("सत्ता सिर्फ बंदूक की नली से नहीं निकलती" पर कई प्रतिक्रियाएं आयीं,जिन्होंने कई सवाल खड़े किये । लेकिन हर में महक विकल्प के खोज की ही नजर आयी। कुमार आलोक, गोंदियाल, विपिन देव त्यागी, कपिल, निरंजन हों या स्वपनिला....आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे एक नया कंटेट दिया कि मुख्यधारा की राजनीति में ही देश को देखना होगा। मैंने कांग्रेस के राजकुमार और नक्सली नेता गणपति को मिलाकर देखने की कोशिश की है। मुझे लग रहा है समाधान यह दोनों नहीं है लेकिन पहली बार मुख्यधारा की राजनीति सत्ता की खातिर राहुल को गणपति से ज्यादा खतरनाक मानने लगी है। आप पढ़ें पिर चर्चा करेंगे।............)
" आप युवा हैं और आपके कंधों के सहारे नेता पहले टिकट पाते हैं और फिर गद्दी। नेता सत्ता की मलाई जमकर खाते है और आप यूं ही अंधेरे में गुम हो जाते हैं। इसलिये युवाओं को अब पहल करनी होगी, जिससे उम्र ढलने से पहले वह देश की कमान अपने हाथों में ले सकें। नहीं तो युवा अंधेरे में ही खो जायेगा।"
"आप मजदूर हैं और आपकी मेहनत के सहारे ही देश आगे बढ़ता है। आपके खून-पसीने को मलाई में बदलकर मालिक-सरकार जमकर मौज उड़ाते हैं और आप अंधेरे में रहते हैं। इसलिये एक वर्ग की सरकार में बगैर हिस्सेदारी के भी रणनीति के तौर पर कैसे लाभ उठाया जाये, इसे समझना होगा । नहीं तो हम सभी मारे जाएंगे।"
पहला वक्तव्य राहुल गांधी का है, जो उन्होंने दिल्ली में एनयूएसआई और यूथ कांग्रेस की सभा में 8 फरवरी 2009 को दिया। वहीं दूसरा वक्तव्य नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के महासचिव गणपति का है, जो उन्होंने दिसंबर 2008 में दिया था। अपने अपने घेरे में कमोवेश दोनो बयान फार्मूले से हटकर हैं। राहुल का वक्तव्य संसदीय राजनीति की उस परिभाषा से हटकर है, जिसे पिछले साठ साल से तमाम नेता देश को पढ़ा रहे हैं। और गणपति का बयान अल्ट्रा लेफ्ट की उस राजनीति से हटकर है जिसका पाठ माओवादी पिछले चालीस साल से पढ़ रहे हैं। तो क्या देश का मिजाज हर स्तर पर बदल चुका है और जो शून्यता नजर आ रही है वह बदलते परिवेश को बदलने या ना बदले जाने के टकराव को लेकर ही है।
कमोवेश संसदीय राजनीति के भीतर राहुल गांधी की मौजूदगी और नक्सली संगठनों के अंदर संघर्ष के बदलते तौर-तरीको ने पहली बार एक नया सवाल खड़ा किया है कि दोनो अपनी उम्र पूरी कर चुके हैं और अब बदलाव जरुरी है। मसला यह नहीं है कि बाजार अर्थव्यवस्था का जो सपना न्यू इकनॉमी के जरिये खड़ा किया गया, उसके ढहने के बाद संसदीय राजनीति का खोखलापन खुलकर सामने आ गया। जहां उसके पास जनवादी सोच के जरिये लोकतांत्रिक पहल करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है बल्कि संवैधानिक तौर पर देश की मजबूती के लिये जो जो खम्भे अलग-अलग संस्थानों के जरिये खड़े किये गये, वह सभी संसदीय राजनीति के दायरे में ढहाये गये । उन्हें इतना निकम्मा बनाया गया कि देश की सुरक्षा को बेचकर मुनाफा कमाने और बनाने की प्रवृति पैदा होती चली गयी।
राहुल गांधी का भाषण या उनके राजनीतिक तौर-तरीके साठ साल की संसदीय राजनीति के सामने बचकाने हो सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि देश के किसी भी रंग को राहुल ने देखा समझा नहीं है इसलिये दलित के घर रात गुजारना और अगली सुबह पैरा-ग्लाइडिंग करना उनके राजनीतिक नौसिखियेपन को ही उभारता है। जिसमें राहुल ना राजनेता लगते हैं ना बिगडे युवा नेता। लेकिन जो मौजूदा राजनीति चालू है, उसमें किस नेता या किस राजनीति का दामन देश थामना चाहता है , यही सवाल राहुल की दिशा में युवा होने का नया पाठ पढ़ाता है।
दूसरी तरफ नक्सली गणपति माओवाद की उस थ्योरी से अलग रणनीति की बात कर रहे हैं जो सत्ता बधूक की नली से निकलती है का पाठ पढती रही। संसदीय राजनीति में घुसे बगैर उसके अंतर्विरोध का लाभ लोगों के आक्रोष को गोलबंद कर ही उठाया जा सकता है। इसलिये मुंबई हमलों में मारे गये शहीद पुलिसकर्मियो को लाल सलाम देने के साथ साथ राजनेताओं को निशाना बनाने के बदले उनके निर्देश पर तैनात पुलिसकर्मियों को ही निशाना बनाने की थ्योरी ने माओवादियो के बीच भी एक नयी बहस शुरु की है। बहस इसलिये क्योंकि जिस संसदीय राजनीति को लेकर आम जनता में आक्रोष है अगर उस राजनीति से सत्ता साधने वाले नेताओं को माओवादी अपने निशाने पर नहीं ले सकते तो बदलाव या विकल्प को कैसे सामने लाया जा सकता है। माओवादियों की सेन्ट्रल कमिटी में पोलित ब्यूरो का एक सदस्य सवाल उठाता है कि पीपुल्स वार ग्रुप के पूर्व महासचिव सितारमैय्या 1987 में आंध्र प्रदेश के सात विधायको का अपहरण करने के बाद यह कहने से नही घबराते की राजनीतिक जरुरत के लिये राजीव गांधी का भी अपहरण किया जा सकता है। लेकिन इस सभा में चर्चा यही आकर खत्म होती है कि नेताओं को लेकर आम जनता के बीच आक्रोष जब संसदीय राजनीति और राज्य सत्ता पर सवालिया निशान खुद-ब-खुद लगा रहा है तो ऐसे में नेताओं को निशाने बनाने का मतलब होगा उनके प्रति जनता की संवेदनाओं को जोड़ना । या फिर माओवादी विचारधारा के खिलाफ लोगों की भावनाओं को जगाने का मौका देना। इससे अच्छा है हर ढहते संस्थान के समानांतर अपने संसथान को खड़ा करना। न्याय देने के लिये गांव गांव में अपनी पंचायत लगाकर तुरंत सुनावई और फैसला देना । यानी सजा भी तुरंत । जिसमें हाथ-पांव तोड़ने से लेकर मौत की सजा और भारी जुर्माने का भी प्रावधान। जंगल नष्ट करने वाले उघोगों और खनिज संपदा समेटकर देश के बाहर लेजाकर मुनाफा कमाने वालो के खिलाफ स्थानीय लोगो को गोलबंद कर आंदोलन की शुरुआत करना । जो बंगाल-उड़ीसा-झारखंड-छत्तीसगढ़ में जारी है। जिले और गांव के विकास के लिये आने वाले सरकारी धन की लूट कर स्थानीय जरुरत के मुताबिक विकास की लकीर खींचना। ट्रेड यूनियन से लेकर सरकारी कामगारों को साथ जोड़ना, जिससे मौका पड़ने पर आंदोलन खड़ा किया जा सके और सरकारी लूट को रोका जा सके। इसलिये सत्ता के तौर तरीको में सुधार की बात कर अतिवाम आंदोलन का घेरा पहले व्यापक करना होगा इसलिये इसे रणनीति के तौर पर उभारने की जरुरत है नही तो हम सभी मारे जायेगे । यह समझ गणपति के जरीय माओवादियो में निकली है।
एक तरफ राहुल गांधी की राजनीति समझ में युवा शक्ति के जरीये पांरपरिक संसदीय राजनीति को ढेंगा दिखाना और दूसरी तरफ गणपति की अतिवाम राजनीति में संसदीय राजनीति के सामानांतर सुधारवादी वाम राजनीति का खाका रखने की थ्योरी ने इसके संकेत दे दिये है कि बदलाव का पहला तरीका अपने अपने घेरे में टकराव से ही होना है। पहले बात राजनीति की। पिछले एक दशक में हर राजनीतिक दल ने सत्ता का स्वाद गठबंधन के जरीये चखा। इसलिये 2009 के चुनाव में हर राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिये गठबंधन की सौदेबाजी का ही आंकलन ज्यादा कर रहा है कि उसे लाभ कहां-कैसे होगा । सत्ता के सामने विचारधारा की मौत हो चुकी है यह बात गठबंधन से लेकर सत्ता चलाने के दौरान नीतियों के जरीये खूब उभरी है।
इन परिस्थितियो में राहुल गांधी का मतलब क्या है। राहुल गांधी के आने का मतलब उस लीक का टूटना है, जिसे अपने अनुकूल जनता पार्टी के प्रयोग से निकले नेता अभी तक चला रहे हैं । यानी 1977 के बाद से देश के सामाजिक-आर्थिक चेहरे में बदलाव आया लेकिन राजनीतिक सत्ता जस की तस चलती रही और उसी अनुरुप समाज को मानना और बनाने की थ्योरी संसदीय राजनीति रखती है। जाहिर है, ऐसे में राहुल की राजनीति का मतलब उन नेताओ का रिटायरमेंट है, जो भारतीय राजनीति के क्षितिज पर ध्रुवतारे की तरह चमक रहे हैं। प्रधानमंत्री से लेकर देश के मुख्य ओहदों के लिये नेताओं की फेरहिस्त तैयार है। कांग्रेस के प्रणव मुखर्जी, चिदबंरम, एंटोनी, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, शिवराज पाटिल, एसएम कृष्णा सहित कोई भी नाम किसी भी ओहदे पर बैठकर देश चलाने का सपना संजोये हुये है। वहीं, शरद पवार, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधी, पासवान से लेकर कोई भी क्षेत्रीय झंडबरदार देश की बागडोर संभालने के लिये बेकरार है। इन हालात में राहुल गांधी के मैदान में आने के तरीके ने कई सवाल एकसाथ खड़े किये हैं। क्योकि राहुल गांधी अगर सत्ता में आ जाते हैं तो उनका काम करने का तरीका जाहिर तौर पर उस प्रक्रिया सरीखा नहीं होगा, जहां दिल्ली से चला एक रुपया गांव तक पहुंचते पहुंचते छह पैसे में बचा रहे। देश की सुरक्षा के लिये हथियार खरीदी से लेकर आत्महत्या करते किसानों की जान बचाने के लिये पैकेज देने का जो तरीका अभी तक अपनाया जाता रहा है जाहिर है, वह बदल जायेगा । यानी कमेटियों और संस्थाओं के निरीक्षण-परिक्षण में ही कई साल गुजरते है और उसके बाद जो राशि निर्धारित होती है उसी की कीमत निर्धारित से कई गुना ज्यादा हो चुकी होती है। जाहिर है, राहुल के सत्ता में आने का मतलब महज युवाओं को सत्ता से जोड़कर देश चलाने का सपना जिलाना नहीं है। पहली बार परंपराओं से इतर राजनीतिक प्रक्रिया को चलाना होगा जो परिणाम दे। यह अच्छा-बुरा दोनो हो सकता है। लेकिन राहुल के तरीके नये और चौकाने वाले होगे क्योकि जो अपराध और भष्ट्राचार संसदीय राजनीति में घुस चुका है और पीढियों के लिये पूंजी बनाने से लेकर राजनीतिक जगह बनाने तक के लिये जद्दोजहद कर रही है, उसे युवा तबका तत्काल खारिज करेगा।
इसीलिये 2009 के चुनाव संसदीय राजनीति के लिये मील का पत्थर सरीखा है। क्योंकि गठबंधन के तौर तरीके उन नेताओं को एक साथ लेकर आयेगे जो राहुल के सत्ता में आने के साथ ही रिटायर होने की स्थिति में आयेंगे । राहुल गांधी को रोकना उस संसदीय राजनीति की जरुरत है जो विशेषाधिकार की सत्ता बनाती है और जिसके घेरे में आने के लिये हर तरह के अपराधी बैचेन रहते है। 14 वीं लोकसभा इस सोच का ही प्रतीक है । इसमें सौ से ज्यादा सांसद ऐसे थे, जिनपर अपराध का कोई ना कोई मामला चल रहे हो।
लेकिन संसदीय राजनीति का विकलप राहुल दे नहीं पाएंगे । बल्कि युवा पीढी के जरीये सत्ता विरासत की राजनीति को हवा देगी, यह भी सच है । क्योंकि युवा की तादाद देश के चालीस करोड वोटर के तौर पर है लेकिन नेता के तौर पर राहुल के साथ राजेश पायलट के बेटे से लेकर सिंधिया और मुरली देवडा के बच्चे हैं। यही हाल पवार की बेटी से लेकर मुलायम के बेटे का है। जिसकी लकीर कश्मीर में फारुख अब्दुल्ला और पंजाब में प्रकाश शिंह बादल ने अपने अपने बेटों के जरीये खिंच कर दिखा दी है। राजनीतिक तौर पर विचारधारा की मौत संयोग से उसी दौर में हुई है जिस वक्त मुनाफे के लिये सबकुछ बाजार व्यवस्था पर टिका और फिर वह खुद ढह गया।
सत्ता ने संसदीय राजनीति में लेफ्ट - राइट की बहस को ही बेमानी करार दिया । ऐसे में संसदीय राजनीति से इतर कहीं एक आस तो माओवादियों ने उन इलाको में दिखायी जो संसद की राजनीति और विकास की लकीर में हाशिये पर रहे। लेकिन पहली बार विचारधारा के सन्नाटे में कहीं ज्यादा घुप अंधेरा अतिवाम की राजनीतिक पहल में भी उभरा। जिस राजनीति के अंतर्विरोध को रणनीति के तौर पर साधने की पहल माओवादी गणपति ने कहीं उस दौर में नक्सल को लेकर सरकार का रवैया सामाजिक-आर्थिक समस्या से इतर कानूनी तौर पर आंतकवाद के सामानांतर मान लिया गया। सरकार ने जब नक्सलियों को आतंकवादी माना, उसी दौर में नक्सलियों के बीच सरकार के वैचारिक शून्यता को भरने की बहस गूंज रही है।
पहली बार केन्द्र सरकार ने कानून बनाकर नक्सलियो को भी उस घेरे में लाने की पहल की, वहीं नक्सलियो के बीच यह सवाल उठा कि नक्सली आंदोलन कमजोर पड़ने की वजह सिर्फ बंदूक की भाषा को समझना है। गणपति ने माओवादियों के बीच यह सवाल उठाय़ा। पिछले डेढ़ दशक में नक्सलियों को सिर्फ सत्ता की बंदूक से बचाने के लिये ही समूची रणनीति बनानी पड रही है । इसलिये उनका आंदोलन सिमटा है लेकिन अब विस्तार के लिये जरुरी है सत्ता बंदूक की नली से निकलती है कि थ्योरी को उलट कर सत्ता की कमजोर नली को ही हथियार बनाया जाये।
सवाल यही है कि क्या राजनीति इतनी पोपली हो चुकी है, जहां राहुल गांधी के तेवर उन नेताओं को खारिज करने से नही चुक रहे, जिन्हे लगता है देश अब भी वही चला सकते है और माओवादी नेता गणपति उन्हीं नेताओ को बरकरार रख नक्सली जमीन मजबूत करना चाहते है, जिनके खिलाफ आम लोगो में आक्रोष है और जिन्हें राहुल खारिज कर रहे है। कहीं यह क्रातिकारी बदलाव के संकेत तो नहीं हैं?
