Wednesday, September 24, 2008
जामियानगर का आतंक और बाटला हाऊस की तीसरी मंजिल !
दरवाजे पर टक-टक की आवाज होती है। कौन है..अंदर से एक आवाज आती है। बाहर दरवाजा खटखटाने वाला शख्स कहता है मै वोडाफोन से आया हूं। दरवाजा खुलता है । आपसी बातचीत शुरु होती है। जी कहिए...मै वोडाफोन से आया हूं..आपने एक और सिम लेने को कहा था। अंदर वाला शख्स कहता है..जी मैने तो ऐसा कुछ नहीं कहा था। तो आपके साथी ने कहा होगा। आपके साथ कोई और भी रहता है क्या, आप उससे पूछेगे....क्योंकि कंपनी ने मुझे पता तो यहीं का दिया है। अंदर वाला शख्स अपने साथी को आवाज दे कर पूछता है...वोडाफोन वाले को तुमने बुलाया है..कुछ चाहिये । नहीं, मैंने तो कुछ नहीं मंगाया था...यह कहते कहते एक दूसरा शख्स भी दरवाजे तक आ पहुंचता है। लेकिन आ ही गये हो तो कोई नयी स्कीम है तो बता दो जनाब...यह कहते हुये दूसरा शख्स पूछता है...आपको एड्रेस कहां का दिया गया है...दिखाइये। कमीज और टाई लगाया वोडाफोन वाला शख्स एक कागज निकाल कर दिखाता है ।..हां,एड्रेस तो यहीं का है लेकिन जनाब हो सकता है इस बिल्डिंग में रहने वाले किसी और जनाब ने आपको बुलाया हो। बिल्डिंग में छत्तीस लोग रहते है आप पता कीजिये जरुर कोई होगा । वोडाफोन कंपनी से आया शख्स कहता है...हो सकता है लेकिन पहली मंजिल वाले ने मुझे ऊपर भेज दिया था कि तीसरी मंजिल पर जाइये। वहीं पर कुछ लड़के रहते हैं, जो मोबाइल और कम्यूटर रखते है...खैर मै नीचे देखता हूं आप मुझे एक गिलास पानी पिलायेगे । अरे बिलकुल जनाब..आप अंदर बैठिये । दोनों लडके अंदर जाते है..इसी बीच वोडाफोन से आया शक्स मोबाइल से किसी को फोन करता है और बहुत ही छोटी सी जानकारी देता है...पानी लेकर आने वाले शख्स के पहुंचने से पहले ही बात पूरी कर लेता है। पानी आता है तो पानी पी कर यह कहते हुये जाता है कि वोडाफोन का कोई आइटम चाहिये तो बता दीजिएगा। चलता हूं.....दरवाजा बंद होता है। लेकिन पांच से सात मिनट के भीतर ही दरवाजे पर फिर टक टक होती है। और इस बार बाहर से कोई जोर जोर से खटखटाते हुये सीधे कहता है ...अबे खोल...खोलता हे कि नहीं ..खोल दरवाजा । अंदर से भी उसी अंदाज में आवाज आती है...अबे खोलता हूं..रुक काहे ठोके जा रहा है । दरवाजा खुलते ही गोलियो की आवाज कौघने लगती है और समूची बिल्डिग में अफरा तफरी । उसके बाद क्या हुआ यह सभी को मालूम है । क्योंकि उसके बाद उस कमरे से मरे लोगो को ही निकलते हमने देखा। एक पुलिस वाला भी खून से लथपथ देखा और टाई पहने उस एक शख्स को भी देखा जो खून से लथपथ पुलिसवाले को सहारा देकर ले जा रहा था । बाद में पता चला टाईवाला भी पुलिस का आदमी है । स्पेशल सेल का । और उसने जिसे मोबाइल से फोन किया खून से लथपथ इंसपेक्टर शर्मा थे..जो सिग्नल का इंतजार कर रहे थे। जिन्होंने दरवाजा खुलते ही गोलियां दागी । और उन लडकों ने भी गोलिया दागीं ।