समझ परिवारों के बीच रह कर ही महसूस की जी सकती है ।
मुंबई हमलो के बाद टीवी न्यूज चैनलों की बहस-मुहासिब में जब पुलिस या एनएसजी या सेना के जवानों के लेकर यह बहस चल पड़ी कि सरकार उनकी सुविधाओं का ख्याल नहीं रखती। उन्हें और ज्यादा तनख्वाह मिलनी चाहिये। उम्दा हथियार मिलने चाहिये । तो पहाड के सैनिक परिवारों में यह सवाल भी हुआ कि ज्यादा देने या मिलने से देश का जज्बा पैदा नहीं होता। दिल्ली या मुंबई में लोगों को अपनी रईसी काटकर सेना या जवानों को आगे बढाने की सोच चाहिये । पहाड़ में तो शिद्दत के साथ यह सवाल कहीं ज्यादा तेजी से उभर रहा है कि जिस जिन्दगी को जीने की चाहत में देश को बढाया जा रहा है, उसकी कितनी जरुरत है। पूंजी बनाने के नाम पर देश की एकता को छिन्न-भिन्न किया जा रहा है..तो सेंध समाज के भीतर तो लगेगी ही।
कुमाऊँ रेजीमेंट का हेडक्वाटर रानीखेत में है। कुमाऊँ के किसी भी इलाके में खड होकर चीन की सीमा की दिशा देखी समझी जा सकती है। क्योंकि हिमालय की समूची रेंज रानीखेत से दिखायी देती है जिसके पार चीन है। और चीन को लेकर कुमाऊँ के इलाके में 1961 के युद्द की बहुत सारी तस्वीरें हैं। पहाडं का जीवन यूं भी खासा कष्ट भरा होता है और चीन ने जब कई मोर्च खोले थे तो उस वक्त अब के उत्तराखंड की सीमायें खासी सक्रिय थीं । लेकिन तब हथियार के नाम पर दुनाली और डंडे हुआ करते थे । तोप ऐसी थी, जिसे छोड़ते छोड़ते दुश्मन तोप तक पहुंच जाये । समूची यादों को समेटे कुमाऊँ इस बार आतंकवाद की आहट से अछूता होकर युद्द की यादों में खोया है। ये यादें देश की रक्षा का भरोसा तो दिलाती हैं, लेकिन समूचे कुमाऊँ की माली हालत देखकर कई सवाल भी खड़े होते हैं। क्या सरकार की भूमिका युद्द की स्थिति को खड़ा करना है । क्या बाजार आतंकवाद से कटे प्रदेशो में ही देश या राष्ट्रवाद का जज्बा बचा है। क्या महानगरीय जीवन या महानगर हो कर जीने की चाहत का पाठ पढाने वाले अर्थव्यवस्था भारत को बांट रही है। क्या आने वाली पीढियों को आतंकवाद या युद्द के जरिये ही राष्ट्रवाद का पाठ पढना होगा। और चुनावी लोकतंत्र की जरुरत जल्द ही कुमाऊँ जैसे प्रदेशो को लील लेगी।क्योंकि जहां युद्द की तैयारी हो रही है, वहीं आतंकवाद के दस्तक देने की हिम्मत नहीं है।
Friday, December 26, 2008
ग़ज़नी का जलवा-“आमिर सिर के बाल की जगह छाती गोदते तो भी गुदवा लेते” !
सिल्वर स्क्रीन पर क्लोज-अप में आठ पैक। तेज़ संगीत की धुन पर हिंसा का विद्रूप चेहरा। प्यार और चाहत के बीच की धूप-छांव। और इन सब के बीच किसी अपने का आंकलन। यह ‘गजनी’ के पहले दिन पहला शो है। पहला शो देखना किसी भी फिल्म के नायक के फैन्स को पकड़ना होता है। उसमें भी जब आप पर्दे के सबसे नजदीक बैठे हों तो दर्शको के कमेंट आपको उस नब्ज को पकड़ा देते हैं जो पीवीआर और आधुनिक सिनेमाघरो के बनने के बाद से खोता जा रहा है।
24 घंटे पहले हम आमिर खान से सवाल कर रहे थे। नयी नयी कहानियां चुन कर फिल्म बनाने वाले आमिर ने दक्षिण के गजनी को हिन्दी में बनाने का सपना क्यों देखा? और तो और गजनी की नायिका को भी चुराकर अपने साथ खड़ा कर दिया। यानी क्रिएटिव होने का जो सच आमिर के साथ जुड़ा है, वह टूटा तो नहीं। आमिर ने जवाब दिया था-नहीं।
‘गजनी’ देखते वक्त चुराई हुई चीज को भी अपने हुनर से नये सलीके से गढ़ना खूबसूरत सपना देखने की तरह है। वजह आसिन यानी नायिका दक्षिण की है, जो बॉलीवुड को नहीं जानती और शायद आमिर की क्रिएटिविटी को भी । ‘गजनी’ में कमोवेश यह सब हर बार देखने वाले के दिल से टकराता है। इसलिये जब जब आमिर के कद से अभिभूत नायिका के सामने आमिर आते हैं तो आमिर को आमिर नही मानती यानी उस किरदार में नहीं देखती, जिसमें वह फिल्म में मौजूद है । आमिर का फैन कह उठता है....अबे दक्षिण की। कैसे जानेगी। तो दूसरा फैन कहता है गुरु...आमिर सोच कर लाया है आसिन को। न जाने..ना पहचाने...जो है वह असल लगे। यकीनन फिल्म में नायक-नायिका का प्रेम उस ताजे झोके की तरह है, जो दिमाग को भेदता है और सेक्स या बाजार को बिलकुल गायब कर देता है। उन अनछुये पहलुओं के सामने दामन फैलाता है, जो बाजार के प्रेम के लिये किस्सागोई है।
सेक्स के बाजार के लिये पीढियों पुरानी समझ है। लेकिन इसके सामानांतर नायक की त्रासदी आंखे भिगोती है तो नायिका की सरलता उसे पोछने का काम करती है। आसिन ने इतनी सहजता से एक्टिंग की है,जितनी शायद आमिर भी नहीं कर पाए। आसिन ने अपने नाम के अर्थ को आगे ले जाते हुए अभिनय को एक आयाम देने की भरपूर कोशिश की,और इस नायिका की सहज एक्टिंग बॉलीवुड की तमाम अभिनेत्रियों को पछाड़ देती है।
जब जब दर्द उबरता है तो गजनी की खलनायिकी पर नायक की टीस छा जाती है। फैन्स के कंमेट सहजता से आते हैं......यहां सलमान खान को पछाड़ा तो यहां शाहरुख खान को और इस जगह तो सिर्फ आमिर ही चल सकते हैं। कमाल का कैनवास गजनी में आमिर ने खींचा है। फिल्म ना तो आपको रोने देगी....ना डरायेगी...ना बहुत देर कर हंसने देगी...ना ही समूचा सच आपने सामने अंत तक आने देगी । यानी फिल्म एक ऐसी लकीर खिंचती चलेगी, जिसकी डोर में हर कोई लिपटता जाए लेकिन उफ ना करे । किसी अंतहीन कहानी की तरह फिल्म गजनी देखने वाले के भीतर भी इस टीस को भरने से नहीं कतराती कि....अगर फिल्म बनाना या कहना उसका काम होता तो फिल्म वह फिल्म को इस तरह मोड़ता...या इस तरह मोड़ी जा सकती है ।
यानी फिल्म सरोकार की डोर भी पैदा करती है। दर्शको को ऐसा लगे कि वह फिल्म का हिस्सा हो चला है तो फिल्म सफल मानी जा सकती है। कभी राजकपूर...दिलीप कुमार--अमिताभ की फिल्मों का जादू इस सच को उकेरता था। जो बाजार की चकाचौंध में गायब होता गया। आमिर इसे पीरो रहे हैं । इसीलिये अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिये उस धागे को पकड़े रहते हैं, जिसमें उनके फैन्स उनका अक्स देखते हैं। फिल्म फना का आशिक और तारे जमीन पर का बालपन आमिर को देखने वाले की आंखो में हमेशा रेंगता है। इसलिये गजनी में जहां कड़ी टूटती है, वहा आमिर इस अक्स को पकड़ने से भी नहीं चूकते और दर्शको को अपनी छाया में समेट लेते है । माना जाता है कि हीरे की चमक सोने में पिरोने पर ही उभरती है। आसिन को फिल्म में आमिर ने अपने साथ हीरे की तरह ही पिरोया है इसलिये आसिन स्क्रीन पर रहे या ना रहे उसकी चमक हर देखने वाले के दिमाग में बरकरार रहती है । गजनी आमिर का तोहफा है क्योकि उसने हर मोती को जौहरी की तरह पिरोया भी है और खुद जौहरी होने के साथ साथ अपने को मोती की तरह चमक भी दी है। हां, फैन्स को कुछ खलता है तो बिखरा हुआ गीत....जो उनकी जुबान पर...किस्मत से मिले हो तुम....से आगे नही रेंगता । तीन घंटे की गजनी खत्म होते ही पीछे से आवाज आयी.... सर के बाल की जगह अगर आमिर खान छाती गोदते तो हम तो गुदवा लेते....यह नशा होता है पहले दिन पहले शो का।
24 घंटे पहले हम आमिर खान से सवाल कर रहे थे। नयी नयी कहानियां चुन कर फिल्म बनाने वाले आमिर ने दक्षिण के गजनी को हिन्दी में बनाने का सपना क्यों देखा? और तो और गजनी की नायिका को भी चुराकर अपने साथ खड़ा कर दिया। यानी क्रिएटिव होने का जो सच आमिर के साथ जुड़ा है, वह टूटा तो नहीं। आमिर ने जवाब दिया था-नहीं।
‘गजनी’ देखते वक्त चुराई हुई चीज को भी अपने हुनर से नये सलीके से गढ़ना खूबसूरत सपना देखने की तरह है। वजह आसिन यानी नायिका दक्षिण की है, जो बॉलीवुड को नहीं जानती और शायद आमिर की क्रिएटिविटी को भी । ‘गजनी’ में कमोवेश यह सब हर बार देखने वाले के दिल से टकराता है। इसलिये जब जब आमिर के कद से अभिभूत नायिका के सामने आमिर आते हैं तो आमिर को आमिर नही मानती यानी उस किरदार में नहीं देखती, जिसमें वह फिल्म में मौजूद है । आमिर का फैन कह उठता है....अबे दक्षिण की। कैसे जानेगी। तो दूसरा फैन कहता है गुरु...आमिर सोच कर लाया है आसिन को। न जाने..ना पहचाने...जो है वह असल लगे। यकीनन फिल्म में नायक-नायिका का प्रेम उस ताजे झोके की तरह है, जो दिमाग को भेदता है और सेक्स या बाजार को बिलकुल गायब कर देता है। उन अनछुये पहलुओं के सामने दामन फैलाता है, जो बाजार के प्रेम के लिये किस्सागोई है।
सेक्स के बाजार के लिये पीढियों पुरानी समझ है। लेकिन इसके सामानांतर नायक की त्रासदी आंखे भिगोती है तो नायिका की सरलता उसे पोछने का काम करती है। आसिन ने इतनी सहजता से एक्टिंग की है,जितनी शायद आमिर भी नहीं कर पाए। आसिन ने अपने नाम के अर्थ को आगे ले जाते हुए अभिनय को एक आयाम देने की भरपूर कोशिश की,और इस नायिका की सहज एक्टिंग बॉलीवुड की तमाम अभिनेत्रियों को पछाड़ देती है।
जब जब दर्द उबरता है तो गजनी की खलनायिकी पर नायक की टीस छा जाती है। फैन्स के कंमेट सहजता से आते हैं......यहां सलमान खान को पछाड़ा तो यहां शाहरुख खान को और इस जगह तो सिर्फ आमिर ही चल सकते हैं। कमाल का कैनवास गजनी में आमिर ने खींचा है। फिल्म ना तो आपको रोने देगी....ना डरायेगी...ना बहुत देर कर हंसने देगी...ना ही समूचा सच आपने सामने अंत तक आने देगी । यानी फिल्म एक ऐसी लकीर खिंचती चलेगी, जिसकी डोर में हर कोई लिपटता जाए लेकिन उफ ना करे । किसी अंतहीन कहानी की तरह फिल्म गजनी देखने वाले के भीतर भी इस टीस को भरने से नहीं कतराती कि....अगर फिल्म बनाना या कहना उसका काम होता तो फिल्म वह फिल्म को इस तरह मोड़ता...या इस तरह मोड़ी जा सकती है ।
यानी फिल्म सरोकार की डोर भी पैदा करती है। दर्शको को ऐसा लगे कि वह फिल्म का हिस्सा हो चला है तो फिल्म सफल मानी जा सकती है। कभी राजकपूर...दिलीप कुमार--अमिताभ की फिल्मों का जादू इस सच को उकेरता था। जो बाजार की चकाचौंध में गायब होता गया। आमिर इसे पीरो रहे हैं । इसीलिये अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिये उस धागे को पकड़े रहते हैं, जिसमें उनके फैन्स उनका अक्स देखते हैं। फिल्म फना का आशिक और तारे जमीन पर का बालपन आमिर को देखने वाले की आंखो में हमेशा रेंगता है। इसलिये गजनी में जहां कड़ी टूटती है, वहा आमिर इस अक्स को पकड़ने से भी नहीं चूकते और दर्शको को अपनी छाया में समेट लेते है । माना जाता है कि हीरे की चमक सोने में पिरोने पर ही उभरती है। आसिन को फिल्म में आमिर ने अपने साथ हीरे की तरह ही पिरोया है इसलिये आसिन स्क्रीन पर रहे या ना रहे उसकी चमक हर देखने वाले के दिमाग में बरकरार रहती है । गजनी आमिर का तोहफा है क्योकि उसने हर मोती को जौहरी की तरह पिरोया भी है और खुद जौहरी होने के साथ साथ अपने को मोती की तरह चमक भी दी है। हां, फैन्स को कुछ खलता है तो बिखरा हुआ गीत....जो उनकी जुबान पर...किस्मत से मिले हो तुम....से आगे नही रेंगता । तीन घंटे की गजनी खत्म होते ही पीछे से आवाज आयी.... सर के बाल की जगह अगर आमिर खान छाती गोदते तो हम तो गुदवा लेते....यह नशा होता है पहले दिन पहले शो का।
Tuesday, December 23, 2008
देश मिस्टर परफेक्शनिस्ट हो तो ह्यूमन चेन की जरुरत क्या : आमिर !
“आतंकवाद का मतलब सिर्फ बारुद नही है। ये समाज को छिन्न-भिन्न करके भी लाया जा सकता है। खासकर जब सुरक्षा के लिये संबंध टूटने लगें या लोग संबंध तोडंने लगें। सुरक्षा का मतलब पैसा हो जाये..बिजनेस बन जाये। यह सब हमारे चारों तरफ जमकर हो रहा है। मेरी फिल्म देखने वाले मुझे मि.परफेक्शनिस्ट कहते हैं। लेकिन मैं क्या करुं...सिर्फ अदाकारी कर खामोश हो जाऊं। इंतजार करुं की कोई फिल्मकार मुझे किसी फिल्म में किसी चरित्र को जीने का मौका दें। और न दे तो क्या करुंगा...खामोश बैठा इंतजार करता रहूं। मै फिल्म बनाता हूं। उसे बेचने के गुर अपने तरीके से विकसित करता हूं, जिससे अगली फिल्म बना सकूं। आतंकवाद के खिलाफ खुद को कैसे तैयार करना है, इसे हमें आपको भी समझना होगा। सिर्फ सरकार या नेताओं के आसरे सबकुछ कैसे छोड़ा जा सकता है। आतंकवाद समाज को बांट रहा है तो एकजूट समाज को होना होगा...महज राजनीतिक एकजुटता दिखायी देने लगी है तो उससे काम नहीं चलेगा ।" फिल्म गजनी के प्रमोशन के लिये दिल्ली पहुंचे आमिर खान का नजरिया किसी भी फिल्मकार या कलाकार से कैसे बिलकुल अलग है, इसका एहसास इस बात से हुआ कि अपनी ही रिलीज होने वाली फिल्म गजनी से हटकर बात करने पर उन्हें कोई एतराज नहीं था।
ताज-ओबेराय पर हमले के बाद रईसों के चोचले जाग उठे..जो फुटपाथ-बाजार-रेलवे स्टेशन पर आंतकवादी धमको के बाद नही जागते। इस सवाल के पूरा होने से पहले ही आमिर ने बिना शिकन कहा..जी, ऐसा सोचा जा सकता है। मै तो कहता हूं ऐसा सोचा जा रहा है, तभी आप ऐसा सवाल कर रहे हैं। लेकिन यह तो हम सभी को मिलकर सोचना होगा आखिर किसी न किसी की जान तो दोनो जगहों पर जा रही है । संयोग से दोनो को अलग-अलग कर दिया गया है। यह नजरिया कहां से आया। इसे तो कोई आंतकवादी ले कर नही आया। मैं खुद जब घर के ड्राइंग रुम में टेलीविजन पर धधकते ताज होटल की तस्वीरें देख रहा था, उस वक्त मेरे बेटे ने मुझसे कहा, फिल्म सरफरोश आपको फिर से दिखलाने की व्यवस्था करनी चाहिये और अब आप फिल्म में आंतकवादियो से मार नहीं खाना....। अब आप सोचिये कितना असर मुबंई हमलो का बच्चों पर हुआ है। लेकिन उनके अंदर का गुस्सा निकल किस रुप में रहा है।
यह एक रोमांटिग सोच है कि लोग फिल्मों के जरीये समाधान देख रहे है। मैं अभिताभ बच्चन की अदाकारी का मुरीद हूं । लेकिन आप ही मुझे बताये कि जिस आक्रोष की छवि को आपने अमिताभ में देखा...उसमें अपने आप को उनका हर फैन देखता था। लेकिन उससे समाज या व्यवस्था की जटिलता कम नही हो गयी। वह भी बिजनेस था लेकिन तब किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि ऐसे किरदार का सिनेमायी स्क्रीन पर उतारना बिजनेस है। अब वक्त बदल गया है । अब सिर्फ चरित्रों के आसरे बिजनेस नही किया जा सकता। मैंने कई तरह की फिल्में की। फिल्म "दिल चाहता है " की थीम को देखें । उस चरित्र को समाज के भीतर हकीकत में देखा जा सकता है। लेकिन अब के दौर में यह भी समझना होगा कि कोई चरित्र इतना आइडियल नही है कि वह आपको बिजनेस दे दे । उस फिल्म के प्रमोशन के लिये हमने कई अलग अलग प्रयोग किये । वक्त सिर्फ बीतते हुये नही बदला है बल्कि जीने के अंदाज में भी वक्त बदल गया है। जिसे हमारी सरकार या कहे देस चलाने वाले समझ नही पा रहे हैं । और अगर समझ रहे है तो उस दिशा में कोई पॉजेटिव कदम नही उठा रहे है ।
तो क्या यह माना जाये जो धंधा करना नहीं जानता है वह आज के दौर में फेल है और आमिर खान उसी लिये मि. परपेक्शनिस्ट है, क्योकि वह धंधा समझते हैं। आप कह सकते है , बिलकुल । लेकिन धंधे का मतलब सिर्फ पैसा कमाना नही है । अब आप इसे ऑफ-द-रिकार्ड मानें या मान ही लें.....पैसे पर सरकार से ज्यादा लोगों का भरोसा हो गया है। यह किसी बिजनेसमैन ने तो देश को नही सिखाया। मैं मुंबई में देखता हूं, या कहे देश के जिस भी हिस्से में फिल्म निर्माण को लेकर जाना होता है, या कहूं मेरा ताल्लुक जिन लोगों से पड़ता है। मै देखता हूं कि पैसा बनाने-कमाने की होड़ सबसे ज्यादा है । और जिसे नुकसान हो रहा होता है वह अपने आप को सबसे ज्यादा असुरक्षित मानता है। बॉलीवुड ही नही किसी भी क्षेत्र में मैंने देखा है कि जिसके पास मनी है वह खुद को सबसे सुरक्षित समझता है । पहले तो ऐसा नहीं था । पहले देश और सरकार भी सुरक्षा का एहसास कराते थे । अब आप ही बताइये यह स्थिति पैदा किसने की । हमने आपने तो नहीं की। लेकिन इन स्थितियों में भी मै फिल्मों को लेकर नये प्रयोग करता हूं । फिल्म "लगान" तो ग्रामीण परिवेश की फिल्म थी । जिसमें भाषा भी हिन्दी नही थी । अवधी सरीखी भाषा थी । उस फिल्म पर महिनों काम करना और बनान रिस्क था या कि शुरुआती दौर में फिल्मकार की या मेरे जैसे कलाकार को देखें तो मूर्खता लगेगी । लेकिन फिल्म बनी और कमाल दिखाया उसने । मै खुद धोती-कमीज पहन कर जगह -जगह गया क्रिकेट खेली । मेरी पूरी टीम ने देश के अलग अलग हिस्सों में बकायदा सिनेमायी परिवेश को सड़क पर उतारा।
जाहिर है यह नया सवाल यहीं से खड़ा होता है कि आमिर खान गजनी के प्रमोशन में दिल्ली आये तो बंगाली मार्केट पहुंच कर अपने फैन के बाल काटने लगे...जबकि पहले दिलीप कुमार हो , राजकपूर हो या देव आन्नद या फिर अभिताभ बच्चन भी, वह आम लोगो के बीच कभी नही जाते थे । आमिर तो मेघा पाटकर से मिलने उनके आंदोलन को समर्थन देने जंतर-मंतर पर भी चले जाते है। सही कहा आपने। लेकिन मैं न्यूज पेपर पढ़ता हूं तो मुझे लगता है कि नेता भी आम लोगों से नहीं मिलते । अब आप क्यों कहोगे । अगर बिजनेस ने लोगों से मिलने की मजबूरी सिखला दी तब तो यह बिजनेस नेताओं को सीखना चाहिये । इससे कम से कम आम लोग क्या सोचते है यह तो पता चल जायेगा। मुझे गुरुदत्त की "प्यासा" शानदार फिल्म लगती है । लेकिन प्यासा का निर्माण क्या बिना आम लोगो के सच को समझे बनाया जा सकता है। हकीकत में इसी तरह की फिल्म करना चाहता हूं । महबूब खान की मदर इंडिया हो या के. आसिफ की मुगले आजम और विमल राय हो या गुरुदत्त साहेब सभी ने अपने अपने तरीके से प्रयोग किये । मै भी कुछ नये की तलाश में हमेशा रहता हूं । मै इस कड़ी को आगे बढ़ाना चाहता हूं।
लेकिन नर्मदा बांध का विरोध करने वालो के साथ खड़े होने पर आपकी फिल्म"फना "को गुजरात के थियेटर में लगने नहीं दिया गया,इससे बिजनेस नही डगमगाता । मै एक बात कहूं...अगर किसी फिल्म में भी इस दृश्य को दिखलाना होता तो भी कोई स्टोरी राइटर या स्क्रिप्ट राइटर भी इस तरीके को ना अपनाता। क्योंकि इससे मेरी ज्वेनअननेस ही सामने आती है । फिर आप जिस दौर में जी रहे है उसमें तो हर चीज नफे-नुकसान में देखी-समझी जाती है। आप पता कीजिये उससे राजनीतिक घाटा गुजरात में नेताओं को ही हुआ होगा। क्योंकि लोग बेवकूफ नही रहे। तमाम सूचना माध्यम हर तरह की जानकारी लोगों को दे देते है। और मेरी क्रेडिबेलिटी यही है कि लोग मेरी फिल्मो के साथ जुड़ते हैं...जब मै उनके साथ खड़ा होता हूं। मेरी पूरी यूनिट "तारे जमी पर " फिल्म को लेकर शंका में थी । उन्हे लगता था कि यह फिल्म तो चल ही नही सकती। लेकिन मुझे भरोसा था । मैं बच्चो की स्थिति स्कूल में, टूटते संयुक्त परिवार में, जहा सिर्फ नौकरी पेशा वाले मां-बाप होते है, को समझता हूं । क्योंकि लोगो से लगातार मिलता रहता हूं, इसलिये इस फिल्म की कहानी सुनते ही मैंने तुरंत हामी भर दी। और मै आज यकीन से कहता हूं कि मेरे बीस साल के कैरियर की चौंतीस फिल्मो में यह श्रेष्ट फिल्म है।
जब इतना भरोसा आपको अपने उपर है तो शाहरुख से दिल्लगी करके आप क्या जतलाते है। सही कहा आपने यह दिल्लगी ही है। हम दोनों हमउम्र है । वह पर्दे पर रोमांटिक है। मैं जिन्दगी में । लेकिन यकीन कीजिये यह दिल्लगी बिजनेस नहीं है ।लेकिन आमिर जब तमाम संस्थान कमजोर हो रहे हो..तब बॉलीवुड कैसे बचेगा । आप खुद आंतकवाद के खिलाफ सड़क पर नहीं आये बल्कि ब्लॉग के जरीये अपना विरोध जतला दिया। ना..ना यह कोइ जरुरी नहीं है कि हर बात के लिये सड़क पर आया जाये । मैंने आतंकवाद के खिलाफ अपनी बात कही । हां ...यह सही है कि जब कुछ ना बचेगा तो बॉलीवुड कहा बचेगा। लेकिन आतंकवाद जैसे संकटों से बॉलीवुड या फिल्में निजात नही दिला सकती । इसके लिये देश को कड़े निर्णय लेने होंगे। आतंकवादियो के सामने झुकना नही होगा। आतंकवादियो को यह मैसेज देना जरुरी है कि वो विमान अपहरण करें या पांच सितारा होटल में गोलाबारी करके लोगों को होस्टेज बना लें, लेकिन उनकी मांगो को नही माना जायेगा। किसी भी तरह समझौते का रास्ता धीरे धीरे सौदेबाजी की तरफ ले जाता है। इससे बचना होगा । इसके लिये सबकुछ सरकार पर नही छोड़ा जा सकता । सभी को एकजुट होना ही होगा । नहीं तो बंट-बंट कर हम आतंकवाद को मजबूत कर देंगे। आखिर में यह कह दूं कि हर कोई अगर मि. या मिसेज परफेक्शनिस्ट हो जाये तो न्याय के लिये इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने या गेट-वे-आफ-इंडिया पर ह्यूमन चेन बनाने की जरुरत नही पड़ेगी।
ताज-ओबेराय पर हमले के बाद रईसों के चोचले जाग उठे..जो फुटपाथ-बाजार-रेलवे स्टेशन पर आंतकवादी धमको के बाद नही जागते। इस सवाल के पूरा होने से पहले ही आमिर ने बिना शिकन कहा..जी, ऐसा सोचा जा सकता है। मै तो कहता हूं ऐसा सोचा जा रहा है, तभी आप ऐसा सवाल कर रहे हैं। लेकिन यह तो हम सभी को मिलकर सोचना होगा आखिर किसी न किसी की जान तो दोनो जगहों पर जा रही है । संयोग से दोनो को अलग-अलग कर दिया गया है। यह नजरिया कहां से आया। इसे तो कोई आंतकवादी ले कर नही आया। मैं खुद जब घर के ड्राइंग रुम में टेलीविजन पर धधकते ताज होटल की तस्वीरें देख रहा था, उस वक्त मेरे बेटे ने मुझसे कहा, फिल्म सरफरोश आपको फिर से दिखलाने की व्यवस्था करनी चाहिये और अब आप फिल्म में आंतकवादियो से मार नहीं खाना....। अब आप सोचिये कितना असर मुबंई हमलो का बच्चों पर हुआ है। लेकिन उनके अंदर का गुस्सा निकल किस रुप में रहा है।
यह एक रोमांटिग सोच है कि लोग फिल्मों के जरीये समाधान देख रहे है। मैं अभिताभ बच्चन की अदाकारी का मुरीद हूं । लेकिन आप ही मुझे बताये कि जिस आक्रोष की छवि को आपने अमिताभ में देखा...उसमें अपने आप को उनका हर फैन देखता था। लेकिन उससे समाज या व्यवस्था की जटिलता कम नही हो गयी। वह भी बिजनेस था लेकिन तब किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि ऐसे किरदार का सिनेमायी स्क्रीन पर उतारना बिजनेस है। अब वक्त बदल गया है । अब सिर्फ चरित्रों के आसरे बिजनेस नही किया जा सकता। मैंने कई तरह की फिल्में की। फिल्म "दिल चाहता है " की थीम को देखें । उस चरित्र को समाज के भीतर हकीकत में देखा जा सकता है। लेकिन अब के दौर में यह भी समझना होगा कि कोई चरित्र इतना आइडियल नही है कि वह आपको बिजनेस दे दे । उस फिल्म के प्रमोशन के लिये हमने कई अलग अलग प्रयोग किये । वक्त सिर्फ बीतते हुये नही बदला है बल्कि जीने के अंदाज में भी वक्त बदल गया है। जिसे हमारी सरकार या कहे देस चलाने वाले समझ नही पा रहे हैं । और अगर समझ रहे है तो उस दिशा में कोई पॉजेटिव कदम नही उठा रहे है ।
तो क्या यह माना जाये जो धंधा करना नहीं जानता है वह आज के दौर में फेल है और आमिर खान उसी लिये मि. परपेक्शनिस्ट है, क्योकि वह धंधा समझते हैं। आप कह सकते है , बिलकुल । लेकिन धंधे का मतलब सिर्फ पैसा कमाना नही है । अब आप इसे ऑफ-द-रिकार्ड मानें या मान ही लें.....पैसे पर सरकार से ज्यादा लोगों का भरोसा हो गया है। यह किसी बिजनेसमैन ने तो देश को नही सिखाया। मैं मुंबई में देखता हूं, या कहे देश के जिस भी हिस्से में फिल्म निर्माण को लेकर जाना होता है, या कहूं मेरा ताल्लुक जिन लोगों से पड़ता है। मै देखता हूं कि पैसा बनाने-कमाने की होड़ सबसे ज्यादा है । और जिसे नुकसान हो रहा होता है वह अपने आप को सबसे ज्यादा असुरक्षित मानता है। बॉलीवुड ही नही किसी भी क्षेत्र में मैंने देखा है कि जिसके पास मनी है वह खुद को सबसे सुरक्षित समझता है । पहले तो ऐसा नहीं था । पहले देश और सरकार भी सुरक्षा का एहसास कराते थे । अब आप ही बताइये यह स्थिति पैदा किसने की । हमने आपने तो नहीं की। लेकिन इन स्थितियों में भी मै फिल्मों को लेकर नये प्रयोग करता हूं । फिल्म "लगान" तो ग्रामीण परिवेश की फिल्म थी । जिसमें भाषा भी हिन्दी नही थी । अवधी सरीखी भाषा थी । उस फिल्म पर महिनों काम करना और बनान रिस्क था या कि शुरुआती दौर में फिल्मकार की या मेरे जैसे कलाकार को देखें तो मूर्खता लगेगी । लेकिन फिल्म बनी और कमाल दिखाया उसने । मै खुद धोती-कमीज पहन कर जगह -जगह गया क्रिकेट खेली । मेरी पूरी टीम ने देश के अलग अलग हिस्सों में बकायदा सिनेमायी परिवेश को सड़क पर उतारा।
जाहिर है यह नया सवाल यहीं से खड़ा होता है कि आमिर खान गजनी के प्रमोशन में दिल्ली आये तो बंगाली मार्केट पहुंच कर अपने फैन के बाल काटने लगे...जबकि पहले दिलीप कुमार हो , राजकपूर हो या देव आन्नद या फिर अभिताभ बच्चन भी, वह आम लोगो के बीच कभी नही जाते थे । आमिर तो मेघा पाटकर से मिलने उनके आंदोलन को समर्थन देने जंतर-मंतर पर भी चले जाते है। सही कहा आपने। लेकिन मैं न्यूज पेपर पढ़ता हूं तो मुझे लगता है कि नेता भी आम लोगों से नहीं मिलते । अब आप क्यों कहोगे । अगर बिजनेस ने लोगों से मिलने की मजबूरी सिखला दी तब तो यह बिजनेस नेताओं को सीखना चाहिये । इससे कम से कम आम लोग क्या सोचते है यह तो पता चल जायेगा। मुझे गुरुदत्त की "प्यासा" शानदार फिल्म लगती है । लेकिन प्यासा का निर्माण क्या बिना आम लोगो के सच को समझे बनाया जा सकता है। हकीकत में इसी तरह की फिल्म करना चाहता हूं । महबूब खान की मदर इंडिया हो या के. आसिफ की मुगले आजम और विमल राय हो या गुरुदत्त साहेब सभी ने अपने अपने तरीके से प्रयोग किये । मै भी कुछ नये की तलाश में हमेशा रहता हूं । मै इस कड़ी को आगे बढ़ाना चाहता हूं।
लेकिन नर्मदा बांध का विरोध करने वालो के साथ खड़े होने पर आपकी फिल्म"फना "को गुजरात के थियेटर में लगने नहीं दिया गया,इससे बिजनेस नही डगमगाता । मै एक बात कहूं...अगर किसी फिल्म में भी इस दृश्य को दिखलाना होता तो भी कोई स्टोरी राइटर या स्क्रिप्ट राइटर भी इस तरीके को ना अपनाता। क्योंकि इससे मेरी ज्वेनअननेस ही सामने आती है । फिर आप जिस दौर में जी रहे है उसमें तो हर चीज नफे-नुकसान में देखी-समझी जाती है। आप पता कीजिये उससे राजनीतिक घाटा गुजरात में नेताओं को ही हुआ होगा। क्योंकि लोग बेवकूफ नही रहे। तमाम सूचना माध्यम हर तरह की जानकारी लोगों को दे देते है। और मेरी क्रेडिबेलिटी यही है कि लोग मेरी फिल्मो के साथ जुड़ते हैं...जब मै उनके साथ खड़ा होता हूं। मेरी पूरी यूनिट "तारे जमी पर " फिल्म को लेकर शंका में थी । उन्हे लगता था कि यह फिल्म तो चल ही नही सकती। लेकिन मुझे भरोसा था । मैं बच्चो की स्थिति स्कूल में, टूटते संयुक्त परिवार में, जहा सिर्फ नौकरी पेशा वाले मां-बाप होते है, को समझता हूं । क्योंकि लोगो से लगातार मिलता रहता हूं, इसलिये इस फिल्म की कहानी सुनते ही मैंने तुरंत हामी भर दी। और मै आज यकीन से कहता हूं कि मेरे बीस साल के कैरियर की चौंतीस फिल्मो में यह श्रेष्ट फिल्म है।
जब इतना भरोसा आपको अपने उपर है तो शाहरुख से दिल्लगी करके आप क्या जतलाते है। सही कहा आपने यह दिल्लगी ही है। हम दोनों हमउम्र है । वह पर्दे पर रोमांटिक है। मैं जिन्दगी में । लेकिन यकीन कीजिये यह दिल्लगी बिजनेस नहीं है ।लेकिन आमिर जब तमाम संस्थान कमजोर हो रहे हो..तब बॉलीवुड कैसे बचेगा । आप खुद आंतकवाद के खिलाफ सड़क पर नहीं आये बल्कि ब्लॉग के जरीये अपना विरोध जतला दिया। ना..ना यह कोइ जरुरी नहीं है कि हर बात के लिये सड़क पर आया जाये । मैंने आतंकवाद के खिलाफ अपनी बात कही । हां ...यह सही है कि जब कुछ ना बचेगा तो बॉलीवुड कहा बचेगा। लेकिन आतंकवाद जैसे संकटों से बॉलीवुड या फिल्में निजात नही दिला सकती । इसके लिये देश को कड़े निर्णय लेने होंगे। आतंकवादियो के सामने झुकना नही होगा। आतंकवादियो को यह मैसेज देना जरुरी है कि वो विमान अपहरण करें या पांच सितारा होटल में गोलाबारी करके लोगों को होस्टेज बना लें, लेकिन उनकी मांगो को नही माना जायेगा। किसी भी तरह समझौते का रास्ता धीरे धीरे सौदेबाजी की तरफ ले जाता है। इससे बचना होगा । इसके लिये सबकुछ सरकार पर नही छोड़ा जा सकता । सभी को एकजुट होना ही होगा । नहीं तो बंट-बंट कर हम आतंकवाद को मजबूत कर देंगे। आखिर में यह कह दूं कि हर कोई अगर मि. या मिसेज परफेक्शनिस्ट हो जाये तो न्याय के लिये इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने या गेट-वे-आफ-इंडिया पर ह्यूमन चेन बनाने की जरुरत नही पड़ेगी।
Monday, December 22, 2008
अंधेरी रात में जलती मशाल !