Friday, February 27, 2009
Sunday, February 22, 2009
मीडिया बंदूक से लड़ सकता है, पूंजी से नहीं
बंदूक का जवाब कलम से देंगे। ये कोई नारा नहीं, पाकिस्तान में मीडिया का सच है। पाकिस्तान में जियो न्यूज चैनल के पत्रकार मूसा खानखेल के शरीऱ में पैतीस गोलियां दागी गयीं। फिर सर कलम कर दिया गया।
28 साल के पत्रकार मूसाखानखेल उस रैली को कवर करने स्वात गये थे, जो मुल्लाओं की जीत का जश्न था। या कहें पाकिस्तान सरकार के घुटने टेकने का जश्न था। जिस सरकार ने घुटने टेक दिये वहां का पत्रकार छाती तानकर खड़ा हो सकता है ....वह भी पाकिस्तान में, यह किसी भी भारतीय के लिये अचरच की बात है। क्योंकि भारत के चश्मे से पाकिस्तान को देखने का मतलब कट्टमुल्लाओं की फौज नज़र आती है। फिर मुंबई हमलों के बाद से तो पाकिस्तानी मीडिया को पाकिस्तान के ही रंग में रंगा माना जा रहा है।
लेकिन पत्रकार मूसा खानखेल की हत्या के बाद स्वात इलाके में जा कर पाकिस्तान के पत्रकारों ने जिस हिम्मत से भविष्य के संघर्ष के संकेत दिये, उससे भारतीय मीडिया या भारत के पत्रकारों का दिल जरुर हिचकोले खा रहा होगा। खासकर जब बात पाकिस्तान और भारत के मीडिया की होती है तो सभी के दिमाग में पाकिस्तान की बंदिशें मीडिया को भी मुल्लाओं के रंग में रंग देती है। लेकिन जब मुल्लाओं के खिलाफ ही जम्हुरियत का सवाल पाकिस्तान का मीडिया उठा रहा है तो भारत में पत्रकारो को अपने भीतर झांकना होगा।
मुंबई हमलों के बाद से किसी पत्रकार की इतनी हिम्मत नहीं रही कि वह कह सके कि पाकिस्तान से आये आंतकवादियो को कहीं ना कही स्थानीय मदद मिली होगी। यहां तक की आईबी की उस रिपोर्ट को भी तत्काल दफ़न किया गया जो बताती है कि किस तरह कोस्टल गार्ड से लेकर नौ सेना की खुफिया एजेंसी न सिर्फ फेल हुई बल्कि जो खुफिया रिपोर्ट इन्हे फैक्स की गयी ...कार्यवाही उस पर भी नहीं हुई । मीडिया में देशभक्ति का जज्बा कुछ इस तरह जागा और सरकार ने लगाम लगाने की तर्ज पर मीडिया को देशभक्ति का पाठ कुछ इस तरह पढ़ाया कि सरकार और मीडिया के सुर एक सरीखे हो गए।
वो तो भला हो चुनाव का वक्त है तो पीएम बनने का इंतजार करते आडवाणी ने संसद में ही दलील दे दी कि बिना स्थानीय मदद के मुंबई में आतंकवादी हमला कर ही नहीं सकते थे। लेकिन बात मीडिया की है। संयोग से भारत की खुशकिस्मत है कि मीडिया हाउसों के मालिक पत्रकार भी रहे हैं। खासकर न्यूज चैनलो के मालिकों की फेरहिस्त देखे तो सारे अग्रणी न्यूज चैनलो के मालिक पेशे से पत्रकार रहे हैं। इसलिये भारत में लोकतंत्र के चौथे पाये को लेकर आजादी का राग कुछ ज्यादा ही गाया जाता है। इमरजेन्सी में मीडिया की भूमिका ने इसे सही भी साबित किया । लेकिन छाती पर लगा यह तमगा बीते 34 साल में न सिर्फ जंग खा चुका है बल्कि इसपर पूंजी का लेप भी कुछ ऐसा चढ़ा है कि देशभक्ति का मतलब मुनाफे और सरकार की चाकरी पर आ टिका है।
यहीं से पाकिस्तान के मीडिया का संघर्ष और भारतीय मीडिया की त्रासदी का अंतर समझा जा सकता है । पाकिस्तान में जनरल यानी मुशर्रफ ने ही न्यूज चैनलों को पहली हरी झंडी दिखायी थी। जियो न्यूज चैनल का जन्म उसी के बाद हुआ । जब 2001 में वाजपेयी से मिलने मुशर्रफ आगरा पहुंचे थे, तब उन्हे मीडिया की ताकत का असल एहसास हुआ था । मुझे याद है किस तरह सुबह के नाश्ते के लिये मुशर्रफ ने भारतीय पत्रकारों को आमंत्रित किया था और एनडीटीवी को उसके लाइव प्रसारण की इजाजत देकर भारतीय कूटनीति की हवा निकाल दी थी। जो बात वाजपेयी खुले तौर पर कह नही रहे थे और पाकिस्तान जो बात खुले तौर पर कहना चाहता था, उसे मुशर्रफ ने भारतीय मीडिया के जरीये ही कह दिया। उस दिन देश में वाजपेयी की बात कम और मुशर्रफ के जरीये एनडीटीवी की बात ज्यादा हो रही थी।
आगरा से इस्लामाबाद लौटने के बाद ही प्राइवेट न्यूज चैनलों को इजाजत पाकिस्तान में मुशर्रफ ने दी । जियो न्यूज चैनल को चलाने की पूरी ट्रेनिग उन्ही विदेशियों ने दी, जो “आजतक” न्यूज चैनल को लांच करने से पहले उसमें काम करने वाले पत्रकारो को ट्रेनिग दे रहे थे। चूंकि आजतक लांच करने के दौरान की दो महिने चली ट्रेनिग में मै खुद एक सदस्य था और उन्हीं विदेशी गुरुओं ने मुझसे एंकरिंग करवायी तो उनसे संवाद का सिलसिला न सिर्फ लंबा रहा बल्कि आजतक लांच होने के बाद वही टीम जब पाकिस्तान में जियो न्यूज चैनल लांच करने की ट्रेनिग दे रही थी तो आजतक के रिपोर्टिग-एंकरिग के टेप ले जाकर उन्हें दिखाती भी थी। किस तरह आजतक भारत में छाया है और ट्रेनिग के बाद कैसे आजतक के पत्रकार काम करते है। मुझे याद है मुशर्रफ की आगरा यात्रा से ठीक पहले मै पाकिस्तान गया था तो हामिद मीर से मिला था। उस वक्त वह एक आखबार निकाला करते थे । वो उसके संपादक भी थे । उस दौर की पहचान ने (आगरा ने) मुझे पाकिस्तान खेमे से खबरे निकालने में मदद की और हामीद मीर को आजतक पर इंटरव्यू के लिये तीन दिनों तक बार बार लाया । उस वक्त हामिद मीर ने कहा था कि भारतीय मीडिया की पावर अगर पाकिस्तान में भी आ जाये तो हुकुमते मनमाफिक तो नहीं कर पायेंगी।
स्वात घाटी में पत्रकारों के बीच जब पत्रकार मूसा खानखेल की हत्या के बाद हामिद मीर कलम से बंदूक का सफाया करने का ऐलान कर रहे थे तो मुझे 2001 का वह दौर भी याद गया, जब मै पहली बार आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा के मुखिया मोहम्मद हाफिज सईद का इंटरव्यू ले कर लौटा था। उस वक्त आजतक के मालिक अरुण पुरी ने मेरी पीठ ठोंकी थी। खुद इंटरव्यू देखा था। और उस दौर में वाजपेयी सरकार के भीतर से यह संकेत दिये जा रहे थे कि इस इंटरव्यू को न दिखाया जाए । इससे कश्मीर के आतंकवाद को और हवा मिलेगी। लेकिन अरुण पुरी ने न सिर्फ इंटरव्यू दिखाने का निर्णय लिया बल्कि अखबारो में विज्ञापन निकाला –“आजतक कैचेज लश्कर चीफ” ।
लेकिन वक्त बदल चुका है। सरकार अपनी कमजोरी छुपाकर मीडिया को सीख दे रही है कि उसे क्या करना चाहिये.......और मीडिया भी पत्रकारिता का ककहरा सरकार से सीखने को बेताब है। दरअसल, यह बेताबी सत्ता से मिलने वाले मुनाफे में हिस्सेदारी की चाह में पत्रकारिता न करने की एवज का ही नतीजा है। पत्रकारिता ताक पर रखकर अगर मुनाफे में हिस्सेदारी हो सकती है तो पत्रकारिता की जरुरत ही क्या है। जियो न्यूज उस कसाब को पाकिस्तानी साबित कर देता है जिसे पाकिस्तान की सरकार पाकिस्तानी मानने से इंकार कर देती है । जियो कराची के उस घर को दिखा देता है, जहां मुंबई हमले की साजिश रची गयी...जबकि पाकिस्तानी सरकार साजिश में पाकिस्तान को महज एक हिस्सा भर बताती है।
दूसरी तरफ भारत में किसी न्यूज चैनल की हिम्मत नहीं होती कि वह मंत्री या नौकरशाहों की राष्ट्रभक्ति भरी चेतावनी को खारिज कर आतंकी हमले के पीछे के आतंक और उसके सच को सामने रख सके । मुंबई की लोकल में हुये सीरियल ब्लास्ट से लेकर दिल्ली में हुये सीरियल ब्लास्ट और उसके बाद बटला हाउस इन्काउटर को लेकर जिनकी गिरफ्तार हुई और पुलिस के पकडे गये आरोपियों को लेकर जो जो कहानियां गढ़ी गईं, अगर उसकी तह में तो जाना दूर उसे ऊपर से ही परख ले तो सुरक्षा के नाम पर पुलिस की कार्रवाई देश को कैसे असुरक्षित कर रही है...खुद -ब-खुद सामने आ जायेगा। लेकिन किसी भी न्यूज चैनल के भीतर पाकिस्तान की तरह अपने ही बाजुओं को खोखला बताने की हिम्मत है कहां ?
भारत में न्यूज चैनलों की हालत किस स्थिति तक जा पहुंची है, इसका खूबसूरत नजारा फिल्म “दिल्ली-6” में देखा जा सकता है । जहां फिल्म की स्क्रिप्ट ही न्यूज चैनलों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करती है । और फिल्म में बकायदा एक न्यूज चैनल न सिर्फ अपने चैनल चिन्ह बल्कि रिपोर्टर - एंकर के जरिये भी छाती ठोंक कर उस फिल्मी कहानी को आगे बढ़ाता है, जो फिल्म खत्म होने का बाद उस सोच को समाज का कलंक करार देती है। फिल्म के आखिर में डायरेक्टर ने बेहद हेशियारी से पर्दे पर उस आईने को टांग दिया है जो फिल्म सभी चरित्रों को दिखाते हुये कहता है कि इसमें अपनी तस्वीर देख कर इसका एहसास करो की असल चोर तुम्हारे ही अंदर है। अंत में हर चरित्र इस आईने में खुद देखता है लेकिन चैनल का पत्रकार यहां भी आइने में अपनी तस्वीर देखने नहीं आता। संयोग से असल में यह चैनल भी पत्रकार का ही है और इसमें काम करने वाले भी पत्रकार ही है।
लेकिन भारतीय परिवेश में यह पत्रकार भी छाती ठोंक कर चल सकते हैं और पाकिस्तान के मीडिया को ताजी हवा का झोंका मान सकते है । लेकिन दोनों देशों के मीडिया का वर्तमान सच यही है कि पाकिस्तान में उसे बंदूक से दो दो हाथ करने है..जहां मूसा खानखेल सरीखे पत्रकार की जान जायेगी और भारत में पूंजी बनाने के लिये पहले सरकार से यारी फिर खबरों को दरकिनार कर फिल्मी कहानी का हिस्सा बनकर पत्रकारिता को प्रोफेशनल बनाने का राग गुनगुनाना है। दिलचस्प है कि मंदी के दौर में जहां लाखों लोगों की नौकरियां जा रही है,वहां मीडिया की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है,लेकिन सिनेमाई दर्शन में खुद से अभिभूत और पूंजी से संचालित मीडिया का ध्यान सिर्फ लाखों रुपए पीटने में लगा है।
28 साल के पत्रकार मूसाखानखेल उस रैली को कवर करने स्वात गये थे, जो मुल्लाओं की जीत का जश्न था। या कहें पाकिस्तान सरकार के घुटने टेकने का जश्न था। जिस सरकार ने घुटने टेक दिये वहां का पत्रकार छाती तानकर खड़ा हो सकता है ....वह भी पाकिस्तान में, यह किसी भी भारतीय के लिये अचरच की बात है। क्योंकि भारत के चश्मे से पाकिस्तान को देखने का मतलब कट्टमुल्लाओं की फौज नज़र आती है। फिर मुंबई हमलों के बाद से तो पाकिस्तानी मीडिया को पाकिस्तान के ही रंग में रंगा माना जा रहा है।
लेकिन पत्रकार मूसा खानखेल की हत्या के बाद स्वात इलाके में जा कर पाकिस्तान के पत्रकारों ने जिस हिम्मत से भविष्य के संघर्ष के संकेत दिये, उससे भारतीय मीडिया या भारत के पत्रकारों का दिल जरुर हिचकोले खा रहा होगा। खासकर जब बात पाकिस्तान और भारत के मीडिया की होती है तो सभी के दिमाग में पाकिस्तान की बंदिशें मीडिया को भी मुल्लाओं के रंग में रंग देती है। लेकिन जब मुल्लाओं के खिलाफ ही जम्हुरियत का सवाल पाकिस्तान का मीडिया उठा रहा है तो भारत में पत्रकारो को अपने भीतर झांकना होगा।
मुंबई हमलों के बाद से किसी पत्रकार की इतनी हिम्मत नहीं रही कि वह कह सके कि पाकिस्तान से आये आंतकवादियो को कहीं ना कही स्थानीय मदद मिली होगी। यहां तक की आईबी की उस रिपोर्ट को भी तत्काल दफ़न किया गया जो बताती है कि किस तरह कोस्टल गार्ड से लेकर नौ सेना की खुफिया एजेंसी न सिर्फ फेल हुई बल्कि जो खुफिया रिपोर्ट इन्हे फैक्स की गयी ...कार्यवाही उस पर भी नहीं हुई । मीडिया में देशभक्ति का जज्बा कुछ इस तरह जागा और सरकार ने लगाम लगाने की तर्ज पर मीडिया को देशभक्ति का पाठ कुछ इस तरह पढ़ाया कि सरकार और मीडिया के सुर एक सरीखे हो गए।
वो तो भला हो चुनाव का वक्त है तो पीएम बनने का इंतजार करते आडवाणी ने संसद में ही दलील दे दी कि बिना स्थानीय मदद के मुंबई में आतंकवादी हमला कर ही नहीं सकते थे। लेकिन बात मीडिया की है। संयोग से भारत की खुशकिस्मत है कि मीडिया हाउसों के मालिक पत्रकार भी रहे हैं। खासकर न्यूज चैनलो के मालिकों की फेरहिस्त देखे तो सारे अग्रणी न्यूज चैनलो के मालिक पेशे से पत्रकार रहे हैं। इसलिये भारत में लोकतंत्र के चौथे पाये को लेकर आजादी का राग कुछ ज्यादा ही गाया जाता है। इमरजेन्सी में मीडिया की भूमिका ने इसे सही भी साबित किया । लेकिन छाती पर लगा यह तमगा बीते 34 साल में न सिर्फ जंग खा चुका है बल्कि इसपर पूंजी का लेप भी कुछ ऐसा चढ़ा है कि देशभक्ति का मतलब मुनाफे और सरकार की चाकरी पर आ टिका है।
यहीं से पाकिस्तान के मीडिया का संघर्ष और भारतीय मीडिया की त्रासदी का अंतर समझा जा सकता है । पाकिस्तान में जनरल यानी मुशर्रफ ने ही न्यूज चैनलों को पहली हरी झंडी दिखायी थी। जियो न्यूज चैनल का जन्म उसी के बाद हुआ । जब 2001 में वाजपेयी से मिलने मुशर्रफ आगरा पहुंचे थे, तब उन्हे मीडिया की ताकत का असल एहसास हुआ था । मुझे याद है किस तरह सुबह के नाश्ते के लिये मुशर्रफ ने भारतीय पत्रकारों को आमंत्रित किया था और एनडीटीवी को उसके लाइव प्रसारण की इजाजत देकर भारतीय कूटनीति की हवा निकाल दी थी। जो बात वाजपेयी खुले तौर पर कह नही रहे थे और पाकिस्तान जो बात खुले तौर पर कहना चाहता था, उसे मुशर्रफ ने भारतीय मीडिया के जरीये ही कह दिया। उस दिन देश में वाजपेयी की बात कम और मुशर्रफ के जरीये एनडीटीवी की बात ज्यादा हो रही थी।