यह कहानी हो या हकीकत, लेकिन जामिया नगर के बाटला हाउस में जुमे के दिन जो हुआ उसका कच्चा-चिट्टा कुछ इसी तरह सोमवार को सामने आया । बाटला हाउस में जो हुआ उसपर कितनी खामोशी है और कितना खुलापन इसका एहसास जामियानगर में बाहर से अंदर जाते वक्त ही हुआ । वाकई दिल्ली के भीतर एक दूसरी दिल्ली बसी है जामियानगर में। कांलदीकुंज से जामियानगर की तरफ जाते वक्त पहली बार लगा जैसे कश्मीर के शोपांया के इलाके में जा रहे हैं। वहां हर कदम पर सेना का पहरा किसी को भी बेखौफ आंगे बढ़ने नहीं देता । यहां भी पुलिस के बैरीकेट और उसकी मौजूदगी हर सहम कर चलते शख्स को रोक कर पूछताछ करने से नही चूकती। लेकिन घाटी सेना की मौजूदगी को लेकर अभ्यस्त है, जबकि जामिया नगर की पहचान बेखौफ आवाजाही की है। सुबह हो या रात, लोगो की आवाजाही रात के अंधेरे को भी घना नहीं होने देती । वहां पर दिन में घुमने-टहलने के दौर में खाकी वर्दी की मौजूदगी ने पहली बार उस जामिया की पहचान को तोड़ दिया है, जो दिल्ली के भीतर किसी छोटे शहर की महक देती रही है। नयी दिल्ली में कहीं मुस्लिम की पैठ सबसे ज्यादा है तो जामिया नगर में ही है । जामिया यूनिवर्सिटी का मोह अगर पढ़ने के लिये युवाओं को यहां तक पहुचा देता है तो छोटे छोटे शहर में बढ़ते बाजार की वजह से बेरोजगार हुनरमंदो का भी सराय यही जामियानगर है। जामिया यूनिवर्सिटी से जामिया नगर में घुसते हुये यह एहसास तो साफ छलका कि बाटला की घटना ने हर निगाह में शक पैदा कर दिया है। कोई कुछ कहता नहीं । पूछने पर हिकारत की नजर या फिर खाकी वर्दी को दिल्ली का सच मान कर चुप रहने की हिदायत हर नजर देती है। आम लोग और खाकी के बीच कितनी दूरी है या राज्य और जनता के बीच संवाद कैसे बंद होता है उसका एहसास जामिया नगर में हर क्षण होता है। क्योंकि यहां कोई चाह कर भी अकेले अपने बूते रह नहीं सकता या कहे जी नहीं सकता।जामिया नगर में लोग अपने गांव या छोटे शहरो से कट कर नहीं पहुंचते बल्कि जड़ों को लेकर यहां पहचते हैं। इसलिये कोई ऐसा है ही नहीं जो दिल्ली की भागम-भाग में खो कर अकेलेपन में जी रहा हो । इसलिये बाटला को लेकर जामिया नगर के एक छोर से दूसरे छोर तक किस्से-कहानी अनेक है, लेकिन सवाल कमोवेश एक से है । जामिया के भीतर जैसे जैसे आप घुसते जाते है खाकी वर्दी कम होती हुए गायब होने लगती है । और लोगो की निगाहो में बसा शक भी धूमिल हो जाता है। बाटला में रहने वाले अगर जुमे यानी शुक्रवार के दिन बाटला की घटना को सिलसिलेवार बताते है तो किसी चक्रव्यू की तरह बसे जामिया नगर में घुसते हुये कई सवाल खड़े होते चले जाते है जिनका ताल्लुक बाटला या जामियानगर से नहीं बल्कि उन शहरो से होता है जहां पलायन हो रहा है। और दिल्ली आने के लिये लोग मजबूर हैं। आजमगढ में सरायमीर भी है और मुबारकपुर भी। आरोपी अबु बशर तो सरायमीर का है, लेकिन मोहम्मद आफताब मुबारकपुर का है। अस्सी के दशक तक इनके परिवार की उगलियां बनारसी साड़ी को कढाई के जरीये