बंधु...। सरकार आतंकवाद के खिलाफ कुछ करना चाहती है, यह तो लग रहा है लेकिन फिलहाल मामला कड़े कानून तक ही है। लेकिन आतंकवादियों पर लगाम कसने के लिये बने कानून के दायरे में नक्सली भी आएंगे। मैंने सोचा और नक्सलियों की प्रतिक्रिया इस पर लेनी चाही, क्योंकि कोई आतंकवादी इस दायरे में कब ,यह तो देखेंगे...लेकिन नक्सलियों पर इसके जरिये लगाम लगाने की कोशिश जरुरहोगी। संपर्क साधा। कामरेड महिला से मुलाकात हुई। मुलाकात के दौरान क्या बात हुई और क्या निकला इस पर बाद में लिखेंगे। क्योंकि कामरेड का मानना है अभी तो कानून बनाने की पहल शुरु हुई है, जब लागू होगा तब मिजाज समझ में आयेगा। लेकिन उस महिला ने दक्षिण अफ्रीकी कवि ग्लेरिया म्तुंगवा की एक कविता भेंट की। लेकिन साथ ही चिन्ह-मिन्ह की जेल में लिखी कविता की दो लाइनें भी सुनायी....
लेकिन, पहले भेंट की गयी कविता आप भी पढ़ें--
निर्भिक विद्रोहिणी
कोमल और कमजोर स्त्रीत्व की उसकी चाह कभी नहीं रही,उसने अपने जन्मदिवस पर ढेर फूल नहीं चाहे,राजसी ऐशो आराम और भड़कीली गाडियों की चाहत नहीं की ।
स्त्री मुक्ति का अर्थ वह बच्चे से अलग होना वहीं मानती,स्त्री मुक्ति का अर्थ उसके लिये घर से बिखराव नहीं है,स्त्री मुक्ति उसके लिये गुलाम और परेशान पिता से विद्रोह भी नहीं है ।
वह तो अपने लोगों की छोटी से छोटी आवश्यक्ताएं पूरी करती रही,उनके लिये वह बार-बार अपमानित भी हुई, लेकिन उसने बुरा नहीं माना,हां,आततायी के सामने उसने आंसू बहाने से इंकार कर दिया ।
अब न्याय की लंबी लडाई में मारे गए निर्दोषों पर भी वह नहीं रोती ।उसकी केवल एक चाह है स्वतंत्रताउसकी केवल एक चाह है-मशाल बराबर जलती रहे ।
भ्रष्ट्र और अनैतिक अल्पमत के अत्याचारों के समक्ष,वह विद्रोहिणी निर्भीक खड़ी है,ओढाई गई कृत्रिम भीरुता को उसने जीत लिया हैवह एक बडी लड़ाई को प्रतिश्रुत है ।
वह सुंदर लग रही है,उसके सौंदर्य को अब तक के प्रतिमानों से नहीं नापा जा सकता,उसका मानदंड मानवता के प्रति उसका समर्पण है ।
इस कविता का अनुवाद अर्चना त्रिपाठी ने किया है । जिसकी फोटो स्टेट कॉपीदेने के बाद कामरेड ने मुझे चिन्ह-मिन्ह की जेल में लिखी कविता की दोपंक्तियां सुनायीं----
विपत्ति आदमी की सच्चाई की कसौटी है।जो अन्याय का विरोध करते है, वे सच्चे इन्सान हैं।
लेकिन, पहले भेंट की गयी कविता आप भी पढ़ें--
निर्भिक विद्रोहिणी
कोमल और कमजोर स्त्रीत्व की उसकी चाह कभी नहीं रही,उसने अपने जन्मदिवस पर ढेर फूल नहीं चाहे,राजसी ऐशो आराम और भड़कीली गाडियों की चाहत नहीं की ।
स्त्री मुक्ति का अर्थ वह बच्चे से अलग होना वहीं मानती,स्त्री मुक्ति का अर्थ उसके लिये घर से बिखराव नहीं है,स्त्री मुक्ति उसके लिये गुलाम और परेशान पिता से विद्रोह भी नहीं है ।
वह तो अपने लोगों की छोटी से छोटी आवश्यक्ताएं पूरी करती रही,उनके लिये वह बार-बार अपमानित भी हुई, लेकिन उसने बुरा नहीं माना,हां,आततायी के सामने उसने आंसू बहाने से इंकार कर दिया ।
अब न्याय की लंबी लडाई में मारे गए निर्दोषों पर भी वह नहीं रोती ।उसकी केवल एक चाह है स्वतंत्रताउसकी केवल एक चाह है-मशाल बराबर जलती रहे ।
भ्रष्ट्र और अनैतिक अल्पमत के अत्याचारों के समक्ष,वह विद्रोहिणी निर्भीक खड़ी है,ओढाई गई कृत्रिम भीरुता को उसने जीत लिया हैवह एक बडी लड़ाई को प्रतिश्रुत है ।
वह सुंदर लग रही है,उसके सौंदर्य को अब तक के प्रतिमानों से नहीं नापा जा सकता,उसका मानदंड मानवता के प्रति उसका समर्पण है ।
इस कविता का अनुवाद अर्चना त्रिपाठी ने किया है । जिसकी फोटो स्टेट कॉपीदेने के बाद कामरेड ने मुझे चिन्ह-मिन्ह की जेल में लिखी कविता की दोपंक्तियां सुनायीं----
विपत्ति आदमी की सच्चाई की कसौटी है।जो अन्याय का विरोध करते है, वे सच्चे इन्सान हैं।
Friday, December 19, 2008
पंगु बना दिया अमर-अकबर-एंथोनी की राजनीति ने (पार्ट दो) !
(पिछले भाग से आगे)चूंकि मैं दिल्ली से पटना पुस्तक मेले के लिये ही गया था लिहाजा गांधी मैदान से सटे होटल में ही रुका भी था ताकि आवाजाही में कोई परेशानी न हो और वक्त न लगे। गोलघर से लेकर बीएन कॉलेज के दौरान सड़क पर जितनी-भडक्का था, बार बार यही महसूस होता मानो पूरा शहर ही सड़क पर हो। कॉलेज से बाहर निकल आया। बाहर देखा...दीवार पर कॉलेज की परीक्षा का रिजल्ट चिपका हुआ था।
खैर,पुस्तक मेले के कार्यक्रम में जाने का वक्त हो रहा है तो वहीं से निकल पड़ा। होटल के रास्ते ट्रैफिक पुलिस का दफ्तर पड़ा। सड़ी-बिखरी खपरैल से बना दफ्तर । खपरैल पर जमी काली काई । दीवारों पर गाढ़े हरे रंग की काई। एक हिस्सा टूटा है। कुछ निर्माण का काम भी जारी है। और इस दफ्तर के ठीक दूसरी तरफ यानी सड़क पर गाड़ियों का अंबार। स्कूटर-मोटरसाइकिल-टेंपू-कार सब कुछ गंदगी और धूल में इस तरह समाये हुए कि देखकर साफ लगता, सालों साल से किसी ने सैकडों गाडियों की तरफ ठीक से देखा भी नहीं। गांधी मैदान से सटे गाड़ियों का यह जमघट कूड़े-करकट से कही ज्यादा पखाना और पेशाबघर में तब्दील होता नज़र आया।
करीब 25 साल पहले जब बिहार के मुख्यमंत्री ने ट्रैफिक पुलिस के इस दफ्तर का उदघाटन किया था तो पटना की सड़क पर चलने की तमीज सिखाने का जिम्मा इसी दफ्तर पर सौंपा था । लेकिन तमीज शब्द ही ट्रैफिक दफ्तर पर भारी पड़ने लगा । किताब मेले में जाने की जल्दी में पटना को महसूस करने तमीज मैं भी भूलने लगा या उसका रंग मुझ पर भी चढ़ने लगा यह तो नही कह सकता लेकिन रिक्शे पर सवार होटल की तरफ जाते हुये जैसे ही एक्जीविशन रोड के करीब पहुंचा, नारे और रैली से सामना हो गया। जो फिल्मी गीत की तर्ज पर नारों को गा-गा कर घर और न्यूनतम जरुरतों की मांग कर रहे थे। जिस टेंपू में लाउड स्पीकर लगा था, उसके अंदर चार महिलाएं और एक पुरुष बैठे थे। दो महिलाओं की गोदी में दूध-मुंहा बच्चा था। वो नारे लगा रही थी। किसी तरह आंधे घंटे में रैली की रफ्तार में ही होटल पहुंचे । और वहीं से तुरंत पुस्तक मेले के लिये निकले।
पुस्तक मेले में कार्यक्रम मीडिया लीडर का था। और शनिवार को मैं ही पुस्तक मेले का मीडिया लीडर था। मीडिया में खुद के सफर की बात करने के बाद जब सवाल जबाब का सत्र शुरु हुआ तो करीब चार-पांच सौ के जमघट में, जिसमे अस्सी फीसदी 15 से 35 साल के युवा होंगे, के ज्यादातर सवाल बैचेनी, बढ़ते मुद्दे और कम होते विकल्प को लेकर उठे । पटना की किसी सभा में पहली बार मैंने महसूस किया कि विकल्प को लेकर एक मौन समूचा बिहार ओढे हुआ है। इससे पहले जेपी के आंदोलन की प्रतिध्वनि किसी राजनीतिक सावल-जबाब में उभर आती थी। लेकिन जिस पीढ़ी के सामने सबसे ज्यादा मुश्किलात है, उसको जो परिवेश मिल रहा है और जिस परिवेश को पाने के लिये वह आमादा है, वह 1990 तक के बिहार से बिलकुल अलग है।
नयी पीढी के सामने सबसे बडी चुनौति आर्थिक सुरक्षा की है । जो रोजगार से लेकर विकास की ऐसी परिभाषा गठने की है, जिसमे न्यूनतम की जुगाड़ हो। कोई भी युवा जिन्दगी के किसी भी पायदान पर खड़ा हो उसके सामने सबसे बडा सवाल उस धारा का हिस्सा बनना हो चला है, जो बिहार में मौजूद नही है। या फिर बिहार के मिजाज ने हमेशा जिस समझ को नकारा है, उसे अब मान्यता दिला दी गयी है। असफल होते हुये भी सफल होने का ढोंग कर सामाजिक मान्यता के साथ हर परिवेश में मौजूद रहने की जो कला महानगरो में मौजूद है। उसको खारिज कर विकल्प का जो सवाल पटना के किसी भी सभा-सेमिनार में उभरता, वह हाशिये पर मौजूदा स्थिति ने ढकेल दिया है और नयी परिस्थितियां अपने होने को ही विकल्प के तौर पर रख रही हैं यह बखूबी उभरा।
यह कैसे संभव है कि बिहार को हाशिये पर रखकर केन्द्र की सत्ता अपने आप को न सिर्फ बनाये रख सकती है बल्कि बिहार के नेता भी इसका एहसास कराते रहे कि केन्द्र की मदद के बगैर बिहार का कुछ हो नही सकता। इस सवाल को पुरानी पीढी ने बार बार उठाया। सवाल यह भी उठा कि कि विकल्प को लेकर वर्तमान की सत्ता अपने बाद की तस्वीर को जानबूझकर भयावह बता रहे है या फिर उनकी मौजूदगी बंटाधार करने की स्थिति में समाज को ले आयी है। टकराव नैतिकता को लेकर जरुर हुआ। नयी पीढी के मिजाज ने इसके संकेत साफ दिये कि नैतिकता की नयी परिभाषा बदलते वक्त के साथ गढी जायेगी। इतना ही नही जो सवाल नयी युवा पीढी के सामने हैं, उससे कभी युवापन जी चुकी पीढी को दो-चार होना नहीं पड़ा । इसलिये नये सवालो का समाधान भी नये तरीको से होगा। वह तरीके अभी की गुमराह करने वाली सत्ता या राजनीति से प्रभावित होंगे या हाशिये पर ढकेले जा रहे बहुसंख्यक तबके की जरुरतों के लिहाज से इसको लेकर सामाजिक आंदोलन की जरुरत जरुर जतायी गयी ।
सभा के बाद पुस्तक मेले में घूमते वक्त कई पुस्तक प्रेमियों के सवाल कान से टकराये कि पुस्तक मेले में किताबें कम और यहां मेले का माहौल ज्यादा क्यों होता जा रहा है। पुस्तक मेले के आयोजक अमित झा का अपना विस्लेषण था। उन्होंने माना कि पुस्तक मेले को लेकर जो उफान 2004 तक था, वह कमजोर पड़ा है जबकि बिहार ने इस दौर में परिवर्तन को जीया है। क्या बिहार की नयी परिस्थितियां आदमी को अंदर से तोड़ कर उसे खामोश करने पर आमादा है। लालू के वक्त अच्छे विकल्प की आस लोगो में उम्मीद जगाये हुये थी, जो संघर्ष करने को उकसाती थी। वहीं नीतीश कुमार के दौर ने विकल्प की चेतना को ही खत्म कर दिया गया। संघर्ष सपने सरीखे हो गया है। पुस्तक मेले में नयी किताबो में अच्छी किताब चुनने की तरह अच्छे दंपत्ति का चयन भी एक ही मंचों से हो रहा है । गीत संगीत की फिल्मी तर्ज और नाटकों का मंचन भी एक जगह एक जैसा दिखायी दे रहा है। जादू-टोने के साथ रंग प्रतियोगिता भी उस मैदान में चल रही है। तो क्या बिहार अब सबको टटोलकर जीने वाला बन चुका है। यह सवाल बार बार पुस्तक मेले में घूमते वक्त घुमड़ता रहा।
लेकिन रात में दिल्ली वापसी की ट्रेन पकड़ने से पहले कई लोग बिहार के अलग अलग शहरो के टकराये जो अपने अपने क्षेत्र से लेकर दिल्ली तक पर सवालिया निशान लगाते- उठाते रहे। मेले से निकलते वक्त नवादा का सुधीर कुमार सिंह भी टकराया, जिसने मिलते ही कागजों का बंडल में हाथ में थामाकर पूछा। अगर पुलिस प्रशासन से लेकर अदालत और मुख्यमंत्री का जनता दरबार भी आपकी न सुने तो आपको क्या करना चाहिये। मेरे मुंह से निकल पड़ा गोली मार देनी चाहिये। उसने कहा किसे और कहां । मै उसको साथ लेकर स्टेशन की तरफ ही निकल पड़ा। रास्ते में उसने बताया वह नवादा के कौवाकोल थाना के केवाली गांव का रहने वाला है । पिता की मौत के बाद गांव के दंबग रामचन्द्र प्रसाद सिंह,अवध किशोर सिंह ने उसकी जमीन पर कब्जा कर लिया। बंटाई पर जमीन लेने के नाम पर जमीन ही रामचन्द्र प्रसाद ने अपने नाम लिखवा ली। यह सच 44 डिसिमल जमीन का है जो कौवाकोल मेन रोड से सटे प्लाट नंबर 966 में खाता नंबर 262 का है। जब बंटाई से जमीन वापस मांगने गया तो मुझे मेरे भाई बालमुकुंद को मारा पीटा गया । उल्टी रिपोर्ट पुलिस में लिखवायी गयी । पखाना खिला दिया गया। पत्नी को भी नही छोड़ा । मैंने पूछा पुलिस है कानून है। सुधीर फफक कर रो उठा । उसने कहा थाने में एफआईआर दर्ज नही की गयी। फिर एसपी और कलेक्टर दोनो ने नवादा छोड़ने की घमकी दे दी । न छोड़ने पर कहा, मारे जाओगे । डीएम पंकज कुमार और एसपी विनोद कुमार ने भी हाथ खड़े कर दिया । सुधीर के मुताबिक अदालत की चिट्टी पर थानेदार ने पेशाब कर दिया। लोकायुक्त और मानवाधिकार आयोग की चिट्टी को पुलिस ने उसकी आंखों के सामने फाड़ दिया।
ऐसे में एक-दो बार नही बल्कि सात बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दरबार में जा कर गुहार लगायी । नीतीश को घेरे लोगों ने सातों बार तमाम कागज लेकर न्याय करने का दरबारी ऐलान किया। लेकिन हर बार दरबार से गांव लौटने पर पुलिस प्रशासन और दंबगो ने जमकर मारपीट की। सुधीर ने बताया उसके तीन बच्चे हैं जिन्हे लेकर वह धनबाद में छिप कर रहता है। क्योंकि वह उन्हें पढ़ाना चाहता है। मेरी ट्रेन के आने का वक्त हो रहा था और सुधीर एक के बाद एक जानकारी दिये जा रहा था कि उसने पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश को कब पत्र भेजा । लोकायुक्त के पास कब गया। किस किस तारीख को मुख्यमंत्री के जनता दरबार में हाजिरी दी । एसपी-डीएम ने कब उसे ही बिहार छोडने की धमकी दी। जाहिर था मैंने सुधीर को भरोसा दिलाया हम कुछ जरुर करेगे। मेरा भरोसा बरकरार है कि कुछ तो जरुर करेंगे लेकिन पहली बार लगा कि सत्ता बदलने का खेल तो महज खेल है। यहां तो लोकतंत्र ही हाशिये पर है।
खैर,पुस्तक मेले के कार्यक्रम में जाने का वक्त हो रहा है तो वहीं से निकल पड़ा। होटल के रास्ते ट्रैफिक पुलिस का दफ्तर पड़ा। सड़ी-बिखरी खपरैल से बना दफ्तर । खपरैल पर जमी काली काई । दीवारों पर गाढ़े हरे रंग की काई। एक हिस्सा टूटा है। कुछ निर्माण का काम भी जारी है। और इस दफ्तर के ठीक दूसरी तरफ यानी सड़क पर गाड़ियों का अंबार। स्कूटर-मोटरसाइकिल-टेंपू-कार सब कुछ गंदगी और धूल में इस तरह समाये हुए कि देखकर साफ लगता, सालों साल से किसी ने सैकडों गाडियों की तरफ ठीक से देखा भी नहीं। गांधी मैदान से सटे गाड़ियों का यह जमघट कूड़े-करकट से कही ज्यादा पखाना और पेशाबघर में तब्दील होता नज़र आया।
करीब 25 साल पहले जब बिहार के मुख्यमंत्री ने ट्रैफिक पुलिस के इस दफ्तर का उदघाटन किया था तो पटना की सड़क पर चलने की तमीज सिखाने का जिम्मा इसी दफ्तर पर सौंपा था । लेकिन तमीज शब्द ही ट्रैफिक दफ्तर पर भारी पड़ने लगा । किताब मेले में जाने की जल्दी में पटना को महसूस करने तमीज मैं भी भूलने लगा या उसका रंग मुझ पर भी चढ़ने लगा यह तो नही कह सकता लेकिन रिक्शे पर सवार होटल की तरफ जाते हुये जैसे ही एक्जीविशन रोड के करीब पहुंचा, नारे और रैली से सामना हो गया। जो फिल्मी गीत की तर्ज पर नारों को गा-गा कर घर और न्यूनतम जरुरतों की मांग कर रहे थे। जिस टेंपू में लाउड स्पीकर लगा था, उसके अंदर चार महिलाएं और एक पुरुष बैठे थे। दो महिलाओं की गोदी में दूध-मुंहा बच्चा था। वो नारे लगा रही थी। किसी तरह आंधे घंटे में रैली की रफ्तार में ही होटल पहुंचे । और वहीं से तुरंत पुस्तक मेले के लिये निकले।
पुस्तक मेले में कार्यक्रम मीडिया लीडर का था। और शनिवार को मैं ही पुस्तक मेले का मीडिया लीडर था। मीडिया में खुद के सफर की बात करने के बाद जब सवाल जबाब का सत्र शुरु हुआ तो करीब चार-पांच सौ के जमघट में, जिसमे अस्सी फीसदी 15 से 35 साल के युवा होंगे, के ज्यादातर सवाल बैचेनी, बढ़ते मुद्दे और कम होते विकल्प को लेकर उठे । पटना की किसी सभा में पहली बार मैंने महसूस किया कि विकल्प को लेकर एक मौन समूचा बिहार ओढे हुआ है। इससे पहले जेपी के आंदोलन की प्रतिध्वनि किसी राजनीतिक सावल-जबाब में उभर आती थी। लेकिन जिस पीढ़ी के सामने सबसे ज्यादा मुश्किलात है, उसको जो परिवेश मिल रहा है और जिस परिवेश को पाने के लिये वह आमादा है, वह 1990 तक के बिहार से बिलकुल अलग है।
नयी पीढी के सामने सबसे बडी चुनौति आर्थिक सुरक्षा की है । जो रोजगार से लेकर विकास की ऐसी परिभाषा गठने की है, जिसमे न्यूनतम की जुगाड़ हो। कोई भी युवा जिन्दगी के किसी भी पायदान पर खड़ा हो उसके सामने सबसे बडा सवाल उस धारा का हिस्सा बनना हो चला है, जो बिहार में मौजूद नही है। या फिर बिहार के मिजाज ने हमेशा जिस समझ को नकारा है, उसे अब मान्यता दिला दी गयी है। असफल होते हुये भी सफल होने का ढोंग कर सामाजिक मान्यता के साथ हर परिवेश में मौजूद रहने की जो कला महानगरो में मौजूद है। उसको खारिज कर विकल्प का जो सवाल पटना के किसी भी सभा-सेमिनार में उभरता, वह हाशिये पर मौजूदा स्थिति ने ढकेल दिया है और नयी परिस्थितियां अपने होने को ही विकल्प के तौर पर रख रही हैं यह बखूबी उभरा।
यह कैसे संभव है कि बिहार को हाशिये पर रखकर केन्द्र की सत्ता अपने आप को न सिर्फ बनाये रख सकती है बल्कि बिहार के नेता भी इसका एहसास कराते रहे कि केन्द्र की मदद के बगैर बिहार का कुछ हो नही सकता। इस सवाल को पुरानी पीढी ने बार बार उठाया। सवाल यह भी उठा कि कि विकल्प को लेकर वर्तमान की सत्ता अपने बाद की तस्वीर को जानबूझकर भयावह बता रहे है या फिर उनकी मौजूदगी बंटाधार करने की स्थिति में समाज को ले आयी है। टकराव नैतिकता को लेकर जरुर हुआ। नयी पीढी के मिजाज ने इसके संकेत साफ दिये कि नैतिकता की नयी परिभाषा बदलते वक्त के साथ गढी जायेगी। इतना ही नही जो सवाल नयी युवा पीढी के सामने हैं, उससे कभी युवापन जी चुकी पीढी को दो-चार होना नहीं पड़ा । इसलिये नये सवालो का समाधान भी नये तरीको से होगा। वह तरीके अभी की गुमराह करने वाली सत्ता या राजनीति से प्रभावित होंगे या हाशिये पर ढकेले जा रहे बहुसंख्यक तबके की जरुरतों के लिहाज से इसको लेकर सामाजिक आंदोलन की जरुरत जरुर जतायी गयी ।
सभा के बाद पुस्तक मेले में घूमते वक्त कई पुस्तक प्रेमियों के सवाल कान से टकराये कि पुस्तक मेले में किताबें कम और यहां मेले का माहौल ज्यादा क्यों होता जा रहा है। पुस्तक मेले के आयोजक अमित झा का अपना विस्लेषण था। उन्होंने माना कि पुस्तक मेले को लेकर जो उफान 2004 तक था, वह कमजोर पड़ा है जबकि बिहार ने इस दौर में परिवर्तन को जीया है। क्या बिहार की नयी परिस्थितियां आदमी को अंदर से तोड़ कर उसे खामोश करने पर आमादा है। लालू के वक्त अच्छे विकल्प की आस लोगो में उम्मीद जगाये हुये थी, जो संघर्ष करने को उकसाती थी। वहीं नीतीश कुमार के दौर ने विकल्प की चेतना को ही खत्म कर दिया गया। संघर्ष सपने सरीखे हो गया है। पुस्तक मेले में नयी किताबो में अच्छी किताब चुनने की तरह अच्छे दंपत्ति का चयन भी एक ही मंचों से हो रहा है । गीत संगीत की फिल्मी तर्ज और नाटकों का मंचन भी एक जगह एक जैसा दिखायी दे रहा है। जादू-टोने के साथ रंग प्रतियोगिता भी उस मैदान में चल रही है। तो क्या बिहार अब सबको टटोलकर जीने वाला बन चुका है। यह सवाल बार बार पुस्तक मेले में घूमते वक्त घुमड़ता रहा।
लेकिन रात में दिल्ली वापसी की ट्रेन पकड़ने से पहले कई लोग बिहार के अलग अलग शहरो के टकराये जो अपने अपने क्षेत्र से लेकर दिल्ली तक पर सवालिया निशान लगाते- उठाते रहे। मेले से निकलते वक्त नवादा का सुधीर कुमार सिंह भी टकराया, जिसने मिलते ही कागजों का बंडल में हाथ में थामाकर पूछा। अगर पुलिस प्रशासन से लेकर अदालत और मुख्यमंत्री का जनता दरबार भी आपकी न सुने तो आपको क्या करना चाहिये। मेरे मुंह से निकल पड़ा गोली मार देनी चाहिये। उसने कहा किसे और कहां । मै उसको साथ लेकर स्टेशन की तरफ ही निकल पड़ा। रास्ते में उसने बताया वह नवादा के कौवाकोल थाना के केवाली गांव का रहने वाला है । पिता की मौत के बाद गांव के दंबग रामचन्द्र प्रसाद सिंह,अवध किशोर सिंह ने उसकी जमीन पर कब्जा कर लिया। बंटाई पर जमीन लेने के नाम पर जमीन ही रामचन्द्र प्रसाद ने अपने नाम लिखवा ली। यह सच 44 डिसिमल जमीन का है जो कौवाकोल मेन रोड से सटे प्लाट नंबर 966 में खाता नंबर 262 का है। जब बंटाई से जमीन वापस मांगने गया तो मुझे मेरे भाई बालमुकुंद को मारा पीटा गया । उल्टी रिपोर्ट पुलिस में लिखवायी गयी । पखाना खिला दिया गया। पत्नी को भी नही छोड़ा । मैंने पूछा पुलिस है कानून है। सुधीर फफक कर रो उठा । उसने कहा थाने में एफआईआर दर्ज नही की गयी। फिर एसपी और कलेक्टर दोनो ने नवादा छोड़ने की घमकी दे दी । न छोड़ने पर कहा, मारे जाओगे । डीएम पंकज कुमार और एसपी विनोद कुमार ने भी हाथ खड़े कर दिया । सुधीर के मुताबिक अदालत की चिट्टी पर थानेदार ने पेशाब कर दिया। लोकायुक्त और मानवाधिकार आयोग की चिट्टी को पुलिस ने उसकी आंखों के सामने फाड़ दिया।
ऐसे में एक-दो बार नही बल्कि सात बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जनता दरबार में जा कर गुहार लगायी । नीतीश को घेरे लोगों ने सातों बार तमाम कागज लेकर न्याय करने का दरबारी ऐलान किया। लेकिन हर बार दरबार से गांव लौटने पर पुलिस प्रशासन और दंबगो ने जमकर मारपीट की। सुधीर ने बताया उसके तीन बच्चे हैं जिन्हे लेकर वह धनबाद में छिप कर रहता है। क्योंकि वह उन्हें पढ़ाना चाहता है। मेरी ट्रेन के आने का वक्त हो रहा था और सुधीर एक के बाद एक जानकारी दिये जा रहा था कि उसने पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश को कब पत्र भेजा । लोकायुक्त के पास कब गया। किस किस तारीख को मुख्यमंत्री के जनता दरबार में हाजिरी दी । एसपी-डीएम ने कब उसे ही बिहार छोडने की धमकी दी। जाहिर था मैंने सुधीर को भरोसा दिलाया हम कुछ जरुर करेगे। मेरा भरोसा बरकरार है कि कुछ तो जरुर करेंगे लेकिन पहली बार लगा कि सत्ता बदलने का खेल तो महज खेल है। यहां तो लोकतंत्र ही हाशिये पर है।
Wednesday, December 17, 2008
पंगु बना दिया "अमर-अकबर-एंथोनी" की राजनीति ने !