आगरा से इस्लामाबाद लौटने के बाद ही प्राइवेट न्यूज चैनलों को इजाजत पाकिस्तान में मुशर्रफ ने दी । जियो न्यूज चैनल को चलाने की पूरी ट्रेनिग उन्ही विदेशियों ने दी, जो “आजतक” न्यूज चैनल को लांच करने से पहले उसमें काम करने वाले पत्रकारो को ट्रेनिग दे रहे थे। चूंकि आजतक लांच करने के दौरान की दो महिने चली ट्रेनिग में मै खुद एक सदस्य था और उन्हीं विदेशी गुरुओं ने मुझसे एंकरिंग करवायी तो उनसे संवाद का सिलसिला न सिर्फ लंबा रहा बल्कि आजतक लांच होने के बाद वही टीम जब पाकिस्तान में जियो न्यूज चैनल लांच करने की ट्रेनिग दे रही थी तो आजतक के रिपोर्टिग-एंकरिग के टेप ले जाकर उन्हें दिखाती भी थी। किस तरह आजतक भारत में छाया है और ट्रेनिग के बाद कैसे आजतक के पत्रकार काम करते है। मुझे याद है मुशर्रफ की आगरा यात्रा से ठीक पहले मै पाकिस्तान गया था तो हामिद मीर से मिला था। उस वक्त वह एक आखबार निकाला करते थे । वो उसके संपादक भी थे । उस दौर की पहचान ने (आगरा ने) मुझे पाकिस्तान खेमे से खबरे निकालने में मदद की और हामीद मीर को आजतक पर इंटरव्यू के लिये तीन दिनों तक बार बार लाया । उस वक्त हामिद मीर ने कहा था कि भारतीय मीडिया की पावर अगर पाकिस्तान में भी आ जाये तो हुकुमते मनमाफिक तो नहीं कर पायेंगी।
स्वात घाटी में पत्रकारों के बीच जब पत्रकार मूसा खानखेल की हत्या के बाद हामिद मीर कलम से बंदूक का सफाया करने का ऐलान कर रहे थे तो मुझे 2001 का वह दौर भी याद गया, जब मै पहली बार आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैय्यबा के मुखिया मोहम्मद हाफिज सईद का इंटरव्यू ले कर लौटा था। उस वक्त आजतक के मालिक अरुण पुरी ने मेरी पीठ ठोंकी थी। खुद इंटरव्यू देखा था। और उस दौर में वाजपेयी सरकार के भीतर से यह संकेत दिये जा रहे थे कि इस इंटरव्यू को न दिखाया जाए । इससे कश्मीर के आतंकवाद को और हवा मिलेगी। लेकिन अरुण पुरी ने न सिर्फ इंटरव्यू दिखाने का निर्णय लिया बल्कि अखबारो में विज्ञापन निकाला –“आजतक कैचेज लश्कर चीफ” ।
लेकिन वक्त बदल चुका है। सरकार अपनी कमजोरी छुपाकर मीडिया को सीख दे रही है कि उसे क्या करना चाहिये.......और मीडिया भी पत्रकारिता का ककहरा सरकार से सीखने को बेताब है। दरअसल, यह बेताबी सत्ता से मिलने वाले मुनाफे में हिस्सेदारी की चाह में पत्रकारिता न करने की एवज का ही नतीजा है। पत्रकारिता ताक पर रखकर अगर मुनाफे में हिस्सेदारी हो सकती है तो पत्रकारिता की जरुरत ही क्या है। जियो न्यूज उस कसाब को पाकिस्तानी साबित कर देता है जिसे पाकिस्तान की सरकार पाकिस्तानी मानने से इंकार कर देती है । जियो कराची के उस घर को दिखा देता है, जहां मुंबई हमले की साजिश रची गयी...जबकि पाकिस्तानी सरकार साजिश में पाकिस्तान को महज एक हिस्सा भर बताती है।
दूसरी तरफ भारत में किसी न्यूज चैनल की हिम्मत नहीं होती कि वह मंत्री या नौकरशाहों की राष्ट्रभक्ति भरी चेतावनी को खारिज कर आतंकी हमले के पीछे के आतंक और उसके सच को सामने रख सके । मुंबई की लोकल में हुये सीरियल ब्लास्ट से लेकर दिल्ली में हुये सीरियल ब्लास्ट और उसके बाद बटला हाउस इन्काउटर को लेकर जिनकी गिरफ्तार हुई और पुलिस के पकडे गये आरोपियों को लेकर जो जो कहानियां गढ़ी गईं, अगर उसकी तह में तो जाना दूर उसे ऊपर से ही परख ले तो सुरक्षा के नाम पर पुलिस की कार्रवाई देश को कैसे असुरक्षित कर रही है...खुद -ब-खुद सामने आ जायेगा। लेकिन किसी भी न्यूज चैनल के भीतर पाकिस्तान की तरह अपने ही बाजुओं को खोखला बताने की हिम्मत है कहां ?
भारत में न्यूज चैनलों की हालत किस स्थिति तक जा पहुंची है, इसका खूबसूरत नजारा फिल्म “दिल्ली-6” में देखा जा सकता है । जहां फिल्म की स्क्रिप्ट ही न्यूज चैनलों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करती है । और फिल्म में बकायदा एक न्यूज चैनल न सिर्फ अपने चैनल चिन्ह बल्कि रिपोर्टर - एंकर के जरिये भी छाती ठोंक कर उस फिल्मी कहानी को आगे बढ़ाता है, जो फिल्म खत्म होने का बाद उस सोच को समाज का कलंक करार देती है। फिल्म के आखिर में डायरेक्टर ने बेहद हेशियारी से पर्दे पर उस आईने को टांग दिया है जो फिल्म सभी चरित्रों को दिखाते हुये कहता है कि इसमें अपनी तस्वीर देख कर इसका एहसास करो की असल चोर तुम्हारे ही अंदर है। अंत में हर चरित्र इस आईने में खुद देखता है लेकिन चैनल का पत्रकार यहां भी आइने में अपनी तस्वीर देखने नहीं आता। संयोग से असल में यह चैनल भी पत्रकार का ही है और इसमें काम करने वाले भी पत्रकार ही है।
लेकिन भारतीय परिवेश में यह पत्रकार भी छाती ठोंक कर चल सकते हैं और पाकिस्तान के मीडिया को ताजी हवा का झोंका मान सकते है । लेकिन दोनों देशों के मीडिया का वर्तमान सच यही है कि पाकिस्तान में उसे बंदूक से दो दो हाथ करने है..जहां मूसा खानखेल सरीखे पत्रकार की जान जायेगी और भारत में पूंजी बनाने के लिये पहले सरकार से यारी फिर खबरों को दरकिनार कर फिल्मी कहानी का हिस्सा बनकर पत्रकारिता को प्रोफेशनल बनाने का राग गुनगुनाना है। दिलचस्प है कि मंदी के दौर में जहां लाखों लोगों की नौकरियां जा रही है,वहां मीडिया की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है,लेकिन सिनेमाई दर्शन में खुद से अभिभूत और पूंजी से संचालित मीडिया का ध्यान सिर्फ लाखों रुपए पीटने में लगा है।
Wednesday, February 18, 2009
“सत्ता सिर्फ बंदूक की नली से नहीं निकलती”
संसदीय राजनीति युवा तबके के जरिए अपनी पस्त पड़ती राजनीति को ढाल बनाना चाहती है। वहीं एक दौर में युवाओं के सपनों को हवा देने वाली वामपंथी समझ थम चुकी है। और इन सबके बीच अपनी जमीन को लगातार फैलाने का दावा करने वाली नक्सली राजनीति के पास वैकल्पिक व्यवस्था का कोई खाका नही है। कुछ ऐसी ही वैचारिक समझ लगातार उभर रही है, जिसमें पहली बार माओवादियों की चिंता अपने घेरे में उभर रही है कि उनकी समूची राजनीति व्यवस्था का बुरा असर उन पर भी पड़ा है। और इसकी सबसे बड़ी वजह विकल्प की स्थितियों को सामने लाने के लिये सकारात्मक प्रयोग की जगह राज्य से दो-दो हाथ करने में ही ऊर्जा समाप्त हो रही है। खासकर पिछड़े और ग्रामीण इलाकों के लोगों को जिन वजहों से सत्तर-अस्सी-नब्बे के दशक तक साथ में जोड़ा जाता था, अब वह सकारात्मक प्रयोग संगठन में समाप्त हो गये है।
वह दौर भी खत्म हो गया जब क्रांतिकारी कवि चेराबंडु राजू से लेकर गदर तक का साहित्य भी आम लोगों की जुबान में आम लोगों की परेशानियों को व्यक्त करता था। जिससे ग्रामीण आदिवासी खुद को अभिव्यक्त करने के लिये आगे आते थे। लेकिन गदर के गीत क्रांतिकारी गीतों की शृंखला में आखिरी साहित्य साबित हुये हैं। फिर जीने की परिस्थितियों में भी लगातार बदलाव हुआ है, इसलिये माओवादियों के सामने सबसे बड़ा संकट यही हुआ है कि वह किस तरह जमीन के सवालों को उठाये जिससे जमीन के लोग उनसे जुड़ते जाएँ।
चूँकि बैठक में एमसीसी और पीपुल्स वार के माओवादियों की मौजूदगी थी, जिनका पाँच साल पहले विलय हो चुका है। लेकिन दोनों ने अपनी जमीन बिहार-झारखंड और आंध्रप्रदेश-महाराष्ट्र की अगुवाई नहीं छोड़ी है, इस वजह से इन्हीं प्रदेशों में आम लोगों को साथ लाने के लिये साहित्य-गीत-कविता की स्थानीय महक को क्रांतिकारी मुलम्मे में चढ़ा कर कैसे रखा जाये, जिससे लोग जिन्दगी के साथ जुड़ते चले जाये - समूची बहस इसी पर आ टिकी। माओवादियों ने चेराबंडु राजू की उन कविताओं का जिक्र भी किया जो चंद लाइनों में व्यवस्था पर सवाल उठाता था। 1965 में लिखी उनकी कविता... मेरा मुकदमा ऐसा नहीं है कि उसका फैसला / काले कोट वालों को नीली करेंसी नोट देकर / किसी एक देस की किसी अदालत में हो जाये / मुझे गवाह के कटघरे में आने दो। या फिर 1968 में लिखी कविता जिसका पाठ उन्होंने तिरुपति के छात्रों के बीच किया था- ऐसी करुणा तेरी, / जो सूखी छाती से चिपकी रहे,/ बच्चों को न दे सके सांत्वना,/ भूखों मरने तक की हालत में, / यह उधार गहनों की चकाचौंध,/ क्या कहना! माँ भारती बोलो तो, / क्या तेरा लक्ष्य है? कैसा आदर्श है? बन्देमातरम्! बन्देमातरम्! नक्सलियों में सवाल यह भी उठ रहा है साहित्य और क्रांति को एक साथ लेकर चलने में स्थितियाँ कब-कैसे बदलती चली गयी, इस तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया।
हाल में साहित्योत्तर स्थितियों को दुबारा जगाने के लिये माओवादियों ने एक संगठन भी बनाया। लेकिन आंध्र प्रदेश के अलावा किसी राज्य में इस संगठन को चलने नहीं दिया गया और साहित्य से ज्यादा उसस जुड़े लोगों को नक्सली मान कर जेल में ठूँसा गया। जिससे हर आगे बढ़ा कदम पीछे हुआ।
माओवादियो की यह बहस उन परिस्थितियों को भी टटोल रही थी कि आखिर जो सरकार एक दशक पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या के आईने में देखती थी, वही अब आंतकवाद के सामानांतर क्यों देख-समझ रही है। खासकर संसदीय राजनीति को लेकर आम वोटर जब सवाल कर रहा और राजनेताओं को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, तब माओवादियों की पहल किस तरह होनी चाहिये। क्योंकि बढ़ती आंतकवादी हिंसा के दौरान हर तरह की हिंसा को जब एक ही दायरे में रखा जा रहा है, तब कौन से तरीके होने चाहिये जो विकल्प का सवाल भी उठाये और विचारधारा के साथ राजनीति को भी जोड़े। माओवादियो के सामने वैचारिक तौर पर आर्थिक नीतियों को भी लेकर संकट उभरा है।
पिछले डेढ़ दशक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर सरकार पर हमला करने की रणनीति लगातार माओवादियो ने अपनायी। वामपंथी जब यूपीए सरकार में शामिल हुये तो बंगाल में ही माओवादियों ने अपनी जमीन मजबूत की। निशाना आर्थिक नीतियों को लेकर ही रहा। लेकिन आर्थिक नीतियों को लेकर जो फुग्गा या कहें जो सपना दिखाया गया बाजार व्यवस्था के ढहने से वह तो फूटा लेकिन माओवादियों के सामने बड़ा सवाल यही है कि आर्थिक नीतियों ने उन्हें आम जनता के बीच पहुँचने के लिये एक हथियार तो दिया था लेकिन अब विकल्प की नीतियों को सामने लाना सबसे बड़ी चुनौती है। इसका कोई मजमून माओवादियों के पास नहीं है। खासकर जिन इलाकों में माओवादियो ने अपना प्रभाव बनाया भी है, वहाँ किसी तरह का कोई आर्थिक प्रयोग ऐसा नहीं उभरा है, जिससे बाजार अर्थव्यवस्था के सामानांतर देसी अर्थव्यवस्था अपनाने का सवाल उठा हो। यानी खुद पर निर्भर होकर किसी एक क्षेत्र को कैसे चलाया जा सकता है, इसका कोई प्रयोग सामने नहीं आया है। नया संकट यह भी है कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर माओवादी आंदोलनों की कोई रुपरेखा ऐसी बची नही है जो कोई नया कौरिडोर बनाये। नेपाल में माओवादियों के राजनीतिक प्रयोग को लेकर असहमति की एक बड़ी रेखा भी इस बैठक के दौरान उभरी। लेकिन सामाजिक तौर पर माओवादियों के सामने बडा संकट उन परिस्थितियों में अपनी पैठ बरकरार है जहाँ राजनीतिक तौर पर उन्हें खारिज किया जा रहा है। संसदीय राजनीति से इतर किस तरह की व्यवस्था बहुसंख्यक तबके के लिये अनुकूल होगी, माओवादियों के सामने यह भी अनसुलझा सवाल ही बना हुआ है। इसीलिये जो चुनौती सामने है उसमें बड़ा सवाल यह भी उभर रहा है कि दो दशक पहले जिन इलाकों में माओवादियों ने अपना प्रभाव लोगो में जमाया अब उनके सवालों का जबाब देने से ज्यादा सवाल माओवादियों के सामने खुद को टिकाये रखने के हो गये है। इसलिये पहली बार इस असफलता को भी माना गाया कि राजनीतिक क्षेत्र में ट्रेड यूनियन का खात्मा होने से बाजार व्यवस्था के ढहने के बाद शून्यता पैदा हो गयी है। मजदूरों को लेकर एक समूची व्यवस्था जो वामपंथी मिजाज के साथ बरकरार रहती और राज्य व्यवस्था को चुनौती देकर बहुसंख्य्क जनता को साथ जोड़ती, इस बार उसी की अभाव है। पहली बार ग्रामीण और शहरी दोनों स्तर पर राज्य को लेकर आक्रोष है।
पहली बार अशिक्षित समाज और उच्च शिक्षित वर्ग भी विकल्प खोज रहा है। खासकर अपनी परिस्थितियों में उसके अनुकूल नौकरी से लेकर आर्थिक सहूलियत का कोई माहौल नहीं बच पा रहा, तो भी वामपंथी और माओवादियों दोनों इसका लाभ उठाने में चूक रहे हैं। माओवादियों के भीतर पहली बार इस बात को लेकर कसमसाहट कहीं ज्यादा है कि देश का बहुसंख्यक तबका विकल्प तलाश रहा है और दशकों से विकल्प का सवाल उठाने वालों के पास ही मौका पड़ने पर कोई विकल्प देने के लिये नहीं है।