एक नयी पहचान देती थी । नब्बे के दशक में यह पहचान सस्ती या नकली बनारसी साडियों के नाम पर मिलने लगी और पिछले एक दशक में मुबारकपुर छोड जामिया में बेहतरीन चाय बनाने की पहचान मिली हुई है। मोहम्मद अफताब का सवाल सीधा है मशीन से तो हमारी हुनरमंदी मात खा गयी लेकिन देश के नये हालातो में क्या जिन्दगी मात खायेगी। वहीं कैफी आजमी के गांव मैहजीन के मोहम्मद आसिफ होटल मैनेजमेंट की पढाई कर रहा है। जायके के शौकिन आसिफ को शारजहा में काम मिल रहा था लेकिन पढ़ने और अपने मुल्क की चाहत में आसिफ मा-बाप के कहने पर भी शारजहां नही गया, जहा मोटी कमायी होती। अब उसका सवाल है..मै कहां लौटूं । चाहता हूं एड्रेस में मुल्क का नाम इंडिया लिखा रहे। लेकिन यहां तो मोहल्ले दर मोहल्ले को ही मुल्क का नहीं माना जा रहा। पिछले 72 घंटो से हर दिन की तरह रात दस बजे लौटता हूं तो पुलिस घर तक साथ आती है। सामान टटोलती है फिर कुछ भी सवाल पूछती है, जिसका जबाब टालने पर अंदर करने की धमकी देती है। आसिफ तल्खी के साथ कहता है कि सवाल भी सुन लीजिये । बिरयानी बनानी आती है तो बम बनाना भी आता होगा। हमें बिरयानी खिलाओगे या बम मारोगे । चूडियां बेचने वाले अखलाख का सवाल कहीं ज्यादा त्रासदी भरा है। अखलाख कम्यूटर साइंस का विघार्थी है । फिरोजपुर का होने की वजह से चूडियो के धंधे से भी जुड़ा है । थोक में चूडियां लाता है और फुटकर विक्रेताओं को बेच देता है । संयोग से चूडिया लेकर वह रविवार के दिन जामियानगर पहुंचा तो सामान देखने के बाद पुलिस को जब उसके कम्पयूटर साइंस की पढ़ाई करने के जानकारी मिली तो पहला सवाल था बाटला की घटना जानने के बाद भी उसने लौटने की हिम्मत कैसे की। तीन घंटे तक पुलिस की निगाह के सामने रहने के दौरान आसिफ की सोलह दर्जन चूडिया टूटीं । मोबाइल के सभी मैसेज को पुलिस ने पढ़ा। घर में रखे कम्पयूटर और टेक्नॉलॉजी के सारे सामान पुलिस ने जांच के लिये अपने पास रख लिये लेकिन जब पता चला कि आसिफ के चाचा कांग्रेस से जुडे नेता है और राहुल गांधी की उत्तरप्रदेश यात्रा को सफल बनाने में लगातार जुटे रहे तो आनन-फानन में आसिफ को छोड दिया गया।बाटला की घटना पर खामोश रहते हुये आसिफ ने यह जरुर कहा कि दिल्ली और फिरोजपुर की दूरी इस घटना ने जरुर बढा दी है । जामियानगर में सिर्फ उत्तर प्रदेश से ही नहीं बिहार-बंगाल-आंध्र प्रदेश- महाराष्ट्र से लेकर कश्मीर तक के लोग हैं। जो अपने अपने गांव-शहरो की मुश्किलात से जुझने के लिये दिल्ली पहुंचे हैं। पुरानी दिल्ली में कभी भी कोई भी खाकी वर्दी में उन्हे धमका सकता है लेकिन जामिया नगर में खाकी धमकी से उन्हे राहत है। लेकिन नये हालात में नया ठिकाना क्या रखें यह सवाल गुटके की दुकान चलाने वाले खालिद ने भी पूछी और बेकरी के मालिक रजा खान ने भी। करीब पांच घंटों के दौरान जब कोई ऐसा शख्स नहीं मिला जो बाटला के सच को बिना सवाल के कहे तो लौटते हुये दोबारा बाटला हाउस