सुबह साढ़े छह का वक्त होगा।
13 दिसंबर यानी शनिवार का दिन। पटना जक्शन पर हावड़ा राजधानी रुकी। स्टेशन से बाहर निकलते ही चहल-पहल ने इसका अहसास तो करा दिया कि आराम का कोई दिन नहीं है। लेकिन, बाहर पार्किग में खडी गाड़ियों की कतारो में कमोवेश हर गाड़ी के साथ कोई न कोई बंदूकधारी या खाकीधारी सरीखे सुरक्षाकर्मी को देखकर यह सवाल दिमाग में घुमड़ गया कि ऐसी कौन सी सुरक्षा की जरुरत है ?
तभी मुझे लेने पहुंचे ड्राइवर ने मुझसे दस रुपये मांगे और अपने साथ आये सुरक्षाधारी को नोट थमाते हुये कहा कि आप टेंपू से घर लौट जाओ। ड्राइवर का नाम तकदीर था, जो मुझे पटना किताब मेले में ले जाने के लिए पहुंचा था। मैंने तकदीर से कहा, आप उसे भी गाड़ी में बैठा लीजिये। जगह तो काफी है। तकदीर का जवाब था अब तो पौ फट गयी है....सो कोई डर नहीं। डर... किसका डर ? तकदीर का जबाब था, राजधानी के पहुंचने का वक्त सुबह पौने पांच का है। उस वक्त अंधेरा रहता है। अकेले गाड़ी ले जाना ठीक नहीं होता । तो गार्ड को भी गाड़ी में साथ ही ले आये ।
जाहिर है, मेरी आंखों के सामने स्टेशन की पार्किंग का वह दृश्य घुमड़ गया, जहां जितनी प्राइवेट गाडियां थीं, उतने की बंदूकधारी। वाक्या खत्म होता, उससे पहले ही स्टेशन चौक की धमाचौकड़ी ने घेर लिया। एक तरफ से प्रसिद्ध हनुमान मंदिर के लाउड स्पीकर से पूजा की गूंज तो कई दूसरी दिशाओं से ट्रैफिक पुलिस की सीटी..बस का हार्न..रिक्शा और टेंपू के झगडे..हंगामा। सबकुछ। लगा ही नही कि सुबह का वक्त है। कोई शख्स ऐसा नही दिखा जिसको देख यह एहसास हो कि अभी तो सुबह शुरु भी नही हुई है। उबासी..जम्हाई के बदले तल्खी और तेवर का जो सुरुर हर व्यक्ति में नजर आ रहा था...उसने एक झटके में मेरे आराम करने की सोच को धराशाई कर दिया।
मैं सोच रहा था कि होटल पहुंच कर कुछ आराम कर लूंगा और दस बजे के बाद शहर में निकलूंगा। पत्नी और बच्चों को पटना दर्शन कराऊंगा, जो पहली बार पटना आये हैं। लेकिन स्टेशन से होटल पहुंचते पहुंचते लगने लगा कि पटना की बैचेनी बदल चुकी है। दो दशक पहले की कई यादें मेरे दिमाग में कौंधने लगी। उस समय राजेन्द्रनगर से गांधी मैदान तक सुबह सुबह कभी कभी जॉगिंग करने तो नही, पर टहलते हुये यूं ही आना जरुर होता था। लेकिन तब गांधी मैदान हरा भरा दिखायी लगता। चाय की चुस्कियों के साथ गांधी मैदान के भीतर बाहर बहस-चर्चा में एक गर्मी दिखायी देती जो अंदर की बैचेनी को बाहर लाती। राजनीति को लेकर सवाल खड़ा करना और आंदोलनों की सही राह को लेकर आंदोलनकर्मियों को मान्यता देते हुये सीख का पाठ पढ़ाने का तरीका कुछ इस ऐसा होता कि बहस-चर्चा में एक गुंजाइश हमेशा बरकरार रहती।
चहल पहल या कहें गाड़ी से दिखायी दे रही भीड-भडक्का ने मेरी सारी खुमारी तोड़ डाली और होटल में सामान पटक कर मैं भी अपनी यादों में पर लगाने परिवार के साथ तुरंत सड़क पर आ गया । सूबह साढे आठ बजे का वक्त और होटल मौर्या से पैदल ही गोलघर चल पड़ा। कोई टिकट नहीं है के जबाब ने बच्चो को चौंकाया लेकिन सीढियों की हालत ने तुरंत बच्चो के गणित और अर्थव्यवस्था के तार झटका दिये कि टिकट लेकर मिलने वाले पैसे से कुछ तो ठीक हो सकता है। लेकिन मेरी नज़र गोलघर के ठीक नीचे की उस जमीन पर पड़ी, जहा कूडे का ढेर था और अगल-बगल के हम कुछ लोगों का खुला पखानाघर या कहे अटैच बाथरुम।
दरअसल, 1985-88 के दौर में यहां नुक्कड नाटक की ट्रेनिंग होती थी। कई संगठन सुबह या शाम को यहां जमा होते और नुक्कड नाटक के जरिये विचारधारा को राजनीतिक लेप चढाकर अपनी बैचेनी को रीलिज करते। मैं खुद सालों साल तक गोलघर से सटे इसी मैदान में अपने नौ या दस साथियों के साथ नुक्कड नाटक की प्रैक्टिस करता था। उस दौर में नुक्कड़ नाटक और रंगमंच के बीच प्रतिस्पर्धा तो होती ही थी, लेकिन अक्सर राजनीति को आईना दिखाने की प्रतिस्पर्धा कहीं ज्यादा होती। यानी नुक्कड़ नाटक में तत्कालीन राजनीतिक स्वार्थ पर किसी ना किसी दृश्य के जरिये चोट कर ही दी जाती थी, जिससे देखने वाले अपने अंदर की बैचेनी को नाटक से जोड़ते और वाहवाही मिलती।
अब वह मैदान छोटे से चबूतरे से लेकर शहरी डस्टबीन में बदला नजर आया। यकीकन मै हिम्मत नहीं जुटा सका कि बच्चों को बताऊ कि यहां थियेटर बनने का सपना कभी नुक्कड नाटक करने वाले देखा करते थे। मुझे पता है उनका अगला सवाल यही होता कि फिर बना क्यों नहीं। कौन नहीं चाहता । और इस तरह की गंदगी से बेहतर तो सिर्फ साफ मैदान रखना ही अच्छा होता। यह सवाल इसलिये आते क्योकि दिल्ली के जेएनयू में झाड़ और पहाड़ी के बीच एक खुला थियेटर मुनिस रजा ने बनवाया था। और मैंने बच्चों को जेएनयू दिखाते हुये यह जानकारी दी थी कि कुछ लड़के-लड़किया यहां नाटक की प्रैक्टिस करते थे। एक शाम टहलते हुये उस वक्त के वाइस चासंलर मुनिस रजा की नजर उन पर पड़ गयी और उन्होने उस जगह को उन्ही के मनमाफिक गढ़ दिया। तो गोलघर के मैदान पर सवाल उठाने का मतलब था राज्य के मुखिया पर सवाल उठाना क्योंकि बच्चे पूछते ही कि वीसी बड़ा होता है या मुख्यमंत्री। और अगला सवाल उठता कि वीसी कालेज में घूमता है तो मुख्समंत्री भी घूमता होगा। यह सब देख कर उन्हें क्या महसूस होता होगा।
खैर गोलघर से दूसरी तरफ से उतरते ही गेट के ठीक सामने एक पेटी दिखायी दी जिसमें दान पेटी लिखा था। पता चला इस पेटी का गोलघर से इतना ही लेना देना कि आने वाले लोग इसमे कुछ डाले तो गोलघर से सटे मंदिर के पंडित का भला हो। पंडित रामनारायण जी से भी वास्ता पडा तो उन्होंने बताया कि कभी कभी कोई विदेशी पर्यटक आते हैं तो दानपेटी को देखकर करेंसी डाल देते है। फिर पंडित जी खुद ही बोले करेंसी डालने वाले विदेशियो को लगता है कि गोलघर ने कभी काल से निजात दिलवायी, अब गोलघर की जर्जर हालत में कुछ गोलघर का भी भला कर दें।
कोहरे की बजह से गोलघर से गंगा नदी दिखायी दी नहीं तो गोलघर से दस रुपये में रिक्शा कर कलेक्ट्रियट घाट चल पड़े। गंगा किनारे की गंदगी को छट पूजा के वक्त कैसे निजात मिलती है, इसकी जानकारी बच्चो को देते हुये हम तुरंत कलेक्ट्रियट घाट भी पहुंच गये। लेकिन गंगा का पानी छू भी सके यह स्थिति घाट पर नही थी। हां, गंगा का पानी छूने के लिये जरुरी है कि आपका पांव कीचड से सराबोर हो। इस कीचड में कूडे-करकट का ऐसा मिलन कि, ये एहसास भी ना हो कि आप पानी छूने निकले हैं। हकीकत में छोटे छोटे गरीब बच्चों से लेकर कुत्ते-सूअर तक का ऐसा जमघट जो अपनी अपनी जिन्दगी की जरुरत के मुताबिक वहां फेंके पड़े ढेर में से कुछ चुन रहा है। किसी की फेंकी हुई चीज किसी दूसरे के लिये जिन्दगी कैसे होती है ये इस घाट पर पहुंच कर हर कोई महसूस कर सकता है। किसी को गंगा में पूजा करनी हो तो उसके लिये नाव चलती है, जो पूजा करने वाले को नदी के बीच में बने एक दियारा पर ले जाती है । वह जमीन घाट से दिखायी भी दे रही थी। नाव खेने वाले ने पूछने पर बताया कि वहीं साफ पानी है और जमीन भी साफ है। इसलिये हम वहीं ले जाते हैं, आप भी चल सकते है । लेकिन सफाई तो यहां भी हो सकती है , वह क्यों नहीं। इस पर मल्लाह ने ठहाका लगा कर कहा, हुजूर यहां सरकार है, वहां किसी की सरकार नही है। तो गंगा के दर्शन वहीं से कर हम लौट पड़े।
किताब मेला के कार्यक्रम में जाने से पहले मैंने सोचा जिस कालेज से मैंने ग्रेजुएशन की पढायी की वह तो बच्चों को दिखा दूं और अपनी स्मृति ताजा कर लूं। बीएन कॉलेज का मुख्य गेट बदल चुका था। अशोक राजपथ पर जिस जगह मुख्य गेट बना था अस्सी के दशक में वहा दीवार तोड़ कर कॉलेज में घुसने के लिये शार्टकट रास्ता बनाया गया था, जो सुराख वक्त के साथ बड़ा हुआ तो साइकिल भी उसी सुराख से अंदर जाने लगी। लेकिन यही सुराख मुख्य द्वार में बदल जायेगा य़ह कभी दिमाग में आया नही। लेकिन कॉलेज में घुसते ही वैचारिक सुराख भी नजर आया। सामने दीवार पर लिखा था, राज ठाकरे को फांसी दो-आइसा। मुझे याद आ गया जब 80 के शुरुआत में ही पटना यूनिवर्सिटी में जातीय हिंसा का रंग चढा तो एक के बाद एक कर छह छात्रों की हत्याएं हुईं । लेकिन बीएन कॉलेज के किसी लड़के को किसी ने हाथ लगाने की हिम्मत नही दिखायी। दो वजहें तो मैं जानता हूं । पहली, बीएन कालेज में छात्रों की गजब की एकजुटता थी। जिसे जातीय आधार पर बांटने की कोशिश कई बार हुई लेकिन बीएन कालेज हर बार भारी पड़ा और दूसरा, बीएन कालेज के छात्रों ने कभी वैसे नेता को तरजीह नही दी या उसके खिलाफ भी नही हुए, जिसके साथ खड़े होने या विरोध करने से उसे मान्यता मिलती। राज ठाकरे की सोच को कैसे राजनीति के जरिये साधा जा सकता है, यह अपनी जमीनी राजनीति के आसरे बात करने का हुनुर बीएन कालेज ने 1955 के छात्र आंदोलन से सिखाया। छात्रो से बातचीत में इसका एहसास तो हुआ कि छात्र मराठी मानुष की राजनीति कर नेता बने राज टाकरे से दो दो हाथ करने तक को तैयार है। लेकिन बिहार की राजनीति के अमर-अकबर-एंथोनी यानी पासवान-लालू-नीतिश की फिल्मी राजनीति से तंग है। यह जुमला बीएन कालेज के ही एक छात्र ने दिया। लेकिन जब सवाल बिहार के नेताओं की राजनीति के आसरे ही राजठाकरे की बनी राजनीतिक जमीन का सवाल उठा तो छात्रों ने माना की विकल्प गायब है। बीएन कालेज में कभी भी विकल्प की कमी महसूस नही की हुई। यानी जो स्थितियां जीने में हौसला देती हैं, वही इस बार बीएन कालेज में टूटी सी नजर आयीं।
मुझे याद आया पहली बार पटना से चुनाव लड़ने मैदान में उतरे डॉक्टर सी पी ठाकुर को भी अपनी जीत के लिये बीएन कालेज के बाहुबल और वैचारिक समझ का आसरा लेना पड़ा था । उनके भाषण कॉलेज हॉस्टल में ही लिखे जाते और जीप में भर भर के प्रचार करने लड़के भी बीएन कॉलेज से ही निकलते । राजनीतिशास्त्र के किसी प्रोफेसर से मुलाकात की सोच स्टाफ रुम की तरफ कदम बढाये तो पता चला अभी कोई प्रोफेसर पहुंचा नहीं है । ग्यारह बजने को थे । साढे ग्यारह से पहले कोई नही मिलेगा। एक बाबू ने जानकारी दी। बच्चों को साइकिल स्टैड दिखाने ले गये। वही एक जगह थी जो जस की तस । वैसे ही साइकिलों की भरमार। हां दीवारो पर हरी काई खासी ज्यादा जमी थी। मकड़ी के जाले और कुत्तों का बसेरा कुछ ज्यादा था। कॉलेज में पढ़ने आने वालो छात्रों की आर्थिक गवाही साइकिल स्टैंड दे रहा था। बेटे ने तस्वीर उतारी तो कुछ छात्रो ने कुछ धुंधले तरीके से मुझे पहचाना...कॉलेज के हालात का रोना रोया लेकिन हर आंखो में पहली बार मुझे बेबसी दिखी जो इंतजार कर रही थी कि कोई तो कुछ बदलेगा। मुझे लगा बीएन कॉलेज ने कभी दूसरो के कंधो पर टेक नही लगायी कि वह खुद कुछ नही कर सकता। मुझे लगा अमर-अकबर-एंथोनी की राजनीति ने पंगू बनाया है , भरोसा तोड़ा..डिगाया है।(जारी.......)
13 दिसंबर यानी शनिवार का दिन। पटना जक्शन पर हावड़ा राजधानी रुकी। स्टेशन से बाहर निकलते ही चहल-पहल ने इसका अहसास तो करा दिया कि आराम का कोई दिन नहीं है। लेकिन, बाहर पार्किग में खडी गाड़ियों की कतारो में कमोवेश हर गाड़ी के साथ कोई न कोई बंदूकधारी या खाकीधारी सरीखे सुरक्षाकर्मी को देखकर यह सवाल दिमाग में घुमड़ गया कि ऐसी कौन सी सुरक्षा की जरुरत है ?
तभी मुझे लेने पहुंचे ड्राइवर ने मुझसे दस रुपये मांगे और अपने साथ आये सुरक्षाधारी को नोट थमाते हुये कहा कि आप टेंपू से घर लौट जाओ। ड्राइवर का नाम तकदीर था, जो मुझे पटना किताब मेले में ले जाने के लिए पहुंचा था। मैंने तकदीर से कहा, आप उसे भी गाड़ी में बैठा लीजिये। जगह तो काफी है। तकदीर का जवाब था अब तो पौ फट गयी है....सो कोई डर नहीं। डर... किसका डर ? तकदीर का जबाब था, राजधानी के पहुंचने का वक्त सुबह पौने पांच का है। उस वक्त अंधेरा रहता है। अकेले गाड़ी ले जाना ठीक नहीं होता । तो गार्ड को भी गाड़ी में साथ ही ले आये ।
जाहिर है, मेरी आंखों के सामने स्टेशन की पार्किंग का वह दृश्य घुमड़ गया, जहां जितनी प्राइवेट गाडियां थीं, उतने की बंदूकधारी। वाक्या खत्म होता, उससे पहले ही स्टेशन चौक की धमाचौकड़ी ने घेर लिया। एक तरफ से प्रसिद्ध हनुमान मंदिर के लाउड स्पीकर से पूजा की गूंज तो कई दूसरी दिशाओं से ट्रैफिक पुलिस की सीटी..बस का हार्न..रिक्शा और टेंपू के झगडे..हंगामा। सबकुछ। लगा ही नही कि सुबह का वक्त है। कोई शख्स ऐसा नही दिखा जिसको देख यह एहसास हो कि अभी तो सुबह शुरु भी नही हुई है। उबासी..जम्हाई के बदले तल्खी और तेवर का जो सुरुर हर व्यक्ति में नजर आ रहा था...उसने एक झटके में मेरे आराम करने की सोच को धराशाई कर दिया।
मैं सोच रहा था कि होटल पहुंच कर कुछ आराम कर लूंगा और दस बजे के बाद शहर में निकलूंगा। पत्नी और बच्चों को पटना दर्शन कराऊंगा, जो पहली बार पटना आये हैं। लेकिन स्टेशन से होटल पहुंचते पहुंचते लगने लगा कि पटना की बैचेनी बदल चुकी है। दो दशक पहले की कई यादें मेरे दिमाग में कौंधने लगी। उस समय राजेन्द्रनगर से गांधी मैदान तक सुबह सुबह कभी कभी जॉगिंग करने तो नही, पर टहलते हुये यूं ही आना जरुर होता था। लेकिन तब गांधी मैदान हरा भरा दिखायी लगता। चाय की चुस्कियों के साथ गांधी मैदान के भीतर बाहर बहस-चर्चा में एक गर्मी दिखायी देती जो अंदर की बैचेनी को बाहर लाती। राजनीति को लेकर सवाल खड़ा करना और आंदोलनों की सही राह को लेकर आंदोलनकर्मियों को मान्यता देते हुये सीख का पाठ पढ़ाने का तरीका कुछ इस ऐसा होता कि बहस-चर्चा में एक गुंजाइश हमेशा बरकरार रहती।
चहल पहल या कहें गाड़ी से दिखायी दे रही भीड-भडक्का ने मेरी सारी खुमारी तोड़ डाली और होटल में सामान पटक कर मैं भी अपनी यादों में पर लगाने परिवार के साथ तुरंत सड़क पर आ गया । सूबह साढे आठ बजे का वक्त और होटल मौर्या से पैदल ही गोलघर चल पड़ा। कोई टिकट नहीं है के जबाब ने बच्चो को चौंकाया लेकिन सीढियों की हालत ने तुरंत बच्चो के गणित और अर्थव्यवस्था के तार झटका दिये कि टिकट लेकर मिलने वाले पैसे से कुछ तो ठीक हो सकता है। लेकिन मेरी नज़र गोलघर के ठीक नीचे की उस जमीन पर पड़ी, जहा कूडे का ढेर था और अगल-बगल के हम कुछ लोगों का खुला पखानाघर या कहे अटैच बाथरुम।
दरअसल, 1985-88 के दौर में यहां नुक्कड नाटक की ट्रेनिंग होती थी। कई संगठन सुबह या शाम को यहां जमा होते और नुक्कड नाटक के जरिये विचारधारा को राजनीतिक लेप चढाकर अपनी बैचेनी को रीलिज करते। मैं खुद सालों साल तक गोलघर से सटे इसी मैदान में अपने नौ या दस साथियों के साथ नुक्कड नाटक की प्रैक्टिस करता था। उस दौर में नुक्कड़ नाटक और रंगमंच के बीच प्रतिस्पर्धा तो होती ही थी, लेकिन अक्सर राजनीति को आईना दिखाने की प्रतिस्पर्धा कहीं ज्यादा होती। यानी नुक्कड़ नाटक में तत्कालीन राजनीतिक स्वार्थ पर किसी ना किसी दृश्य के जरिये चोट कर ही दी जाती थी, जिससे देखने वाले अपने अंदर की बैचेनी को नाटक से जोड़ते और वाहवाही मिलती।
अब वह मैदान छोटे से चबूतरे से लेकर शहरी डस्टबीन में बदला नजर आया। यकीकन मै हिम्मत नहीं जुटा सका कि बच्चों को बताऊ कि यहां थियेटर बनने का सपना कभी नुक्कड नाटक करने वाले देखा करते थे। मुझे पता है उनका अगला सवाल यही होता कि फिर बना क्यों नहीं। कौन नहीं चाहता । और इस तरह की गंदगी से बेहतर तो सिर्फ साफ मैदान रखना ही अच्छा होता। यह सवाल इसलिये आते क्योकि दिल्ली के जेएनयू में झाड़ और पहाड़ी के बीच एक खुला थियेटर मुनिस रजा ने बनवाया था। और मैंने बच्चों को जेएनयू दिखाते हुये यह जानकारी दी थी कि कुछ लड़के-लड़किया यहां नाटक की प्रैक्टिस करते थे। एक शाम टहलते हुये उस वक्त के वाइस चासंलर मुनिस रजा की नजर उन पर पड़ गयी और उन्होने उस जगह को उन्ही के मनमाफिक गढ़ दिया। तो गोलघर के मैदान पर सवाल उठाने का मतलब था राज्य के मुखिया पर सवाल उठाना क्योंकि बच्चे पूछते ही कि वीसी बड़ा होता है या मुख्यमंत्री। और अगला सवाल उठता कि वीसी कालेज में घूमता है तो मुख्समंत्री भी घूमता होगा। यह सब देख कर उन्हें क्या महसूस होता होगा।
खैर गोलघर से दूसरी तरफ से उतरते ही गेट के ठीक सामने एक पेटी दिखायी दी जिसमें दान पेटी लिखा था। पता चला इस पेटी का गोलघर से इतना ही लेना देना कि आने वाले लोग इसमे कुछ डाले तो गोलघर से सटे मंदिर के पंडित का भला हो। पंडित रामनारायण जी से भी वास्ता पडा तो उन्होंने बताया कि कभी कभी कोई विदेशी पर्यटक आते हैं तो दानपेटी को देखकर करेंसी डाल देते है। फिर पंडित जी खुद ही बोले करेंसी डालने वाले विदेशियो को लगता है कि गोलघर ने कभी काल से निजात दिलवायी, अब गोलघर की जर्जर हालत में कुछ गोलघर का भी भला कर दें।
कोहरे की बजह से गोलघर से गंगा नदी दिखायी दी नहीं तो गोलघर से दस रुपये में रिक्शा कर कलेक्ट्रियट घाट चल पड़े। गंगा किनारे की गंदगी को छट पूजा के वक्त कैसे निजात मिलती है, इसकी जानकारी बच्चो को देते हुये हम तुरंत कलेक्ट्रियट घाट भी पहुंच गये। लेकिन गंगा का पानी छू भी सके यह स्थिति घाट पर नही थी। हां, गंगा का पानी छूने के लिये जरुरी है कि आपका पांव कीचड से सराबोर हो। इस कीचड में कूडे-करकट का ऐसा मिलन कि, ये एहसास भी ना हो कि आप पानी छूने निकले हैं। हकीकत में छोटे छोटे गरीब बच्चों से लेकर कुत्ते-सूअर तक का ऐसा जमघट जो अपनी अपनी जिन्दगी की जरुरत के मुताबिक वहां फेंके पड़े ढेर में से कुछ चुन रहा है। किसी की फेंकी हुई चीज किसी दूसरे के लिये जिन्दगी कैसे होती है ये इस घाट पर पहुंच कर हर कोई महसूस कर सकता है। किसी को गंगा में पूजा करनी हो तो उसके लिये नाव चलती है, जो पूजा करने वाले को नदी के बीच में बने एक दियारा पर ले जाती है । वह जमीन घाट से दिखायी भी दे रही थी। नाव खेने वाले ने पूछने पर बताया कि वहीं साफ पानी है और जमीन भी साफ है। इसलिये हम वहीं ले जाते हैं, आप भी चल सकते है । लेकिन सफाई तो यहां भी हो सकती है , वह क्यों नहीं। इस पर मल्लाह ने ठहाका लगा कर कहा, हुजूर यहां सरकार है, वहां किसी की सरकार नही है। तो गंगा के दर्शन वहीं से कर हम लौट पड़े।
किताब मेला के कार्यक्रम में जाने से पहले मैंने सोचा जिस कालेज से मैंने ग्रेजुएशन की पढायी की वह तो बच्चों को दिखा दूं और अपनी स्मृति ताजा कर लूं। बीएन कॉलेज का मुख्य गेट बदल चुका था। अशोक राजपथ पर जिस जगह मुख्य गेट बना था अस्सी के दशक में वहा दीवार तोड़ कर कॉलेज में घुसने के लिये शार्टकट रास्ता बनाया गया था, जो सुराख वक्त के साथ बड़ा हुआ तो साइकिल भी उसी सुराख से अंदर जाने लगी। लेकिन यही सुराख मुख्य द्वार में बदल जायेगा य़ह कभी दिमाग में आया नही। लेकिन कॉलेज में घुसते ही वैचारिक सुराख भी नजर आया। सामने दीवार पर लिखा था, राज ठाकरे को फांसी दो-आइसा। मुझे याद आ गया जब 80 के शुरुआत में ही पटना यूनिवर्सिटी में जातीय हिंसा का रंग चढा तो एक के बाद एक कर छह छात्रों की हत्याएं हुईं । लेकिन बीएन कॉलेज के किसी लड़के को किसी ने हाथ लगाने की हिम्मत नही दिखायी। दो वजहें तो मैं जानता हूं । पहली, बीएन कालेज में छात्रों की गजब की एकजुटता थी। जिसे जातीय आधार पर बांटने की कोशिश कई बार हुई लेकिन बीएन कालेज हर बार भारी पड़ा और दूसरा, बीएन कालेज के छात्रों ने कभी वैसे नेता को तरजीह नही दी या उसके खिलाफ भी नही हुए, जिसके साथ खड़े होने या विरोध करने से उसे मान्यता मिलती। राज ठाकरे की सोच को कैसे राजनीति के जरिये साधा जा सकता है, यह अपनी जमीनी राजनीति के आसरे बात करने का हुनुर बीएन कालेज ने 1955 के छात्र आंदोलन से सिखाया। छात्रो से बातचीत में इसका एहसास तो हुआ कि छात्र मराठी मानुष की राजनीति कर नेता बने राज टाकरे से दो दो हाथ करने तक को तैयार है। लेकिन बिहार की राजनीति के अमर-अकबर-एंथोनी यानी पासवान-लालू-नीतिश की फिल्मी राजनीति से तंग है। यह जुमला बीएन कालेज के ही एक छात्र ने दिया। लेकिन जब सवाल बिहार के नेताओं की राजनीति के आसरे ही राजठाकरे की बनी राजनीतिक जमीन का सवाल उठा तो छात्रों ने माना की विकल्प गायब है। बीएन कालेज में कभी भी विकल्प की कमी महसूस नही की हुई। यानी जो स्थितियां जीने में हौसला देती हैं, वही इस बार बीएन कालेज में टूटी सी नजर आयीं।
मुझे याद आया पहली बार पटना से चुनाव लड़ने मैदान में उतरे डॉक्टर सी पी ठाकुर को भी अपनी जीत के लिये बीएन कालेज के बाहुबल और वैचारिक समझ का आसरा लेना पड़ा था । उनके भाषण कॉलेज हॉस्टल में ही लिखे जाते और जीप में भर भर के प्रचार करने लड़के भी बीएन कॉलेज से ही निकलते । राजनीतिशास्त्र के किसी प्रोफेसर से मुलाकात की सोच स्टाफ रुम की तरफ कदम बढाये तो पता चला अभी कोई प्रोफेसर पहुंचा नहीं है । ग्यारह बजने को थे । साढे ग्यारह से पहले कोई नही मिलेगा। एक बाबू ने जानकारी दी। बच्चों को साइकिल स्टैड दिखाने ले गये। वही एक जगह थी जो जस की तस । वैसे ही साइकिलों की भरमार। हां दीवारो पर हरी काई खासी ज्यादा जमी थी। मकड़ी के जाले और कुत्तों का बसेरा कुछ ज्यादा था। कॉलेज में पढ़ने आने वालो छात्रों की आर्थिक गवाही साइकिल स्टैंड दे रहा था। बेटे ने तस्वीर उतारी तो कुछ छात्रो ने कुछ धुंधले तरीके से मुझे पहचाना...कॉलेज के हालात का रोना रोया लेकिन हर आंखो में पहली बार मुझे बेबसी दिखी जो इंतजार कर रही थी कि कोई तो कुछ बदलेगा। मुझे लगा बीएन कॉलेज ने कभी दूसरो के कंधो पर टेक नही लगायी कि वह खुद कुछ नही कर सकता। मुझे लगा अमर-अकबर-एंथोनी की राजनीति ने पंगू बनाया है , भरोसा तोड़ा..डिगाया है।(जारी.......)
Monday, December 8, 2008
कहीं न्यूज चैनलों पर आक्रोष, बिजनेस तो नहीं !