वह दौर भी खत्म हो गया जब क्रांतिकारी कवि चेराबंडु राजू से लेकर गदर तक का साहित्य भी आम लोगों की जुबान में आम लोगों की परेशानियों को व्यक्त करता था। जिससे ग्रामीण आदिवासी खुद को अभिव्यक्त करने के लिये आगे आते थे। लेकिन गदर के गीत क्रांतिकारी गीतों की शृंखला में आखिरी साहित्य साबित हुये हैं। फिर जीने की परिस्थितियों में भी लगातार बदलाव हुआ है, इसलिये माओवादियों के सामने सबसे बड़ा संकट यही हुआ है कि वह किस तरह जमीन के सवालों को उठाये जिससे जमीन के लोग उनसे जुड़ते जाएँ।
चूँकि बैठक में एमसीसी और पीपुल्स वार के माओवादियों की मौजूदगी थी, जिनका पाँच साल पहले विलय हो चुका है। लेकिन दोनों ने अपनी जमीन बिहार-झारखंड और आंध्रप्रदेश-महाराष्ट्र की अगुवाई नहीं छोड़ी है, इस वजह से इन्हीं प्रदेशों में आम लोगों को साथ लाने के लिये साहित्य-गीत-कविता की स्थानीय महक को क्रांतिकारी मुलम्मे में चढ़ा कर कैसे रखा जाये, जिससे लोग जिन्दगी के साथ जुड़ते चले जाये - समूची बहस इसी पर आ टिकी। माओवादियों ने चेराबंडु राजू की उन कविताओं का जिक्र भी किया जो चंद लाइनों में व्यवस्था पर सवाल उठाता था। 1965 में लिखी उनकी कविता... मेरा मुकदमा ऐसा नहीं है कि उसका फैसला / काले कोट वालों को नीली करेंसी नोट देकर / किसी एक देस की किसी अदालत में हो जाये / मुझे गवाह के कटघरे में आने दो। या फिर 1968 में लिखी कविता जिसका पाठ उन्होंने तिरुपति के छात्रों के बीच किया था- ऐसी करुणा तेरी, / जो सूखी छाती से चिपकी रहे,/ बच्चों को न दे सके सांत्वना,/ भूखों मरने तक की हालत में, / यह उधार गहनों की चकाचौंध,/ क्या कहना! माँ भारती बोलो तो, / क्या तेरा लक्ष्य है? कैसा आदर्श है? बन्देमातरम्! बन्देमातरम्! नक्सलियों में सवाल यह भी उठ रहा है साहित्य और क्रांति को एक साथ लेकर चलने में स्थितियाँ कब-कैसे बदलती चली गयी, इस तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया।
हाल में साहित्योत्तर स्थितियों को दुबारा जगाने के लिये माओवादियों ने एक संगठन भी बनाया। लेकिन आंध्र प्रदेश के अलावा किसी राज्य में इस संगठन को चलने नहीं दिया गया और साहित्य से ज्यादा उसस जुड़े लोगों को नक्सली मान कर जेल में ठूँसा गया। जिससे हर आगे बढ़ा कदम पीछे हुआ।
माओवादियो की यह बहस उन परिस्थितियों को भी टटोल रही थी कि आखिर जो सरकार एक दशक पहले तक नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या के आईने में देखती थी, वही अब आंतकवाद के सामानांतर क्यों देख-समझ रही है। खासकर संसदीय राजनीति को लेकर आम वोटर जब सवाल कर रहा और राजनेताओं को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, तब माओवादियों की पहल किस तरह होनी चाहिये। क्योंकि बढ़ती आंतकवादी हिंसा के दौरान हर तरह की हिंसा को जब एक ही दायरे में रखा जा रहा है, तब कौन से तरीके होने चाहिये जो विकल्प का सवाल भी उठाये और विचारधारा के साथ राजनीति को भी जोड़े। माओवादियो के सामने वैचारिक तौर पर आर्थिक नीतियों को भी लेकर संकट उभरा है।
पिछले डेढ़ दशक के दौरान आर्थिक सुधार को लेकर सरकार पर हमला करने की रणनीति लगातार माओवादियो ने अपनायी। वामपंथी जब यूपीए सरकार में शामिल हुये तो बंगाल में ही माओवादियों ने अपनी जमीन मजबूत की। निशाना आर्थिक नीतियों को लेकर ही रहा। लेकिन आर्थिक नीतियों को लेकर जो फुग्गा या कहें जो सपना दिखाया गया बाजार व्यवस्था के ढहने से वह तो फूटा लेकिन माओवादियों के सामने बड़ा सवाल यही है कि आर्थिक नीतियों ने उन्हें आम जनता के बीच पहुँचने के लिये एक हथियार तो दिया था लेकिन अब विकल्प की नीतियों को सामने लाना सबसे बड़ी चुनौती है। इसका कोई मजमून माओवादियों के पास नहीं है। खासकर जिन इलाकों में माओवादियो ने अपना प्रभाव बनाया भी है, वहाँ किसी तरह का कोई आर्थिक प्रयोग ऐसा नहीं उभरा है, जिससे बाजार अर्थव्यवस्था के सामानांतर देसी अर्थव्यवस्था अपनाने का सवाल उठा हो। यानी खुद पर निर्भर होकर किसी एक क्षेत्र को कैसे चलाया जा सकता है, इसका कोई प्रयोग सामने नहीं आया है। नया संकट यह भी है कि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर माओवादी आंदोलनों की कोई रुपरेखा ऐसी बची नही है जो कोई नया कौरिडोर बनाये। नेपाल में माओवादियों के राजनीतिक प्रयोग को लेकर असहमति की एक बड़ी रेखा भी इस बैठक के दौरान उभरी। लेकिन सामाजिक तौर पर माओवादियों के सामने बडा संकट उन परिस्थितियों में अपनी पैठ बरकरार है जहाँ राजनीतिक तौर पर उन्हें खारिज किया जा रहा है। संसदीय राजनीति से इतर किस तरह की व्यवस्था बहुसंख्यक तबके के लिये अनुकूल होगी, माओवादियों के सामने यह भी अनसुलझा सवाल ही बना हुआ है। इसीलिये जो चुनौती सामने है उसमें बड़ा सवाल यह भी उभर रहा है कि दो दशक पहले जिन इलाकों में माओवादियों ने अपना प्रभाव लोगो में जमाया अब उनके सवालों का जबाब देने से ज्यादा सवाल माओवादियों के सामने खुद को टिकाये रखने के हो गये है। इसलिये पहली बार इस असफलता को भी माना गाया कि राजनीतिक क्षेत्र में ट्रेड यूनियन का खात्मा होने से बाजार व्यवस्था के ढहने के बाद शून्यता पैदा हो गयी है। मजदूरों को लेकर एक समूची व्यवस्था जो वामपंथी मिजाज के साथ बरकरार रहती और राज्य व्यवस्था को चुनौती देकर बहुसंख्य्क जनता को साथ जोड़ती, इस बार उसी की अभाव है। पहली बार ग्रामीण और शहरी दोनों स्तर पर राज्य को लेकर आक्रोष है।
पहली बार अशिक्षित समाज और उच्च शिक्षित वर्ग भी विकल्प खोज रहा है। खासकर अपनी परिस्थितियों में उसके अनुकूल नौकरी से लेकर आर्थिक सहूलियत का कोई माहौल नहीं बच पा रहा, तो भी वामपंथी और माओवादियों दोनों इसका लाभ उठाने में चूक रहे हैं। माओवादियों के भीतर पहली बार इस बात को लेकर कसमसाहट कहीं ज्यादा है कि देश का बहुसंख्यक तबका विकल्प तलाश रहा है और दशकों से विकल्प का सवाल उठाने वालों के पास ही मौका पड़ने पर कोई विकल्प देने के लिये नहीं है।
Thursday, February 12, 2009
एक कविता : अराजनीतिक बुद्दिजीवियों
कहते हैं जब सवाल परेशान करें और कोई जवाब न सूझे तो कविता पढ़ लेनी चाहिये। इसलिये इस बार ग्वातेमाला के कवि अटो रेने कस्तिइयो की एक कविता पढ़ें । चर्चा अगली पोस्ट में....
कविता का शीर्षक है - अराजनीतिक बुद्दिजीवियों
एक दिन / मेरे देश के / अराजनीतिक बुद्दिजीवियों से / जिरह करेंगे / देश के सबसे सीधे सरल लोग / उनसे पूछेगे, वे क्या कर रहे थे / जब उनका देश मरा जा रहा था / धीरे-धीरे /नरम-नरम आग की तरह नन्हा और अकेले ।
कोई उनसे नहीं पूछेगा /उनके खूबसूरत लिबास की बात / दोपहर के भोजन के बाद की / लंबी नींद की बात / कोई नहीं जानना चाहेगा / शून्यता के तमाम सिद्दान्त के साथ / उनकी बांझ लड़ाई / कैसी थी / कोई नहीं जानना चाहेगा, वह तरीका कौन सा है / जिसके जरिए उन्होंने इकठ्ठा किया - रुपया पैसा / उनसे सवाल नहीं किया जायेगा / ग्रीक - पुराणों के बारे में / या नहीं पूछा जायेगा / अपने को लेकर उन्हें कितनी उबकाई आ रही थी / जब उनके भीतर / मरना शुरु किया था एक / कायर की मौत / उनका अनूठा आत्मसमर्थन / जिसका जन्म /शुरु से अंत तक झूठ था /छाया में / उसके बार में कोई सवाल नहीं पूछेगा ।
उस दिन / आएंगे सीधे सरल लोग / अराजनीतिक बुद्दिजीवियो की किताब या कविता में / जिन्हें जगह नहीं मिली / मगर जो लोग रोज उनके लिये जुटाते गये है / उनकी रोटी और दूध / उनकी तोर्तिया और अण्डे / जिन लोगों ने उनकी कमीज की सिलाई की है /जो लोग उनकी गाड़ी चलाकर ले गये है / जो लोग उनके कुत्ते और बगीचे की देखभाल करते रहे है / और उनके लिये खटे है - / वे पूछेंगे ../ क्या कर रहे थे तुम लोग / जब दुख तकलीफ से नेस्तानाबूद गरीब लोग मरे जा रहे थे, / और स्निग्धता और जीवन / उन में जल भुन कर खाक हो रहे थे? / हमारे इस सुन्दर देश के / अराजनीतिक बुद्दिजीवियों ! / उस समय कोई जवाब नहीं दे पाओगे तुम लोग । /
चुप्पी का एक गिद्द / तुम लोगों की गूदा और अंतडी फाड़कर खायेगा, / तुम लोगों की अपनी दुर्दशा ही / खरोंच-काटकर फाड़ती रहेंगी तुम लोगों की आत्मा, / और अपने ही शर्म से सिर झुकाए / तुम लोग गूंगे बने रहोगे ।
कविता का शीर्षक है - अराजनीतिक बुद्दिजीवियों
एक दिन / मेरे देश के / अराजनीतिक बुद्दिजीवियों से / जिरह करेंगे / देश के सबसे सीधे सरल लोग / उनसे पूछेगे, वे क्या कर रहे थे / जब उनका देश मरा जा रहा था / धीरे-धीरे /नरम-नरम आग की तरह नन्हा और अकेले ।
कोई उनसे नहीं पूछेगा /उनके खूबसूरत लिबास की बात / दोपहर के भोजन के बाद की / लंबी नींद की बात / कोई नहीं जानना चाहेगा / शून्यता के तमाम सिद्दान्त के साथ / उनकी बांझ लड़ाई / कैसी थी / कोई नहीं जानना चाहेगा, वह तरीका कौन सा है / जिसके जरिए उन्होंने इकठ्ठा किया - रुपया पैसा / उनसे सवाल नहीं किया जायेगा / ग्रीक - पुराणों के बारे में / या नहीं पूछा जायेगा / अपने को लेकर उन्हें कितनी उबकाई आ रही थी / जब उनके भीतर / मरना शुरु किया था एक / कायर की मौत / उनका अनूठा आत्मसमर्थन / जिसका जन्म /शुरु से अंत तक झूठ था /छाया में / उसके बार में कोई सवाल नहीं पूछेगा ।
उस दिन / आएंगे सीधे सरल लोग / अराजनीतिक बुद्दिजीवियो की किताब या कविता में / जिन्हें जगह नहीं मिली / मगर जो लोग रोज उनके लिये जुटाते गये है / उनकी रोटी और दूध / उनकी तोर्तिया और अण्डे / जिन लोगों ने उनकी कमीज की सिलाई की है /जो लोग उनकी गाड़ी चलाकर ले गये है / जो लोग उनके कुत्ते और बगीचे की देखभाल करते रहे है / और उनके लिये खटे है - / वे पूछेंगे ../ क्या कर रहे थे तुम लोग / जब दुख तकलीफ से नेस्तानाबूद गरीब लोग मरे जा रहे थे, / और स्निग्धता और जीवन / उन में जल भुन कर खाक हो रहे थे? / हमारे इस सुन्दर देश के / अराजनीतिक बुद्दिजीवियों ! / उस समय कोई जवाब नहीं दे पाओगे तुम लोग । /
चुप्पी का एक गिद्द / तुम लोगों की गूदा और अंतडी फाड़कर खायेगा, / तुम लोगों की अपनी दुर्दशा ही / खरोंच-काटकर फाड़ती रहेंगी तुम लोगों की आत्मा, / और अपने ही शर्म से सिर झुकाए / तुम लोग गूंगे बने रहोगे ।
Saturday, February 7, 2009
कौन बदल गया : बीजेपी या आरएसएस?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों को हर क्षण जीवन से जोड़कर देखने वाले नागपुर के एक परिवार ने सवाल पूछा-बीजेपी कितनी बदल गयी है। कोई जवाब देने से पहले मेरे मुंह से निकल पड़ा-आरएसएस भी तो कितनी बदल गयी है। मुझे पता नहीं था कि मेरा सवाल ही इस परिवार के लिये जवाब हो जायेगा, जो तीन पीढ़ियों से संघ से न सिर्फ जुड़ा है बल्कि संघ से जुड़ने की प्रेरणा लगातार हर सुबह संघ जमघट में मोहल्ले दर मोहल्ला अब भी देता है। कोई बड़ी-छोटी सभा-सम्मेलन नागपुर में हो तो सैकड़ों लोगों की रोटी बनाने में पूरा परिवार जुट जाता है।
नागपुर के महाल इलाके का ये परिवार 1940 से यहां रह रहा है, इसलिये हेडगेवार-गुरु गोलवरकर-देवरस-रज्जु भैया सभी को बेहद करीब से इस परिवार ने देखा है। महाल में ही संघ मुख्यालय है और इस मोहल्ले के संकरी गलियों में सैकड़ों परिवार हैं, जो हेडगेवार के दौर से संघ परिवार के सदस्य हैं।
लेकिन संघ बदल गया है....यह सवाल किसी संघी परिवार के लिये जवाब हो जाये, ये मैंने कतई नहीं सोचा। लेकिन कहते हैं न किसी को पूरी तरह माफ कर देना ही उसे पूरी तरह जान लेना होता है। कुछ इसी तर्ज पर सहमति की लीक के साथ परिवार के मुखिया ने मुझसे पूछा कि 21 जनवरी को दिल्ली में ही तो दत्तोपंत ठेंगडी भवन का उद्धाटन हुआ है, जो डेढ़ करोड़ की लागत से बना है। मैंने भी कहा, जी...उस समारोह में मैं भी गया था। इसका उद्घाटन सरसंघचालक सुदर्शन ने किया था । तो आपने भी महसूस किया कि संघ बदल गया है।