पहुचा और देखा पुलिस का जमघट बढ़ गया है क्योंकि मारे गये आरोपी आंतकवादियों के शव यहां लाए जाने हैं। संयोग से वही शख्स दोबारा सामने आ गया जो सुबह मिल कर उस दिन की घटना के मिनट्स की जानकारी दे रहा था, इस बार बिना पूछे ही उस शख्स ने मुझे देखकर मुझसे कहना शुरु कर दिया , कैसे कैसे लडके दहशतगर्दी फैला रहे हैं। ब्लास्ट कर दिया और खुद खुशियां मना रहे थे। खुदा इन्हें कभी माफ नहीं करेगा। मै कोई सवाल करता, इससे पहले ही वह एक सांस में यह कहकर चल दिया । मै भौचक था , यह शख्स महज चार घंटो में बदल गया। क्या वाकई इनपर भरोसा नहीं किया जा सकता है...यह सोच कर मैं जैसे ही मुड़ा.. मैंने अपने पीछे पुलिसकर्मियो की टोली को खड़े पाया । अब सवाल मेरे सामने था ....जामियानगर का सच बाटला से निकल कर लोगो के जहन में पैदा होते अविश्वास के इस खौफ और आंतक का तो नहीं है। बांटती राजनीति और संवाद खत्म करती पुलिस की सफलता कहीं आंतकवाद के खिलाफ एक नये आंतक को तो नही परोस रही जो बाटला से कहीं आगे निकल चुकी है। ऐसे में इसे पाटेगा कौन...यह सवाल अनसुलझा है।
Thursday, September 18, 2008
बंगाल के मरते किसानों को नहीं ढो पायेगी नैनो !
बंगाल का नया संकट बहुसंख्य तबके की राजनीति है,जो एक वर्ग के मुनाफे के बीच पिसने वाली हो चली है। जिस औघोगिकरण को लेकर बुद्ददेव को विकास का खांचा दिख रहा है, उसी वामपंथ ने एक वक्त औघोगिक विकास की खिंची लकीर को मिटाने में समूची ऊर्जा लगा दी थी। लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज अब लगाया जा सकता है। वाम राजनीति की अर्थव्यवस्था की वजह से जूट उघोग ठप हो चुका है। जो उघोग लगे उनमें ज्यादातर बंद हो गए हैं। इसी वजह से 40 हजार एकड़ जमीन इन ठप पड़े उघोगों की चारदीवारी में अभी भी है। यह जमीन दुबारा उघोगों को देने के बदले व्यवसायिक बाजार औऱ रिहायशी इलाको में तब्दील हो रही है। चूंकि बीते दो दशकों में बंगाल के शहर भी फैले हैं तो भू-माफिया और बिल्डरो की नजर इस जमीन पर है।
वाम सरकार का सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके पास आज की तारिख में कोइ उघोग नही है, जहां उत्पादन हो। हिन्दुस्तान मोटर का उत्पादन एक वक्त पूरी तरह ठप हो गया था। हाल में उसे शुरु किया गया लेकिन वहां मैनुफेक्चरिग का काम खानापूर्ति जैसा ही है। डाबर की सबसे बडी इंडस्ट्री हुबली में थी। वहां ताला लग चुका है। एक वक्त था हैवी इलेक्ट्रिकल की इंडिस्ट्री बंगाल में थी । फिलिप्स का कारखाना बंगाल में था। वह भी बंद हो गए । कोलकत्ता शहर में ऊषा का कारखाना था । जहां लाकआउट हुआ और अब उस जमीन पर देश का सबसे बडा मॉल खुल चुका है । जो मध्यम तबके के आकर्षण का नया केन्द्र बन चुका है । लेकिन नयी परिस्थितयों में मॉल आकर्षण का केन्द्र है तो मैनुफेक्तरिग युनिट रोजगार की जरुरत है। बंगाल की राजनीति नैनो को लेकर इसलिये भी हिचकोले खा रही है और किसान की