सुबह का वक्त है। आप न्यूज चैनलों में बार-बार झांक रहे है। आपको इंतजार है,चार महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव परिणामों का। किसके हक में जाते हैं ये राज्य। कांग्रेस या बीजेपी। दिल्ली में शीला दीक्षित दस साल बाद भी बनी रहेंगी या बीजेपी का ओल्ड इज गोल्ड चलेगा। यानी वीके मल्होत्रा का पत्ता चल गया। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में बीजेपी की सत्ता बरकरार रह पाएगी या नहीं। और इन सबके बीच मुंबई हमलों के दौरान दिल्ली और मध्यप्रदेश में वोटिंग हुई तो क्या उसका लाभ बीजेपी को मिल जायेगा। राजस्थान, जहां उस दौर में वोटिंग हुई, जब देश में नेताओं को लेकर गुस्सा था और अर्से बाद वहा बड़ी तादाद में लोग वोट डालने निकल पड़े तो इसका मतलब क्या निकाला जाय। ये लोगों में आक्रोष सरकार के खिलाफ है। बीजेपी आंतकवाद को लेकर जीरो टौलेरेन्स के पक्ष में है या फिर बीजेपी आंतकवाद को लेकर फिर जिस तरह चुनाव प्रचार करने लगी, उसके खिलाफ लोग वोट देने निकल पड़े। ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके आधार पर न्यूज चैनल सुबह से ही सीटों के परिणाम के साथ विश्लेषण शुरु कर देंगे।
जाहिर है संसदीय व्यवस्था में लोकतंत्र का मतलब भी यही पैमाना है, जिसे न्यूज चैनल दिखा रहे होंगे। लेकिन आप याद कीजिये पिछले पिछले ढाई सौ घंटों में उन्हीं न्यूज चैनलों में क्या दिखाया जा रहा था और क्या कहा जा रहा था। जिस समय मुंबई का ताज-ओबेराय-कैफे आंतकवादी बारुद में धू-धू जल रहा था। गोलियों की आवाज में ताज के बाहर कबूतर फड़फड़ा कर उड़ रहे थे। उस दौर में मध्यप्रदेश में वोटिंग हुई। टीकमगढ़ के विधायक उम्मीदवार की हत्या कर दी गयी। लेकिन किसी न्यूज चैनल ने इस खबर को जरुरी नहीं समझा।
मुंबई में जो-जिस तर्ज पर हो रहा था, उसमे जरुरी भी नही था कि इसे दिखाया-बताया जाए। यह 27 नवंबर की घटना है। उस दिन सुबह सुबह किसी न्यूज चैनल पर मध्यप्रदेश की वह तस्वीर नहीं उभरी, जिसमें वोट डालने के लिये लंबी-लंबी कतारें दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र होने का ऐलान करतीं। जो तस्वीर न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर थी, वह ताज की थी। आंतक के साये के बावजूद पहली बार देश के हर अदने व्यक्ति ने ताज की खूबसूरती देखी। हर न्यूज चैनल के कैमरे ताज-ओबेराय पर ही टिके थे।
ये दिन दिल्ली में चुनाव प्रचार का भी आखिरी दिन था। यहां किसी नेता में इतनी हिम्मत नही थी कि वह दिल्ली की सडकों पर रैली कर ले। दिल्ली में 27 नवबंर को सोनिया गांधी-राहुल गांधी-लालकृष्ण आडवाणी से लेकर राजनाथ सिंह, मायावती,नरेन्द्र मोदी समेत देश के एक दर्जन उन बड़े नेताओं की रैली-भाषण होने थे, जो हमेशा देश की कमान सभालने के लिये सत्ता की जोड़तोड़ में भिड़े रहते हैं। लेकिन मुंबई हमलो की जो तस्वीर टीवी स्क्रीन पर रेंग रही थी उसमे हर नेता के सामने यही सवाल रेंग रहा होगा कि अगर जनता के बीच गये और वोटर ने मुंबई आंतक का गुस्सा कहीं उस रैली में निकाल दिया तो क्या होगा। खामोश नेता रहे । ये खामोशी 29 नवंबर को दिल्ली में वोटिंग के दौरान भी बरकार रही। मुंबई में गोलियों का शोर इस दिन थम चुका था लेकिन राजनेताओ के खिलाफ आग जोर पकड़ने लगी थी। न्यूज चैनलो में दिल्ली में वोटिग की लंबी लंबी कतारो की जगह मुंबई के शहीदो की जलती चिताओ की तस्वीर रेंग रही थी । हर तस्वीर के साथ न्यूज चैनल यह सवाल भी कडा कर थे कि सत्ता के लिये गठबंधन और आंतकवाद जैसे मुद्दे पर राजनीतिक असहमति का मतलब है क्या । पहली बार देश के नुक्कड-बाजार की जगह सुरक्षित पांच सितारा मिजाज पर आंतकवाद की गोलिया बरसी थीं तो उस घेरे में रहने वाला तबका और उस घेरे में घुसने के लिये बैचेन तबके के सामने सबसे बडा सवाल यही रेंग रहा था कि अब कहां जाएं।
वैसे, यह तबका वोट डालने से परहेज करता है। हालांकि विज्ञापनो में यही तबका वोट डालने के लिये प्रोत्साहित करता भी नजर आ जाता है। देश की राजनीति में इस समुदाय का कोई नेता नहीं होता बल्कि सरकार ही इस तबके की होती है। नीतियों को इसी तबके के अनुकुल बना कर विकास का समूचा खांचा बनाया जाता है। इसलिये वोटबैक के रुप में इस तबके को देखा भी नही जाता। पहली बार इसका मलाल भी इस तबके में उभरा कि उसकी सुविधाओं पर कोई आंच ना आये, इसे तो सरकार समझती है, लेकिन आतंकवाद ने वोट बैक की राजनीति से परे तबके की जमीन पर हमला क्यों कर दिया, जबकि इससे देश के राजनीतिक अंतर्रविरोध का लाभ आंतकवादियों को नहीं मिलता।
राजनीति और चुनाव से इतर न्यूज चैनलों के लिये यह एक ऐसे सवाल के तौर पर भी उभरा, जहां टीआरपी की लड़ाई राजनीति और पांच सितारा तबके को दिखाने की थी। पांच सितार समूह का आक्रोष और उसके इर्द-गिर्द वह मध्यम वर्ग जो भविष्य के लिये सबकुछ संजो कर रख लेना चाहता है और सपने में खुद को पांच सितारा के बीच पाता है, उसके सड़क पर उतरने से वही राजनीति लपेटे में आ गयी जो चुनाव को देश का सबसे बडा उत्सव करार देकर लोकतंत्र का झंडा उठाती है। न्यूज चैनल या कहें मीडिया इसी वक्त अपनी शक्ति का एहसास कराती है। क्योकि संवाद के लिये एकमात्र माध्यम वही होता है। और मुनाफे का बिजनेस करने की उसकी मजबूरी भी यहीं छिप जाती है, क्योंकि न्यूज चैनल का मुनाफा जनवादी रुप ले लेता है।
इसालिये जो सवाल ताज-ओबेराय से टकरकर सड़क पर उतरे हैं, उसने चुनावी लोकतंत्र की गाथा पर ही सवालिया निशान लगा दिया। लेकिन राजनीति से टकराव का चेहरा न्यूज चैनल से हटकर विकल्प के तौर पर व्यवस्था के सामने कैसे खड़ा हो सकता है, यह सोच पांच सितारा ने अभी तक तो परोसी नहीं और मीडिया ने खुद को भोंपू मान लिया है तो उसकी समझ का दायरा हर उस किलकारी में गूंजेगा जो देखने वालो के अंदर सनसनाहट पैदा कर सके। रोमानीपन पैदा कर सके । भावनाओं में उछाल ला सके। एक डर-खौफ को जिला सके। यह सब मुंबई हमले के दौरान मौजूद था, तो मीडिया ने दिखाया । मंडल मसीहा वीपी सिंह की मौत की खबर भी न्यूज चैनलों के पर्दे पर ना आ सकी।
मुंबई आंतक के बाद के ढाई सौ घंटो में राजनीति की खबर अगर न्यूज चैनलों के पर्दे पर उभरी तो वह महाराष्ट्र के उस मुख्यमंत्री को मजा चखाने के लिये जो ताज को पिकनिक स्पॉट मान कर चहलकदमी करने निकला या फिर उस उपमुख्यमंत्री को जिसने आंतक के जख्म को खुजली मान लिया। लेकिन अब जब आप न्यूज चैनलों के सामने बैठ कर राज्यों के चुनाव परिणाम जानने के लिये बैठे हैं, तो बीते ढाई सौ घंटे के विरोध और आक्रोष का मतलब क्या है। जिस राजनीति पर बहुत हुआ यानी "एऩफ इज एनफ" या "ऐलान-ए-जंग" कहते हुये न्यूज चैनलों ने मुबंई के घाव पर मलहम लगाया, आज जब वही न्यूज चैनल चुनाव में नेताओ की जीत के जरिये लोकतंत्र के गीत गाएंगे तो क्या यह कहा जा सकता है कि न्यूज चैनल आतंक के घाव पर मलहम नहीं नमक छिड़क रहे हैं। यह कैसे संभव है कि जिस राजनीति को सिरे से खारिज करने के लिये हर शहर में लोग एकजूट हुये और अपने हर दर्द को मुंबई आतंक से जोड़ा वह आक्रोष चुनाव परिणाम के साथ थम गया। और न्यूज चैनल ने जिस बहादुरी के साथ आंतक के हर मिनट्स को कैमरे में पकड़ा और देश को इस भरोसे में लिया कि वह लोगो के आक्रोष के साथ खड़ा है,क्या वही न्यूज मीडिया संसदीय लोकतंत्र का गीत गा कर आक्रोष को ठंडा करेगा। क्या फिर से न्यूज चैनलों पर नेताओ के भाषण, उनकी कुर्सी,मुद्दों को लेकर रटे रटे डायलॉग सुनाये जायेगे । और बोरियत होने पर राजू श्रीवास्तव सरीखा हास्य-व्यंग्य करने वाला कोई भी कार्यक्रम ताज-ओबेराय पर हुये हमले को व्यंग्य की विधा के साथ परोसेगा। न्यूज चैनल देखने वाले वही लोग हंसी-ठिठोली में खो जायेंगे, जो सड़कों पर उतर कर व्यवस्था बदलने की मांग करने लगे थे। टीवी न्यूज चैनलों के जरिए अगर देश का सच समझना है तो यकीनन यही सब होगा।
अगर न्यूज चैनलो के जरिये राजनीतिक बदलाव के आंदोलन में पांच सितारा संस्कृति खुद को सफल मान रही है तो यकीकनन चुनाव परिणाम देखने के बाद वही हंसी-ठिठोली होना ही है, जो 26-11 से पहले हो रहा था, चल रहा था । और अगर कहीं वाकई लोगो के अंदर आग है , आक्रोष है, जिसे न्यूज चैनल दिखाने को बाध्य हुये तो यकीन जानिये आप सुबह न्यूज चैनलों पर चुनी हुई सरकार के नुमाइन्दों की जगह आम लोगो का जमघट देखेंगे, जो बताना चाहेंगे अब पांच साल इंतजार नहीं करेंगे।
जाहिर है संसदीय व्यवस्था में लोकतंत्र का मतलब भी यही पैमाना है, जिसे न्यूज चैनल दिखा रहे होंगे। लेकिन आप याद कीजिये पिछले पिछले ढाई सौ घंटों में उन्हीं न्यूज चैनलों में क्या दिखाया जा रहा था और क्या कहा जा रहा था। जिस समय मुंबई का ताज-ओबेराय-कैफे आंतकवादी बारुद में धू-धू जल रहा था। गोलियों की आवाज में ताज के बाहर कबूतर फड़फड़ा कर उड़ रहे थे। उस दौर में मध्यप्रदेश में वोटिंग हुई। टीकमगढ़ के विधायक उम्मीदवार की हत्या कर दी गयी। लेकिन किसी न्यूज चैनल ने इस खबर को जरुरी नहीं समझा।
मुंबई में जो-जिस तर्ज पर हो रहा था, उसमे जरुरी भी नही था कि इसे दिखाया-बताया जाए। यह 27 नवंबर की घटना है। उस दिन सुबह सुबह किसी न्यूज चैनल पर मध्यप्रदेश की वह तस्वीर नहीं उभरी, जिसमें वोट डालने के लिये लंबी-लंबी कतारें दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र होने का ऐलान करतीं। जो तस्वीर न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर थी, वह ताज की थी। आंतक के साये के बावजूद पहली बार देश के हर अदने व्यक्ति ने ताज की खूबसूरती देखी। हर न्यूज चैनल के कैमरे ताज-ओबेराय पर ही टिके थे।
ये दिन दिल्ली में चुनाव प्रचार का भी आखिरी दिन था। यहां किसी नेता में इतनी हिम्मत नही थी कि वह दिल्ली की सडकों पर रैली कर ले। दिल्ली में 27 नवबंर को सोनिया गांधी-राहुल गांधी-लालकृष्ण आडवाणी से लेकर राजनाथ सिंह, मायावती,नरेन्द्र मोदी समेत देश के एक दर्जन उन बड़े नेताओं की रैली-भाषण होने थे, जो हमेशा देश की कमान सभालने के लिये सत्ता की जोड़तोड़ में भिड़े रहते हैं। लेकिन मुंबई हमलो की जो तस्वीर टीवी स्क्रीन पर रेंग रही थी उसमे हर नेता के सामने यही सवाल रेंग रहा होगा कि अगर जनता के बीच गये और वोटर ने मुंबई आंतक का गुस्सा कहीं उस रैली में निकाल दिया तो क्या होगा। खामोश नेता रहे । ये खामोशी 29 नवंबर को दिल्ली में वोटिंग के दौरान भी बरकार रही। मुंबई में गोलियों का शोर इस दिन थम चुका था लेकिन राजनेताओ के खिलाफ आग जोर पकड़ने लगी थी। न्यूज चैनलो में दिल्ली में वोटिग की लंबी लंबी कतारो की जगह मुंबई के शहीदो की जलती चिताओ की तस्वीर रेंग रही थी । हर तस्वीर के साथ न्यूज चैनल यह सवाल भी कडा कर थे कि सत्ता के लिये गठबंधन और आंतकवाद जैसे मुद्दे पर राजनीतिक असहमति का मतलब है क्या । पहली बार देश के नुक्कड-बाजार की जगह सुरक्षित पांच सितारा मिजाज पर आंतकवाद की गोलिया बरसी थीं तो उस घेरे में रहने वाला तबका और उस घेरे में घुसने के लिये बैचेन तबके के सामने सबसे बडा सवाल यही रेंग रहा था कि अब कहां जाएं।
वैसे, यह तबका वोट डालने से परहेज करता है। हालांकि विज्ञापनो में यही तबका वोट डालने के लिये प्रोत्साहित करता भी नजर आ जाता है। देश की राजनीति में इस समुदाय का कोई नेता नहीं होता बल्कि सरकार ही इस तबके की होती है। नीतियों को इसी तबके के अनुकुल बना कर विकास का समूचा खांचा बनाया जाता है। इसलिये वोटबैक के रुप में इस तबके को देखा भी नही जाता। पहली बार इसका मलाल भी इस तबके में उभरा कि उसकी सुविधाओं पर कोई आंच ना आये, इसे तो सरकार समझती है, लेकिन आतंकवाद ने वोट बैक की राजनीति से परे तबके की जमीन पर हमला क्यों कर दिया, जबकि इससे देश के राजनीतिक अंतर्रविरोध का लाभ आंतकवादियों को नहीं मिलता।
राजनीति और चुनाव से इतर न्यूज चैनलों के लिये यह एक ऐसे सवाल के तौर पर भी उभरा, जहां टीआरपी की लड़ाई राजनीति और पांच सितारा तबके को दिखाने की थी। पांच सितार समूह का आक्रोष और उसके इर्द-गिर्द वह मध्यम वर्ग जो भविष्य के लिये सबकुछ संजो कर रख लेना चाहता है और सपने में खुद को पांच सितारा के बीच पाता है, उसके सड़क पर उतरने से वही राजनीति लपेटे में आ गयी जो चुनाव को देश का सबसे बडा उत्सव करार देकर लोकतंत्र का झंडा उठाती है। न्यूज चैनल या कहें मीडिया इसी वक्त अपनी शक्ति का एहसास कराती है। क्योकि संवाद के लिये एकमात्र माध्यम वही होता है। और मुनाफे का बिजनेस करने की उसकी मजबूरी भी यहीं छिप जाती है, क्योंकि न्यूज चैनल का मुनाफा जनवादी रुप ले लेता है।
इसालिये जो सवाल ताज-ओबेराय से टकरकर सड़क पर उतरे हैं, उसने चुनावी लोकतंत्र की गाथा पर ही सवालिया निशान लगा दिया। लेकिन राजनीति से टकराव का चेहरा न्यूज चैनल से हटकर विकल्प के तौर पर व्यवस्था के सामने कैसे खड़ा हो सकता है, यह सोच पांच सितारा ने अभी तक तो परोसी नहीं और मीडिया ने खुद को भोंपू मान लिया है तो उसकी समझ का दायरा हर उस किलकारी में गूंजेगा जो देखने वालो के अंदर सनसनाहट पैदा कर सके। रोमानीपन पैदा कर सके । भावनाओं में उछाल ला सके। एक डर-खौफ को जिला सके। यह सब मुंबई हमले के दौरान मौजूद था, तो मीडिया ने दिखाया । मंडल मसीहा वीपी सिंह की मौत की खबर भी न्यूज चैनलों के पर्दे पर ना आ सकी।
मुंबई आंतक के बाद के ढाई सौ घंटो में राजनीति की खबर अगर न्यूज चैनलों के पर्दे पर उभरी तो वह महाराष्ट्र के उस मुख्यमंत्री को मजा चखाने के लिये जो ताज को पिकनिक स्पॉट मान कर चहलकदमी करने निकला या फिर उस उपमुख्यमंत्री को जिसने आंतक के जख्म को खुजली मान लिया। लेकिन अब जब आप न्यूज चैनलों के सामने बैठ कर राज्यों के चुनाव परिणाम जानने के लिये बैठे हैं, तो बीते ढाई सौ घंटे के विरोध और आक्रोष का मतलब क्या है। जिस राजनीति पर बहुत हुआ यानी "एऩफ इज एनफ" या "ऐलान-ए-जंग" कहते हुये न्यूज चैनलों ने मुबंई के घाव पर मलहम लगाया, आज जब वही न्यूज चैनल चुनाव में नेताओ की जीत के जरिये लोकतंत्र के गीत गाएंगे तो क्या यह कहा जा सकता है कि न्यूज चैनल आतंक के घाव पर मलहम नहीं नमक छिड़क रहे हैं। यह कैसे संभव है कि जिस राजनीति को सिरे से खारिज करने के लिये हर शहर में लोग एकजूट हुये और अपने हर दर्द को मुंबई आतंक से जोड़ा वह आक्रोष चुनाव परिणाम के साथ थम गया। और न्यूज चैनल ने जिस बहादुरी के साथ आंतक के हर मिनट्स को कैमरे में पकड़ा और देश को इस भरोसे में लिया कि वह लोगो के आक्रोष के साथ खड़ा है,क्या वही न्यूज मीडिया संसदीय लोकतंत्र का गीत गा कर आक्रोष को ठंडा करेगा। क्या फिर से न्यूज चैनलों पर नेताओ के भाषण, उनकी कुर्सी,मुद्दों को लेकर रटे रटे डायलॉग सुनाये जायेगे । और बोरियत होने पर राजू श्रीवास्तव सरीखा हास्य-व्यंग्य करने वाला कोई भी कार्यक्रम ताज-ओबेराय पर हुये हमले को व्यंग्य की विधा के साथ परोसेगा। न्यूज चैनल देखने वाले वही लोग हंसी-ठिठोली में खो जायेंगे, जो सड़कों पर उतर कर व्यवस्था बदलने की मांग करने लगे थे। टीवी न्यूज चैनलों के जरिए अगर देश का सच समझना है तो यकीनन यही सब होगा।
अगर न्यूज चैनलो के जरिये राजनीतिक बदलाव के आंदोलन में पांच सितारा संस्कृति खुद को सफल मान रही है तो यकीकनन चुनाव परिणाम देखने के बाद वही हंसी-ठिठोली होना ही है, जो 26-11 से पहले हो रहा था, चल रहा था । और अगर कहीं वाकई लोगो के अंदर आग है , आक्रोष है, जिसे न्यूज चैनल दिखाने को बाध्य हुये तो यकीन जानिये आप सुबह न्यूज चैनलों पर चुनी हुई सरकार के नुमाइन्दों की जगह आम लोगो का जमघट देखेंगे, जो बताना चाहेंगे अब पांच साल इंतजार नहीं करेंगे।
Thursday, December 4, 2008
हिन्दुस्तान नहीं, मुंबई मेरी जान.. !
कल तक जो लोग ज़िन्दगी के जज्बे के आसरे समूचे समाज को आगे ले जाने का जज्बा देते थे, वही आज बहुत हो चुका का सवाल क्यों खडा कर रहे हैं? मुंबई में 1993 के सीरियल ब्लास्ट से लेकर दो साल पहले शहर में उतरे पानी और लोकल ट्रेनों के विस्फोट ने कभी मुंबई की थकी-चुकी जुबान को उभरने नही दिया। हर बार चकाचौंध रोशनी के बीच से कई चेहरे उभर कर आये और कहा, शहर के ज़ख्म शहर को रोक नही सकते है। हर हाथ ने दूसरे का हाथ थामा।
लेकिन ताज और ओबेराय होटल पर हमलों के बाद ही ऐसा क्या हुआ, जिसने समूचे देश को हिलाकर रख दिया है। जबकि, ताज-ओबेराय-नरीमन हाउस-कैफे पर हुये हमले में मरने वालो की संख्या पानी में डूब कर मरनेवाले और लोकल सीरियल ब्लास्ट में मरने वालों से कम है। मगर मुंबई की चकाचौंध रोशनी के बीच से अब जो चेहरे सामने आ रहे हैं, वह डरे-सहमे हैं। उन्हे भरोसा ही नहीं हो रहा है कि पैसे की ताकत को भी आंतक के सामने जिन्दगी के लिये वैसे ही गुहार लगानी पड़ेगी, जैसी कोई आम भारतीय गुहार लगाता है। जबकि, मुंबई का सच आंतक से भागने का नहीं आंतक के करीब जाना है।
मुंबईकर को मुंबई एक ऐसा सपना बेचती है, जिसमे वह अपनी जड़ों की तरफ जब भी लौटे तो उसका सीना चौड़ा हो। नज़रें उठी हुई हों। यानी जिन छोटे-छोटे शहरों से , गांवों से लोग-बाग मुंबई में दशकों से हैं, उनके लिये मुंबईकर होना उस सुनहरे गीत की तरह है, जिसकी धुन पाईडपाइपर की धुन से ज्यादा सुरीली है। कोई मुंबईकर जब अपने पैतृक घर लौटता है तो उसके साथ मुबंई की वे कहानियां होती हैं,जिसे महज सूंघने के लिये ही समूचा गांव-घर सर आंखों पर बैठा कर रखता है। इसलिये मुंबई का पानी त्रासदी नही बनता, जैसे कोसी का पानी जिन्दगी लीलने वाला बन जाता है । सीरियल ब्लास्ट उसके लिये आंतक का साया नही बनता बल्कि सपनों के शहर में एक और रंगीन सपना बन कर उभरता है। क्योंकि, बहुसंख्यक मुंबईकर को इसका एहसास है कि अगर उसने अपने घाव दिखाये या उसमे भरे मवाद का ज़िक्र भी किया तो वह कभी न रुकने वाले मुबंई में टिक नहीं पायेगा। और ना ही उसके सपनों के खरीदार उसकी जडो में मिलेंगे, जहा से उसे असल रुआब मिलता है। जो उसे अपने समाज में ताज-ओबेराय वाली सामाजिक मान्यता दिलाती है।
दरअसल ताज-ओबेराय वाली सामाजिक मान्यता दिलानी वाली मुंबई में कभी ताज-ओबेराय पर भी हमला होगा यह किसी मुंबईकर ने कभी सोचा नही होगा । यह ठीक वैसे ही है जैसे फलदार पेड़ों की जड़ें कितनी भी बदसूरत हों, लेकिन फल रसीला देती है । इसलिये उनकी जड़ों को भी सहेज कर रखा जाता है। लेकिन रसीले फल की जगह अगर बदसूरत जड़ें ही निकल पड़ें तो जड़ों को कौन सहेजना चाहेगा। जाहिर है डरे और खौफजदा चेहरों को इसी बात का डर है कि उनके तरीके और आम आदमी के तरीके एक से कैसे हो सकते हैं। लगातार देश को दो चेहरों में बांटकर देश चलाने का नजरिया भी इसी लिये निशाने पर है। निशाने पर राजनीतिक नैतिकता और जिम्मेदारी का सवाल है तो कई सवाल एकसाथ खडे हुये है।
मसलन संसदीय राजनीति को खारिज करने के लिये पहली बार वह तबका सामने आया है, जिसने दो चेहरे बनाने की राजनीति को ना सिर्फ जमकर हवा दी बल्कि खुल्लम-खुल्ला साथ दिया। 1903 में ताज होटल का सपना संजोने वाले जमशेदजी टाटा दुनिया के सामने औघोगिक भारत की एक चकाचौघ तस्वीर रखना चाहते थे। सौ साल बाद दुनिया की चकाचौंध के सामने नतमस्तक होकर भारत अपना सबकुछ बेचने को तैयार खड़ा है। जब ताज का सपना बुना जा रहा था तब देश को बनाने का सपना भी संजोया जा रहा था। आज जब ताज बारुद से धू-धू कर जला है तो देश को राजनीति और चकाचौंध की रोशनी धू-धू कर जला रही है। समूचे देश के बीच ताज-ओबेराय की भौगोलिक स्थिति दशमलव शून्य सरीखी होगी । लेकिन आधुनिक पहचान के तौर पर यह उस सौ फीसदी पर भारी है, जिनकी देश में तादाद पांच से सात फीसदी होगी।
लेकिन इस पांच से सात फीसदी के घेरे में आने के लिये जिस तरह देश के साठ-सत्तर फीसदी लोग बैचैन हैं और उनकी बैचेनी के पीछे जो राजनीतिक समझ बनायी गयी है, पहली बार वे दोनो आमने सामने खड़ी हैं। इसलिये बैचेनी दिखायी दे रही है । यह बैचेनी संसद पर हमले से लेकर दो महिने पहले दिल्ली में हुये धमाको के दौरान नही उभरी। यह बेचैनी उन आर्थिक नीतियों के फेल होने से नही उभरीं, जिसके लागू होने के बाद से देश के पचास हजार किसानो ने आत्महत्या कर ली। ये बेचैनी साप्रदायिक और अलगाववादी राजनीतिक हिसां के दौरान नहीं उभरी जिसने कश्मीर से कन्याकुमारी और मुंबई से गुवाहाटी तक में आग लगायी । बीते आठ साल में सौ से ज्यादा घटनाओ में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गये। तब भी बेचैनी नहीं जागी।
हर बार समाधान की चाबी उस राजनीति के ही भरोसे रखी गयी, जिसने लोकतंत्र को ही हाशिये पर ढकेलने में गुरेज नही किया। जो चेहरे डरे-सहमे से आंतक के खिलाफ खड़े हैं, उन्ही चेहरों ने मराठीमानुस की अलगाववादी हिंसा के आगे घुटने भी टेके। बेचैनी से ज्यादा सुकून था उन्हीं चेहरो पर क्योंकि जो शिकार हो रहे थे उससे ताज-ओबेराय पर दाग लग सकता है। इस संस्कृति को सभी सहेज कर रखना चाहते थे । यह चकाचौंध बरकरार रहे । पांच सितारा संस्कृति पर आंच नहीं आये। उसके लिये राजनीति का निशाना जिस गोली से साधा जा रहा है, वह भी गौर करना होगा और भविष्य की दिशा क्या हो सकती है यह भी समझना होगा।
राजनीति को उकसाया जा रहा है सुरक्षाकर्मियों के भरोसे । देश में मिलेट्री शासन नही लोकतंत्र है , यह कहने की जरुरत नही है। लेकिन लोकतंत्र सुरक्षा घेरे में चल रहा है यह समझने की जरुरत जरुर है। देश में मौजूद पुलिसकर्मियों में से तीस फीसदी पुलिस वालो का काम वीआईपी सुरक्षा देखना है। यानी उन नेताओं की सुरक्षा करना जिन्हें जनता ने चुना है। दिल्ली में यह पचपन फीसदी है, और मुबंई में सैतिस फीसदी। महाराष्ट् में ओसतन एक पुलिसकर्मी पर महिने में उसकी पगार समेत ट्रेनिग और तमाम सुविधाओ समेत पन्द्रह हजार रुपये खर्च किये जाते है। यह रकम उतनी ही है, जितने में ताज-ओबेराय में एक वक्त एक छोटा परिवार खाना खा ले। साल भर में जितनी रकम महाराष्ट्र के समूचे पुलिस महकमे पर खर्च होती है, उससे दुगुना से ज्यादा लाभ ताज होटल एक महिने में कमा लेता है। देश के साठ फीसदी पुलिसकर्मियों को ताज में सबसे कम पगार पाने वाले भी कम पगार मिलती है। सेना को तमाम सुविधाओ समेत औसतन जितना वेतन मिलता है, उससे ज्यादा वेतव ताज-ओबेराय में शेफ को मिलता है। जिस समय ताज-ओबेराय पर हमला हुआ उससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर्मचारी-अधिकारियों से लेकर देसी उधोगों के अधिकारी और सरकारी नौकरशाह और सांसद से लेकर नेता तक फंसे थे।
यह जगह उन चेहरो के लिये भी रोजमर्रा की सराय है, जो चकाचौंध रोशनी में नहाया हुआ है। इसलिये लहू कही ज्यादा खौफजदा है, क्योंकि उसके सराय पर हमला हुआ है । लेकिन नये दौर में यह सराय बरकरार रहे , इसके लिये संसदीय व्यवस्था ने वह तमीज भी छोड़ी है, जिसमें वह कभी कल्याणकारी हुआ करता था । ताज-ओबेराय का मतलब अगर विकसित देश होना है, तो नयी राजनीति का मतलब मुनाफे की थ्योरी के लागू करना है। मुनाफे से मतलब देश की तरक्की है। तरक्की से मतलब ताज में चाय की चुस्की के साथ अरब सागर के पानी को निहारना है। संसदीय राजनीति की ऐसी नीतियों पर टकराव ना हो इसलिये राजनीति के विकेन्द्रीकरण का ही परिणाम है कि देश में कुल सेना 37 लाख 89 हजार तीन सौ है तो राजनीति करने वाले चुने हुये नुमाइन्दों की तादाद 38 लाख 67 हजार 902 है । राजनेताओ की यह संख्या सिर्फ चुने हुये की है। सांसद से लेकर पंचायत और ग्राम पंचायत तक में चुनाव लड़ने वालों की तादाद का आकलन करे तो संख्या करोड़ पार कर जायेगी। दुनिया की किसी भी संस्था से सबसे ज्यादा रोजगार देनी वाली संस्था भारतीय राजनीति ही है।
जाहिर है सत्ता के विकेन्द्रीकरण में राजनीति ने अपना बचाव जीने के दूसरे विकल्पों को खत्मकर अपने साथ खड़े लोगो को बढ़ाकर किया । तो इस राजनीति के कंधों पर सवार होकर ताज-ओबेराय ने अपनी चमक बढ़ायी। अब जब दोनो आमने सामने हैं तो उस भारत के बनने का इंतजार कीजिये, जिसमे सोने की चिड़िया की धुन सिर्फ मुंबई की न हो बल्कि हिन्दुस्तान की हो।
लेकिन ताज और ओबेराय होटल पर हमलों के बाद ही ऐसा क्या हुआ, जिसने समूचे देश को हिलाकर रख दिया है। जबकि, ताज-ओबेराय-नरीमन हाउस-कैफे पर हुये हमले में मरने वालो की संख्या पानी में डूब कर मरनेवाले और लोकल सीरियल ब्लास्ट में मरने वालों से कम है। मगर मुंबई की चकाचौंध रोशनी के बीच से अब जो चेहरे सामने आ रहे हैं, वह डरे-सहमे हैं। उन्हे भरोसा ही नहीं हो रहा है कि पैसे की ताकत को भी आंतक के सामने जिन्दगी के लिये वैसे ही गुहार लगानी पड़ेगी, जैसी कोई आम भारतीय गुहार लगाता है। जबकि, मुंबई का सच आंतक से भागने का नहीं आंतक के करीब जाना है।
मुंबईकर को मुंबई एक ऐसा सपना बेचती है, जिसमे वह अपनी जड़ों की तरफ जब भी लौटे तो उसका सीना चौड़ा हो। नज़रें उठी हुई हों। यानी जिन छोटे-छोटे शहरों से , गांवों से लोग-बाग मुंबई में दशकों से हैं, उनके लिये मुंबईकर होना उस सुनहरे गीत की तरह है, जिसकी धुन पाईडपाइपर की धुन से ज्यादा सुरीली है। कोई मुंबईकर जब अपने पैतृक घर लौटता है तो उसके साथ मुबंई की वे कहानियां होती हैं,जिसे महज सूंघने के लिये ही समूचा गांव-घर सर आंखों पर बैठा कर रखता है। इसलिये मुंबई का पानी त्रासदी नही बनता, जैसे कोसी का पानी जिन्दगी लीलने वाला बन जाता है । सीरियल ब्लास्ट उसके लिये आंतक का साया नही बनता बल्कि सपनों के शहर में एक और रंगीन सपना बन कर उभरता है। क्योंकि, बहुसंख्यक मुंबईकर को इसका एहसास है कि अगर उसने अपने घाव दिखाये या उसमे भरे मवाद का ज़िक्र भी किया तो वह कभी न रुकने वाले मुबंई में टिक नहीं पायेगा। और ना ही उसके सपनों के खरीदार उसकी जडो में मिलेंगे, जहा से उसे असल रुआब मिलता है। जो उसे अपने समाज में ताज-ओबेराय वाली सामाजिक मान्यता दिलाती है।
दरअसल ताज-ओबेराय वाली सामाजिक मान्यता दिलानी वाली मुंबई में कभी ताज-ओबेराय पर भी हमला होगा यह किसी मुंबईकर ने कभी सोचा नही होगा । यह ठीक वैसे ही है जैसे फलदार पेड़ों की जड़ें कितनी भी बदसूरत हों, लेकिन फल रसीला देती है । इसलिये उनकी जड़ों को भी सहेज कर रखा जाता है। लेकिन रसीले फल की जगह अगर बदसूरत जड़ें ही निकल पड़ें तो जड़ों को कौन सहेजना चाहेगा। जाहिर है डरे और खौफजदा चेहरों को इसी बात का डर है कि उनके तरीके और आम आदमी के तरीके एक से कैसे हो सकते हैं। लगातार देश को दो चेहरों में बांटकर देश चलाने का नजरिया भी इसी लिये निशाने पर है। निशाने पर राजनीतिक नैतिकता और जिम्मेदारी का सवाल है तो कई सवाल एकसाथ खडे हुये है।
मसलन संसदीय राजनीति को खारिज करने के लिये पहली बार वह तबका सामने आया है, जिसने दो चेहरे बनाने की राजनीति को ना सिर्फ जमकर हवा दी बल्कि खुल्लम-खुल्ला साथ दिया। 1903 में ताज होटल का सपना संजोने वाले जमशेदजी टाटा दुनिया के सामने औघोगिक भारत की एक चकाचौघ तस्वीर रखना चाहते थे। सौ साल बाद दुनिया की चकाचौंध के सामने नतमस्तक होकर भारत अपना सबकुछ बेचने को तैयार खड़ा है। जब ताज का सपना बुना जा रहा था तब देश को बनाने का सपना भी संजोया जा रहा था। आज जब ताज बारुद से धू-धू कर जला है तो देश को राजनीति और चकाचौंध की रोशनी धू-धू कर जला रही है। समूचे देश के बीच ताज-ओबेराय की भौगोलिक स्थिति दशमलव शून्य सरीखी होगी । लेकिन आधुनिक पहचान के तौर पर यह उस सौ फीसदी पर भारी है, जिनकी देश में तादाद पांच से सात फीसदी होगी।
लेकिन इस पांच से सात फीसदी के घेरे में आने के लिये जिस तरह देश के साठ-सत्तर फीसदी लोग बैचैन हैं और उनकी बैचेनी के पीछे जो राजनीतिक समझ बनायी गयी है, पहली बार वे दोनो आमने सामने खड़ी हैं। इसलिये बैचेनी दिखायी दे रही है । यह बैचेनी संसद पर हमले से लेकर दो महिने पहले दिल्ली में हुये धमाको के दौरान नही उभरी। यह बेचैनी उन आर्थिक नीतियों के फेल होने से नही उभरीं, जिसके लागू होने के बाद से देश के पचास हजार किसानो ने आत्महत्या कर ली। ये बेचैनी साप्रदायिक और अलगाववादी राजनीतिक हिसां के दौरान नहीं उभरी जिसने कश्मीर से कन्याकुमारी और मुंबई से गुवाहाटी तक में आग लगायी । बीते आठ साल में सौ से ज्यादा घटनाओ में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गये। तब भी बेचैनी नहीं जागी।
हर बार समाधान की चाबी उस राजनीति के ही भरोसे रखी गयी, जिसने लोकतंत्र को ही हाशिये पर ढकेलने में गुरेज नही किया। जो चेहरे डरे-सहमे से आंतक के खिलाफ खड़े हैं, उन्ही चेहरों ने मराठीमानुस की अलगाववादी हिंसा के आगे घुटने भी टेके। बेचैनी से ज्यादा सुकून था उन्हीं चेहरो पर क्योंकि जो शिकार हो रहे थे उससे ताज-ओबेराय पर दाग लग सकता है। इस संस्कृति को सभी सहेज कर रखना चाहते थे । यह चकाचौंध बरकरार रहे । पांच सितारा संस्कृति पर आंच नहीं आये। उसके लिये राजनीति का निशाना जिस गोली से साधा जा रहा है, वह भी गौर करना होगा और भविष्य की दिशा क्या हो सकती है यह भी समझना होगा।
राजनीति को उकसाया जा रहा है सुरक्षाकर्मियों के भरोसे । देश में मिलेट्री शासन नही लोकतंत्र है , यह कहने की जरुरत नही है। लेकिन लोकतंत्र सुरक्षा घेरे में चल रहा है यह समझने की जरुरत जरुर है। देश में मौजूद पुलिसकर्मियों में से तीस फीसदी पुलिस वालो का काम वीआईपी सुरक्षा देखना है। यानी उन नेताओं की सुरक्षा करना जिन्हें जनता ने चुना है। दिल्ली में यह पचपन फीसदी है, और मुबंई में सैतिस फीसदी। महाराष्ट् में ओसतन एक पुलिसकर्मी पर महिने में उसकी पगार समेत ट्रेनिग और तमाम सुविधाओ समेत पन्द्रह हजार रुपये खर्च किये जाते है। यह रकम उतनी ही है, जितने में ताज-ओबेराय में एक वक्त एक छोटा परिवार खाना खा ले। साल भर में जितनी रकम महाराष्ट्र के समूचे पुलिस महकमे पर खर्च होती है, उससे दुगुना से ज्यादा लाभ ताज होटल एक महिने में कमा लेता है। देश के साठ फीसदी पुलिसकर्मियों को ताज में सबसे कम पगार पाने वाले भी कम पगार मिलती है। सेना को तमाम सुविधाओ समेत औसतन जितना वेतन मिलता है, उससे ज्यादा वेतव ताज-ओबेराय में शेफ को मिलता है। जिस समय ताज-ओबेराय पर हमला हुआ उससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कर्मचारी-अधिकारियों से लेकर देसी उधोगों के अधिकारी और सरकारी नौकरशाह और सांसद से लेकर नेता तक फंसे थे।
यह जगह उन चेहरो के लिये भी रोजमर्रा की सराय है, जो चकाचौंध रोशनी में नहाया हुआ है। इसलिये लहू कही ज्यादा खौफजदा है, क्योंकि उसके सराय पर हमला हुआ है । लेकिन नये दौर में यह सराय बरकरार रहे , इसके लिये संसदीय व्यवस्था ने वह तमीज भी छोड़ी है, जिसमें वह कभी कल्याणकारी हुआ करता था । ताज-ओबेराय का मतलब अगर विकसित देश होना है, तो नयी राजनीति का मतलब मुनाफे की थ्योरी के लागू करना है। मुनाफे से मतलब देश की तरक्की है। तरक्की से मतलब ताज में चाय की चुस्की के साथ अरब सागर के पानी को निहारना है। संसदीय राजनीति की ऐसी नीतियों पर टकराव ना हो इसलिये राजनीति के विकेन्द्रीकरण का ही परिणाम है कि देश में कुल सेना 37 लाख 89 हजार तीन सौ है तो राजनीति करने वाले चुने हुये नुमाइन्दों की तादाद 38 लाख 67 हजार 902 है । राजनेताओ की यह संख्या सिर्फ चुने हुये की है। सांसद से लेकर पंचायत और ग्राम पंचायत तक में चुनाव लड़ने वालों की तादाद का आकलन करे तो संख्या करोड़ पार कर जायेगी। दुनिया की किसी भी संस्था से सबसे ज्यादा रोजगार देनी वाली संस्था भारतीय राजनीति ही है।
जाहिर है सत्ता के विकेन्द्रीकरण में राजनीति ने अपना बचाव जीने के दूसरे विकल्पों को खत्मकर अपने साथ खड़े लोगो को बढ़ाकर किया । तो इस राजनीति के कंधों पर सवार होकर ताज-ओबेराय ने अपनी चमक बढ़ायी। अब जब दोनो आमने सामने हैं तो उस भारत के बनने का इंतजार कीजिये, जिसमे सोने की चिड़िया की धुन सिर्फ मुंबई की न हो बल्कि हिन्दुस्तान की हो।
Monday, November 24, 2008
आरएसएस को हिन्दुत्व का पाठ पढ़ाएंगी सावरकर की पाती !