आपने जवाब पर मैं सोचता और चर्चा आगे बढ़ती, इससे पहले मेरे दिमाग में 2002 का स्वदेशी जागरण मंच के प्रतिनिधि मंडल का सम्मेलन आ गया। आगरा में दो दिन के इस सम्मेलन में दंत्तोपंत ठेंगडी-गोविन्दाचार्य-गुरुमूर्ति और मदनदास देवी भी मौजूद थे। सबसे बुजुर्ग संघी ठेंगड़ी ने इसी सम्मेलन में उस वक्त वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा पर वर्ल्ड बैंक के एंजेडे को लागू करने का आरोप लगाते हुये उन्हें तत्काल हटाने की मांग की थी। उन्होंने यशवंत सिन्हा को अर्थ की जगह अनर्थ मंत्री कहा था। ठेंगड़ी ने इसी सम्मेलन में पहली बार मुरलीधर राव के जरिये स्वदेशी विचार को दोबारा आंदोलन की शक्ल देने का भरोसा जताया था। इसी सम्मेलन में मदन दास देवी आर्थिक नीतियों में विकल्प के तौर पर हाथ में पत्रिका इकनॉमिस्ट लेकर चीन की आर्थिक नीति की वकालत कर रहे थे। इस सम्मेलन में गोविन्दाचार्य देश भर के युवाओं को जमाकर आर्थिक आंदोलन की भूमिका का राग दे रहे थे और इसी सम्मेलन में गुरुमूर्ति राष्ट्रीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच के जरिये बीजेपी की पटरी से उतरी आर्थिक नीतियों को पटरी पर लाने का जिक्र करने से नहीं चूक रहे थे।
संयोग से दत्तोपंत ठेंगडी ने इसी सम्मेलन में बीजेपी की नीतियों के कांग्रेसीकरण होने का आरोप मढ़ते हुये सीधे कहा था कि उन्हें डर लगता है कि बीजेपी भी कांग्रेस की तरह विरासत की राजनीति शुरु ना कर दे और हमारे मरने के बाद कोई सड़क या इमारत बनवाकर आंदोलन स्वाहा ना कर दें। लेकिन संघ की इच्छा और बीजेपी की पूंजी पर बनी दत्तोपंत ठेंगडी इमारत के जरिये भारतीय मजदूर संघ का भला होगा यह ठेंगडी के साथ काम कर चुके किसी संघी के लिये सोचना भी शायद मुश्किल होता।
आगरा के इस सम्मेलन का जिक्र करते हुये जैसे ही मैंने कहा-ठेंगडी की मौत तो अब हुई जिसका उद्धाटन सरसंघचालक सुदर्शन ने किया है। तो नागपुर के इस संघी परिवार के मुखिया ने बिना लाग लपेट कर बताया कि ठेंगडी ने मजदूरों को देशहित का पाठ पहले पढ़ाया और फिर संगठन बनाया। लेकिन अब पहले इमारत बनी है और उसके जरिये मजदूर संघ को जिलाने की बात की जा रही है। जबकि ठेंगडी होते तो डेढ़ करोड़ की कोई इंडस्ट्री लगवाकर रोजगार की व्यवस्था पहले करते। उसके बाद देश के विकास में मजदूरों के योगदान का सवाल उठाते जो मजदूरो को देश से जोड़ता और फिर संगठन और पार्टी खुद-ब-खुद मजबूत होती।
मुझे भी याद आया कि संघ के मुखिया ने उद्धघाटन करते हुये कहा था-ठेंगडी को श्रमिक क्षेत्र में काम करने के लिये उस वक्त भेजा गया, जब इस क्षेत्र में वामपंथ और अन्य वादो का बोलबाला था। उस वक्त मजदूर संगठन कहते- हमारी मांगे पूरी हो, चाहे जो मजबूरी हो । लेकिन ठेंगडी ने कहा-मजदूरो को पूरा दाम मिलना चाहिये पर सबसे उपर देशहित होन चाहिये। 1962 के चीन युद्द के वक्त जब बंगाल के वामपंथी संगठनों ने हड़ताल की वकालत की तब मजदूर संघ से जुड़े श्रमिको ने अतिरिक्त काम किया। इस कथन का जिक्र करते हुये मैने सवाल किया कि लेकिन उन्हीं लोगो के बीच संघ इतना कैसे बदल सकता है...जो ठेंगडी के साथ थे वहीं लोग तो ठेंगडी भवन का उद्घाटन देखकर ताली बजा रहे थे। इस समारोह में ठेंगडी के प्रिय मुरलीघर राव से लेकर ठेंगडी के वैचारिक सहयोगी हसुभाई दवे और केतकर भी मौजूद थे।
लेकिन विकल्प क्या है...यही सवाल संघ को शायद जोड़े हुये होगा, आप यह भी कह सकते हैं । नागपुर के इस परिवार ने चर्चा का सिरा पकडते हुये कहा। लेकिन सार्वजनिक तौर पर तो बीजेपी है....आप यह बताइये कि बीजेपी कितनी-कैसे बदल गयी।
लेकिन पहले आप बताएं की बीजेपी का मतलब आप समझते क्या हैं। मेरे इस सवाल पर बिना देर लगाये ही वह बोल पड़े....आंख बंद कर बीजेपी बोलता हूं तो आडवाणी की तस्वीर और कुर्सी पर मुस्कुराते लेकिन उम्र की बीमारी लिये बाजपेयी जी दिमाग में चल पड़ते हैं । कोई और तस्वीर तो मैं देखता ही नहीं हूं।
क्यों आडवाणी जी की तस्वीर पीएम के लिये इंतजार करते शख्स के तौर पर नहीं उभरती है ? मेरे इस सवाल पर श्याम जी जोर से हंस पड़े। यहां नागपुर के इस परिवार के मुखिया का नाम लेना जरुरी है क्योंकि जो बात उन्होने कही वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार आडवाणी के बारे में एक सरसंघचालक की है । और इसे छुपाकर नहीं बताया जा सकता। श्याम जी के मुताबिक जब आडवाणी जी सोमनाथ से अयोध्या के लिये रथयात्रा पर निकले थे तो लगातार नागपुर के संघ मुख्यालय में भी उमंगे उछालें मार रही थीं। संघ परिवार के सदस्य रथ यात्रा को देखने के लिये नागपुर में घुसने वाली वर्धा रोड पर बीस किलोमीटर पहले से ही फूल-मालाओं के साथ मौजूद थे । नागपुर में चंद घंटे रुके आडवाणी जी सरसंघचालक देवरस से मिलने भी पहुंचे । लेकिन अगले दिन रथ यात्रा के नागपुर से निकलने के बाद अयोध्या आंदोलन को लेकर चर्चा के बीच संघ मुख्यालय में कई संघ सदस्यों की मौजूदगी में आडवाणी जी की रथ यात्रा की सफलता-असफलता पर भी सवाल जबाब हो रहे थे।
उस वक्त एक प्रचारक ने रथ यात्रा की सफलता के बाद बीजेपी की राजनीतिक सफलता का मुद्दा उठाया तो देवरस ने इसे संगठन को मजबूत और एकजूट करने वाली यात्रा बताते हुये कहा कि आपातकाल के बाद अयोध्या ही एक ऐसा मुद्दा बना है, जिससे बिखर रहे संगठन एक साथ एक मन से जुडेंगे। एक अन्य ने जब कहा कि आपातकाल के बाद जनता पार्टी सत्ता में आयी थी तो क्या बीजेपी भी सत्ता में आ सकती है। देवरस का जबाब था रास्ता बनेगा लेकिन सत्ता तक पहुंचना अयोध्या के आगे की राजनीतिक पहल पर निर्भर करता है। इसपर आडवाणी के नेतृत्व को लेकर जब एक स्वयंसेवक ने सवाल किया तो देवरस ने उनके साथ संगठन और विचार की इमानदारी की बात कही। लेकिन आडवाणी जी के बारे में जब एक निजी सवाल आया तो देवरस ने कहा, आडवाणी जी की निजी छवि ही उन्हे सार्वजनिक नहीं होने देती। आडवाणी जी जो बात सोमनाथ में सोच कर चले होंगे, उसे ही अयोध्या तक ले जायेंगे। परिस्थितयां उन्हें खोलती नहीं हैं। इसे आप आडवाणी की ताकत मानें या कमजोरी, लेकिन वह परिवेश और विचार से प्रभावित होकर राजनीतिक समझ विकसित करें या बदलें यह मुश्किल है।
जाहिर है इस जबाव के खत्म होते ही मैने तुरंत पूछा तो क्या जिन्ना प्रकरण पर न सिर्फ आडवाणी का टिके रहना और अपनी किताब में भी उसका जिक्र कर उसमें बिना किसी बदलाव के छापने का मतलब यही है कि आडवाणी का जिन्ना को लेकर विचार पाकिस्तान यात्रा से पहले से रहा होगा । इस पर श्याम जी खामोश हो गये लेकिन फिर बोले- आपने जो सवाल शुरु में उठाया था कि आरएसएस बदल गयी है तो उसका जबाब यही है कि 2004 से लेकर 2007 तक जो मंथन संघ के भीतर हुआ और उसके बाद आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के लिये बतौर उम्मीदवार बनाने पर संघ ने सहमति जिस तरह दी, उसका मतलब है संघ बदल गया है।
जाहिर है यह संकेत संघ के अभी के हालात को लेकर समझने के लिये काफी था। क्योंकि सरकार्यवाह मोहन भागवात, मदनदास देवी और सुरेश सोनी बकायदा आडवाणी के आवास में जा कर पीएम की उम्मीदवारी पर मुहर लगा कर आये थे । जबकि सरसंघचालक सुदर्शन ने चार साल पहले ही आडवाणी और वाजपेयी को रिटायर होने की सलाह दी थी। असल में आरएसएस के भीतर पहली बार कई पावर सेंटर काम कर रहे हैं और पहली बार सरसंघचालक द्वारा अपनी विरासत सौपने की परंपरा पावर सेंटर के हिसाब से चल रही है। जिसमें इंतजार करना कोई नहीं चाहता और टकराव के जरिये ही वक्त कटता जाये जो परंपरा को बनाये रखने का स्वांग देता रहे...यह मानसिकता कहीं तेज होती जा रही है। और उसी का अक्स बीजेपी में मौजूद है, जिसमें राजनाथ की दिशा और आडवाणी की राजनीति टकराती है तो इस एहसास के साथ की टकराव की राजनीति से संघ में भी गुदगुदी होती है। और परिवार में यह संवाद बनता है कि अब तो फैसला होना चाहिये जिससे परिवार पटरी पर आ जाये। यानी कभी राजनाथ सिंह को लगे कि वह आडवाणी से बेहतर पीएम के उम्मीदवार है तो कभी सरकार्यवाह मोहनराव भागवत को लगे कि जितनी जल्दी हो वह सरसंघचालक बन जाये तो परिवार का भला हो।
यह बात नागपुर के श्यामजी ने नहीं कहीं लेकिन संकेत में बता दिया कि चर्चा असल में कौन बदला है, इसकी जगह कौन नहीं बदला.... इस पर होनी चाहिये थी जिससे खामोशी में वक्त कट जाता और कुछ कहना भी नहीं पड़ता।
नागपुर के महाल इलाके का ये परिवार 1940 से यहां रह रहा है, इसलिये हेडगेवार-गुरु गोलवरकर-देवरस-रज्जु भैया सभी को बेहद करीब से इस परिवार ने देखा है। महाल में ही संघ मुख्यालय है और इस मोहल्ले के संकरी गलियों में सैकड़ों परिवार हैं, जो हेडगेवार के दौर से संघ परिवार के सदस्य हैं।
लेकिन संघ बदल गया है....यह सवाल किसी संघी परिवार के लिये जवाब हो जाये, ये मैंने कतई नहीं सोचा। लेकिन कहते हैं न किसी को पूरी तरह माफ कर देना ही उसे पूरी तरह जान लेना होता है। कुछ इसी तर्ज पर सहमति की लीक के साथ परिवार के मुखिया ने मुझसे पूछा कि 21 जनवरी को दिल्ली में ही तो दत्तोपंत ठेंगडी भवन का उद्धाटन हुआ है, जो डेढ़ करोड़ की लागत से बना है। मैंने भी कहा, जी...उस समारोह में मैं भी गया था। इसका उद्घाटन सरसंघचालक सुदर्शन ने किया था । तो आपने भी महसूस किया कि संघ बदल गया है।
आपने जवाब पर मैं सोचता और चर्चा आगे बढ़ती, इससे पहले मेरे दिमाग में 2002 का स्वदेशी जागरण मंच के प्रतिनिधि मंडल का सम्मेलन आ गया। आगरा में दो दिन के इस सम्मेलन में दंत्तोपंत ठेंगडी-गोविन्दाचार्य-गुरुमूर्
संयोग से दत्तोपंत ठेंगडी ने इसी सम्मेलन में बीजेपी की नीतियों के कांग्रेसीकरण होने का आरोप मढ़ते हुये सीधे कहा था कि उन्हें डर लगता है कि बीजेपी भी कांग्रेस की तरह विरासत की राजनीति शुरु ना कर दे और हमारे मरने के बाद कोई सड़क या इमारत बनवाकर आंदोलन स्वाहा ना कर दें। लेकिन संघ की इच्छा और बीजेपी की पूंजी पर बनी दत्तोपंत ठेंगडी इमारत के जरिये भारतीय मजदूर संघ का भला होगा यह ठेंगडी के साथ काम कर चुके किसी संघी के लिये सोचना भी शायद मुश्किल होता।
आगरा के इस सम्मेलन का जिक्र करते हुये जैसे ही मैंने कहा-ठेंगडी की मौत तो अब हुई जिसका उद्धाटन सरसंघचालक सुदर्शन ने किया है। तो नागपुर के इस संघी परिवार के मुखिया ने बिना लाग लपेट कर बताया कि ठेंगडी ने मजदूरों को देशहित का पाठ पहले पढ़ाया और फिर संगठन बनाया। लेकिन अब पहले इमारत बनी है और उसके जरिये मजदूर संघ को जिलाने की बात की जा रही है। जबकि ठेंगडी होते तो डेढ़ करोड़ की कोई इंडस्ट्री लगवाकर रोजगार की व्यवस्था पहले करते। उसके बाद देश के विकास में मजदूरों के योगदान का सवाल उठाते जो मजदूरो को देश से जोड़ता और फिर संगठन और पार्टी खुद-ब-खुद मजबूत होती।
मुझे भी याद आया कि संघ के मुखिया ने उद्धघाटन करते हुये कहा था-ठेंगडी को श्रमिक क्षेत्र में काम करने के लिये उस वक्त भेजा गया, जब इस क्षेत्र में वामपंथ और अन्य वादो का बोलबाला था। उस वक्त मजदूर संगठन कहते- हमारी मांगे पूरी हो, चाहे जो मजबूरी हो । लेकिन ठेंगडी ने कहा-मजदूरो को पूरा दाम मिलना चाहिये पर सबसे उपर देशहित होन चाहिये। 1962 के चीन युद्द के वक्त जब बंगाल के वामपंथी संगठनों ने हड़ताल की वकालत की तब मजदूर संघ से जुड़े श्रमिको ने अतिरिक्त काम किया। इस कथन का जिक्र करते हुये मैने सवाल किया कि लेकिन उन्हीं लोगो के बीच संघ इतना कैसे बदल सकता है...जो ठेंगडी के साथ थे वहीं लोग तो ठेंगडी भवन का उद्घाटन देखकर ताली बजा रहे थे। इस समारोह में ठेंगडी के प्रिय मुरलीघर राव से लेकर ठेंगडी के वैचारिक सहयोगी हसुभाई दवे और केतकर भी मौजूद थे।
लेकिन विकल्प क्या है...यही सवाल संघ को शायद जोड़े हुये होगा, आप यह भी कह सकते हैं । नागपुर के इस परिवार ने चर्चा का सिरा पकडते हुये कहा। लेकिन सार्वजनिक तौर पर तो बीजेपी है....आप यह बताइये कि बीजेपी कितनी-कैसे बदल गयी।
लेकिन पहले आप बताएं की बीजेपी का मतलब आप समझते क्या हैं। मेरे इस सवाल पर बिना देर लगाये ही वह बोल पड़े....आंख बंद कर बीजेपी बोलता हूं तो आडवाणी की तस्वीर और कुर्सी पर मुस्कुराते लेकिन उम्र की बीमारी लिये बाजपेयी जी दिमाग में चल पड़ते हैं । कोई और तस्वीर तो मैं देखता ही नहीं हूं।