राजनीति को हाशिये पर ले जाने को तैयार है क्योंकि उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में सर्विस सेक्टर में तो खूब पैसा लगा है। हर राज्य में आईटी सेक्टर सरीखे यूनिट जोर पकड़े हुये हैं लेकिन मैनुफेक्चरिंग यूनिट नैनो के जरिए टाटा पहली बार लेकर आया है जो बंगाल की राजनीति को नयी दिशा भी दे रहा है। नये मिजाज ने ही चार दशक पुरानी वाम राजनीति की दिशा भी बदल दी है।
नयी जमीन जो उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये वह इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है, जो लोगो के रहते और खेती करते वक्त कभी नही किया गया है। बिजली के खम्बे और पानी की सप्लायी लाइन तक ग्रामीण इलाकों में गायब है लेकिन विकास की लकीर यानी उघोगों के आते ही खिंचने लग रही है। यहां सवाल उन आर्थिक नीतियो का भी है,जो वाम सरकार उठा रही है । बंगाल में 90 फीसद खेती योग्य जमीन इतनी उपजाऊ है कि उसे राज्य से कोई मदद की दरकार नहीं है । यानी निर्धारित एक से तीन फसल को जो जमीन दे सकती है, उसमें कोई अतिरिक्त इन्पफ्रास्ट्रक्चर नही चाहिये । खेत की उपज बडे बाजार तक कैसे पहुंचे या दुसरे राज्यो में अन्न कैसे व्यवस्थित तरीके से व्यापार का हिस्सा बनाया जाये, जिससे किसानों को उचित मूल्य मिल सके इसका भी कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। जाहिर है किसान उपजाता है और बिचौलिए अपने बूते बांग्लादेश में व्यापार के नाम पर अन्न की स्मगलिंग करते है,जो सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार हो चला है।
जाहिर है नयी परिस्थितयों में यह सवाल अपने आप में एक बड़ा सवाल हो चला है कि किसान चेतना क्या साठ के दशक की तर्ज पर बंगाल में दोबारा खड़ी हो सकती है। हालांकि तब और अब की परिस्थितयां बिलकुल उलट हैं । कांग्रेस की जगह आज वामपंथी है। नक्सलवादियों की लकीर को ममता सरीखे प्रतिक्रियावादी पकड़ना चाह रहे हैं। वामपंथियो को उन नीतियो से परहेज नहीं, जिसमें यह अवधारणा बने कि खेती अब लाभदायक नहीं रही।
तो क्या अब यह माना जा सकता है कि 1964 से 1977 तक सीपीएम ने बंगाल की राजनीति में किसानों के आसरे जिस आंदोलन के माहौल को जन्म दिया और सत्ता में आने के बाद ज्योति बसु ने जिस तरह कैडर को ही सामाजिक सरोकार से जोड़ दिया,अब वह स्थितियां मायने नहीं रखती। क्योंकि ज्योति बसु ने 77 में भूमि सुधार की जो पहल की उसी का परिणाम भी रहा कि कैडर और समाज के बीच की दूरिया मिटीं। कैडर और किसान के बीच की लकीर मिटी। यानी उस दौर में जो नीतियां बनतीं, उसे लागू कराने में कैडर की हिस्सेदारी होती। हिस्सेदारी के दायरे में कैडर अपनी हैसियत के मुताबिक आता गया। जिसका जितना बडा घेरा होता उसकी हैसियत उतनी बड़ी होती जाती । कह सकते है ज्योति बसु ने सामुहिक जिम्मेदारी का एहसास पार्टी कैडर और सत्ता में पैदा किया। वजह भी यही है कि वाम राजनीति को तीस साल में कोई भेद ना सका ।