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की मानें तो एटीएस पंचतंत्र की कहानी लिख रहा है। क्योंकि जो लोग मालेगांव ब्लास्ट के आरोपी हो सकते हैं, वही लोग संघ के कार्यवाह मोहनराव भागवत और कार्यकारिणी सदस्य इन्द्रेश कुमार की हत्या की साजिश कैसे रच सकते हैं। लेकिन हिन्दुत्व की जिस राह को 'अभिनव भारत' सरीखा संगठन पकड़े हुये है और हिन्दुत्व का नाम लेते लेते आरएसएस जिस राह पर जा चुका है अगर दोनो की स्थिति को दोनो के घेरे में ही देखे तो पहला सवाल यही उठेगा कि मालेगांव को लेकर जो सोच अभिनव भारत में है, कमोवेश वही सोच आरएसएस को भी लेकर है। यानी मालेगाव और संघ के हिन्दुत्व में कोई अंतर करने की स्थिति में 'अभिनव भारत' नहीं है।
इस स्थिति को समझने से पहले जरा दोनों के अतीत को समझ लें। दरअसल, अभिनव भारत जिस हिन्दु महासभा से निकला उसके कर्ता-धर्त्ता सावरकर थे जो सीधे कहते थे," इस ब्रह्माण्ड में हिन्दुओं का अपना देश होना ही चाहिये, जहां हम हिन्दुओं के रुप में, शक्तिशाली लोगो के वंशज के रुप में फलते-फूलते रहें। सो, शुद्दि को अपनाये, जिसका केवल धार्मिक नहीं, राजनीतिक पहलू भी है । " वहीं हेडगेवार समाज के शुद्दिकरण के रास्ते हिन्दु राष्ट्र का सपना देशवासियो की आंखों में संजोना चाहते थे।
सावरकर पुणे की जमीन और कोकणस्थ ब्रह्माणों के बीच से हिन्दुसभा को खड़ा कर सैनिक संघर्ष के लिये 1904 में अभिनव भारत को लेकर ब्रिट्रिश सरकार को चुनौती दे रहे थे। वहीं दो दशक बाद हेडगेवार नागपुर की जमीन पर तेलुगु ब्राह्मणों के बीच से हिन्दुओं के अनुकुल स्थिति बनाने के लिये कांग्रेस की नीतियों का विरोध कर हिन्दुत्व शुद्दिकरण पर जोर दे रहे थे। उस दौर में सावरकर के तेवर के आगे आरएसएस कोई मायने नहीं रखती थी । ठीक उसी तरह जैसे अब आरएसएस के आगे हिन्दु महासभा कोई मायने नहीं रखती । सावरकर की पुत्रवधु हिमानी सावरकर 2004 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हिन्दुमहासभा का अलख लिये चुनाव लड़ रही थीं। उस समय बीजेपी ही नहीं आरएसएस के स्वयंसेवक भी मजा ले रहे थे। हिमानी अपना चुनाव प्रचार करने ऑटो पर निकलती थीं और बीजेपी के समर्थक जो शायद आरएसएस से भी जुड़े रहे होगे, आटोवाले को कहते थे "हिमानी पैसा ना दे पाये तो हमसे ले लेना ।"
लेकिन वही दौर ऐसा भी था जब आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर घमासान मचा हुआ था । इसलिये कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार में ठंडे बस्ते में डल चुका था ।पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोडने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमो को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।
जाहिर है इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देख कर खुद को अलग थलग समझ रहा था बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो सावरकर के आसरे कभी आरएसएस को मान्यता नहीं देता था, वह कहीं ज्यादा खिन्न भी था । 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनो में जाना शुरु कर दिया । महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया ।
इस दौर में सावरकर -गोडसे की नयी पीढ़ी, जो संघ से पहले अंसतुष्ट थी, उसने सावरकर की संस्था 'अभिनव भारत' को फिर से सक्रिय करने की दिशा में वर्तमान कालखंड को ही उचित माना । इस विंग ने संघ पर भी मुस्लिम परस्ती और हिन्दु विरोधी सेक्यूलर राह पर जाने के आरोप मढ़ा। ऐसा नही है कि अभिनव भारत एकाएक उभरा और उसने संघ को निशाने पर ले लिया । दरअसल, 2006 में अभिनव भारत को दुबारा जब शुरु करने का सवाल उठा तो संघ के हिन्दुत्व को खारिज करने वाले हिन्दुवादी नेताओ की पंरपरा भी खुलकर सामने आयी। पुणे में हुई बैठक में , जिसमे हिमानी सावरकर भी मौजूद थीं, उसमें यह सवाल उठाया गया कि आरएसएस हमेशा हिन्दुओं के मुद्दे पर कोई खुली राय रखने की जगह खामोश रहकर उसका लाभ उठाना चाहता रहा है। बैठक में शिवाजी मराठा और लोकमान्य तिलक से हिन्दुत्व की पाती जोड कर सावरकर की फिलास्फी और गोडसे की थ्योरी को मान्यता दी गयी । बैठक में धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी से लेकर गोरक्षा पीठ के मंहत दिग्विजय नाथ और शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद के भक्तो की मौजूदगी थी । या कहे उनकी पंरपरा को मानने वालो ने इस बैठक में माना कि संघ के आसरे हिन्दुत्व की बात को आगे बढाने का कोई मतलब नहीं है।
माना यह भी गया कि बीजेपी को आगे रख कर संघ अब अपनी कमजोरी छुपाने में भी ज्यादा वक्त जाया कर रहा है इसलिये नये तरीके से हिन्दुराष्ट्र का सवाल खड़ा करना है तो पहले आरएसएस को खारिज करना होगा । हालांकि, ऐरएलएल के भीतर यह अब भी माना जाता है कि कांग्रेस से ज्यादा नजदीकी हिन्दुमहासभा की ही रही । 1937 तक तो जिस पंडाल में कांग्रेस का अधिवेशन होता था, उसी पंडाल में दो दिन बाद हिन्दुमहासभा का अधिवेशन होता। और मदन मोहन मालवीय के दौर में तो दोनो अधिवेशनों की अध्यक्षता मालवीय जी ने ही की। इसलिये आरएसएस कांग्रेस की थ्योरी से हटकर सोचती रही । लेकिन हिन्दु महासभा का मानना है कि संघ ने बीजेपी की सत्ता का मजा लेकर सत्ता दोबारा पाने के लिये खुद के संगठन का कांग्रेसीकरण ज्यादा कर लिया है और हिन्दु राष्ट्र की थ्योरी को पूरी तरह नकार दिया है।
महत्वपूर्ण यह भी है ब्राह्मणों की पंरपरा को लेकर भी मतभेद उभरे। चूकि हेडगेवार की तरह सुदर्शन भी तेलुगु ब्रह्मण है, तो हिन्दुत्व पर कड़ा रुख अपनाने की सुदर्शन की क्षमता को लेकर भी यह बहस हुई कि संघ फिलहाल सबसे कमजोर रुप में काम कर रहा है। इसलिये संघ की मराठी लाबी भी सावरकर की सोच को आगे बढाने में मदद करेगी। इन सब का असर संघ पर किस रुप में पड़ा है या फिर देश में जो राजनीतिक हालात हैं, उसमे सरसंघचालक सुदर्शन भी अंदर से किस तरह हिले हुये है इसका अंदाजा पिछले महीने 7 नबंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर गो-रक्षा के सवाल पर हिमानी सावरकर के साथ मंच पर खडे सुदर्शन को देख कर समझा जा सकता था । यानी जो परिस्थितियां सावरकर और संघ को अलग किये हुये थीं, उसमे पहली बार संघ के भीतर भी इस बात को लेकर कुलबलाहट है कि जिस राह पर वह चल रही है वह रास्ता सही नहीं है।
मामला सिर्फ मोहन भागवत या इन्द्रेश की हत्या की साजिश का नहीं है , पुणे में गोखले-साठे-पेशवा-सावरकर की कतार में खडे कोकनस्थ बह्मण अब स्वदेशी अर्थव्यवस्था के उस ढांचे को जीवित करना चाह रहे हैं, जिसकी बात कभी संघ के नेता दत्तोपंत ढेंगडी किया करते थे। लेकिन ढेंगडी अपनी बात कहते कहते मर गये मगर न वाजपेयी सरकार ने उनकी बात सुनी ना सरसंघचालक ने उन्हे तरजीह दी । जाहिर है, आजादी के बाद पहली बार अगर अभिनव भारत को बनाने की जरुरत सावरकर को मानने वाले कर रहे है तो इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दुत्व की जो थ्योरी सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर अभी तक आरएसएस परोस रही है और बीजेपी उसे राजनीतिक धार दे रही है, वह अपने ही कटघरे में पहली बार खड़ी है।
इस स्थिति को समझने से पहले जरा दोनों के अतीत को समझ लें। दरअसल, अभिनव भारत जिस हिन्दु महासभा से निकला उसके कर्ता-धर्त्ता सावरकर थे जो सीधे कहते थे," इस ब्रह्माण्ड में हिन्दुओं का अपना देश होना ही चाहिये, जहां हम हिन्दुओं के रुप में, शक्तिशाली लोगो के वंशज के रुप में फलते-फूलते रहें। सो, शुद्दि को अपनाये, जिसका केवल धार्मिक नहीं, राजनीतिक पहलू भी है । " वहीं हेडगेवार समाज के शुद्दिकरण के रास्ते हिन्दु राष्ट्र का सपना देशवासियो की आंखों में संजोना चाहते थे।
सावरकर पुणे की जमीन और कोकणस्थ ब्रह्माणों के बीच से हिन्दुसभा को खड़ा कर सैनिक संघर्ष के लिये 1904 में अभिनव भारत को लेकर ब्रिट्रिश सरकार को चुनौती दे रहे थे। वहीं दो दशक बाद हेडगेवार नागपुर की जमीन पर तेलुगु ब्राह्मणों के बीच से हिन्दुओं के अनुकुल स्थिति बनाने के लिये कांग्रेस की नीतियों का विरोध कर हिन्दुत्व शुद्दिकरण पर जोर दे रहे थे। उस दौर में सावरकर के तेवर के आगे आरएसएस कोई मायने नहीं रखती थी । ठीक उसी तरह जैसे अब आरएसएस के आगे हिन्दु महासभा कोई मायने नहीं रखती । सावरकर की पुत्रवधु हिमानी सावरकर 2004 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में हिन्दुमहासभा का अलख लिये चुनाव लड़ रही थीं। उस समय बीजेपी ही नहीं आरएसएस के स्वयंसेवक भी मजा ले रहे थे। हिमानी अपना चुनाव प्रचार करने ऑटो पर निकलती थीं और बीजेपी के समर्थक जो शायद आरएसएस से भी जुड़े रहे होगे, आटोवाले को कहते थे "हिमानी पैसा ना दे पाये तो हमसे ले लेना ।"
लेकिन वही दौर ऐसा भी था जब आरएसएस के भीतर बीजेपी को लेकर घमासान मचा हुआ था । इसलिये कार्यवाह का पद जब मोहन राव भागवत ने संभाला तो मोहनराव में लोग मधुकर राव भागवत को देख रहे थे । मधुकर राव भागवत ना सिर्फ मोहन भागवत के पिता थे बल्कि हेगडेवार जब आरएसएस को भारत की धमनियो में दौड़ाने की बात कहते थे तो मधुकरराव हमेशा उनके साथ खड़े रहे । उस दौर में मधुकर राव भागवत गुजरात में संघ के प्रांत प्रचारक थे, जो राजनीतिक नजरिए को खारिज कर हिन्दुत्व के जरिये समाज का शुद्दिकरण सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर करना चाहते थे। लेकिन मोहन भागवत ने जब कार्यवाह का पद संभाला तो अयोध्या में मंदिर निर्माण एक सपना बना दिया गया था। स्वदेशी मुद्दा एफडीआई के आगे घुटने टेक रहा था। गो-रक्षा का सवाल उठाना आर्थिक विकास की राह में पुरातनपंथी राग अलापने सरीखा करार दिया जा रहा था । धारा-370 का जिक्र राजनीतिक तौर पर एक बेमानी भरा शब्द हो चुका था। धर्मातरंण के आगे आरएसएस नतमस्तक नजर आ रहा था । बांग्लादेशी घुसपैठ का मामला वाजपेयी सरकार में ठंडे बस्ते में डल चुका था ।पूर्वोत्तर में संघ के चार स्वंयसेवकों की हत्या के बावजूद तब के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की खामोशी ने संघ के माथे पर लकीर खिंच दी थी । जम्मू-कश्मीर को तीन हिस्सो में बांट कर देश को जोडने के संघ कार्यकारिणी के फैसले को वाजपेयी सरकार ने ही ठेंगा दिखा दिया था । और इन सबके बीच बीजेपी की तर्ज पर मुस्लिमो को साथ लाने की जो पहल संघ के भीतर इन्द्रेश कुमार कर रहे थे उसने संघ के एक बडे तबके में बैचेनी पैदा कर दी थी ।
जाहिर है इन परिस्तिथितियो को महज संघ के भीतर का कट्टर हिन्दुत्व ही नही देख कर खुद को अलग थलग समझ रहा था बल्कि मराठी समाज का वह तबका जो सावरकर के आसरे कभी आरएसएस को मान्यता नहीं देता था, वह कहीं ज्यादा खिन्न भी था । 2002 से लेकर 2006 के दौरान विश्व हिन्दु परिषद से लेकर भारतीय मजदूर संघ,स्वदेशी जागरण मंच और किसान संघ के बीच का तालमेल भी बिगड़ता गया । इन सब के बीच सरसंघचालक कुपं सीं सुदर्शन की उस पहल ने आग में घी का काम किया जब आरएसएस पर लगी सांप्रदायिक छवि को धोने के लिये सुदर्शन ने मुस्लिम समारोह-सम्मेलनो में जाना शुरु कर दिया । महाराष्ट्र के हिन्दुवादी आंदोलन में संघ की इन तमाम पहल का नतीजा समाज के भीतर संघ की घटती हैसियत से साफ नजर आने लगा । 2004 में बाजपेयी सरकार की चुनाव में हार ने ना सिर्फ संघ के एंजेडे की हवा निकाल दी जो संघ के लिबरल होने पर बीजेपी की सत्ता का स्वाद चख रहा था और सत्ता को अपना औजार बनाकर हिन्दुत्व का राग अलापने से भी नही कतरा रहा था । बल्कि इस दौर में संघ के भीतर जिस मराठी लॉबी को हाशिये पर ठकेला गया था उसने खुलकर संघ की सेक्यूलर सोच को निशाना बनाना शुरु किया ।
इस दौर में सावरकर -गोडसे की नयी पीढ़ी, जो संघ से पहले अंसतुष्ट थी, उसने सावरकर की संस्था 'अभिनव भारत' को फिर से सक्रिय करने की दिशा में वर्तमान कालखंड को ही उचित माना । इस विंग ने संघ पर भी मुस्लिम परस्ती और हिन्दु विरोधी सेक्यूलर राह पर जाने के आरोप मढ़ा। ऐसा नही है कि अभिनव भारत एकाएक उभरा और उसने संघ को निशाने पर ले लिया । दरअसल, 2006 में अभिनव भारत को दुबारा जब शुरु करने का सवाल उठा तो संघ के हिन्दुत्व को खारिज करने वाले हिन्दुवादी नेताओ की पंरपरा भी खुलकर सामने आयी। पुणे में हुई बैठक में , जिसमे हिमानी सावरकर भी मौजूद थीं, उसमें यह सवाल उठाया गया कि आरएसएस हमेशा हिन्दुओं के मुद्दे पर कोई खुली राय रखने की जगह खामोश रहकर उसका लाभ उठाना चाहता रहा है। बैठक में शिवाजी मराठा और लोकमान्य तिलक से हिन्दुत्व की पाती जोड कर सावरकर की फिलास्फी और गोडसे की थ्योरी को मान्यता दी गयी । बैठक में धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी से लेकर गोरक्षा पीठ के मंहत दिग्विजय नाथ और शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानंद के भक्तो की मौजूदगी थी । या कहे उनकी पंरपरा को मानने वालो ने इस बैठक में माना कि संघ के आसरे हिन्दुत्व की बात को आगे बढाने का कोई मतलब नहीं है।
माना यह भी गया कि बीजेपी को आगे रख कर संघ अब अपनी कमजोरी छुपाने में भी ज्यादा वक्त जाया कर रहा है इसलिये नये तरीके से हिन्दुराष्ट्र का सवाल खड़ा करना है तो पहले आरएसएस को खारिज करना होगा । हालांकि, ऐरएलएल के भीतर यह अब भी माना जाता है कि कांग्रेस से ज्यादा नजदीकी हिन्दुमहासभा की ही रही । 1937 तक तो जिस पंडाल में कांग्रेस का अधिवेशन होता था, उसी पंडाल में दो दिन बाद हिन्दुमहासभा का अधिवेशन होता। और मदन मोहन मालवीय के दौर में तो दोनो अधिवेशनों की अध्यक्षता मालवीय जी ने ही की। इसलिये आरएसएस कांग्रेस की थ्योरी से हटकर सोचती रही । लेकिन हिन्दु महासभा का मानना है कि संघ ने बीजेपी की सत्ता का मजा लेकर सत्ता दोबारा पाने के लिये खुद के संगठन का कांग्रेसीकरण ज्यादा कर लिया है और हिन्दु राष्ट्र की थ्योरी को पूरी तरह नकार दिया है।
महत्वपूर्ण यह भी है ब्राह्मणों की पंरपरा को लेकर भी मतभेद उभरे। चूकि हेडगेवार की तरह सुदर्शन भी तेलुगु ब्रह्मण है, तो हिन्दुत्व पर कड़ा रुख अपनाने की सुदर्शन की क्षमता को लेकर भी यह बहस हुई कि संघ फिलहाल सबसे कमजोर रुप में काम कर रहा है। इसलिये संघ की मराठी लाबी भी सावरकर की सोच को आगे बढाने में मदद करेगी। इन सब का असर संघ पर किस रुप में पड़ा है या फिर देश में जो राजनीतिक हालात हैं, उसमे सरसंघचालक सुदर्शन भी अंदर से किस तरह हिले हुये है इसका अंदाजा पिछले महीने 7 नबंबर को दिल्ली के जंतर-मंतर पर गो-रक्षा के सवाल पर हिमानी सावरकर के साथ मंच पर खडे सुदर्शन को देख कर समझा जा सकता था । यानी जो परिस्थितियां सावरकर और संघ को अलग किये हुये थीं, उसमे पहली बार संघ के भीतर भी इस बात को लेकर कुलबलाहट है कि जिस राह पर वह चल रही है वह रास्ता सही नहीं है।
मामला सिर्फ मोहन भागवत या इन्द्रेश की हत्या की साजिश का नहीं है , पुणे में गोखले-साठे-पेशवा-सावरकर की कतार में खडे कोकनस्थ बह्मण अब स्वदेशी अर्थव्यवस्था के उस ढांचे को जीवित करना चाह रहे हैं, जिसकी बात कभी संघ के नेता दत्तोपंत ढेंगडी किया करते थे। लेकिन ढेंगडी अपनी बात कहते कहते मर गये मगर न वाजपेयी सरकार ने उनकी बात सुनी ना सरसंघचालक ने उन्हे तरजीह दी । जाहिर है, आजादी के बाद पहली बार अगर अभिनव भारत को बनाने की जरुरत सावरकर को मानने वाले कर रहे है तो इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हिन्दुत्व की जो थ्योरी सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर अभी तक आरएसएस परोस रही है और बीजेपी उसे राजनीतिक धार दे रही है, वह अपने ही कटघरे में पहली बार खड़ी है।
Wednesday, November 19, 2008
मस्त लोगों के मरे हुये मन !