क्यों आडवाणी जी की तस्वीर पीएम के लिये इंतजार करते शख्स के तौर पर नहीं उभरती है ? मेरे इस सवाल पर श्याम जी जोर से हंस पड़े। यहां नागपुर के इस परिवार के मुखिया का नाम लेना जरुरी है क्योंकि जो बात उन्होने कही वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार आडवाणी के बारे में एक सरसंघचालक की है । और इसे छुपाकर नहीं बताया जा सकता। श्याम जी के मुताबिक जब आडवाणी जी सोमनाथ से अयोध्या के लिये रथयात्रा पर निकले थे तो लगातार नागपुर के संघ मुख्यालय में भी उमंगे उछालें मार रही थीं। संघ परिवार के सदस्य रथ यात्रा को देखने के लिये नागपुर में घुसने वाली वर्धा रोड पर बीस किलोमीटर पहले से ही फूल-मालाओं के साथ मौजूद थे । नागपुर में चंद घंटे रुके आडवाणी जी सरसंघचालक देवरस से मिलने भी पहुंचे । लेकिन अगले दिन रथ यात्रा के नागपुर से निकलने के बाद अयोध्या आंदोलन को लेकर चर्चा के बीच संघ मुख्यालय में कई संघ सदस्यों की मौजूदगी में आडवाणी जी की रथ यात्रा की सफलता-असफलता पर भी सवाल जबाब हो रहे थे।
उस वक्त एक प्रचारक ने रथ यात्रा की सफलता के बाद बीजेपी की राजनीतिक सफलता का मुद्दा उठाया तो देवरस ने इसे संगठन को मजबूत और एकजूट करने वाली यात्रा बताते हुये कहा कि आपातकाल के बाद अयोध्या ही एक ऐसा मुद्दा बना है, जिससे बिखर रहे संगठन एक साथ एक मन से जुडेंगे। एक अन्य ने जब कहा कि आपातकाल के बाद जनता पार्टी सत्ता में आयी थी तो क्या बीजेपी भी सत्ता में आ सकती है। देवरस का जबाब था रास्ता बनेगा लेकिन सत्ता तक पहुंचना अयोध्या के आगे की राजनीतिक पहल पर निर्भर करता है। इसपर आडवाणी के नेतृत्व को लेकर जब एक स्वयंसेवक ने सवाल किया तो देवरस ने उनके साथ संगठन और विचार की इमानदारी की बात कही। लेकिन आडवाणी जी के बारे में जब एक निजी सवाल आया तो देवरस ने कहा, आडवाणी जी की निजी छवि ही उन्हे सार्वजनिक नहीं होने देती। आडवाणी जी जो बात सोमनाथ में सोच कर चले होंगे, उसे ही अयोध्या तक ले जायेंगे। परिस्थितयां उन्हें खोलती नहीं हैं। इसे आप आडवाणी की ताकत मानें या कमजोरी, लेकिन वह परिवेश और विचार से प्रभावित होकर राजनीतिक समझ विकसित करें या बदलें यह मुश्किल है।
जाहिर है इस जबाव के खत्म होते ही मैने तुरंत पूछा तो क्या जिन्ना प्रकरण पर न सिर्फ आडवाणी का टिके रहना और अपनी किताब में भी उसका जिक्र कर उसमें बिना किसी बदलाव के छापने का मतलब यही है कि आडवाणी का जिन्ना को लेकर विचार पाकिस्तान यात्रा से पहले से रहा होगा । इस पर श्याम जी खामोश हो गये लेकिन फिर बोले- आपने जो सवाल शुरु में उठाया था कि आरएसएस बदल गयी है तो उसका जबाब यही है कि 2004 से लेकर 2007 तक जो मंथन संघ के भीतर हुआ और उसके बाद आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के लिये बतौर उम्मीदवार बनाने पर संघ ने सहमति जिस तरह दी, उसका मतलब है संघ बदल गया है।
जाहिर है यह संकेत संघ के अभी के हालात को लेकर समझने के लिये काफी था। क्योंकि सरकार्यवाह मोहन भागवात, मदनदास देवी और सुरेश सोनी बकायदा आडवाणी के आवास में जा कर पीएम की उम्मीदवारी पर मुहर लगा कर आये थे । जबकि सरसंघचालक सुदर्शन ने चार साल पहले ही आडवाणी और वाजपेयी को रिटायर होने की सलाह दी थी। असल में आरएसएस के भीतर पहली बार कई पावर सेंटर काम कर रहे हैं और पहली बार सरसंघचालक द्वारा अपनी विरासत सौपने की परंपरा पावर सेंटर के हिसाब से चल रही है। जिसमें इंतजार करना कोई नहीं चाहता और टकराव के जरिये ही वक्त कटता जाये जो परंपरा को बनाये रखने का स्वांग देता रहे...यह मानसिकता कहीं तेज होती जा रही है। और उसी का अक्स बीजेपी में मौजूद है, जिसमें राजनाथ की दिशा और आडवाणी की राजनीति टकराती है तो इस एहसास के साथ की टकराव की राजनीति से संघ में भी गुदगुदी होती है। और परिवार में यह संवाद बनता है कि अब तो फैसला होना चाहिये जिससे परिवार पटरी पर आ जाये। यानी कभी राजनाथ सिंह को लगे कि वह आडवाणी से बेहतर पीएम के उम्मीदवार है तो कभी सरकार्यवाह मोहनराव भागवत को लगे कि जितनी जल्दी हो वह सरसंघचालक बन जाये तो परिवार का भला हो।
यह बात नागपुर के श्यामजी ने नहीं कहीं लेकिन संकेत में बता दिया कि चर्चा असल में कौन बदला है, इसकी जगह कौन नहीं बदला.... इस पर होनी चाहिये थी जिससे खामोशी में वक्त कट जाता और कुछ कहना भी नहीं पड़ता।
Wednesday, February 4, 2009
संसदीय राजनीति जीने नहीं देगी और लोकतंत्र मरने नहीं देगा
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का तमगा लगाकर जीना आसान काम नहीं है। खासकर लोकतंत्र अगर संसदीय राजनीति की मोहताज हो और संसदीय राजनीति की सत्ता समूचे देश को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाये। लोकतंत्र का मतलब है-हर नागरिक को बराबर अधिकार और सत्ता में भागेदारी के लिये बराबर के अवसर। लोकतंत्र बरकरार रहे, यह देश की संसद और राज्यों की विधानसभा के सदस्यों के कंधों पर सबसे ज्यादा है। जनता अपने जितने नुमाइन्दों को चुनकर संसद और विदानसभा में भेजती है, इनकी संख्या देश की समूची जनसंख्या का दशमलव शून्य शून्य शून्य एक फिसदी से भी कम है।
लेकिन इस राजनीतिक लोकतंत्र का विस्तार पंचायत, गांव और जिला स्तर पर चुने जाने वाले करीब अड़तीस लाख सदस्यों तक भी है । संयोग से यह भी देश की जनसंख्या का एक फीसदी नहीं है। लेकिन लोकतंत्र के तमगे का खेल यहीं से शुरु होता है। चुने हुये नुमाइन्दे के घेरे में पहुंचते ही ऐसे विशेषाधिकार मिलते हैं, जो कानून और सुविधा का दायरा एकदम अलग बना देते हैं। इस दायरे में जो एक बार पहुंच गया वह कैसे इस दायरे से अलग हो सकता है। इसलिये कहा भी जाता है कि डाक्टर-इंजीनियर-उघोगपति से लेकर बेरोजगार-अशिक्षित-दलित-पिछड़ा हर कोई राजनेता बन सकता है, लेकिन जो इस राजनीति के घेरे में एकबार आ गया वह कुछ और नहीं कर सकता।
जाहिर है लोकतंत्र का पहला पाठ यहीं से शुरु होता है, जिसमें विरासत के जरीये पीढि़यों को सहजने और घर की चारदीवारी में सुरक्षा-सुविधा का ऐसा ताना बाना बुना जाता है जो इस एहसास को खत्म करता है कि सत्ता का मतलब देश और सौ करोड़ लोग हैं। लोकसभा के 545 सदस्यों में से मौजूदा वक्त में पन्द्रह फीसदी सदस्य यानी करीब 80 सदस्य ऐसे हैं, जिनकी पहचान किसी बड़े नेता के बेटे-बेटी या पत्नी-बहू के तौर पर है। संबंधों की फेरहीस्त में संयोग से उन्हीं नेताओं के परिवार के सदस्य अगली कतार में हैं, जिन्होने वाकई सड़क से संसद का रास्ता तय किया। जिन्होंने गांव-खेडे की पगड्डिया समझीं। जिन्होंने देश के मर्म को अपनी धमनियों में दौड़ते देखा।
इन नेताओं में से कुछ नेताओं के बच्चे जब बाप की राजनीति के भरोसे सत्ता के दायरे में आ गये तो समझ पैदा हुई लेकिन कईयों ने उस राजनीति को थामा, जिसमें अपना पेट -अपनी जेब के अलावा कुछ समझना मुश्किल हो । अपने अपने घेरे में लोकतंत्र की इस राजशाही का नमूना देखे- गांधी-नेहरु परिवार की नयी पीढी राहुल गांधी, कश्मीर में अब्दु्ल्ला परिवार की नयी विरासत उमर अबदुल्ला । अकाली दल में बादल परिवार के सुखबीर बादल, समाजवादी नेता मुलायम के पुत्र अखिलेश यादव, मराठा नेता शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले । द्रमुक नेता करुणानिधि का बेटा स्टालिन और बेटी कोनीमाझी, हिन्दुओं की सरमायेदार होने का ऐलान करने वाली बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह । जनसंघ के जमाने से साईकिल और पैदल लोगों के बीच राजनीति करते हुये देश को अयोध्या की घुट्टी पिलाने वाले कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह । जेपी आंदोलन से निकले लालू यादव की पत्नी राबडी देवी । बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार, हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी रीता बहुगुणा। जसवंत सिंह, मुरली देवडा, पायलट,सिधिया, हुड्डा,शीला दीक्षित सरीखे बडे नेताओं की लंबी फेरहिस्त है जो अपने बच्चों के लिये सत्ता का रास्ता साफ करती हैं।
बाला साहेब ठाकरे के राजनीतिक प्रयोग राजशाही अंदाज के विकल्प के तौर पर उभरे लेकिन लोकतंत्र के संसदीय मिजाज ने उन्हें भी अपनी राजनीतिक विरासत बेटे उद्दभ ठाकरे के ही नाम करनी पड़ी। लोकतंत्र की यह समझ पंचायत स्तर तक पहुंचते पहुंचते कैसे एक वर्ग में तब्दील हो जाती है इसका एहसास इसी से हो सकता है कि पिछले दो दशक में गांव-पंचायत-जिले स्तर पर नुमाइन्दे चुने गये उसमें करीब बीस लाख परिवार ऐसे हैं, जिनकी विरासत ही राजनीति को थामे हुये है।
दरअसल, तीन स्तरीय संसदीय राजनीति में पंचायत स्तर पर अड़तीस लाख सात सौ के करीब नुमाइन्दे चुने जाते हैं । उपरी तौर पर संसदीय लोकतंत्र की यह समझ सही लग सकती है जिसमें चुनाव लड़ने का रास्ता हर किसी के लिये खुला होता है तो किसी नेता बाप का बेटा भी अगर चुनाव मैदन में हो तो वोट तो जनता को देना होता है । लेकिन संसद या विधानसभा का रास्ता इतना आसान है नहीं, जितना लगता है । राजनीति का महामृत्युंजय जाप सत्ता तक कैसे पहुंचाता है और इसके पीछे की बिसात देश की समूचे शाही तंत्र में किस तरह लोकतंत्र का मुलम्मा चढ़ा कर अपने आप को बचाती है, जरुरी है यह समझना।
किसी राजनीतिक दल से चुनावी टिकट की चाहत किसी को भी इसलिये लुभाती है क्योकि राजनीतिक दल के पास संगठन होता है य़ानी इतने लोग होते है जो वोटिग के दिन पोलिंग बूथ पर मौजूद रह कर हर जरुरी काम निपटा सकता है। और लोकसभा चुनाव में हर सीट पर कम से कम चार से पांच हजार का कैडर उम्मीदवार के पास होना ही चाहिये। कैडर इसलिये क्योंकि चुनाव के दिन इन चार से पांच हजार लोगों के सामने दूसरे राजनीतिक दल से सौदेबाजी करने का सबसे ज्यादा मौका होता है। इसलिये प्रतिबद्ध लोग चाहिये ही। किसी भी युवा को आज की तारीख में राजनीति में आने के लिये इस तरह प्रतिबद्द लोगों की फेरहिस्त बनाने में कम से कम दस साल जरुर लगेंगे। यानी जबतक दो आपसी विरोधियों को जनता बारी बारी से चुने और फिर एक ही थैले के चट्टे बट्टे के तौर पर ना देखे। लेकिन समाधान इससे भी नही होता। अब के दौर में पूंजी और मुनाफे के भरोसे सत्ता-राजनीति ने जिस तरह जनता से पल्ला झाडा है उसमें हर चुनावी क्षेत्र में पार्टियों के उम्मीदवार के ऐलान के साथ ही व्यापारी-उघोगपति-दलालपतियों की पोटलिया चुनावी मदद के नाम पर खुल जाती हैं। इसलिये राजनीतिक दल भी अब चुनाव की तारीख के ऐलान से पहले ही उम्मीदवार का ऐलान कर देते हैं, जिससे धन जुगाड़ने में कोई परेशानी ना हो और कौन कौन उनकी पार्टी और उम्मीदवार के नाम पर पोटली खोल सकता है, यह साफ होने लगे।
फिर राजनीतिक दल उन्हीं सौदेबाजों के लिये नीतियां गढने और सत्ता की लकीर बनाने में जुटते हैं। चुनावी फंड का व्यापारी-उघोगपति-दलालपतियों से आना और उसे आम वोटरों में लुटने का खेल चुनावी साइकिल की तरह चलता है। जिसे आज की तारीख में देखे तो यह अभी से शुरु हो चुका है। इसमें सत्ताधारियों के उम्मीदवारों को लाभ भी मिलने लगता हैं क्योकि चुनाव की तारीख के ऐलान के बाद से चुनाव आचार संहिता लागू होती है तो उससे पहले ही जीत का चक्रव्यू का सत्ता द्वारा बनाने का खेल चलने लगता है । अगर जनता की भावना सत्ताधारी के खिलाफ तो विपक्षी दल के उम्मीदवार के वारे न्यारे होने लगते हैं। क्योकि राजनीति के उगते सूरज को पूंजी की पोटली से सलाम करने वालो की होड़ लगती है। चूंकि सत्ता संम्भालते वक्त राज्य के लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पाठ यही होता है कि किसी भी तरह उसकी सत्ता बरकरार रहे। और सत्ता पाने का तरीका पूंजी और मुनाफे की थ्योरी की गलियों से होकर निकलता है, तो समूची कवायद उसी को लेकर होती है।
असल में लोकतंत्र की जागरुकता मुनाफे के इर्द-गिर्द किस तरह जा टिकी है, यह बाजार के मुनाफे की समझ और जातियों की राजनीतिक जागरुकता से भी उभरा है। मान जाता था पहले गांव के लोगों में राजनीतिक जागरुकता नहीं थी तो वह अपना वोट बेच देते थे। लेकिन आधुनिक दौर में वोट नही सरकार और सत्ता बिकती है । देश में कौन सी नीति किस औघोगिक घराने को लाभ पहुंचा सकती है, शुरुआती समझ यही से बढ़ी। लेकिन लोकतंत्र में हर किसी की बराबरी की भागेदारी ने हर तबके-जाति में अब उस सौदेबाजी के लंबे मुनाफे के तंत्र को विकसित कर दिया, जिसमें मामला सिर्फ एक बार वोट बेचने से नही चलता बल्कि पांच साल तक सत्ता को दुहने का खेल चलता रहता है। यानी चुनावी लोकतंत्र का मतलब चंद लोगो के लिये नीतियों के जरीये मुनाफे का ब्लैंक चैक है तो एक बडे वोट बैंक के लिये पांच साल तक का रोजगार है।