लेकिन क्या अब यह सवाल उठाया जा सकता है कि सीपीएम ने अगर चार दशक पहले भूमि सुधार की पहल की तो वह किसान चेतना का दबाव था । उस वक्त नक्सली नेता चारु मजूमदार ने नक्सलबाडी का जो खाका तैयार किया और जो संघर्ष सामने आया उसने सत्ता पर कब्जा करनेवाली शक्ति के तौर पर किसान चेतना को परखा । चूंकि उस दौर में किसान संघर्ष जमीन और फसल के लिये नहीं था, बल्कि राजसत्ता के लिये था । सीपीआई के टूटने के बाद इस नब्ज को सीपीएम ने पकड़ा और संसदीय राजनीति को किसान सरोकार में ढाल कर सत्ता तक पहुंचा। और तब से लेकर अभी भी गाहे-बगाहे सीपीएम यह कहने से नही चूकती कि संसदीय राजनीति तो उसके लिये क्रांति का वातावरण बनाने के लिये महज औजार है । लेकिन नयी परिस्थितयों में वाम राजनीति इस औजार के लिये जिस तरह अपने आधार को ही खारिज कर पूंजीवादी नारे को लगाने से नहीं चुक रही है, उसमें क्या यह माना जा सकता है कि किसान के संघर्ष का पैमाना भी मध्यम तबके की जरुरतों के ही दायरे में सिमट रहा है। और जो राजनीति 40 साल पहले किसान चेतना से शुरु हुई थी, वह 180 डिग्री में धुम कर मध्यम वर्ग की बाजार चेतना में बदल चुकी है। और बाजार की नैनो छोटा परिवार सुखी परिवार को तो गाड़ी का सुख दे देगी लेकिन नैनो इतना छोटी है कि वह बंगाल के मरते किसान को श्मशान घाट तक भी नहीं पहुंचा पायेगी। सवाल यही है जब किसान जागेगा तो बुद्ददेव उसे नैनो की सवारी सिखला चुके होगे या एक दूसरा नक्सलबाडी सामने आयेगा ।
वाम सरकार का सबसे बड़ा संकट यही है कि उसके पास आज की तारिख में कोइ उघोग नही है, जहां उत्पादन हो। हिन्दुस्तान मोटर का उत्पादन एक वक्त पूरी तरह ठप हो गया था। हाल में उसे शुरु किया गया लेकिन वहां मैनुफेक्चरिग का काम खानापूर्ति जैसा ही है। डाबर की सबसे बडी इंडस्ट्री हुबली में थी। वहां ताला लग चुका है। एक वक्त था हैवी इलेक्ट्रिकल की इंडिस्ट्री बंगाल में थी । फिलिप्स का कारखाना बंगाल में था। वह भी बंद हो गए । कोलकत्ता शहर में ऊषा का कारखाना था । जहां लाकआउट हुआ और अब उस जमीन पर देश का सबसे बडा मॉल खुल चुका है । जो मध्यम तबके के आकर्षण का नया केन्द्र बन चुका है । लेकिन नयी परिस्थितयों में मॉल आकर्षण का केन्द्र है तो मैनुफेक्तरिग युनिट रोजगार की जरुरत है। बंगाल की राजनीति नैनो को लेकर इसलिये भी हिचकोले खा रही है और किसान की राजनीति को हाशिये पर ले जाने को तैयार है क्योंकि उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में सर्विस सेक्टर में तो खूब पैसा लगा है। हर राज्य में आईटी सेक्टर सरीखे यूनिट जोर पकड़े हुये हैं लेकिन मैनुफेक्चरिंग यूनिट नैनो के जरिए टाटा पहली बार लेकर आया है जो बंगाल की राजनीति को नयी दिशा भी दे रहा है। नये मिजाज ने ही चार दशक पुरानी वाम राजनीति की दिशा भी बदल दी है।