नोट-आज 16 नवंबर, प्रेस दिवस है। ये लेख उसी उपलक्ष्य में लिखा गया है।
6 जून 1981 को बिहार की बागमती नदी में समस्तीपुर-वनमंखी पैसेंजर गाड़ी के सात डिब्बे टूट कर गिर गये । उस समय दिनमान के संपादक रघुवीर सहाय ने अपने संपादकीय में लिखा-" रेल दुर्घटना की खबर ने उन्हे छोड़, जिन के अपने सगे उस गाडी में थे, किसी को विचलित नहीं किया।" संपादक के नाम एक ऐसे पत्र को दिनमान की कवर स्टोरी का हिस्सा बनाया, जिसमें इस घटना को एक भयानक राष्ट्रीय विपत्ति बताया गया था। यह वाकया इसलिये याद आ गया दो महीने पहले बिहार में ही कोसी नदी ने जब अपनी धारा बदली तो सात जिलो के दो लाख लोगो को लील लिया। लेकिन किसी अखबार-पत्रिका या न्यूज चैनल की कवर या मुख्य स्टोरी यह तब तक नहीं बन पायी जब तक प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय विपदा नही बताया।
दिल्ली के किसी समाचार-पत्र को पढ़ कर बिहार के हालात की जानकारी किसी को नही मिल सकती थी । न्यूज चैनलों ने भी एक हफ्ते तक प्राइम टाइम में इस खबर को छूने की हिम्मत नही दिखायी। उन्हें इसकी टीआरपी न मिलने का डर था। यानी 1981 के बाद देश के विकास और मीडिया के आधुनिकीकरण में लगे 27 सालो में हर शख्स अकेला ही होता जा रहा है। 27 साल पहले हजारों अकेले आदमियों की मौत हुई थी और 2008 में लाखों अकेले आदमी मरे नहीं लेकिन इस या उस दौर में सरोकार का मीडिया, मुनाफे के मीडिया में बदल गया।
दरअसल खुले बाजार ने महज मुनाफे की थ्योरी को समाज और आर्थिक तौर पर ही नही परोसा बल्कि राजनीति और मीडिया को एक साथ सरोकार की भाषा छुड़वाने की स्थितियां बना दीं। इस दौरान मीडिया सबसे रईस होकर उभरा तो उसके भीतर सत्ता के करीब होने की ललक बढ़ी। लेकिन बाजार व्यवस्था का प्रभाव महज बिजनेस के रुप में मीडिया पर पड़ा, ऐसा भी नही है । लोकतंत्र का जो पाठ संसदीय राजनीति ने नीतियों के जरीये देश के सामने रखा, उसमें निजी शब्द हावी होता चला गया। खासकर निजी का मुनाफा ही निजी की सुरक्षा हो गयी । सत्ता के सामने अपने हक की लड़ाई के मायने तक बदलने लगे। जब आम आदमी का विकास एक दूसरे के हक को छीनकर परिभाषित होने लगा तो जिसका पेट भरा था या जो मुनाफे की पायदान पर सबसे ऊपर खड़ा था, उसने अपने आपको लोगो से काटकर सत्ता के अनुकुल करना ही बेहतर समझा। हकीकत मे लोकतंत्र की यह परिभाषा राज्य ने ही गढ़ी जिसने अपनी भूमिका एजेंट भर की रखी तो मीडिया भी इससे हटकर नही सोच पाया ।
1991 से लेकर 2008 तक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर जो भी नीतियां राज्य ने अलग अलग सरकारों के दौर में रखीं, उसे बिजनेस मीडिया {आर्थिक अखबार-बिजेनेस चैनल } ने कभी खारिज नही किया । मीडिया भी नीतिगत तौर पर सत्ता के करीब ही हुआ क्योंकि लोकतंत्र की परिभाषा बदली थी तो चौथे स्तभं को लेकर भी नयी व्याख्या सरकार के नजरिये से नजर मिला कर चलने की ज्यादा हो गयी। मीडिया को आर्थिक तौर पर चलाते हुये मुनाफा बनाना पूरी तरह सत्ता पर टिका क्योंकि मीडिया इस डेढ़ दशक में सरोकार के सूचना तंत्र से ज्यादा सूचना तंत्र का बिजनेस बन गया ।
इसकी सुरक्षा मीडिया को मुनाफे के तौर पर मिली यह भी सच है। यह समझ ठीक उसी तरह विकसित हुई, जैसे थोड़ी से भी सुरक्षा पाते ही एक भारतीय आदमी अपने को इतना अधिक सत्ता के नजदीक समझने लगा है कि उसका सोचने का ढंग उसी तरह मानव विरोधी और निर्मम हो जाता है, जैसा शासक वर्ग का है। इस के पीछे कही ना कही यह विचारधारा भी काम कर रही है कि देश की सामाजिक व्यवस्था को न्याय के पक्ष में बदलने में आम नागरिको का कोई हाथ हो नही सकता । वह तो केवल सत्ता के शीर्ष स्थानों पर बैठे लोगो द्रारा बदली जायेगी। जो लोग समाज को बनाने में अपने मौलिक अधिकारो को छोड़ चुके हैं, वे सह्हदय भी नही हो सकते । यही होंगे तो केवल अपनी इकाइयों के साझीदार के लिये, जाति के लिये, संप्रदाय के लिये या परिवार के लिये होगे।
मीडिया इस समझ से अछूता है ऐसा भी नही है। इसलिये इस दौर में जिस तरह की खबरों को परोसा जा रहा है या जिस तरह से परोसा जा रहा है वह निजी मुनाफे और सत्तानूकुल बने रहने के सच से हटकर कतई नहीं है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि राष्ट्र की संपत्ति से लेकर औघोगिक और सामरिक समृद्दि तक में देश के लोगों की और संस्थाओ की भागेदारी गायब हो रही है। वह खुले बाजार की तरह सीमापार की करेंसी तक पर जा टिकी है। मीडिया भी इससे अछूता नही है। एफडीआई का कितना फीसदी मीडिया के विस्तार में लगाया जा सकता है, यह सरकार और मीडिया के बीच समझौते का नया पहलू है।
शायद इसीलिये किसानों की आत्महत्या से लेकर आंतकवाद छाया और उस पर सांप्रदायिक राजनीति के आसरे सत्ता चमकाने के तथ्यों को नजरअंदाज कर बाजार की शानोशौकत से लेकर हंसी ठठा का खेल अखबारों से लेकर न्यूज चैनलो में नजर आता है। उसमे यह कहने से गुरेज नही किया जा सकता कि मीडिया के मन में समाज और राष्ट्र की वह कल्पना मर चुकी है, जिसमें यह संभव हो की सत्ता के संवेदनहीन होने पर मीडिया की खबर समूचे देश को सचेत कर दे।
6 जून 1981 को बिहार की बागमती नदी में समस्तीपुर-वनमंखी पैसेंजर गाड़ी के सात डिब्बे टूट कर गिर गये । उस समय दिनमान के संपादक रघुवीर सहाय ने अपने संपादकीय में लिखा-" रेल दुर्घटना की खबर ने उन्हे छोड़, जिन के अपने सगे उस गाडी में थे, किसी को विचलित नहीं किया।" संपादक के नाम एक ऐसे पत्र को दिनमान की कवर स्टोरी का हिस्सा बनाया, जिसमें इस घटना को एक भयानक राष्ट्रीय विपत्ति बताया गया था। यह वाकया इसलिये याद आ गया दो महीने पहले बिहार में ही कोसी नदी ने जब अपनी धारा बदली तो सात जिलो के दो लाख लोगो को लील लिया। लेकिन किसी अखबार-पत्रिका या न्यूज चैनल की कवर या मुख्य स्टोरी यह तब तक नहीं बन पायी जब तक प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय विपदा नही बताया।
दिल्ली के किसी समाचार-पत्र को पढ़ कर बिहार के हालात की जानकारी किसी को नही मिल सकती थी । न्यूज चैनलों ने भी एक हफ्ते तक प्राइम टाइम में इस खबर को छूने की हिम्मत नही दिखायी। उन्हें इसकी टीआरपी न मिलने का डर था। यानी 1981 के बाद देश के विकास और मीडिया के आधुनिकीकरण में लगे 27 सालो में हर शख्स अकेला ही होता जा रहा है। 27 साल पहले हजारों अकेले आदमियों की मौत हुई थी और 2008 में लाखों अकेले आदमी मरे नहीं लेकिन इस या उस दौर में सरोकार का मीडिया, मुनाफे के मीडिया में बदल गया।
दरअसल खुले बाजार ने महज मुनाफे की थ्योरी को समाज और आर्थिक तौर पर ही नही परोसा बल्कि राजनीति और मीडिया को एक साथ सरोकार की भाषा छुड़वाने की स्थितियां बना दीं। इस दौरान मीडिया सबसे रईस होकर उभरा तो उसके भीतर सत्ता के करीब होने की ललक बढ़ी। लेकिन बाजार व्यवस्था का प्रभाव महज बिजनेस के रुप में मीडिया पर पड़ा, ऐसा भी नही है । लोकतंत्र का जो पाठ संसदीय राजनीति ने नीतियों के जरीये देश के सामने रखा, उसमें निजी शब्द हावी होता चला गया। खासकर निजी का मुनाफा ही निजी की सुरक्षा हो गयी । सत्ता के सामने अपने हक की लड़ाई के मायने तक बदलने लगे। जब आम आदमी का विकास एक दूसरे के हक को छीनकर परिभाषित होने लगा तो जिसका पेट भरा था या जो मुनाफे की पायदान पर सबसे ऊपर खड़ा था, उसने अपने आपको लोगो से काटकर सत्ता के अनुकुल करना ही बेहतर समझा। हकीकत मे लोकतंत्र की यह परिभाषा राज्य ने ही गढ़ी जिसने अपनी भूमिका एजेंट भर की रखी तो मीडिया भी इससे हटकर नही सोच पाया ।
1991 से लेकर 2008 तक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर जो भी नीतियां राज्य ने अलग अलग सरकारों के दौर में रखीं, उसे बिजनेस मीडिया {आर्थिक अखबार-बिजेनेस चैनल } ने कभी खारिज नही किया । मीडिया भी नीतिगत तौर पर सत्ता के करीब ही हुआ क्योंकि लोकतंत्र की परिभाषा बदली थी तो चौथे स्तभं को लेकर भी नयी व्याख्या सरकार के नजरिये से नजर मिला कर चलने की ज्यादा हो गयी। मीडिया को आर्थिक तौर पर चलाते हुये मुनाफा बनाना पूरी तरह सत्ता पर टिका क्योंकि मीडिया इस डेढ़ दशक में सरोकार के सूचना तंत्र से ज्यादा सूचना तंत्र का बिजनेस बन गया ।
इसकी सुरक्षा मीडिया को मुनाफे के तौर पर मिली यह भी सच है। यह समझ ठीक उसी तरह विकसित हुई, जैसे थोड़ी से भी सुरक्षा पाते ही एक भारतीय आदमी अपने को इतना अधिक सत्ता के नजदीक समझने लगा है कि उसका सोचने का ढंग उसी तरह मानव विरोधी और निर्मम हो जाता है, जैसा शासक वर्ग का है। इस के पीछे कही ना कही यह विचारधारा भी काम कर रही है कि देश की सामाजिक व्यवस्था को न्याय के पक्ष में बदलने में आम नागरिको का कोई हाथ हो नही सकता । वह तो केवल सत्ता के शीर्ष स्थानों पर बैठे लोगो द्रारा बदली जायेगी। जो लोग समाज को बनाने में अपने मौलिक अधिकारो को छोड़ चुके हैं, वे सह्हदय भी नही हो सकते । यही होंगे तो केवल अपनी इकाइयों के साझीदार के लिये, जाति के लिये, संप्रदाय के लिये या परिवार के लिये होगे।
मीडिया इस समझ से अछूता है ऐसा भी नही है। इसलिये इस दौर में जिस तरह की खबरों को परोसा जा रहा है या जिस तरह से परोसा जा रहा है वह निजी मुनाफे और सत्तानूकुल बने रहने के सच से हटकर कतई नहीं है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि राष्ट्र की संपत्ति से लेकर औघोगिक और सामरिक समृद्दि तक में देश के लोगों की और संस्थाओ की भागेदारी गायब हो रही है। वह खुले बाजार की तरह सीमापार की करेंसी तक पर जा टिकी है। मीडिया भी इससे अछूता नही है। एफडीआई का कितना फीसदी मीडिया के विस्तार में लगाया जा सकता है, यह सरकार और मीडिया के बीच समझौते का नया पहलू है।
शायद इसीलिये किसानों की आत्महत्या से लेकर आंतकवाद छाया और उस पर सांप्रदायिक राजनीति के आसरे सत्ता चमकाने के तथ्यों को नजरअंदाज कर बाजार की शानोशौकत से लेकर हंसी ठठा का खेल अखबारों से लेकर न्यूज चैनलो में नजर आता है। उसमे यह कहने से गुरेज नही किया जा सकता कि मीडिया के मन में समाज और राष्ट्र की वह कल्पना मर चुकी है, जिसमें यह संभव हो की सत्ता के संवेदनहीन होने पर मीडिया की खबर समूचे देश को सचेत कर दे।
आतंकवाद के राजनीतिक संकेत को अंजाम देने की सामाजिक फितरत !
छह दिसबंर 1992 को दोपहर दो से तीन बजे के दौरान नागपुर के महाल स्थित मोहल्ले में आरएसएस मुख्यालय के ठीक बगल की खुली जगह पर पुलिस जुटने लगी थी। अयोध्या से बाबरी मसजिद ढहाने की खबर जैसे जैसे आ रही थी, आरएसएस मुख्यालय में सरगरमी बढ़ रही थी। संघ के स्वयंसेवकों से लेकर छिटपुट पदाधिकारियों की मौजूदगी में यह एहसास समूचे इलाके में था कि जो कहा, सो किया। यानी पहली बार उस जीत का एक एहसास संघ मुख्यालय या कहे महाल मोहल्ले की गलियों में महसूस किया जा सकता था, जिसे आजादी के ठीक बाद से कभी महसूस नहीं किया गया था।
महाल का जिक्र इसलिये क्योंकि इस मोहल्ले में कमोवेश हर परिवार संघ का स्वयंसेवक है। और पहला एहसास इसलिये क्योंकि आजादी से पहले और बाद की दो घटनाएं संघ के स्वयंसेवकों को टीस दिये हुये थीं। दरअसल, हिन्दुत्व को लेकर संघ की पहल को सावरकर ने कभी मान्यता नहीं दी। इसी वजह से सावरकर नागपुर आये तो भी संघ मुख्यालय नही गये। हालांकि संघ के मुखिया से मुलाकात में कोई गुरेज नहीं किया लेकिन महाल में संघ के स्वयंसेवकों को हमेशा यह एहसास रहा कि सावरकर के तेवर के आगे संघ हिन्दुत्व बौना है।
नागपुर के काटन मार्केट की एक सभा में सावरकर यह कहने से भी नहीं चूके कि सांस्कृतिक संगठनों से देश हिन्दुत्व की राह पर नहीं चल निकलेगा। खैर महाल के स्वयंसेवकों को दूसरी टीस गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध का लगना था। लेकिन6 दिसंबर 92 की दोपहर जिस जगह पर पुलिस जमा हो रही थी, उसी खुली जगह पर संघ के सरसंघचालक देवरस की कुर्सी भी लगा दी गयी। देवरस करीब तीन-साढे तीन बजे संघ मुख्यालय के अपने घर के बगल की इस खुली जगह पर दो लोगों का सहारा लेकर आये और लकड़ी की उस कुर्सी पर बैठ गये । करीब तीन दर्जन पुलिसकर्मियों ने समूचे क्षेत्र को घेर रखा था। पत्रकारों की भीड़ मौजूद थी। सभी की बातों का जबाब भी देवरस दे रहे थे। पुलिस ने इसके संकेत दे दिये थे कि देवरस की गिरफ्तारी होगी। लेकिन उनकी बिगडी तबीयत की बजह से उन्हे संघ मुख्यालय में ही नजरबंद कर रखा जायेगा। जैसे ही इसकी पहल पुलिस ने शुरु की अचानक कुछ लडकियों और महिलाओ ने देवरस के इर्द-गिर्द घेरा बना लिया। जानकारी मिली की यह दुर्गावाहिनी से जुड़ी हुई हैं। पुलिस टीम में कोई महिला पुलिसकर्मी थी नहीं तो नजरबंदी की पहल रुक गयी क्योंकि पुलिस से दो-दो हाथ करने को दुर्गा वाहिनी की लड़कियां तैयार थीं।
बाबरी मस्जिद को लेकर और अयोध्या में राम मंदिर को लेकर पत्रकारो के सवाल जबाब के बीच देवरस बार बार यह संकेत दे रहे थे कि बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना कोई आखिरी या पहली सफलता नहीं है बल्कि रणनीति का एक हिस्सा मात्र है । जिसे राजनीतिक तौर पर देखना और समझना चाहिये चाहे यह सास्कृतिक संघर्ष नजर आ रहा हो। ऐसे में डंडो से लैस दुर्गावाहिनी की लड़कियां जैसे ही पुलिस से दो-दो हाथ करने को नजर आयीं तो मैंने सरसंघचालक देवरस से पूछा, "दुर्गावाहिनी के इसतरह इस्तेमाल का मतलब क्या निकाला जाये..जब यह सहमति बन चुकी है कि आपको आप ही के निवास में नजरबंद रखा जायेगा।" इस पर देवरस का जबाब था कि दुर्गावाहिनी को भी समझना होगा कि कल को उनकी परिस्थतियां किन वातावरण के घेरे में आ सकती हैं। फिर यह एक तैयारी है जिसमे सभी को भागीदारी देनी होगी । इस पर मेरा सवाल था--क्या यह राजनीतिक समझ विकसित करने की तैयारी है । देवरस ने कहा-सास्कृतिक संघर्ष है । लेकिन राजनीति से तो अछूता कुछ भी नहीं । फिर हंसते हुये बोले, आपलोगों से ज्यादा से ज्यादा बात हो सके, इसके लिये दुर्गावाहिनी ने रास्ता बना दिया आप उन्हे बधायी दें। कुछ देर में ही महिला पुलिसर्मियों की टुकड़ी पहुंची और कुछ विरोध और नारों के बीच देवरस को नजरबंद कर लिया गया ।
वहीं अगले दिन नागपुर के मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा के लोगों ने बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के विरोध में एक रैली निकालने का निर्णय लिया । रैली निकल रही है, उसकी जानकारी पुलिस के पास भी पहुंची । पुलिस और रैली निकालने वालों की तकरार के बाद तय हुआ की रैली शहर में नहीं घूमेगी । मोमिनपुरा से निकल कर आधे किलोमीटर का चक्कर लगा कर वापस मोमिनपुरा की गलियों में चली जायेगी और सभा भी वही करेगी । रैली दोपहर में जब निकली तो काले झंडे और बैनर के साथ नारे भी लग रहे थे। लेकिन जैसे ही मोमिनपुरा के मुहाने पर रैली पहुंची, पुलिस ने मुख्य सड़क पर रैली न लाने का निर्देश देकर वहीं सभा करने को कहा। नारे लगा रहे युवाओं में इससे आक्रोष भड़का। उनका कहना था कि वह बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने के विरोध का सार्वजिक इजहार भी नहीं कर सकते। वे पुलिस बैरिकेट तोड़कर सड़क पर आने लगे । पुलिस ने लाठिया भांजी । लेकिन महज पांच मिनट के भीतर ही उस वक्त के नागपुर के पुलिस कमिश्नर ईनामदार ने गोली चलाने का निर्देश दे दिया। करीब 22 राउंड से ज्यादा गोलियां चलीं। 13 लडकों की मौत हो गयी। बीस से ज्यादा घायल हो गये। जो लड़के मरे वह सभी मोमिनपुरा के भीतर ही मरे। इतना ही नहीं मोमिनपुरा के एक छोर से दूसरे छोर तक लाशें गिरीं। पुलिस ने महज मुख्य सड़क रक रैली को आने से ही नहीं रोका बल्कि आक्रोष दबाने के लिये मोमिनपुरा के भीतर घरों में घुसकर युवाओ की डंडो से जमकर पिटाई की। जो बाहर निकला उसे गोली मार दी। किसी लड़के के शरीर में गोली कमर से नीचे नही लगी । नागपुर के लिये यह अपने तरह की पहली घटना थी, क्योकि इससे पहले कभी पुलिस की गोली चली और लोग मरे यह बुनकरो के आंदोलन में हुआ था या फिर दलित आंदोलन के उग्र रुप धारण करने पर।
लेकिन,यह पहला मौका था जब 6 दिसंबर की घटना के 48 घंटो के बाद ही समूचे शहर को लगने लगा कि मोमिनपुरा और महाल की पांच किलोमीटर की दूरी सीमा पार सरीखी दूरी हो गयी है। यह घटना उस वक्त तो कानून-व्यवस्था को बरकरार रखने के दायरे में सिमट कर थम गयी लेकिन उस दौर से लेकर आंतकवाद का दामन पकड कर अपने आक्रोष को ठंडा करने या समाधान की राह सोचने की जो समझ विकसित होती चली गयी वह आज मुंह बाएं सामने खड़ी है।
जाहिर है अयोध्या की घटना के बाद देश ने जो देखा समझा या कहे राजनीति ने सत्ता का दामन पकड़ कर अपनी सहुलियतों को जिस तरह सियासी रंग में रंग दिया इसमें दोनो ही तबकों के हाथ खाली रहे। इतना ही नहीं सियासी रंग इतना गाढ़ा हुआ कि देश के बहुसंख्यक तबके ने खुद को ठगा महसूस किया। समूचे देश में मुस्लिमो ने मोमिनपुरा सरीखे मोहल्लो से निकलना बंद किया और उनके इजहार का तरीका उन्हीं तक सिमटता गया, जिसे कभी कांग्रेस ने तो कभी मुस्लिम लिडरानों ने राजनीति का हथियार बनाया । कमोवेश आरएसएस का भी अपने घेरे में यही हाल हुआ। देवरस सरीखा कोई सरसंघचालक उनके बाद न हुआ जो खुले आसमान तले सवालो का जबाब देने आता। या फिर सांस्कृतिक आंदोलन को भी राजनीतिक तौर पर ढालने का मंत्र जानता। बंद कमरो में रणनीति बनने लगी और अपने अपने घेरे में लोकतंत्र के कई आधार स्तंभ ढहाये गये और उसे सफलता मान कर जीत का राजनीतिक आंतक पैदा किया गया।
ऐसे मे साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह नयी बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हो, उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे, जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे । सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिये बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं । जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगड़ती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके। इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आंतकवाद की राह पर है।
हालांकि साध्वी-साधु प्रकरण से यह ख्याल जरुर बढ़ाया जा रहा है कि आंतकवाद का धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं है । लेकिन राजनीतिक तौर पर नया सच यह भी है कि अगर आंतकवाद का धर्म होता है तो धर्म के आसरे किया गया आंतकवाद, आंतकवाद नही कुछ और होता है। दरअसल, 6 दिसबंर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद सरसंघचालक देवरस ने इसी संकेत की बात की थी कि अयोध्या का मतलब महज मंदिर निर्माण नहीं हिन्दुत्व जागरण है और मोमिनपुरा में विरोध का इजहार रोक कर पुलिस की गोली ने इस संकेत को अंजाम दिया था। संयोग से देश इसी राजनीतिक संकेत और अंजाम के बीच झूल रहा है, बच सकते हैं तो बचें।
महाल का जिक्र इसलिये क्योंकि इस मोहल्ले में कमोवेश हर परिवार संघ का स्वयंसेवक है। और पहला एहसास इसलिये क्योंकि आजादी से पहले और बाद की दो घटनाएं संघ के स्वयंसेवकों को टीस दिये हुये थीं। दरअसल, हिन्दुत्व को लेकर संघ की पहल को सावरकर ने कभी मान्यता नहीं दी। इसी वजह से सावरकर नागपुर आये तो भी संघ मुख्यालय नही गये। हालांकि संघ के मुखिया से मुलाकात में कोई गुरेज नहीं किया लेकिन महाल में संघ के स्वयंसेवकों को हमेशा यह एहसास रहा कि सावरकर के तेवर के आगे संघ हिन्दुत्व बौना है।
नागपुर के काटन मार्केट की एक सभा में सावरकर यह कहने से भी नहीं चूके कि सांस्कृतिक संगठनों से देश हिन्दुत्व की राह पर नहीं चल निकलेगा। खैर महाल के स्वयंसेवकों को दूसरी टीस गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध का लगना था। लेकिन6 दिसंबर 92 की दोपहर जिस जगह पर पुलिस जमा हो रही थी, उसी खुली जगह पर संघ के सरसंघचालक देवरस की कुर्सी भी लगा दी गयी। देवरस करीब तीन-साढे तीन बजे संघ मुख्यालय के अपने घर के बगल की इस खुली जगह पर दो लोगों का सहारा लेकर आये और लकड़ी की उस कुर्सी पर बैठ गये । करीब तीन दर्जन पुलिसकर्मियों ने समूचे क्षेत्र को घेर रखा था। पत्रकारों की भीड़ मौजूद थी। सभी की बातों का जबाब भी देवरस दे रहे थे। पुलिस ने इसके संकेत दे दिये थे कि देवरस की गिरफ्तारी होगी। लेकिन उनकी बिगडी तबीयत की बजह से उन्हे संघ मुख्यालय में ही नजरबंद कर रखा जायेगा। जैसे ही इसकी पहल पुलिस ने शुरु की अचानक कुछ लडकियों और महिलाओ ने देवरस के इर्द-गिर्द घेरा बना लिया। जानकारी मिली की यह दुर्गावाहिनी से जुड़ी हुई हैं। पुलिस टीम में कोई महिला पुलिसकर्मी थी नहीं तो नजरबंदी की पहल रुक गयी क्योंकि पुलिस से दो-दो हाथ करने को दुर्गा वाहिनी की लड़कियां तैयार थीं।
बाबरी मस्जिद को लेकर और अयोध्या में राम मंदिर को लेकर पत्रकारो के सवाल जबाब के बीच देवरस बार बार यह संकेत दे रहे थे कि बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना कोई आखिरी या पहली सफलता नहीं है बल्कि रणनीति का एक हिस्सा मात्र है । जिसे राजनीतिक तौर पर देखना और समझना चाहिये चाहे यह सास्कृतिक संघर्ष नजर आ रहा हो। ऐसे में डंडो से लैस दुर्गावाहिनी की लड़कियां जैसे ही पुलिस से दो-दो हाथ करने को नजर आयीं तो मैंने सरसंघचालक देवरस से पूछा, "दुर्गावाहिनी के इसतरह इस्तेमाल का मतलब क्या निकाला जाये..जब यह सहमति बन चुकी है कि आपको आप ही के निवास में नजरबंद रखा जायेगा।" इस पर देवरस का जबाब था कि दुर्गावाहिनी को भी समझना होगा कि कल को उनकी परिस्थतियां किन वातावरण के घेरे में आ सकती हैं। फिर यह एक तैयारी है जिसमे सभी को भागीदारी देनी होगी । इस पर मेरा सवाल था--क्या यह राजनीतिक समझ विकसित करने की तैयारी है । देवरस ने कहा-सास्कृतिक संघर्ष है । लेकिन राजनीति से तो अछूता कुछ भी नहीं । फिर हंसते हुये बोले, आपलोगों से ज्यादा से ज्यादा बात हो सके, इसके लिये दुर्गावाहिनी ने रास्ता बना दिया आप उन्हे बधायी दें। कुछ देर में ही महिला पुलिसर्मियों की टुकड़ी पहुंची और कुछ विरोध और नारों के बीच देवरस को नजरबंद कर लिया गया ।
वहीं अगले दिन नागपुर के मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा के लोगों ने बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के विरोध में एक रैली निकालने का निर्णय लिया । रैली निकल रही है, उसकी जानकारी पुलिस के पास भी पहुंची । पुलिस और रैली निकालने वालों की तकरार के बाद तय हुआ की रैली शहर में नहीं घूमेगी । मोमिनपुरा से निकल कर आधे किलोमीटर का चक्कर लगा कर वापस मोमिनपुरा की गलियों में चली जायेगी और सभा भी वही करेगी । रैली दोपहर में जब निकली तो काले झंडे और बैनर के साथ नारे भी लग रहे थे। लेकिन जैसे ही मोमिनपुरा के मुहाने पर रैली पहुंची, पुलिस ने मुख्य सड़क पर रैली न लाने का निर्देश देकर वहीं सभा करने को कहा। नारे लगा रहे युवाओं में इससे आक्रोष भड़का। उनका कहना था कि वह बाबरी मस्जिद को ढहाये जाने के विरोध का सार्वजिक इजहार भी नहीं कर सकते। वे पुलिस बैरिकेट तोड़कर सड़क पर आने लगे । पुलिस ने लाठिया भांजी । लेकिन महज पांच मिनट के भीतर ही उस वक्त के नागपुर के पुलिस कमिश्नर ईनामदार ने गोली चलाने का निर्देश दे दिया। करीब 22 राउंड से ज्यादा गोलियां चलीं। 13 लडकों की मौत हो गयी। बीस से ज्यादा घायल हो गये। जो लड़के मरे वह सभी मोमिनपुरा के भीतर ही मरे। इतना ही नहीं मोमिनपुरा के एक छोर से दूसरे छोर तक लाशें गिरीं। पुलिस ने महज मुख्य सड़क रक रैली को आने से ही नहीं रोका बल्कि आक्रोष दबाने के लिये मोमिनपुरा के भीतर घरों में घुसकर युवाओ की डंडो से जमकर पिटाई की। जो बाहर निकला उसे गोली मार दी। किसी लड़के के शरीर में गोली कमर से नीचे नही लगी । नागपुर के लिये यह अपने तरह की पहली घटना थी, क्योकि इससे पहले कभी पुलिस की गोली चली और लोग मरे यह बुनकरो के आंदोलन में हुआ था या फिर दलित आंदोलन के उग्र रुप धारण करने पर।
लेकिन,यह पहला मौका था जब 6 दिसंबर की घटना के 48 घंटो के बाद ही समूचे शहर को लगने लगा कि मोमिनपुरा और महाल की पांच किलोमीटर की दूरी सीमा पार सरीखी दूरी हो गयी है। यह घटना उस वक्त तो कानून-व्यवस्था को बरकरार रखने के दायरे में सिमट कर थम गयी लेकिन उस दौर से लेकर आंतकवाद का दामन पकड कर अपने आक्रोष को ठंडा करने या समाधान की राह सोचने की जो समझ विकसित होती चली गयी वह आज मुंह बाएं सामने खड़ी है।
जाहिर है अयोध्या की घटना के बाद देश ने जो देखा समझा या कहे राजनीति ने सत्ता का दामन पकड़ कर अपनी सहुलियतों को जिस तरह सियासी रंग में रंग दिया इसमें दोनो ही तबकों के हाथ खाली रहे। इतना ही नहीं सियासी रंग इतना गाढ़ा हुआ कि देश के बहुसंख्यक तबके ने खुद को ठगा महसूस किया। समूचे देश में मुस्लिमो ने मोमिनपुरा सरीखे मोहल्लो से निकलना बंद किया और उनके इजहार का तरीका उन्हीं तक सिमटता गया, जिसे कभी कांग्रेस ने तो कभी मुस्लिम लिडरानों ने राजनीति का हथियार बनाया । कमोवेश आरएसएस का भी अपने घेरे में यही हाल हुआ। देवरस सरीखा कोई सरसंघचालक उनके बाद न हुआ जो खुले आसमान तले सवालो का जबाब देने आता। या फिर सांस्कृतिक आंदोलन को भी राजनीतिक तौर पर ढालने का मंत्र जानता। बंद कमरो में रणनीति बनने लगी और अपने अपने घेरे में लोकतंत्र के कई आधार स्तंभ ढहाये गये और उसे सफलता मान कर जीत का राजनीतिक आंतक पैदा किया गया।
ऐसे मे साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह नयी बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हो, उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे, जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे । सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिये बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं । जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगड़ती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके। इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आंतकवाद की राह पर है।
हालांकि साध्वी-साधु प्रकरण से यह ख्याल जरुर बढ़ाया जा रहा है कि आंतकवाद का धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं है । लेकिन राजनीतिक तौर पर नया सच यह भी है कि अगर आंतकवाद का धर्म होता है तो धर्म के आसरे किया गया आंतकवाद, आंतकवाद नही कुछ और होता है। दरअसल, 6 दिसबंर 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद सरसंघचालक देवरस ने इसी संकेत की बात की थी कि अयोध्या का मतलब महज मंदिर निर्माण नहीं हिन्दुत्व जागरण है और मोमिनपुरा में विरोध का इजहार रोक कर पुलिस की गोली ने इस संकेत को अंजाम दिया था। संयोग से देश इसी राजनीतिक संकेत और अंजाम के बीच झूल रहा है, बच सकते हैं तो बचें।
Wednesday, November 12, 2008
साधु,सिपाही और मुस्लिम आतंकवाद में कहां है देश !