यानी राजनीतिक चुनाव का एक ऐसा तंत्र समाज के मिजाज में ही बना दिया गया है, जिसमें बिछी बिसात पर पांसे तो कोई भी फैंक सकता है लेकिन पांसा उसी का चलता है जिसके हाथ से ज्यादा आस्तीन में पांसे हो। लोकतंत्र के इस चुनावी खेल में सहमति-असहमति मायने नहीं रखती। हर स्तम्भ के लिये खुद को सत्ता की तर्ज पर बनाये और टिकाये रखते हुये अपनी जरुरत बताने का खेल सबसे ज्यादा होता है। आर्थिक नीतियों के फेल होने से लेकर देश की सुरक्षा में लगातार सेंध लगने पर आम जनता के निशाने पर राज्य और राजनीति आयी तो उसे बचाने के लिये न्यायपालिका और मीडिया ही सक्रिय हुआ। कड़े कानून के जरीये काम ना करने की मानसिकता का ढाप लिया गया । शहीदों के परिवारों को नेताओं के हाथों सम्मान दिलवाने के कार्यक्रम के जरीये जनता के आक्रोष को थामने का काम मीडिया ने ही किया। इसको सफल बनाने में औघोगिक घरानों ने कोई कसर नहीं छोडी । विज्ञापन और प्रयोजक खूब नजर आये । आर्थिक नीतियों तले करीब एक करोड़ लोगों के रोजगार जा चुके हैं, लेकिन विधायिका और कार्यपालिका ने न्यायपालिका का आसरा लेकर बेलआउट की व्यूहरचना कुछ इस तरह की, जिससे बाजार व्यवस्था चाहे ढह रही हो लेकिन कमजोर ना दिखे । इसी के प्रयास में कम होते मुनाफे को घाटा और घाटे को बेलआउट में बदलने की थ्योरी परोसी जा रही है।
लेकिन जहां दो जून की रोटी रोजगार छिनने से जा जुड़ी है, उसे विश्वव्यापी मंदी से जोड़कर आंख फेरने की राज्यनीति भी बखूबी चल रही है । इसलिये कोई एक स्तम्भ अगर जनता के निशाने पर आता है तो बाकी सक्रिय होकर उसे बचाते है, जिससे लोतकंत्र का खेल चलता रहे । इन परिस्थितियों में विकल्प का सवाल महज सवाल बनकर ही क्यों रहेगा, इसका जबाब इसी गोरखधंधे में छिपा है कि सभी के लिये एक बराबर खेलने का मैदान नहीं है। लोकतंत्र हर किसी के बराबरी का नारा तो लगाता है लेकिन गैरबराबरी का अनूठा चक्रव्यूह बनाकर। चक्रव्यू का मतलब लोकतंत्र के संसदीय विकल्प को खारिज करते हुये हर किसी को संसदीय राजनीति के घेरे में लाकर हमाम में खड़ा बतलाना से कहीं ज्यादा है । इसीलिये ओबामा के जरीये सपना जगाने की राजनीति तो लोकतंत्र कर सकता है लेकिन कोई ओबामा इस चक्रव्यू को तोड़ पाये इसकी इजाजत संसदीय राजनीति नहीं देती। इसीलिये ओबामा का मतलब या उसको परिभाषित करने का मंत्र महज युवा होने पर आ टिकता है। जो नेताओ की विरासत में राहुल-प्रियंका से लेकर मोदी-मायावती पर ही जा टिकता है। यह राजनीति भूल जाती है कि राष्ट्रपति बनने से पहले तक ओबामा अपनी पढाई के लिये लिये गये कर्ज तक को नहीं चुका पाया था । जो जीने की जद्दोजहद में ही घर-परिवार-समाज-देश हर त्रासदी से रुबरु हो रहा था। और जब दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के लोगों पर संकट गहराया तो उन्हे ओबामा के संघर्ष में अपनी जीत नजर आयी।
लेकिन भारत की संसदीय राजनीति तो अभी भी दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र होने का तमगा छाती में लगाये हुये है इसलिये हर विकल्प का संघर्ष उस संसदीय राजनीति के खिलाफ जायेगा जिसकी चादर में लोकतंत्र को लपेट कर सत्ता बरकरार रखी जा रही है।
लेकिन इस राजनीतिक लोकतंत्र का विस्तार पंचायत, गांव और जिला स्तर पर चुने जाने वाले करीब अड़तीस लाख सदस्यों तक भी है । संयोग से यह भी देश की जनसंख्या का एक फीसदी नहीं है। लेकिन लोकतंत्र के तमगे का खेल यहीं से शुरु होता है। चुने हुये नुमाइन्दे के घेरे में पहुंचते ही ऐसे विशेषाधिकार मिलते हैं, जो कानून और सुविधा का दायरा एकदम अलग बना देते हैं। इस दायरे में जो एक बार पहुंच गया वह कैसे इस दायरे से अलग हो सकता है। इसलिये कहा भी जाता है कि डाक्टर-इंजीनियर-उघोगपति से लेकर बेरोजगार-अशिक्षित-दलित-पिछड़ा हर कोई राजनेता बन सकता है, लेकिन जो इस राजनीति के घेरे में एकबार आ गया वह कुछ और नहीं कर सकता।
जाहिर है लोकतंत्र का पहला पाठ यहीं से शुरु होता है, जिसमें विरासत के जरीये पीढि़यों को सहजने और घर की चारदीवारी में सुरक्षा-सुविधा का ऐसा ताना बाना बुना जाता है जो इस एहसास को खत्म करता है कि सत्ता का मतलब देश और सौ करोड़ लोग हैं। लोकसभा के 545 सदस्यों में से मौजूदा वक्त में पन्द्रह फीसदी सदस्य यानी करीब 80 सदस्य ऐसे हैं, जिनकी पहचान किसी बड़े नेता के बेटे-बेटी या पत्नी-बहू के तौर पर है। संबंधों की फेरहीस्त में संयोग से उन्हीं नेताओं के परिवार के सदस्य अगली कतार में हैं, जिन्होने वाकई सड़क से संसद का रास्ता तय किया। जिन्होंने गांव-खेडे की पगड्डिया समझीं। जिन्होंने देश के मर्म को अपनी धमनियों में दौड़ते देखा।
इन नेताओं में से कुछ नेताओं के बच्चे जब बाप की राजनीति के भरोसे सत्ता के दायरे में आ गये तो समझ पैदा हुई लेकिन कईयों ने उस राजनीति को थामा, जिसमें अपना पेट -अपनी जेब के अलावा कुछ समझना मुश्किल हो । अपने अपने घेरे में लोकतंत्र की इस राजशाही का नमूना देखे- गांधी-नेहरु परिवार की नयी पीढी राहुल गांधी, कश्मीर में अब्दु्ल्ला परिवार की नयी विरासत उमर अबदुल्ला । अकाली दल में बादल परिवार के सुखबीर बादल, समाजवादी नेता मुलायम के पुत्र अखिलेश यादव, मराठा नेता शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले । द्रमुक नेता करुणानिधि का बेटा स्टालिन और बेटी कोनीमाझी, हिन्दुओं की सरमायेदार होने का ऐलान करने वाली बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह । जनसंघ के जमाने से साईकिल और पैदल लोगों के बीच राजनीति करते हुये देश को अयोध्या की घुट्टी पिलाने वाले कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह । जेपी आंदोलन से निकले लालू यादव की पत्नी राबडी देवी । बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार, हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी रीता बहुगुणा। जसवंत सिंह, मुरली देवडा, पायलट,सिधिया, हुड्डा,शीला दीक्षित सरीखे बडे नेताओं की लंबी फेरहिस्त है जो अपने बच्चों के लिये सत्ता का रास्ता साफ करती हैं।
बाला साहेब ठाकरे के राजनीतिक प्रयोग राजशाही अंदाज के विकल्प के तौर पर उभरे लेकिन लोकतंत्र के संसदीय मिजाज ने उन्हें भी अपनी राजनीतिक विरासत बेटे उद्दभ ठाकरे के ही नाम करनी पड़ी। लोकतंत्र की यह समझ पंचायत स्तर तक पहुंचते पहुंचते कैसे एक वर्ग में तब्दील हो जाती है इसका एहसास इसी से हो सकता है कि पिछले दो दशक में गांव-पंचायत-जिले स्तर पर नुमाइन्दे चुने गये उसमें करीब बीस लाख परिवार ऐसे हैं, जिनकी विरासत ही राजनीति को थामे हुये है।
दरअसल, तीन स्तरीय संसदीय राजनीति में पंचायत स्तर पर अड़तीस लाख सात सौ के करीब नुमाइन्दे चुने जाते हैं । उपरी तौर पर संसदीय लोकतंत्र की यह समझ सही लग सकती है जिसमें चुनाव लड़ने का रास्ता हर किसी के लिये खुला होता है तो किसी नेता बाप का बेटा भी अगर चुनाव मैदन में हो तो वोट तो जनता को देना होता है । लेकिन संसद या विधानसभा का रास्ता इतना आसान है नहीं, जितना लगता है । राजनीति का महामृत्युंजय जाप सत्ता तक कैसे पहुंचाता है और इसके पीछे की बिसात देश की समूचे शाही तंत्र में किस तरह लोकतंत्र का मुलम्मा चढ़ा कर अपने आप को बचाती है, जरुरी है यह समझना।
किसी राजनीतिक दल से चुनावी टिकट की चाहत किसी को भी इसलिये लुभाती है क्योकि राजनीतिक दल के पास संगठन होता है य़ानी इतने लोग होते है जो वोटिग के दिन पोलिंग बूथ पर मौजूद रह कर हर जरुरी काम निपटा सकता है। और लोकसभा चुनाव में हर सीट पर कम से कम चार से पांच हजार का कैडर उम्मीदवार के पास होना ही चाहिये। कैडर इसलिये क्योंकि चुनाव के दिन इन चार से पांच हजार लोगों के सामने दूसरे राजनीतिक दल से सौदेबाजी करने का सबसे ज्यादा मौका होता है। इसलिये प्रतिबद्ध लोग चाहिये ही। किसी भी युवा को आज की तारीख में राजनीति में आने के लिये इस तरह प्रतिबद्द लोगों की फेरहिस्त बनाने में कम से कम दस साल जरुर लगेंगे। यानी जबतक दो आपसी विरोधियों को जनता बारी बारी से चुने और फिर एक ही थैले के चट्टे बट्टे के तौर पर ना देखे। लेकिन समाधान इससे भी नही होता। अब के दौर में पूंजी और मुनाफे के भरोसे सत्ता-राजनीति ने जिस तरह जनता से पल्ला झाडा है उसमें हर चुनावी क्षेत्र में पार्टियों के उम्मीदवार के ऐलान के साथ ही व्यापारी-उघोगपति-दलालपतियों की पोटलिया चुनावी मदद के नाम पर खुल जाती हैं। इसलिये राजनीतिक दल भी अब चुनाव की तारीख के ऐलान से पहले ही उम्मीदवार का ऐलान कर देते हैं, जिससे धन जुगाड़ने में कोई परेशानी ना हो और कौन कौन उनकी पार्टी और उम्मीदवार के नाम पर पोटली खोल सकता है, यह साफ होने लगे।
फिर राजनीतिक दल उन्हीं सौदेबाजों के लिये नीतियां गढने और सत्ता की लकीर बनाने में जुटते हैं। चुनावी फंड का व्यापारी-उघोगपति-दलालपतियों से आना और उसे आम वोटरों में लुटने का खेल चुनावी साइकिल की तरह चलता है। जिसे आज की तारीख में देखे तो यह अभी से शुरु हो चुका है। इसमें सत्ताधारियों के उम्मीदवारों को लाभ भी मिलने लगता हैं क्योकि चुनाव की तारीख के ऐलान के बाद से चुनाव आचार संहिता लागू होती है तो उससे पहले ही जीत का चक्रव्यू का सत्ता द्वारा बनाने का खेल चलने लगता है । अगर जनता की भावना सत्ताधारी के खिलाफ तो विपक्षी दल के उम्मीदवार के वारे न्यारे होने लगते हैं। क्योकि राजनीति के उगते सूरज को पूंजी की पोटली से सलाम करने वालो की होड़ लगती है। चूंकि सत्ता संम्भालते वक्त राज्य के लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पाठ यही होता है कि किसी भी तरह उसकी सत्ता बरकरार रहे। और सत्ता पाने का तरीका पूंजी और मुनाफे की थ्योरी की गलियों से होकर निकलता है, तो समूची कवायद उसी को लेकर होती है।
असल में लोकतंत्र की जागरुकता मुनाफे के इर्द-गिर्द किस तरह जा टिकी है, यह बाजार के मुनाफे की समझ और जातियों की राजनीतिक जागरुकता से भी उभरा है। मान जाता था पहले गांव के लोगों में राजनीतिक जागरुकता नहीं थी तो वह अपना वोट बेच देते थे। लेकिन आधुनिक दौर में वोट नही सरकार और सत्ता बिकती है । देश में कौन सी नीति किस औघोगिक घराने को लाभ पहुंचा सकती है, शुरुआती समझ यही से बढ़ी। लेकिन लोकतंत्र में हर किसी की बराबरी की भागेदारी ने हर तबके-जाति में अब उस सौदेबाजी के लंबे मुनाफे के तंत्र को विकसित कर दिया, जिसमें मामला सिर्फ एक बार वोट बेचने से नही चलता बल्कि पांच साल तक सत्ता को दुहने का खेल चलता रहता है। यानी चुनावी लोकतंत्र का मतलब चंद लोगो के लिये नीतियों के जरीये मुनाफे का ब्लैंक चैक है तो एक बडे वोट बैंक के लिये पांच साल तक का रोजगार है।
यानी राजनीतिक चुनाव का एक ऐसा तंत्र समाज के मिजाज में ही बना दिया गया है, जिसमें बिछी बिसात पर पांसे तो कोई भी फैंक सकता है लेकिन पांसा उसी का चलता है जिसके हाथ से ज्यादा आस्तीन में पांसे हो। लोकतंत्र के इस चुनावी खेल में सहमति-असहमति मायने नहीं रखती। हर स्तम्भ के लिये खुद को सत्ता की तर्ज पर बनाये और टिकाये रखते हुये अपनी जरुरत बताने का खेल सबसे ज्यादा होता है। आर्थिक नीतियों के फेल होने से लेकर देश की सुरक्षा में लगातार सेंध लगने पर आम जनता के निशाने पर राज्य और राजनीति आयी तो उसे बचाने के लिये न्यायपालिका और मीडिया ही सक्रिय हुआ। कड़े कानून के जरीये काम ना करने की मानसिकता का ढाप लिया गया । शहीदों के परिवारों को नेताओं के हाथों सम्मान दिलवाने के कार्यक्रम के जरीये जनता के आक्रोष को थामने का काम मीडिया ने ही किया। इसको सफल बनाने में औघोगिक घरानों ने कोई कसर नहीं छोडी । विज्ञापन और प्रयोजक खूब नजर आये । आर्थिक नीतियों तले करीब एक करोड़ लोगों के रोजगार जा चुके हैं, लेकिन विधायिका और कार्यपालिका ने न्यायपालिका का आसरा लेकर बेलआउट की व्यूहरचना कुछ इस तरह की, जिससे बाजार व्यवस्था चाहे ढह रही हो लेकिन कमजोर ना दिखे । इसी के प्रयास में कम होते मुनाफे को घाटा और घाटे को बेलआउट में बदलने की थ्योरी परोसी जा रही है।