नयी जमीन जो उघोगों को दी जा रही है, उसके लिये वह इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा किया जा रहा है, जो लोगो के रहते और खेती करते वक्त कभी नही किया गया है। बिजली के खम्बे और पानी की सप्लायी लाइन तक ग्रामीण इलाकों में गायब है लेकिन विकास की लकीर यानी उघोगों के आते ही खिंचने लग रही है। यहां सवाल उन आर्थिक नीतियो का भी है,जो वाम सरकार उठा रही है । बंगाल में 90 फीसद खेती योग्य जमीन इतनी उपजाऊ है कि उसे राज्य से कोई मदद की दरकार नहीं है । यानी निर्धारित एक से तीन फसल को जो जमीन दे सकती है, उसमें कोई अतिरिक्त इन्पफ्रास्ट्रक्चर नही चाहिये । खेत की उपज बडे बाजार तक कैसे पहुंचे या दुसरे राज्यो में अन्न कैसे व्यवस्थित तरीके से व्यापार का हिस्सा बनाया जाये, जिससे किसानों को उचित मूल्य मिल सके इसका भी कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है। जाहिर है किसान उपजाता है और बिचौलिए अपने बूते बांग्लादेश में व्यापार के नाम पर अन्न की स्मगलिंग करते है,जो सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार हो चला है।
जाहिर है नयी परिस्थितयों में यह सवाल अपने आप में एक बड़ा सवाल हो चला है कि किसान चेतना क्या साठ के दशक की तर्ज पर बंगाल में दोबारा खड़ी हो सकती है। हालांकि तब और अब की परिस्थितयां बिलकुल उलट हैं । कांग्रेस की जगह आज वामपंथी है। नक्सलवादियों की लकीर को ममता सरीखे प्रतिक्रियावादी पकड़ना चाह रहे हैं। वामपंथियो को उन नीतियो से परहेज नहीं, जिसमें यह अवधारणा बने कि खेती अब लाभदायक नहीं रही।
तो क्या अब यह माना जा सकता है कि 1964 से 1977 तक सीपीएम ने बंगाल की राजनीति में किसानों के आसरे जिस आंदोलन के माहौल को जन्म दिया और सत्ता में आने के बाद ज्योति बसु ने जिस तरह कैडर को ही सामाजिक सरोकार से जोड़ दिया,अब वह स्थितियां मायने नहीं रखती। क्योंकि ज्योति बसु ने 77 में भूमि सुधार की जो पहल की उसी का परिणाम भी रहा कि कैडर और समाज के बीच की दूरिया मिटीं। कैडर और किसान के बीच की लकीर मिटी। यानी उस दौर में जो नीतियां बनतीं, उसे लागू कराने में कैडर की हिस्सेदारी होती। हिस्सेदारी के दायरे में कैडर अपनी हैसियत के मुताबिक आता गया। जिसका जितना बडा घेरा होता उसकी हैसियत उतनी बड़ी होती जाती । कह सकते है ज्योति बसु ने सामुहिक जिम्मेदारी का एहसास पार्टी कैडर और सत्ता में पैदा किया। वजह भी यही है कि वाम राजनीति को तीस साल में कोई भेद ना सका ।
लेकिन क्या अब यह सवाल उठाया जा सकता है कि सीपीएम ने अगर चार दशक पहले भूमि सुधार की पहल की तो वह किसान चेतना का दबाव था । उस वक्त नक्सली नेता चारु मजूमदार ने नक्सलबाडी का जो खाका तैयार किया और जो संघर्ष सामने आया उसने सत्ता पर कब्जा करनेवाली शक्ति के तौर पर किसान चेतना को परखा । चूंकि उस दौर में किसान संघर्ष जमीन और फसल के लिये नहीं था, बल्कि राजसत्ता के लिये था । सीपीआई के टूटने के बाद इस नब्ज को सीपीएम ने पकड़ा