आतंकवाद के घेरे में साधु और सिपाही के आने से झटके में मुस्लिम आतंकवाद पर विराम लग गया है । वह बहस जो हर आतंकवादी हिंसा के बाद "सॉफ्ट स्टेट" को लेकर शुरु होती थी और इस्लामिक आतंकवाद के साथ कभी सीमा पार तो कभी बांग्लादेश तो कभी अलकायदा सरीखे संगठन को छूते हुये पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के इर्द गिर्द ताना बाना बुनती थी, अचानक वह बहस थम गयी है ।
साध्वी प्रज्ञा से लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित के आतंकवादी ब्लास्ट में शामिल होने ने संकेतों ने अचानक उस मानसिकता को बैचेन कर दिया है जो यह कहने से नहीं कतराती थी कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी न हो लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान जरुर है। इसमे दो मत नही कि मुस्लिम समुदाय को लेकर आतंकवाद की जो बहस समाज के भीतर चली और बीजेपी-कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय राजनीतिक दलो ने उसे जिस तरह देखा, उसमें देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जुड़ती चली गयी। इसे खुफिया एजेंसियों ने भी माना कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो चेहरा विलासिता के नाम पर भारतीय समाज से जुड़ा है, उसमे बहुसंख्यक तबके के सामने यह संकट भी पैदा हो गया है कि वह पाने की होड़ में अपना क्या क्या गंवा दे। खासकर समाज के भीतर जब समूचे मूल्य पूंजी के आधार पर तय होने लगे हैं और सरकार की नीतियां भी नागरिकों को साथ लेकर चलने के बजाय एक तबके विशेष के मुनाफे को साथ लेकर चल रही है तो आक्रोष बहुसंख्य तबके के भीतर लगातार बढ रहा है। जो अलग अलग तरीके से अलग अलग जगहो पर निकल भी रही है।
इस घेरे में मुस्लिम संप्रदाय सबसे पहले नजर आ रहा है तो पहली वजह तो उसकी बदहाली है। उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां हैं, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उभरा भी है। लेकिन दूसरी बडी वजह वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जो सत्ताधारियों के लिये मुनाफे की चाशनी बन चुकी है। जिसे बिना किसी लाग-लपेट कर हर तरह का सत्ताधारी चाट सकता है।
मामला सिर्फ वोट बैंक का नहीं है। जहां कांग्रेस को पुचकारना है और बीजेपी को मुस्लिम के नाम पर हिन्दुओं को डराना है। बल्कि विकास की लकीर का अधूरापन और पूरा करने की सोच भी मुस्लिम समुदाय से जोड़ी जा सकती है। यह मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर भारतीय परिप्रेष्य में संयुक्त राष्ट्र भी बखूबी समझता है।
संयोग से बीते डेढ़ दशक में जब आर्थिक व्यवस्था परवान चढ़ी, उसी दौर में व्यवस्था सबसे ज्यादा कमजोर होती भी दिखी। ऐसा नहीं है कि आहत सिर्फ धर्म के नाम पर एक समुदाय विशेष हुआ। आहत समूचा समाज हुआ तो साधू और सिपाही भी पहली बार संदेह के घेरे में आये है। सेना के भीतर कोई बहस होती है या नही, इसे देखने और उजागर करने की समझ और हिम्मत देश के किसी राजनीतिक सिपाही में नहीं है । वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में कारगिल के दौर में सेना के भीतर से आवाज निकल कर देश के पटल पर छा जाने को बैचेन थी। लेकिन सेना का कोई चेहरा नहीं होता। यह चेहरा तो वेतन आयोग की सिफारिशों के विरोध में भी उभर नहीं सका। अर्थव्यवस्था ने सिर्फ पूंजी की सीमा ही रुपये और डॉलर की नहीं मिटायी बल्कि सरकारें यह भी नही समझ सकी देश के भीतर जब देशप्रेम का जुनून ही खत्म हो चला है तो सीमा पर खड़े रहने वाला सिपाही किस अंतर्द्दन्द से गुजर रहा होगा। जब उसके सामने तो सीमा की पहरेदारी होगी लेकिन आम नागरिको के बीच जाकर उसे यह एहसास होता होगा कि देश तो बिकने को तैयार है या फिर वह रक्षा एफडीआई या विदेशी निवेश की कर रहा है, जिस पर देश टिकता जा रहा है।
सैनिको को लेकर जिस भोसले स्कूल का नाम आ रहा है, वह देश के उन पहले स्कूलों में शुमार है जो आजादी से पहले पब्लिक स्कुल की सोच को लेकर आगे बढ़े। नासिक का भोसले सैनिक स्कूल 1937 में स्थापित हुआ। और देश के सात टॉप पब्लिक स्कूलों की पहली कान्फ्रेंस 16 जून 1939 में शिमला के गोर्टन कैस्टल कमेटी रुम में हुई । इसमें भोसले सैनिक स्कूल नासिक के अलावा सिधिया स्कूल ग्वालियर, डाले कालेज इंदौर, ऐटीचीसन कालेज इंदौर, दून स्कूल देहरादून ,राजकूमार कालेज रायपुर और राजकोट के राजकुमार कालेज के अध्यक्ष या सचिव शामिल हुये थे । जिसमें देश की संसकृति के अनुरुप पव्लिक स्कूलो को आगे बढाने का खाका रखा गया था।
अब तक इन स्कूलो के 68 बैठकें हो चुकी हैं। यानी हर साल सभी जुटते जरुर हैं तो यह सवाल भी उठेगा कि जिन स्कूलों की नींव आजादी से पहले पड़ी, उसमें आजादी के बाद पव्लिक स्कूलों की भूमिका को लेकर भी क्या सवाल उठते होंगे। भोसले सैनिक स्कूल पांचवी कक्षा से बारहवी कक्षा तक हैं। यहा के कोर्स में हिन्दुत्व को लेकर महाराष्ट्र बोर्ड का ही सिलेबस पढाया जाता है । लेकिन तरीका 1935 में बनाया गया सेन्ट्रल हिन्दु मिलेट्री एजुकेशन सोसायटी वाला ही है। जाहिर है देश को लेकर जो नींव इस तरह के स्कूलो में पड़ेगी, वैसा देश नहीं है तो सवाल कहीं भी उठेंगे। नागपुर के भोसले स्कूल के वाद विवाद प्रतियोगिता में पिछले दो-तीन साल से यह सवाल छात्र उठा रहे हैं कि जिन परिस्थितयो से देश गुजर रहा है, उसमे समाधान क्या है। जाहिर है यहा राष्ट्रीय स्वंससेवक संघ के हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना उभरती होगी। जो राजनीतिक नजरीये से खतरनार मानी जा सकती है। लेकिन संघ के भीतर के संघठनों में भी जब यह सवाल उठने लगा कि वाजपेयी सरकार में भी देशवाद और हिन्दुत्व खारिज हुआ तो समाधान क्या हो। अगर मुस्लिम समुदाय को बिलकुल अलग कर भी दिया जाये तो हिन्दुत्व कट्टरवाद के आक्रोष की इतनी परते है कि पहली बार समाज के उन खेमो में अपनी ही नींव से भरोसा टूटने लगा जो मानकर चल रहे थे कि उनकी समझ समाधान दे सकती है।
साधु समाज को तो सालों साल या कहे अभी तक भरोसा ही नहीं है कि जिन्ना के लोकतंत्र की हिमायत करने वाले लालकृषण आडवाणी को आरएसएस ने माफ कर दिया। साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हौ उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे । जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे। सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिए बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं। जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगडती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके । इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आतंकवाद की राह पर है। लेकिन हर कोई फिर उन परिस्थितयो से आंख मूंद रहा है जो समाज के भीतर तनाव पैदा कर राज्य के प्रति अविश्वास को जन्म दे रही हैं। इसलिये जयपुर-अहमदाबाद-दिल्ली के आतंकवादी घमाको में मुस्लिम और मालेगांव में हिन्दु आतंकवादी नजर आ रहा है। जबकि हर कोई भूल रहा है दोनो भारतीय नागरिक हैं।
साध्वी प्रज्ञा से लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित के आतंकवादी ब्लास्ट में शामिल होने ने संकेतों ने अचानक उस मानसिकता को बैचेन कर दिया है जो यह कहने से नहीं कतराती थी कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी न हो लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान जरुर है। इसमे दो मत नही कि मुस्लिम समुदाय को लेकर आतंकवाद की जो बहस समाज के भीतर चली और बीजेपी-कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय राजनीतिक दलो ने उसे जिस तरह देखा, उसमें देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जुड़ती चली गयी। इसे खुफिया एजेंसियों ने भी माना कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो चेहरा विलासिता के नाम पर भारतीय समाज से जुड़ा है, उसमे बहुसंख्यक तबके के सामने यह संकट भी पैदा हो गया है कि वह पाने की होड़ में अपना क्या क्या गंवा दे। खासकर समाज के भीतर जब समूचे मूल्य पूंजी के आधार पर तय होने लगे हैं और सरकार की नीतियां भी नागरिकों को साथ लेकर चलने के बजाय एक तबके विशेष के मुनाफे को साथ लेकर चल रही है तो आक्रोष बहुसंख्य तबके के भीतर लगातार बढ रहा है। जो अलग अलग तरीके से अलग अलग जगहो पर निकल भी रही है।
इस घेरे में मुस्लिम संप्रदाय सबसे पहले नजर आ रहा है तो पहली वजह तो उसकी बदहाली है। उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां हैं, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उभरा भी है। लेकिन दूसरी बडी वजह वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जो सत्ताधारियों के लिये मुनाफे की चाशनी बन चुकी है। जिसे बिना किसी लाग-लपेट कर हर तरह का सत्ताधारी चाट सकता है।
मामला सिर्फ वोट बैंक का नहीं है। जहां कांग्रेस को पुचकारना है और बीजेपी को मुस्लिम के नाम पर हिन्दुओं को डराना है। बल्कि विकास की लकीर का अधूरापन और पूरा करने की सोच भी मुस्लिम समुदाय से जोड़ी जा सकती है। यह मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर भारतीय परिप्रेष्य में संयुक्त राष्ट्र भी बखूबी समझता है।
संयोग से बीते डेढ़ दशक में जब आर्थिक व्यवस्था परवान चढ़ी, उसी दौर में व्यवस्था सबसे ज्यादा कमजोर होती भी दिखी। ऐसा नहीं है कि आहत सिर्फ धर्म के नाम पर एक समुदाय विशेष हुआ। आहत समूचा समाज हुआ तो साधू और सिपाही भी पहली बार संदेह के घेरे में आये है। सेना के भीतर कोई बहस होती है या नही, इसे देखने और उजागर करने की समझ और हिम्मत देश के किसी राजनीतिक सिपाही में नहीं है । वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में कारगिल के दौर में सेना के भीतर से आवाज निकल कर देश के पटल पर छा जाने को बैचेन थी। लेकिन सेना का कोई चेहरा नहीं होता। यह चेहरा तो वेतन आयोग की सिफारिशों के विरोध में भी उभर नहीं सका। अर्थव्यवस्था ने सिर्फ पूंजी की सीमा ही रुपये और डॉलर की नहीं मिटायी बल्कि सरकारें यह भी नही समझ सकी देश के भीतर जब देशप्रेम का जुनून ही खत्म हो चला है तो सीमा पर खड़े रहने वाला सिपाही किस अंतर्द्दन्द से गुजर रहा होगा। जब उसके सामने तो सीमा की पहरेदारी होगी लेकिन आम नागरिको के बीच जाकर उसे यह एहसास होता होगा कि देश तो बिकने को तैयार है या फिर वह रक्षा एफडीआई या विदेशी निवेश की कर रहा है, जिस पर देश टिकता जा रहा है।
सैनिको को लेकर जिस भोसले स्कूल का नाम आ रहा है, वह देश के उन पहले स्कूलों में शुमार है जो आजादी से पहले पब्लिक स्कुल की सोच को लेकर आगे बढ़े। नासिक का भोसले सैनिक स्कूल 1937 में स्थापित हुआ। और देश के सात टॉप पब्लिक स्कूलों की पहली कान्फ्रेंस 16 जून 1939 में शिमला के गोर्टन कैस्टल कमेटी रुम में हुई । इसमें भोसले सैनिक स्कूल नासिक के अलावा सिधिया स्कूल ग्वालियर, डाले कालेज इंदौर, ऐटीचीसन कालेज इंदौर, दून स्कूल देहरादून ,राजकूमार कालेज रायपुर और राजकोट के राजकुमार कालेज के अध्यक्ष या सचिव शामिल हुये थे । जिसमें देश की संसकृति के अनुरुप पव्लिक स्कूलो को आगे बढाने का खाका रखा गया था।
अब तक इन स्कूलो के 68 बैठकें हो चुकी हैं। यानी हर साल सभी जुटते जरुर हैं तो यह सवाल भी उठेगा कि जिन स्कूलों की नींव आजादी से पहले पड़ी, उसमें आजादी के बाद पव्लिक स्कूलों की भूमिका को लेकर भी क्या सवाल उठते होंगे। भोसले सैनिक स्कूल पांचवी कक्षा से बारहवी कक्षा तक हैं। यहा के कोर्स में हिन्दुत्व को लेकर महाराष्ट्र बोर्ड का ही सिलेबस पढाया जाता है । लेकिन तरीका 1935 में बनाया गया सेन्ट्रल हिन्दु मिलेट्री एजुकेशन सोसायटी वाला ही है। जाहिर है देश को लेकर जो नींव इस तरह के स्कूलो में पड़ेगी, वैसा देश नहीं है तो सवाल कहीं भी उठेंगे। नागपुर के भोसले स्कूल के वाद विवाद प्रतियोगिता में पिछले दो-तीन साल से यह सवाल छात्र उठा रहे हैं कि जिन परिस्थितयो से देश गुजर रहा है, उसमे समाधान क्या है। जाहिर है यहा राष्ट्रीय स्वंससेवक संघ के हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना उभरती होगी। जो राजनीतिक नजरीये से खतरनार मानी जा सकती है। लेकिन संघ के भीतर के संघठनों में भी जब यह सवाल उठने लगा कि वाजपेयी सरकार में भी देशवाद और हिन्दुत्व खारिज हुआ तो समाधान क्या हो। अगर मुस्लिम समुदाय को बिलकुल अलग कर भी दिया जाये तो हिन्दुत्व कट्टरवाद के आक्रोष की इतनी परते है कि पहली बार समाज के उन खेमो में अपनी ही नींव से भरोसा टूटने लगा जो मानकर चल रहे थे कि उनकी समझ समाधान दे सकती है।
साधु समाज को तो सालों साल या कहे अभी तक भरोसा ही नहीं है कि जिन्ना के लोकतंत्र की हिमायत करने वाले लालकृषण आडवाणी को आरएसएस ने माफ कर दिया। साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हौ उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे । जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे। सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिए बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं। जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगडती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके । इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आतंकवाद की राह पर है। लेकिन हर कोई फिर उन परिस्थितयो से आंख मूंद रहा है जो समाज के भीतर तनाव पैदा कर राज्य के प्रति अविश्वास को जन्म दे रही हैं। इसलिये जयपुर-अहमदाबाद-दिल्ली के आतंकवादी घमाको में मुस्लिम और मालेगांव में हिन्दु आतंकवादी नजर आ रहा है। जबकि हर कोई भूल रहा है दोनो भारतीय नागरिक हैं।
साधु,सिपाही और मुस्लिम आतंकवाद में कहां है देश !
आतंकवाद के घेरे में साधु और सिपाही के आने से झटके में मुस्लिम आतंकवाद पर विराम लग गया है । वह बहस जो हर आतंकवादी हिंसा के बाद "सॉफ्ट स्टेट" को लेकर शुरु होती थी और इस्लामिक आतंकवाद के साथ कभी सीमा पार तो कभी बांग्लादेश तो कभी अलकायदा सरीखे संगठन को छूते हुये पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के इर्द गिर्द ताना बाना बुनती थी, अचानक वह बहस थम गयी है ।
साध्वी प्रज्ञा से लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित के आतंकवादी ब्लास्ट में शामिल होने ने संकेतों ने अचानक उस मानसिकता को बैचेन कर दिया है जो यह कहने से नहीं कतराती थी कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी न हो लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान जरुर है। इसमे दो मत नही कि मुस्लिम समुदाय को लेकर आतंकवाद की जो बहस समाज के भीतर चली और बीजेपी-कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय राजनीतिक दलो ने उसे जिस तरह देखा, उसमें देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जुड़ती चली गयी। इसे खुफिया एजेंसियों ने भी माना कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो चेहरा विलासिता के नाम पर भारतीय समाज से जुड़ा है, उसमे बहुसंख्यक तबके के सामने यह संकट भी पैदा हो गया है कि वह पाने की होड़ में अपना क्या क्या गंवा दे। खासकर समाज के भीतर जब समूचे मूल्य पूंजी के आधार पर तय होने लगे हैं और सरकार की नीतियां भी नागरिकों को साथ लेकर चलने के बजाय एक तबके विशेष के मुनाफे को साथ लेकर चल रही है तो आक्रोष बहुसंख्य तबके के भीतर लगातार बढ रहा है। जो अलग अलग तरीके से अलग अलग जगहो पर निकल भी रही है।
इस घेरे में मुस्लिम संप्रदाय सबसे पहले नजर आ रहा है तो पहली वजह तो उसकी बदहाली है। उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां हैं, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उभरा भी है। लेकिन दूसरी बडी वजह वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जो सत्ताधारियों के लिये मुनाफे की चाशनी बन चुकी है। जिसे बिना किसी लाग-लपेट कर हर तरह का सत्ताधारी चाट सकता है।
मामला सिर्फ वोट बैंक का नहीं है। जहां कांग्रेस को पुचकारना है और बीजेपी को मुस्लिम के नाम पर हिन्दुओं को डराना है। बल्कि विकास की लकीर का अधूरापन और पूरा करने की सोच भी मुस्लिम समुदाय से जोड़ी जा सकती है। यह मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर भारतीय परिप्रेष्य में संयुक्त राष्ट्र भी बखूबी समझता है।
संयोग से बीते डेढ़ दशक में जब आर्थिक व्यवस्था परवान चढ़ी, उसी दौर में व्यवस्था सबसे ज्यादा कमजोर होती भी दिखी। ऐसा नहीं है कि आहत सिर्फ धर्म के नाम पर एक समुदाय विशेष हुआ। आहत समूचा समाज हुआ तो साधू और सिपाही भी पहली बार संदेह के घेरे में आये है। सेना के भीतर कोई बहस होती है या नही, इसे देखने और उजागर करने की समझ और हिम्मत देश के किसी राजनीतिक सिपाही में नहीं है । वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में कारगिल के दौर में सेना के भीतर से आवाज निकल कर देश के पटल पर छा जाने को बैचेन थी। लेकिन सेना का कोई चेहरा नहीं होता। यह चेहरा तो वेतन आयोग की सिफारिशों के विरोध में भी उभर नहीं सका। अर्थव्यवस्था ने सिर्फ पूंजी की सीमा ही रुपये और डॉलर की नहीं मिटायी बल्कि सरकारें यह भी नही समझ सकी देश के भीतर जब देशप्रेम का जुनून ही खत्म हो चला है तो सीमा पर खड़े रहने वाला सिपाही किस अंतर्द्दन्द से गुजर रहा होगा। जब उसके सामने तो सीमा की पहरेदारी होगी लेकिन आम नागरिको के बीच जाकर उसे यह एहसास होता होगा कि देश तो बिकने को तैयार है या फिर वह रक्षा एफडीआई या विदेशी निवेश की कर रहा है, जिस पर देश टिकता जा रहा है।
सैनिको को लेकर जिस भोसले स्कूल का नाम आ रहा है, वह देश के उन पहले स्कूलों में शुमार है जो आजादी से पहले पब्लिक स्कुल की सोच को लेकर आगे बढ़े। नासिक का भोसले सैनिक स्कूल 1937 में स्थापित हुआ। और देश के सात टॉप पब्लिक स्कूलों की पहली कान्फ्रेंस 16 जून 1939 में शिमला के गोर्टन कैस्टल कमेटी रुम में हुई । इसमें भोसले सैनिक स्कूल नासिक के अलावा सिधिया स्कूल ग्वालियर, डाले कालेज इंदौर, ऐटीचीसन कालेज इंदौर, दून स्कूल देहरादून ,राजकूमार कालेज रायपुर और राजकोट के राजकुमार कालेज के अध्यक्ष या सचिव शामिल हुये थे । जिसमें देश की संसकृति के अनुरुप पव्लिक स्कूलो को आगे बढाने का खाका रखा गया था।
अब तक इन स्कूलो के 68 बैठकें हो चुकी हैं। यानी हर साल सभी जुटते जरुर हैं तो यह सवाल भी उठेगा कि जिन स्कूलों की नींव आजादी से पहले पड़ी, उसमें आजादी के बाद पव्लिक स्कूलों की भूमिका को लेकर भी क्या सवाल उठते होंगे। भोसले सैनिक स्कूल पांचवी कक्षा से बारहवी कक्षा तक हैं। यहा के कोर्स में हिन्दुत्व को लेकर महाराष्ट्र बोर्ड का ही सिलेबस पढाया जाता है । लेकिन तरीका 1935 में बनाया गया सेन्ट्रल हिन्दु मिलेट्री एजुकेशन सोसायटी वाला ही है। जाहिर है देश को लेकर जो नींव इस तरह के स्कूलो में पड़ेगी, वैसा देश नहीं है तो सवाल कहीं भी उठेंगे। नागपुर के भोसले स्कूल के वाद विवाद प्रतियोगिता में पिछले दो-तीन साल से यह सवाल छात्र उठा रहे हैं कि जिन परिस्थितयो से देश गुजर रहा है, उसमे समाधान क्या है। जाहिर है यहा राष्ट्रीय स्वंससेवक संघ के हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना उभरती होगी। जो राजनीतिक नजरीये से खतरनार मानी जा सकती है। लेकिन संघ के भीतर के संघठनों में भी जब यह सवाल उठने लगा कि वाजपेयी सरकार में भी देशवाद और हिन्दुत्व खारिज हुआ तो समाधान क्या हो। अगर मुस्लिम समुदाय को बिलकुल अलग कर भी दिया जाये तो हिन्दुत्व कट्टरवाद के आक्रोष की इतनी परते है कि पहली बार समाज के उन खेमो में अपनी ही नींव से भरोसा टूटने लगा जो मानकर चल रहे थे कि उनकी समझ समाधान दे सकती है।
साधु समाज को तो सालों साल या कहे अभी तक भरोसा ही नहीं है कि जिन्ना के लोकतंत्र की हिमायत करने वाले लालकृषण आडवाणी को आरएसएस ने माफ कर दिया। साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हौ उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे । जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे। सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिए बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं। जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगडती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके । इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आतंकवाद की राह पर है। लेकिन हर कोई फिर उन परिस्थितयो से आंख मूंद रहा है जो समाज के भीतर तनाव पैदा कर राज्य के प्रति अविश्वास को जन्म दे रही हैं। इसलिये जयपुर-अहमदाबाद-दिल्ली के आतंकवादी घमाको में मुस्लिम और मालेगांव में हिन्दु आतंकवादी नजर आ रहा है। जबकि हर कोई भूल रहा है दोनो भारतीय नागरिक हैं।
साध्वी प्रज्ञा से लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित के आतंकवादी ब्लास्ट में शामिल होने ने संकेतों ने अचानक उस मानसिकता को बैचेन कर दिया है जो यह कहने से नहीं कतराती थी कि हर मुसलमान चाहे आतंकवादी न हो लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान जरुर है। इसमे दो मत नही कि मुस्लिम समुदाय को लेकर आतंकवाद की जो बहस समाज के भीतर चली और बीजेपी-कांग्रेस सरीखे राष्ट्रीय राजनीतिक दलो ने उसे जिस तरह देखा, उसमें देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जुड़ती चली गयी। इसे खुफिया एजेंसियों ने भी माना कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो चेहरा विलासिता के नाम पर भारतीय समाज से जुड़ा है, उसमे बहुसंख्यक तबके के सामने यह संकट भी पैदा हो गया है कि वह पाने की होड़ में अपना क्या क्या गंवा दे। खासकर समाज के भीतर जब समूचे मूल्य पूंजी के आधार पर तय होने लगे हैं और सरकार की नीतियां भी नागरिकों को साथ लेकर चलने के बजाय एक तबके विशेष के मुनाफे को साथ लेकर चल रही है तो आक्रोष बहुसंख्य तबके के भीतर लगातार बढ रहा है। जो अलग अलग तरीके से अलग अलग जगहो पर निकल भी रही है।
इस घेरे में मुस्लिम संप्रदाय सबसे पहले नजर आ रहा है तो पहली वजह तो उसकी बदहाली है। उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां हैं, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उभरा भी है। लेकिन दूसरी बडी वजह वह राजनीतिक परिस्थितियां हैं, जो सत्ताधारियों के लिये मुनाफे की चाशनी बन चुकी है। जिसे बिना किसी लाग-लपेट कर हर तरह का सत्ताधारी चाट सकता है।
मामला सिर्फ वोट बैंक का नहीं है। जहां कांग्रेस को पुचकारना है और बीजेपी को मुस्लिम के नाम पर हिन्दुओं को डराना है। बल्कि विकास की लकीर का अधूरापन और पूरा करने की सोच भी मुस्लिम समुदाय से जोड़ी जा सकती है। यह मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर भारतीय परिप्रेष्य में संयुक्त राष्ट्र भी बखूबी समझता है।
संयोग से बीते डेढ़ दशक में जब आर्थिक व्यवस्था परवान चढ़ी, उसी दौर में व्यवस्था सबसे ज्यादा कमजोर होती भी दिखी। ऐसा नहीं है कि आहत सिर्फ धर्म के नाम पर एक समुदाय विशेष हुआ। आहत समूचा समाज हुआ तो साधू और सिपाही भी पहली बार संदेह के घेरे में आये है। सेना के भीतर कोई बहस होती है या नही, इसे देखने और उजागर करने की समझ और हिम्मत देश के किसी राजनीतिक सिपाही में नहीं है । वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में कारगिल के दौर में सेना के भीतर से आवाज निकल कर देश के पटल पर छा जाने को बैचेन थी। लेकिन सेना का कोई चेहरा नहीं होता। यह चेहरा तो वेतन आयोग की सिफारिशों के विरोध में भी उभर नहीं सका। अर्थव्यवस्था ने सिर्फ पूंजी की सीमा ही रुपये और डॉलर की नहीं मिटायी बल्कि सरकारें यह भी नही समझ सकी देश के भीतर जब देशप्रेम का जुनून ही खत्म हो चला है तो सीमा पर खड़े रहने वाला सिपाही किस अंतर्द्दन्द से गुजर रहा होगा। जब उसके सामने तो सीमा की पहरेदारी होगी लेकिन आम नागरिको के बीच जाकर उसे यह एहसास होता होगा कि देश तो बिकने को तैयार है या फिर वह रक्षा एफडीआई या विदेशी निवेश की कर रहा है, जिस पर देश टिकता जा रहा है।
सैनिको को लेकर जिस भोसले स्कूल का नाम आ रहा है, वह देश के उन पहले स्कूलों में शुमार है जो आजादी से पहले पब्लिक स्कुल की सोच को लेकर आगे बढ़े। नासिक का भोसले सैनिक स्कूल 1937 में स्थापित हुआ। और देश के सात टॉप पब्लिक स्कूलों की पहली कान्फ्रेंस 16 जून 1939 में शिमला के गोर्टन कैस्टल कमेटी रुम में हुई । इसमें भोसले सैनिक स्कूल नासिक के अलावा सिधिया स्कूल ग्वालियर, डाले कालेज इंदौर, ऐटीचीसन कालेज इंदौर, दून स्कूल देहरादून ,राजकूमार कालेज रायपुर और राजकोट के राजकुमार कालेज के अध्यक्ष या सचिव शामिल हुये थे । जिसमें देश की संसकृति के अनुरुप पव्लिक स्कूलो को आगे बढाने का खाका रखा गया था।
अब तक इन स्कूलो के 68 बैठकें हो चुकी हैं। यानी हर साल सभी जुटते जरुर हैं तो यह सवाल भी उठेगा कि जिन स्कूलों की नींव आजादी से पहले पड़ी, उसमें आजादी के बाद पव्लिक स्कूलों की भूमिका को लेकर भी क्या सवाल उठते होंगे। भोसले सैनिक स्कूल पांचवी कक्षा से बारहवी कक्षा तक हैं। यहा के कोर्स में हिन्दुत्व को लेकर महाराष्ट्र बोर्ड का ही सिलेबस पढाया जाता है । लेकिन तरीका 1935 में बनाया गया सेन्ट्रल हिन्दु मिलेट्री एजुकेशन सोसायटी वाला ही है। जाहिर है देश को लेकर जो नींव इस तरह के स्कूलो में पड़ेगी, वैसा देश नहीं है तो सवाल कहीं भी उठेंगे। नागपुर के भोसले स्कूल के वाद विवाद प्रतियोगिता में पिछले दो-तीन साल से यह सवाल छात्र उठा रहे हैं कि जिन परिस्थितयो से देश गुजर रहा है, उसमे समाधान क्या है। जाहिर है यहा राष्ट्रीय स्वंससेवक संघ के हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना उभरती होगी। जो राजनीतिक नजरीये से खतरनार मानी जा सकती है। लेकिन संघ के भीतर के संघठनों में भी जब यह सवाल उठने लगा कि वाजपेयी सरकार में भी देशवाद और हिन्दुत्व खारिज हुआ तो समाधान क्या हो। अगर मुस्लिम समुदाय को बिलकुल अलग कर भी दिया जाये तो हिन्दुत्व कट्टरवाद के आक्रोष की इतनी परते है कि पहली बार समाज के उन खेमो में अपनी ही नींव से भरोसा टूटने लगा जो मानकर चल रहे थे कि उनकी समझ समाधान दे सकती है।
साधु समाज को तो सालों साल या कहे अभी तक भरोसा ही नहीं है कि जिन्ना के लोकतंत्र की हिमायत करने वाले लालकृषण आडवाणी को आरएसएस ने माफ कर दिया। साधु-संतो के बीच हिन्दुत्व को लेकर यह बहस है कि आरएसएस जिस हिन्दु राष्ट्र की परिकल्पना को समेटे हुये हौ उससे लाख दर्जे बेहतर तो सावरकर थे । जो सीधे संघर्ष की बात तो करते थे। सावरकर की सोच अचानक उन संगठनो में पैठ बनाने लगी है जो आरएसएस के जरिए बीजेपी को राजनीतिक मान्यता देते रहे हैं। जाहिर है सावरकर की थ्योरी तले पहले जनसंघ खारिज था तो अब बीजेपी खारिज हो रही है। इसलिये साध्वी प्रज्ञा को साधु-संतो के बीच अचानक एक प्रतीक भी बनाया जा रहा जो बिगडती व्यवस्था में हिन्दुत्व की नयी थ्योरी को पैदा कर सके । इसलिये बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिह हो या आरएसएस के सरकार्यवाहक मोहनराव भागवत दोनों यही कह रहे है कि भारतीय संस्कृति से जुड़ा व्यक्ति आतंकवादी नहीं हो सकता । वहीं कांग्रेस मुस्लिमो को रिझाने के लिये संकेत की भाषा अपना रही है कि संघी हिन्दुत्व भी आतंकवाद की राह पर है। लेकिन हर कोई फिर उन परिस्थितयो से आंख मूंद रहा है जो समाज के भीतर तनाव पैदा कर राज्य के प्रति अविश्वास को जन्म दे रही हैं। इसलिये जयपुर-अहमदाबाद-दिल्ली के आतंकवादी घमाको में मुस्लिम और मालेगांव में हिन्दु आतंकवादी नजर आ रहा है। जबकि हर कोई भूल रहा है दोनो भारतीय नागरिक हैं।
Thursday, November 6, 2008
आम्बेडकर से मायावती और लूथर किंग से ओबामा का सपना !