लेकिन जहां दो जून की रोटी रोजगार छिनने से जा जुड़ी है, उसे विश्वव्यापी मंदी से जोड़कर आंख फेरने की राज्यनीति भी बखूबी चल रही है । इसलिये कोई एक स्तम्भ अगर जनता के निशाने पर आता है तो बाकी सक्रिय होकर उसे बचाते है, जिससे लोतकंत्र का खेल चलता रहे । इन परिस्थितियों में विकल्प का सवाल महज सवाल बनकर ही क्यों रहेगा, इसका जबाब इसी गोरखधंधे में छिपा है कि सभी के लिये एक बराबर खेलने का मैदान नहीं है। लोकतंत्र हर किसी के बराबरी का नारा तो लगाता है लेकिन गैरबराबरी का अनूठा चक्रव्यूह बनाकर। चक्रव्यू का मतलब लोकतंत्र के संसदीय विकल्प को खारिज करते हुये हर किसी को संसदीय राजनीति के घेरे में लाकर हमाम में खड़ा बतलाना से कहीं ज्यादा है । इसीलिये ओबामा के जरीये सपना जगाने की राजनीति तो लोकतंत्र कर सकता है लेकिन कोई ओबामा इस चक्रव्यू को तोड़ पाये इसकी इजाजत संसदीय राजनीति नहीं देती। इसीलिये ओबामा का मतलब या उसको परिभाषित करने का मंत्र महज युवा होने पर आ टिकता है। जो नेताओ की विरासत में राहुल-प्रियंका से लेकर मोदी-मायावती पर ही जा टिकता है। यह राजनीति भूल जाती है कि राष्ट्रपति बनने से पहले तक ओबामा अपनी पढाई के लिये लिये गये कर्ज तक को नहीं चुका पाया था । जो जीने की जद्दोजहद में ही घर-परिवार-समाज-देश हर त्रासदी से रुबरु हो रहा था। और जब दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के लोगों पर संकट गहराया तो उन्हे ओबामा के संघर्ष में अपनी जीत नजर आयी।
लेकिन भारत की संसदीय राजनीति तो अभी भी दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र होने का तमगा छाती में लगाये हुये है इसलिये हर विकल्प का संघर्ष उस संसदीय राजनीति के खिलाफ जायेगा जिसकी चादर में लोकतंत्र को लपेट कर सत्ता बरकरार रखी जा रही है।
Sunday, February 1, 2009
'जो अपराधी नहीं होंगे मारे जाएंगे'
कौन है महारथी। प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक। अखबार या न्यूज़ चैनल। बहस करने वाले और कोई नहीं खुद मीडियाकर्मी हैं। हर जेहन में यही है कि खबरें जब अखबार के पन्ने से लेकर टीवी स्क्रीन तक से नदारद है तो ऐसी बहस के जरिये ही अपने होने का एहसास कर लिया जाये। लेकिन पत्रकार के लिये एहसास होता क्या है, संयोग से इसी दौर में खुलकर उभरा है। ताज-नरीमन हमला, आम लोगों का आक्रोष, पाकिस्तान से लेकर तालिबान और ओबामा।
इन सब के बीच लिट्टे के आखिरी गढ़ का खत्म होना। 27 जनवरी को जैसे ही श्रीलंकाई सेना के लिट्टे के हर गढ़ को ध्वस्त करने की खबर आयी दिमाग में कोलंबो से निकलने वाले 'द संडे' लीडर के संपादक का लेख दिमाग में रेंगने लगा। हर खबर से ज्यादा घाव किसी खबर ने दिया तो पत्रकार की ही खबर बनने की। पन्द्रह दिन पहले की ही तो बात है। लासांथा विक्रमातुंगा का आर्टिकल छपा । कोलंबो से निकलने वाले द संडे लीडर का संपादक लासांथा विक्रमातुंगा। जिसने अपनी हत्या से पहले आर्टिकल लिखा था। और हत्या के बाद छापने की दरखास्त करके मारा गया। बतौर पत्रकार तथ्यों को न छिपाना और श्रीलंका को पारदर्शी-धर्मनिरपेक्ष-उदार लोकतांत्रिक देश के तौर पर देखने की हिम्मत संपादक लासांथा ने दिखायी। जिसने अपने आर्टिकल के अंत में श्रीलंका को ठीक उसी तरह हर जाति-समुदाय-कौम के लिये देखा जैसे ओबामा ने अमेरिका को इसाई-यहुदी-मुस्लिम-हिन्दु...सभी के लिये कहा। लासांथा ने भी लिखा सिंहली-तमिल-मुस्लिम-नीची जाति-होमोसैक्सुअल-अंपग सबके लिये श्रीलंका है । लासांथा अपनी रिपोर्ट के जरीये दुनिया को बता रहे थे कि लिट्टे एक क्रूर आतंकवादी संगठन है लेकिन राज्य का आतंक उसके सामानांतर अपने ही नागरिकों की हत्या को लेकर कैसे चल रहा है।
दरअसल, लासांथा का विश्वास था कि सरकार के इशारे पर उसकी हत्या कर दी जायेगी । और हत्या के पीछे राष्ट्रपति महिन्द्रा का ही इशारा होगा । खुद संपादक लासांथा के मुताबिक 2005 में महिन्द्रा जब राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे, तब उसके साथ श्रीलंका के बेहतरी को लेकर चर्चा करते और राष्ट्पति बनने के बाद दर्जनों ऑफर राष्ट्रपति महिन्द्रा ने संपादक लासांथा को दिये। लेकिन लासांथा पत्रकार थे। सरकार का ऑफर ठुकराने के बाद जब मौत का ऑफर आने लगा तो भी अपने छोटे-छोटे बच्चों के मासूम चेहरों की खुशी से ज्यादा संपादक लासंथा को सरकार के आंतकित करते तरीको ने अंदर से हिलाया।
लासांथा यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे कि तमिल-सिंहली के नाम पर देश के नागरिकों को ही बम में बदलने का काम सरकार कर रही है। 8 जनवरी को लासांथा की हत्या कर दी गयी और ठीक वैसे ही जांच का आदेश राष्ट्रपति महिन्द्रा ने दिया जैसा मारे जाने से पहले संपादक लासांथा आर्टिकल में लिख गये थे। कमोवेश हालात तो भारत में भी वैसे ही हैं।
सवाल बटाला या ताज-नरीमन पर हमलों के बाद सरकार की लाचारी का नहीं है। सवाल समाज के भीतर पैदा होती लकीर का है । जिसमें सड़क पर खड़ा होकर कोई मुसलमान चिल्ला कर कह नहीं सकता कि वह मियां महमूद है और हिन्दुस्तानी है । दूसरी तरफ कोई बजरंगी-रामसेना का भगवा चोला ओढ़कर चिल्ला सकता है कि देश को बचाना है।
लगातार अखबारों में लिखा गया। न्यूज चैनलों में बहस में गूंजा...वे कितने टफ थे..बादाम, काजू खाकर मरने मारने के बीच का जीवन...खिलौने की तरह बंदूकों को हाथ में संभाले...समूची कमांडो फोर्स लगी तब.... सवाल है आतंकवादियों को महिमामंडित करने की जरुरत क्या है। आतंकवादियों के इरादे ने तो भारतीय समाज में कोई लकीर नहीं खिंची...मुंबई में जब गोलियां चलीं तो मुस्लिम भी मारे गये और हिन्दू भी । सिख और इसाई भी मारे गये । हमला तो भारत पर था और इसी इरादे से आतंकवादी आये थे लेकिन हमले के बाद किसने लकीर खींचनी शुरु की । अगर मियां महमूद को चिल्ला कर अपने हिन्दुस्तानी कहने की तरुरत नहीं है तो किसी को भगवा चोला ओढकर या गले में पट्टा लटकाकर देश बचाने का नारा लगाकर आतंकित करने की जरुरत क्या है। दोनों तनाव पैदा कर रहे है तो क्या प्रिंट और क्या इलेक्ट्रॉनिक....दोनो के लिये यही तथ्य हो चला है जैसे ही यह लिखा जायेगा या दिखाया जायेगा पढने या देखने वाला चौकेगा जरुर।
यकीन जानिये ताज-नरीमन के हमले ने देश को चौंकाया और 60 घंटे तक जो अखबारों के पन्नों पर लिखा जा रहा था और न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर दिखाया जा रहा था, उसे कवर करने गये मीडिया के शब्दो को अगर मिटा दें तो आपको अंदाज होगा आतंकवादी घटना थी क्या। घटना को समूचा देश कैमरों के जरिये देख रहा था । लेकिन कैमरापर्सन का नाम न्यूज चैनलों की चिल्लाती आवाज में कहीं नही उभरा । अखबार के जरिये भी पहली बार फोटोग्राफर को ही काम करने का मौका मिला लेकिन रिपोर्टरों और संपादकों की कलम ने तस्वीरों में ऐसा हरा और भगवा रंगा भरा जो तिरंगे को चुनौती देता ही लगा। जिन्हे नाज है कि 60 घंटे तक अखबार या न्यूज चैनलों ने मीडिया का मतलब देश को समझा दिया, अगर वही पत्रकार इमानदारी के साथ अखबार में बिना तस्वीरों के रिपोर्ट पढ़े और न्यूज चैनल के पत्रकार विजुअल की जगह अंधेरा कर एक बार सुन ले कि क्या रिपोर्टिंग की जा रही थी। और उसके बाद सिर्फ तस्वीरों को देखें तो काफी हकीकत सामने आ जायेगी।
शायद इसीलिये कसाब की तस्वीर खिचने वाले डिसूबा और वसंतु प्रफु का पत्रकारीय सम्मान कहीं नही हुआ । और 26 जनवरी को ऐलान हुये सरकार के सम्मान को ठुकराने की ताकत किसी पत्रकार ने नहीं दिखायी। यही वजह है कि अखबार की रिपोर्टिंग राहुल गांधी-आडवाणी से होते हुये संजय दत्त में देशभक्ति का सिरा ढूढ रही है और चैनल तालिबानी गीत में मशगूल है।
इसलिये मामला महारथियो का नहीं...अपराधियों का है...और 'जो अपराधी नहीं होंगे मारे जायेंगे।'
इन सब के बीच लिट्टे के आखिरी गढ़ का खत्म होना। 27 जनवरी को जैसे ही श्रीलंकाई सेना के लिट्टे के हर गढ़ को ध्वस्त करने की खबर आयी दिमाग में कोलंबो से निकलने वाले 'द संडे' लीडर के संपादक का लेख दिमाग में रेंगने लगा। हर खबर से ज्यादा घाव किसी खबर ने दिया तो पत्रकार की ही खबर बनने की। पन्द्रह दिन पहले की ही तो बात है। लासांथा विक्रमातुंगा का आर्टिकल छपा । कोलंबो से निकलने वाले द संडे लीडर का संपादक लासांथा विक्रमातुंगा। जिसने अपनी हत्या से पहले आर्टिकल लिखा था। और हत्या के बाद छापने की दरखास्त करके मारा गया। बतौर पत्रकार तथ्यों को न छिपाना और श्रीलंका को पारदर्शी-धर्मनिरपेक्ष-उदार लोकतांत्रिक देश के तौर पर देखने की हिम्मत संपादक लासांथा ने दिखायी। जिसने अपने आर्टिकल के अंत में श्रीलंका को ठीक उसी तरह हर जाति-समुदाय-कौम के लिये देखा जैसे ओबामा ने अमेरिका को इसाई-यहुदी-मुस्लिम-हिन्दु...
दरअसल, लासांथा का विश्वास था कि सरकार के इशारे पर उसकी हत्या कर दी जायेगी । और हत्या के पीछे राष्ट्रपति महिन्द्रा का ही इशारा होगा । खुद संपादक लासांथा के मुताबिक 2005 में महिन्द्रा जब राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे, तब उसके साथ श्रीलंका के बेहतरी को लेकर चर्चा करते और राष्ट्पति बनने के बाद दर्जनों ऑफर राष्ट्रपति महिन्द्रा ने संपादक लासांथा को दिये। लेकिन लासांथा पत्रकार थे। सरकार का ऑफर ठुकराने के बाद जब मौत का ऑफर आने लगा तो भी अपने छोटे-छोटे बच्चों के मासूम चेहरों की खुशी से ज्यादा संपादक लासंथा को सरकार के आंतकित करते तरीको ने अंदर से हिलाया।
लासांथा यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे कि तमिल-सिंहली के नाम पर देश के नागरिकों को ही बम में बदलने का काम सरकार कर रही है। 8 जनवरी को लासांथा की हत्या कर दी गयी और ठीक वैसे ही जांच का आदेश राष्ट्रपति महिन्द्रा ने दिया जैसा मारे जाने से पहले संपादक लासांथा आर्टिकल में लिख गये थे। कमोवेश हालात तो भारत में भी वैसे ही हैं।
सवाल बटाला या ताज-नरीमन पर हमलों के बाद सरकार की लाचारी का नहीं है। सवाल समाज के भीतर पैदा होती लकीर का है । जिसमें सड़क पर खड़ा होकर कोई मुसलमान चिल्ला कर कह नहीं सकता कि वह मियां महमूद है और हिन्दुस्तानी है । दूसरी तरफ कोई बजरंगी-रामसेना का भगवा चोला ओढ़कर चिल्ला सकता है कि देश को बचाना है।
लगातार अखबारों में लिखा गया। न्यूज चैनलों में बहस में गूंजा...वे कितने टफ थे..बादाम, काजू खाकर मरने मारने के बीच का जीवन...खिलौने की तरह बंदूकों को हाथ में संभाले...समूची कमांडो फोर्स लगी तब.... सवाल है आतंकवादियों को महिमामंडित करने की जरुरत क्या है। आतंकवादियों के इरादे ने तो भारतीय समाज में कोई लकीर नहीं खिंची...मुंबई में जब गोलियां चलीं तो मुस्लिम भी मारे गये और हिन्दू भी । सिख और इसाई भी मारे गये । हमला तो भारत पर था और इसी इरादे से आतंकवादी आये थे लेकिन हमले के बाद किसने लकीर खींचनी शुरु की । अगर मियां महमूद को चिल्ला कर अपने हिन्दुस्तानी कहने की तरुरत नहीं है तो किसी को भगवा चोला ओढकर या गले में पट्टा लटकाकर देश बचाने का नारा लगाकर आतंकित करने की जरुरत क्या है। दोनों तनाव पैदा कर रहे है तो क्या प्रिंट और क्या इलेक्ट्रॉनिक....दोनो के लिये यही तथ्य हो चला है जैसे ही यह लिखा जायेगा या दिखाया जायेगा पढने या देखने वाला चौकेगा जरुर।
यकीन जानिये ताज-नरीमन के हमले ने देश को चौंकाया और 60 घंटे तक जो अखबारों के पन्नों पर लिखा जा रहा था और न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर दिखाया जा रहा था, उसे कवर करने गये मीडिया के शब्दो को अगर मिटा दें तो आपको अंदाज होगा आतंकवादी घटना थी क्या। घटना को समूचा देश कैमरों के जरिये देख रहा था । लेकिन कैमरापर्सन का नाम न्यूज चैनलों की चिल्लाती आवाज में कहीं नही उभरा । अखबार के जरिये भी पहली बार फोटोग्राफर को ही काम करने का मौका मिला लेकिन रिपोर्टरों और संपादकों की कलम ने तस्वीरों में ऐसा हरा और भगवा रंगा भरा जो तिरंगे को चुनौती देता ही लगा। जिन्हे नाज है कि 60 घंटे तक अखबार या न्यूज चैनलों ने मीडिया का मतलब देश को समझा दिया, अगर वही पत्रकार इमानदारी के साथ अखबार में बिना तस्वीरों के रिपोर्ट पढ़े और न्यूज चैनल के पत्रकार विजुअल की जगह अंधेरा कर एक बार सुन ले कि क्या रिपोर्टिंग की जा रही थी। और उसके बाद सिर्फ तस्वीरों को देखें तो काफी हकीकत सामने आ जायेगी।
शायद इसीलिये कसाब की तस्वीर खिचने वाले डिसूबा और वसंतु प्रफु का पत्रकारीय सम्मान कहीं नही हुआ । और 26 जनवरी को ऐलान हुये सरकार के सम्मान को ठुकराने की ताकत किसी पत्रकार ने नहीं दिखायी। यही वजह है कि अखबार की रिपोर्टिंग राहुल गांधी-आडवाणी से होते हुये संजय दत्त में देशभक्ति का सिरा ढूढ रही है और चैनल तालिबानी गीत में मशगूल है।
इसलिये मामला महारथियो का नहीं...अपराधियों का है...और 'जो अपराधी नहीं होंगे मारे जायेंगे।'
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