अमेरिका में बराक ओबामा की जीत एक ऐसा इतिहास रचने को तैयार है, जिसका सपना कभी मार्टिन लूथर किंग ने देखा था। अप्रैल 1963 में जब ओबामा की उम्र दो साल रही होगी, उस वक्त मार्टिन लूथर किंग ने वाशिंगटन में करीब ढाई लाख लोगों की मौजूदगी में हक और बराबरी का सवाल खड़ा किया। अपने सोलह मिनट के भाषण में मार्टिन लूथर ने श्वेत-अश्वेत के बीच खिंची लकीर को मिटाने से लेकर दुनियाभर में चल रहे मानवाधिकार संघर्ष को एक ऐसी आवाज दी, जिसे पहली बार अमेरिका समेत समूची दुनिया ने महसूस किया कि लूथर एक ऐसा सपना दिखा रहे हैं जिसे हकीकत में बदलना चाहिए। मगर यह सपना ही है क्योंकि यह आवाज उस ताकतवर देश से उठी है जो खुद कई लकीर समूची दुनिया में खींचे हुए है।
लेकिन बीसवीं सदी में हाशिये पर पड़े इस सपने को इक्कीसवीं सदी में कोई मुख्यधारा में ले आयेगा, यह लूथर किंग ने भी नही सोचा होगा। अमेरिकी अश्वेतों को सपना दिखाने के महज 45 साल बाद बराक ओबामा उसी सपने को पूरा कर इतिहास रचने को तैयार हैं। दरअसल जिस दौर में मार्टिन लूथर किंग ने बराबरी का सपना देखा था, उस दौर में भारत में बाबा साहेब आंबेडकर ने सपना देखा। लूथर किंग के ऐतिहासिक भाषण से सात साल पहले अक्तूबर 1956 में आंबेडकर ने नागुर में करीब दस लाख लोगों की मौजूदगी में धम्मचक्र परिवर्तन को लेकर जो कहा, वह भारतीय समाज में बराबरी के सपने से आगे खुद को संघर्ष के लिये तैयार करने का सपना था। जातीय आधार पर बंटे समाज और धर्म के आसरे भारत का नागरिक होने का जो गर्व हिन्दू अपनी छाती पर तमगे की तरह गाढ़े हुए था, उसे बाबा साहेब आंबेडकर ने चुनौती दी। चुनौती ही नहीं, बल्कि उसके सामानातंर दलित समाज को अपनी अस्मिता, अपनी पहचान को बिना गिरवी रखे हक और बराबरी का जो बिगुल बजाया उसने हिन्दुस्तान की राजनीति में एक ऐसा बीज बो दिया जो कालातंर में पनपा तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सुरसा की तरह निगलता गया।
कमोबेश श्वेत-अश्वेत को लेकर संघर्ष का जो चेहरा लूथर किंग की 1969 में हत्या के दौर में था, उसने अमेरिकी समाज को लूथर के सपनो के आसरे पूरी तरह बदल भी दिया। लेकिन अमेरिका में किसे पता था कि ओबामा जब लूथर के सपनों को मुख्यधारा में लाएंगे तो वह विचारधारा सपनों में बदलते दिखेगी, जिसपर अमेरिकी समाज ने अपनी जीत कई दशकों पर दर्ज कर ली थी। विलासिता के आसरे विचारधारा रख कर नई विश्व व्यवस्था का सपना संजोए अमेरिका में रोटी-कपड़ा और मकान को पूरा करने की थ्योरी मुंह बाए खड़ी होगी, किसने सोचा होगा! बुश की सोच को आगे बढ़ाने के लिए तैयार रिपब्लिकन मैककेन का नारा यही है, पहले देश। जिसमें सुधार-खुशहाली-शांति की बात है। यह नारा उस वक्त लगाया जा रहा है, जब अर्थव्यवस्था के ढहने से अमेरिकी खुशहाली बदहाल हो चली है। सुधार की बाजार व्यवस्था को संभालने के लिये सरकार को जनता के पैसे का सहारा लेना पड़ रहा है। और आंतकवाद के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाईयों ने अमेरिका की ही शांति में सेंध लगा दी है। वहीं आंबेडकर जब बराबरी और हक का सपना संजोये थे और नागपुर में धम्म परिवर्तन कर रहे थे उस दौर में मायावती की उम्र महज नौ महीने की थी। कांग्रेस के बार बार हाशिए पर ढकेले जाने के दौर में अंबेडकर ने पहले कांग्रेस को पहले जलता हुआ घर करार दिया और फिर दलितों को यह सपना दिखाया कि उनके हाथ में सत्ता हो। शिक्षा और रोजगार को दलित की अस्मिता से जोड़कर आंबेडकर ने जाति और धर्म की उस दीवार को तोड़ना चाहा, जिसके अंदर घुट-घुट कर दलित की मौत हो जाती है। आंबेडकर का सपना दलित को उस मुख्यधारा से जोड़ना था, जहाँ से दलित-नीति बनने का सवाल सत्ता खड़ा करती है। आंबेडकर का मानना थी कि बराबरी का तरीका बदलना होगा और मापदंड भी, क्योंकि कोई दलित होकर ही दलितों की मानसिकता को समझ सकता है। इसलिये संविधान में आरक्षण का सवाल जोड़ा गया, जिससे एक ही देश में दो परिस्थितियो में पनप रहे दो समाजों में तालमेल हो सके।
मार्टिन लूथर किंग की तरह आंबेडकर ने भी नहीं सोचा था कि बीसवीं सदी के उनके सपने सत्ता की मुख्यधारा में तो इक्कीसवीं सदी तक आ ही जाएंगे, लेकिन जिन परिस्थियों में देश जवान हो रहा है वही स्तम्भ ढहने लगेगा। अमेरिकी राजनीति में यह पहली बार है कि कोई शख्स राष्ट्रपति पद की दावेदारी में अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी राजनीतिक शुरु कर रहा है। अभी तक राष्ट्रपति पद आखिरी पद माना जाता था। इसलिये ओबामा को लेकर अमेरिका में ही नहीं, समूची दुनिया में एक नये सपने को रचने की बात भी हो रही है। क्योकि संयोग से अमेरिका पहली बार उस दोराहे पर खड़ा है, जहाँ उसकी बनायी दुनिया पर ही संकट के बादल हैं। और वह विचारधारा मटियामेट हो रही है जिसके कंधो के आसरे हर अमेरिकी गर्व कर विकसित और विकासशील देशों की टोली को अपनी ओर लालायित करता था। साथ ही दुनिया के हर पूंजीवादी संस्थान पर उसकी पैठ रहती थी। ऐसे वक्त ओबामा के सामने भी लूथर किंग के देखे गये सपनों से कहीं बड़ा सपना देखने और पूरा करने का भार है। क्योंकि ओबामा को कुछ ऐसा रचना है जो अभी तक सोचा नहीं गया है। हालाँकि अमेरिकी चुनाव में 80 साल बाद पहला मौका आया है जब राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवार नये हैं। लेकिन ओबामा के जरिये जिस स्क्रिप्ट का इंतजार दुनिया को है, वह श्वेत-अश्वेत से कहीं आगे है। आंबेडकर के सपनों को लेकर, उनकी मौत के बाद कई दशकों से यह सवाल भारत में भी गूंजता रहा कि आंबेडकर के सपने भारतीय राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा कब और कैसे बनेंगे? आंबेडकर की सोच और कांशीराम के सांगठनिक समझ के कंधो पर चढ़कर मायावती ने आंबेडकर के सपनो को मुख्यधारा में ला तो खड़ा किया, लेकिन जब बात सपनों को पूरा करने की आयी तो वह राजनीति ही भरभराकर गिरती जा रही है जिसके आसरे आंबेडकर ने सपना देखा था। बीसवीं सदी में देखा गया आंबेडकर का सपना इक्कीसवीं सदी में जब पूरा होने को आया तो उस राजनीति को संभालना ही सबसे बड़ा सपना हो गया. जिसे आंबेडकर ने मजबूत मान लिया था। ठीक उसी तरह जैसे लूथर किंग ने अमेरिकी व्यवस्था को मजबूत मान लिया था। लेकिन ओबामा और मायावती का सच उस व्यवस्था की पूरी होती उम्र का भी प्रतीक है जिसने दोनो को कभी हाशिये पर रखा। अमेरिका के राजनीतिक इतिहास में पहला मौका आया जब किसी राजनीतिक दल ने एक अश्वेत को उम्मीदवार बनाया। भारत में पहला मौका आया जब अपने बूते कोई दलित बहुल पार्टी किसी राज्य में सत्ता बना बैठी और उसकी अगुवाई भी दलित ने ही की। अमेरिका में इससे पहले अश्वेतों को लेकर नीतियाँ बनती थीं। हर राष्ट्रपति पद का दावेदार समाज में भागीदारी या सुविधा-असुविधा को लेकर कोई-न-कोई प्रस्ताव ले कर आता ही था। लेकिन पहला मौका है कि श्वेत-अश्वेत की बहस अमेरिकी समाज में बेमानी लगने लगी है। राजनीतिक तौर पर वोट का बंटवारा नस्लीय आधार पर पिछड़ा होने का प्रतीक माना जाने लगा है। ओबामा को समाज ही नहीं, देश पाटने वाला शख्स भी माना जा रहा है।
पार्टी लाइन पर चलते हुये सभी को साथ लेकर चलने वाला डेमोक्रेट ओबामा को माना जाता है। उसके अपने वोट बैंक में सेंध लगाने की ना तो मैक्कन ने सोचा, ना ही रिपब्लिकन ने सोचा। वहीं भारत में मुख्यधारा की राजनीति में दखल के बाद मायावती की दलित राजनीति में सेंध लगाने की किसी राजनीतिक ने नहीं सोची। बल्कि मायावती के साथ हर राजनीतिक दल ने तालमेल किया। कांग्रेस-बीजेपी-सपा तीनों दलों ने अपने-अपने मौके ताड़कर मायावती का साथ लिया। और ऐसे वक्त जब केन्द्र में ही नहीं बल्कि राज्यों की राजनीति भी गठबंधन के सहारे सत्ता पाने की जोड़तोड़ में आ चुकी है, तब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अपने बूते सत्ता पाना आंबेडकर के सपने का सच होना नहीं है बल्कि उस राजनीति में ही सेंध लगना है जो आमजन के भरोसे पर लोकतंत्र का एहसास करा रही थी। इसीलिये भारतीय राजनीति में मायावती को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि केन्द्र की सत्ता अगर मायावती के पास आ गयी तो कम-से-कम कोई सपना तो उसकी आंखो में है, जो किसी दूसरे राजनेता के पास नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे बुश या मैक्कन के पास अमेरिका को लेकर कोई सपना होगा, सोचना भी मुश्किल है। लेकिन ओबामा की आँखो में सपना है। और शायद अब की दुनिया में इंतजार मरते हुये सपनों को जिलाने का ही है।
लेकिन बीसवीं सदी में हाशिये पर पड़े इस सपने को इक्कीसवीं सदी में कोई मुख्यधारा में ले आयेगा, यह लूथर किंग ने भी नही सोचा होगा। अमेरिकी अश्वेतों को सपना दिखाने के महज 45 साल बाद बराक ओबामा उसी सपने को पूरा कर इतिहास रचने को तैयार हैं। दरअसल जिस दौर में मार्टिन लूथर किंग ने बराबरी का सपना देखा था, उस दौर में भारत में बाबा साहेब आंबेडकर ने सपना देखा। लूथर किंग के ऐतिहासिक भाषण से सात साल पहले अक्तूबर 1956 में आंबेडकर ने नागुर में करीब दस लाख लोगों की मौजूदगी में धम्मचक्र परिवर्तन को लेकर जो कहा, वह भारतीय समाज में बराबरी के सपने से आगे खुद को संघर्ष के लिये तैयार करने का सपना था। जातीय आधार पर बंटे समाज और धर्म के आसरे भारत का नागरिक होने का जो गर्व हिन्दू अपनी छाती पर तमगे की तरह गाढ़े हुए था, उसे बाबा साहेब आंबेडकर ने चुनौती दी। चुनौती ही नहीं, बल्कि उसके सामानातंर दलित समाज को अपनी अस्मिता, अपनी पहचान को बिना गिरवी रखे हक और बराबरी का जो बिगुल बजाया उसने हिन्दुस्तान की राजनीति में एक ऐसा बीज बो दिया जो कालातंर में पनपा तो राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को सुरसा की तरह निगलता गया।
कमोबेश श्वेत-अश्वेत को लेकर संघर्ष का जो चेहरा लूथर किंग की 1969 में हत्या के दौर में था, उसने अमेरिकी समाज को लूथर के सपनो के आसरे पूरी तरह बदल भी दिया। लेकिन अमेरिका में किसे पता था कि ओबामा जब लूथर के सपनों को मुख्यधारा में लाएंगे तो वह विचारधारा सपनों में बदलते दिखेगी, जिसपर अमेरिकी समाज ने अपनी जीत कई दशकों पर दर्ज कर ली थी। विलासिता के आसरे विचारधारा रख कर नई विश्व व्यवस्था का सपना संजोए अमेरिका में रोटी-कपड़ा और मकान को पूरा करने की थ्योरी मुंह बाए खड़ी होगी, किसने सोचा होगा! बुश की सोच को आगे बढ़ाने के लिए तैयार रिपब्लिकन मैककेन का नारा यही है, पहले देश। जिसमें सुधार-खुशहाली-शांति की बात है। यह नारा उस वक्त लगाया जा रहा है, जब अर्थव्यवस्था के ढहने से अमेरिकी खुशहाली बदहाल हो चली है। सुधार की बाजार व्यवस्था को संभालने के लिये सरकार को जनता के पैसे का सहारा लेना पड़ रहा है। और आंतकवाद के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाईयों ने अमेरिका की ही शांति में सेंध लगा दी है। वहीं आंबेडकर जब बराबरी और हक का सपना संजोये थे और नागपुर में धम्म परिवर्तन कर रहे थे उस दौर में मायावती की उम्र महज नौ महीने की थी। कांग्रेस के बार बार हाशिए पर ढकेले जाने के दौर में अंबेडकर ने पहले कांग्रेस को पहले जलता हुआ घर करार दिया और फिर दलितों को यह सपना दिखाया कि उनके हाथ में सत्ता हो। शिक्षा और रोजगार को दलित की अस्मिता से जोड़कर आंबेडकर ने जाति और धर्म की उस दीवार को तोड़ना चाहा, जिसके अंदर घुट-घुट कर दलित की मौत हो जाती है। आंबेडकर का सपना दलित को उस मुख्यधारा से जोड़ना था, जहाँ से दलित-नीति बनने का सवाल सत्ता खड़ा करती है। आंबेडकर का मानना थी कि बराबरी का तरीका बदलना होगा और मापदंड भी, क्योंकि कोई दलित होकर ही दलितों की मानसिकता को समझ सकता है। इसलिये संविधान में आरक्षण का सवाल जोड़ा गया, जिससे एक ही देश में दो परिस्थितियो में पनप रहे दो समाजों में तालमेल हो सके।
मार्टिन लूथर किंग की तरह आंबेडकर ने भी नहीं सोचा था कि बीसवीं सदी के उनके सपने सत्ता की मुख्यधारा में तो इक्कीसवीं सदी तक आ ही जाएंगे, लेकिन जिन परिस्थियों में देश जवान हो रहा है वही स्तम्भ ढहने लगेगा। अमेरिकी राजनीति में यह पहली बार है कि कोई शख्स राष्ट्रपति पद की दावेदारी में अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपनी राजनीतिक शुरु कर रहा है। अभी तक राष्ट्रपति पद आखिरी पद माना जाता था। इसलिये ओबामा को लेकर अमेरिका में ही नहीं, समूची दुनिया में एक नये सपने को रचने की बात भी हो रही है। क्योकि संयोग से अमेरिका पहली बार उस दोराहे पर खड़ा है, जहाँ उसकी बनायी दुनिया पर ही संकट के बादल हैं। और वह विचारधारा मटियामेट हो रही है जिसके कंधो के आसरे हर अमेरिकी गर्व कर विकसित और विकासशील देशों की टोली को अपनी ओर लालायित करता था। साथ ही दुनिया के हर पूंजीवादी संस्थान पर उसकी पैठ रहती थी। ऐसे वक्त ओबामा के सामने भी लूथर किंग के देखे गये सपनों से कहीं बड़ा सपना देखने और पूरा करने का भार है। क्योंकि ओबामा को कुछ ऐसा रचना है जो अभी तक सोचा नहीं गया है। हालाँकि अमेरिकी चुनाव में 80 साल बाद पहला मौका आया है जब राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवार नये हैं। लेकिन ओबामा के जरिये जिस स्क्रिप्ट का इंतजार दुनिया को है, वह श्वेत-अश्वेत से कहीं आगे है। आंबेडकर के सपनों को लेकर, उनकी मौत के बाद कई दशकों से यह सवाल भारत में भी गूंजता रहा कि आंबेडकर के सपने भारतीय राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा कब और कैसे बनेंगे? आंबेडकर की सोच और कांशीराम के सांगठनिक समझ के कंधो पर चढ़कर मायावती ने आंबेडकर के सपनो को मुख्यधारा में ला तो खड़ा किया, लेकिन जब बात सपनों को पूरा करने की आयी तो वह राजनीति ही भरभराकर गिरती जा रही है जिसके आसरे आंबेडकर ने सपना देखा था। बीसवीं सदी में देखा गया आंबेडकर का सपना इक्कीसवीं सदी में जब पूरा होने को आया तो उस राजनीति को संभालना ही सबसे बड़ा सपना हो गया. जिसे आंबेडकर ने मजबूत मान लिया था। ठीक उसी तरह जैसे लूथर किंग ने अमेरिकी व्यवस्था को मजबूत मान लिया था। लेकिन ओबामा और मायावती का सच उस व्यवस्था की पूरी होती उम्र का भी प्रतीक है जिसने दोनो को कभी हाशिये पर रखा। अमेरिका के राजनीतिक इतिहास में पहला मौका आया जब किसी राजनीतिक दल ने एक अश्वेत को उम्मीदवार बनाया। भारत में पहला मौका आया जब अपने बूते कोई दलित बहुल पार्टी किसी राज्य में सत्ता बना बैठी और उसकी अगुवाई भी दलित ने ही की। अमेरिका में इससे पहले अश्वेतों को लेकर नीतियाँ बनती थीं। हर राष्ट्रपति पद का दावेदार समाज में भागीदारी या सुविधा-असुविधा को लेकर कोई-न-कोई प्रस्ताव ले कर आता ही था। लेकिन पहला मौका है कि श्वेत-अश्वेत की बहस अमेरिकी समाज में बेमानी लगने लगी है। राजनीतिक तौर पर वोट का बंटवारा नस्लीय आधार पर पिछड़ा होने का प्रतीक माना जाने लगा है। ओबामा को समाज ही नहीं, देश पाटने वाला शख्स भी माना जा रहा है।
पार्टी लाइन पर चलते हुये सभी को साथ लेकर चलने वाला डेमोक्रेट ओबामा को माना जाता है। उसके अपने वोट बैंक में सेंध लगाने की ना तो मैक्कन ने सोचा, ना ही रिपब्लिकन ने सोचा। वहीं भारत में मुख्यधारा की राजनीति में दखल के बाद मायावती की दलित राजनीति में सेंध लगाने की किसी राजनीतिक ने नहीं सोची। बल्कि मायावती के साथ हर राजनीतिक दल ने तालमेल किया। कांग्रेस-बीजेपी-सपा तीनों दलों ने अपने-अपने मौके ताड़कर मायावती का साथ लिया। और ऐसे वक्त जब केन्द्र में ही नहीं बल्कि राज्यों की राजनीति भी गठबंधन के सहारे सत्ता पाने की जोड़तोड़ में आ चुकी है, तब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में अपने बूते सत्ता पाना आंबेडकर के सपने का सच होना नहीं है बल्कि उस राजनीति में ही सेंध लगना है जो आमजन के भरोसे पर लोकतंत्र का एहसास करा रही थी। इसीलिये भारतीय राजनीति में मायावती को लेकर यह सवाल बार-बार उठता है कि केन्द्र की सत्ता अगर मायावती के पास आ गयी तो कम-से-कम कोई सपना तो उसकी आंखो में है, जो किसी दूसरे राजनेता के पास नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे बुश या मैक्कन के पास अमेरिका को लेकर कोई सपना होगा, सोचना भी मुश्किल है। लेकिन ओबामा की आँखो में सपना है। और शायद अब की दुनिया में इंतजार मरते हुये सपनों को जिलाने का ही है।
Sunday, November 2, 2008
बांटने वाली राजनीति के खिलाफ छात्र आंदोलन की जरुरत !
1955 का वाकया है। बिहार रोड ट्रांसपोर्ट और पटना विश्वविद्यालय के बी.एन. कॉलेज के छात्रों के बीच किसी बात को लेकर मामूली झगड़ा हुआ। लेकिन राज्य सरकार के रवैये ने कालेज छात्रों को भड़का दिया । छात्र एकजुट हुए। पटना ही नहीं समूचे बिहार के छात्र परिवहन विभाग के खिलाफ खड़े होते गये। छात्रों ने सरकार के रवैये के खिलाफ ग्यारह सदस्यीय छात्र एक्शन कमेटी बना ली। इस आन्दोलन की अगुवाई शाहबुद्दीन कर रहे थे। कमेटी में हर विभाग का छात्र टापर शामिल था। वे नेतृत्व कर रहे थे, जो खुद टॉपर थे। आंदोलन इतना जबरदस्त था कि जुलाई में शुरु हुये आंदोलन के बीच में 15 अगस्त आया, तो छात्रों ने जगह-जगह तिरंगा फहरने नहीं दिया। उसी दौर में नेहरु भी पटना के गांधी मैदान में भाषण देने पहुंचे तो उन्होंने छात्रों को भाषण में चेताया कि एक्शन कमेटी बनाकर सरकार को धमकी ना दें। एक्शन कमेटी बनानी है तो जर्मनी चले जाएं। भारत में यह नहीं चलेगा । लेकिन छात्र आंदोलन टस से मस नहीं हुआ । आखिरकार, सरकार झुकी । चुनाव हुये तो परिवहन मंत्री महेश प्रसाद समेत तीन मंत्री चुनाव हार गये ।
दूसरा वाकया साठ के दशक का है। लोहिया जब नेहरु को संसद में लगातार घेर रहे थे । तो उसमें नेहरु की रईसी और देश के बदतर हालात को लेकर जनता के सामने तथ्यों को रखते । संसद में प्रति व्यक्ति आय को लेकर हुई बहस में लोहिया ने जब तथ्यों को रखा तो सरकार नहीं मानी । उस वक्त नेहरु के मुताबिक प्रति व्यक्ति आय सोलह आने थी, जबकि लोहिया छह आने प्रति व्यक्ति आय बता रहे थे । संसद में चर्चा के दौर में लोहिया ने नेहरु के पालतू कुत्तों को खिलाये जाने वाले गोश्त से लेकर उनके घो़ड़ों के विलायती चने का जिक्र कर जब तथ्यों को रखा तो सरकार भी झुक गयी और नेहरु ने प्रति व्यक्ति आय को सोलह की जगह ग्यारह आने होने पर सहमति जतायी । उस वक्त लोहिया के लिये बीएचयू के छात्रो की एक टीम लगातार तथ्यों को जुटाने में लगी रहती थी ।
तीसरा वाकया सत्तर के दशक का है । जेपी यानी जयप्रकाश नारायण गुजरात के छात्रों को लेकर जुटे तो बिहार के छात्र उसमें जुड़ते चले गये । और कॉलेज छोड़ कर सत्ता को चुनौती देने छात्र ही सड़क पर उतरे, जिनके सामने इंदिरा गांधी के भी पसीने छूटने लगे । अस्सी के दशक के आखिर में बोफोर्स कांड के जरिए वीपी सिंह ने जिस भ्रष्टाचार के शिगूफे को छेडा उसने बिहार-यूपी में छात्र राजनीति को साथ खड़ा कर लिया । इसने कांग्रेस में सेंधलगा दी और वीपी सिंह पीएम बन गये । उसके बाद आखिरी संघर्ष मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर ही देश ने देखा । लेकिन उसमें आमने- सामने छात्र राजनीति ही थी । जिसकी पीठ पर सवार होकर कई छुटभैया अचानक खद्दरधारी नेता बन गये और कुछ सत्ताधारी हो गये ।
लेकिन, इस दौर में छात्रों के सबसे बडे आंदोलन को महाराष्ट्र ने भी मराठवाडा विश्वविद्यालय में देखा । जब नाम बदलने को लेकर महाराष्ट्र के छात्र एकजूट हुये । औरंगाबाद का लांग मार्च अब भी महाराष्ट्र के छात्रों की आंखों के सामने घूमता है । लेकिन नब्बे के दशक के बाद से देश में किसी मुद्दे पर आंदोलन या संघर्ष का सवाल छात्रों के बीच सिकुड़ता गया है । 1991 में जो नयी अर्थव्यवस्था की लकीर मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री खींची, उस लीक को तोड़ने की जहमत किसी ने नही उठायी । अचानक देश को विकसित बनाने या कहने की ऐसी होड़ शुरु हुई, जिसके घेरे में सबसे पहले छात्र ही आया । तमाम कॉलेज - यूनिवर्सिटी का आधार मुनाफा हुआ । एक तरफ शिक्षा प्रणाली के तरीके व्यवसायिक शिक्षा को महान बताने लगे तो विश्लेषण छोड ऑब्जेक्टिव सवाल जबाब की परीक्षा ही ज्ञान का नया माप दंड बनने लगी ।
दूसरी तरफ कॉलेज का वही प्रचार्य और यूनिलर्सिटी का वही वीसी सबसे सफल माना गया जो कॉलेज - विश्वविद्यालय को आर्थिक मुनाफे में ले आये । छात्र चुनाव बेमानी हुये तो चुनाव में रुचि रखने वाले छात्र लुंपन राजनीति के सबसे धारदार हथियार बन गये । इस माहोल में पाने की होड़ ने छात्रों को ही छात्रों के सामने भी खड़ा किया । और ना पाने की स्थिति में समाज के सबसे निचली पायदान पर खिसकते जाने का आंतक भी छात्रों में भर दिया । क्योंकि इस दौर में राज्य की परिभाषा भी बदल गयी । 1950 का कल्याणकारी राज्य अब प्राइवेट मुनाफा कमाने और बनाने का नाम हो गया । राज्य का मतलब गरीबो के लिये राशन कार्ड और रईसो के लिये पासपोर्ट या पैन कार्ड से बनाने की जरुरत से ज्यादा कुछ नही बचा ।
ऐसे दौर में जब सवाल मराठी मानुष का उभरा है और खतरा देश को बांट कर सत्ता तक पहुचने का साफ दिखायी दे रहा है तो बात क्या राजनीति के जरिए सुनी जा सकती है । या कहे राजनीति इसका हल चाहेगी । यह बात इसलिये सीधे कहनी होगी क्योंकि पांच से दस सांसदों का आंकडा दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को झटके में जब मजाक बना सकता है कि उसके समर्थन भर से सरकार गिर या बन सकती है तो यह सवाल उठना जायज है कि राजनीति समाधान कर रही है या छात्रो को बांटकर अपने कुर्सी संभाल रही है ।
1948 में गृहमंत्री सरदार पटेल ने सबसे पहले अपने ही राज्य गुजरात के जूनागढ रियासत के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की थी, जब उसने पाकिस्तान की शह पर भारत में शामिल होने से इंकार किया था । उसके बाद हैदराबाद के निजाम के खिलाफ भी इसी तरह की सैनिक कार्रवाई की थी । लेकिन अब के गृहमंत्री शिवराज पाटिल उसी राज्य से आते हैं, जहां मराठी मानुष की आग की चपेट में उत्तर भारतीय आ रहे हैं । सवाल यह नहीं है कि पाटिल कुछ नहीं कर पा रहे हैं । सवाल यह भी नहीं है कि लालु-मुलायम-पासवान सरकार को चेता रहे है कि वह कुछ करे । अगर राजनीति समझनी है तो बिहार-यूपी की जमीन पर खडे होकर जो आक्रोष लालू-पासवान-मुलायम-मायावती में आप देख रहे हैं, वही दर्द आपको महाराष्ट्र की जमीन पर खडे होकर विलासराव देशमुख-शरद पवार-उद्दव ठकरे-आरआर पाटिल में नजर आयेगा । सत्ता की राजनीति में या तो दोनो गलत है या दोनों सही है । किसी एक को गलत ठहरा कर एक-दुसरे का राजनीतिक गणित मजबूत करना ही होगा । इसलिये सवाल राजनीति का नहीं आंदोलन का है । खड़े तो छात्रो को ही होना होगा...वह भी एकजूटता के साथ ।
यकीन जानिये अगर छात्र आंदोलन इस राजनीतिक शून्यता में खडा हो गया तो अभी के नेता रिटायर हो जाएंगे । देखें पहली आवाज कहां से उठती है।
दूसरा वाकया साठ के दशक का है। लोहिया जब नेहरु को संसद में लगातार घेर रहे थे । तो उसमें नेहरु की रईसी और देश के बदतर हालात को लेकर जनता के सामने तथ्यों को रखते । संसद में प्रति व्यक्ति आय को लेकर हुई बहस में लोहिया ने जब तथ्यों को रखा तो सरकार नहीं मानी । उस वक्त नेहरु के मुताबिक प्रति व्यक्ति आय सोलह आने थी, जबकि लोहिया छह आने प्रति व्यक्ति आय बता रहे थे । संसद में चर्चा के दौर में लोहिया ने नेहरु के पालतू कुत्तों को खिलाये जाने वाले गोश्त से लेकर उनके घो़ड़ों के विलायती चने का जिक्र कर जब तथ्यों को रखा तो सरकार भी झुक गयी और नेहरु ने प्रति व्यक्ति आय को सोलह की जगह ग्यारह आने होने पर सहमति जतायी । उस वक्त लोहिया के लिये बीएचयू के छात्रो की एक टीम लगातार तथ्यों को जुटाने में लगी रहती थी ।
तीसरा वाकया सत्तर के दशक का है । जेपी यानी जयप्रकाश नारायण गुजरात के छात्रों को लेकर जुटे तो बिहार के छात्र उसमें जुड़ते चले गये । और कॉलेज छोड़ कर सत्ता को चुनौती देने छात्र ही सड़क पर उतरे, जिनके सामने इंदिरा गांधी के भी पसीने छूटने लगे । अस्सी के दशक के आखिर में बोफोर्स कांड के जरिए वीपी सिंह ने जिस भ्रष्टाचार के शिगूफे को छेडा उसने बिहार-यूपी में छात्र राजनीति को साथ खड़ा कर लिया । इसने कांग्रेस में सेंधलगा दी और वीपी सिंह पीएम बन गये । उसके बाद आखिरी संघर्ष मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर ही देश ने देखा । लेकिन उसमें आमने- सामने छात्र राजनीति ही थी । जिसकी पीठ पर सवार होकर कई छुटभैया अचानक खद्दरधारी नेता बन गये और कुछ सत्ताधारी हो गये ।
लेकिन, इस दौर में छात्रों के सबसे बडे आंदोलन को महाराष्ट्र ने भी मराठवाडा विश्वविद्यालय में देखा । जब नाम बदलने को लेकर महाराष्ट्र के छात्र एकजूट हुये । औरंगाबाद का लांग मार्च अब भी महाराष्ट्र के छात्रों की आंखों के सामने घूमता है । लेकिन नब्बे के दशक के बाद से देश में किसी मुद्दे पर आंदोलन या संघर्ष का सवाल छात्रों के बीच सिकुड़ता गया है । 1991 में जो नयी अर्थव्यवस्था की लकीर मनमोहन सिंह ने बतौर वित्त मंत्री खींची, उस लीक को तोड़ने की जहमत किसी ने नही उठायी । अचानक देश को विकसित बनाने या कहने की ऐसी होड़ शुरु हुई, जिसके घेरे में सबसे पहले छात्र ही आया । तमाम कॉलेज - यूनिवर्सिटी का आधार मुनाफा हुआ । एक तरफ शिक्षा प्रणाली के तरीके व्यवसायिक शिक्षा को महान बताने लगे तो विश्लेषण छोड ऑब्जेक्टिव सवाल जबाब की परीक्षा ही ज्ञान का नया माप दंड बनने लगी ।
दूसरी तरफ कॉलेज का वही प्रचार्य और यूनिलर्सिटी का वही वीसी सबसे सफल माना गया जो कॉलेज - विश्वविद्यालय को आर्थिक मुनाफे में ले आये । छात्र चुनाव बेमानी हुये तो चुनाव में रुचि रखने वाले छात्र लुंपन राजनीति के सबसे धारदार हथियार बन गये । इस माहोल में पाने की होड़ ने छात्रों को ही छात्रों के सामने भी खड़ा किया । और ना पाने की स्थिति में समाज के सबसे निचली पायदान पर खिसकते जाने का आंतक भी छात्रों में भर दिया । क्योंकि इस दौर में राज्य की परिभाषा भी बदल गयी । 1950 का कल्याणकारी राज्य अब प्राइवेट मुनाफा कमाने और बनाने का नाम हो गया । राज्य का मतलब गरीबो के लिये राशन कार्ड और रईसो के लिये पासपोर्ट या पैन कार्ड से बनाने की जरुरत से ज्यादा कुछ नही बचा ।
ऐसे दौर में जब सवाल मराठी मानुष का उभरा है और खतरा देश को बांट कर सत्ता तक पहुचने का साफ दिखायी दे रहा है तो बात क्या राजनीति के जरिए सुनी जा सकती है । या कहे राजनीति इसका हल चाहेगी । यह बात इसलिये सीधे कहनी होगी क्योंकि पांच से दस सांसदों का आंकडा दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र को झटके में जब मजाक बना सकता है कि उसके समर्थन भर से सरकार गिर या बन सकती है तो यह सवाल उठना जायज है कि राजनीति समाधान कर रही है या छात्रो को बांटकर अपने कुर्सी संभाल रही है ।
1948 में गृहमंत्री सरदार पटेल ने सबसे पहले अपने ही राज्य गुजरात के जूनागढ रियासत के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की थी, जब उसने पाकिस्तान की शह पर भारत में शामिल होने से इंकार किया था । उसके बाद हैदराबाद के निजाम के खिलाफ भी इसी तरह की सैनिक कार्रवाई की थी । लेकिन अब के गृहमंत्री शिवराज पाटिल उसी राज्य से आते हैं, जहां मराठी मानुष की आग की चपेट में उत्तर भारतीय आ रहे हैं । सवाल यह नहीं है कि पाटिल कुछ नहीं कर पा रहे हैं । सवाल यह भी नहीं है कि लालु-मुलायम-पासवान सरकार को चेता रहे है कि वह कुछ करे । अगर राजनीति समझनी है तो बिहार-यूपी की जमीन पर खडे होकर जो आक्रोष लालू-पासवान-मुलायम-मायावती में आप देख रहे हैं, वही दर्द आपको महाराष्ट्र की जमीन पर खडे होकर विलासराव देशमुख-शरद पवार-उद्दव ठकरे-आरआर पाटिल में नजर आयेगा । सत्ता की राजनीति में या तो दोनो गलत है या दोनों सही है । किसी एक को गलत ठहरा कर एक-दुसरे का राजनीतिक गणित मजबूत करना ही होगा । इसलिये सवाल राजनीति का नहीं आंदोलन का है । खड़े तो छात्रो को ही होना होगा...वह भी एकजूटता के साथ ।
यकीन जानिये अगर छात्र आंदोलन इस राजनीतिक शून्यता में खडा हो गया तो अभी के नेता रिटायर हो जाएंगे । देखें पहली आवाज कहां से उठती है।
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