और संसदीय राजनीति को किसान सरोकार में ढाल कर सत्ता तक पहुंचा। और तब से लेकर अभी भी गाहे-बगाहे सीपीएम यह कहने से नही चूकती कि संसदीय राजनीति तो उसके लिये क्रांति का वातावरण बनाने के लिये महज औजार है । लेकिन नयी परिस्थितयों में वाम राजनीति इस औजार के लिये जिस तरह अपने आधार को ही खारिज कर पूंजीवादी नारे को लगाने से नहीं चुक रही है, उसमें क्या यह माना जा सकता है कि किसान के संघर्ष का पैमाना भी मध्यम तबके की जरुरतों के ही दायरे में सिमट रहा है। और जो राजनीति 40 साल पहले किसान चेतना से शुरु हुई थी, वह 180 डिग्री में धुम कर मध्यम वर्ग की बाजार चेतना में बदल चुकी है। और बाजार की नैनो छोटा परिवार सुखी परिवार को तो गाड़ी का सुख दे देगी लेकिन नैनो इतना छोटी है कि वह बंगाल के मरते किसान को श्मशान घाट तक भी नहीं पहुंचा पायेगी। सवाल यही है जब किसान जागेगा तो बुद्ददेव उसे नैनो की सवारी सिखला चुके होगे या एक दूसरा नक्सलबाडी सामने आयेगा ।
Wednesday, September 17, 2008
नैनो ने बदल दी बंगाल की राजनीतिक जमीन !
" हमनें ज़मीन से जुड़ी ज़िन्दगी बचाने के लिये विरोध किया।" सिंगुर के कुछ किसानों से की गई बातचीत का यही लब्बोलुआब निकला, जो ममता के साथ हैं और पुलिस उन्हें गैरकानूनी तरीके से सिंगुर की घेराबंदी करने के आरोप में गिरफ्तार कर ले गयी । इस तेवर ने चार दशक पहले के नक्सलबाडी की याद दिला दी। उस वक्त विद्रोही किसानों ने गिरफ्तारी के बाद कहा था "हमने ताजा हवा में सांस लेने के लिये विद्रोह किया।"
उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाये जाने के बाद से यह पहला मौका आया है. जब विकास की लकीर को वही राजनीति खारिज कर रही है, जिसने अपनी राजनीति में इसे आगे बढ़ाने की वकालत की। बंगाल का राजनीति में पहला मौका है जब किसान-मजदूर उसी राजनीति में खारिज हो रहा है, जिसके आसरे राजनीति ने वाम को संसदीय दायरे में भी विकल्प की आस को बरकरार रखा। सिंगूर में टाटा के कार प्लांट और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के कैमिकल हब के खिलाफ किसान-मजदूर के साथ खडे होकर भी ना सिर्फ राजनीति की जा सकती है , बल्कि सत्ताधारी को भी पुरानी राजनीति पर लौटने को मजबूर किया जा सकता है, यह 1991 के बाद से पहली बार खुल कर नजर आया है। दरअसल, उदारवादी अर्थव्यवस्था के आसरे देश में जो विकास का ढांचा खडा किया जा रहा है, उसमें वर्ग विशेष का हित साधते हुये बहुसंख्यक तबके को भी लगातार तोड़ने का प्रयास हुआ है, जिससे समाज के भीतर यह संवाद लगातार बना रहे कि विकास सभी का हो रहा है। यानी बहुसंख्य तबके के भीतर भी कई खांचो को बनाने का प्रयास हुआ है।
सिंगुर में चार हजार लोगो को नौकरी मिली । इनमें एक हजार उन किसान परिवार के सदस्य हैं, जिन्होंने अपनी जमीन मुआवजा लेकर कार प्लांट के लिये दी । जाहिर है नंदीग्राम को लेकर भी सीपीएम ने शुरुआती दौर में यही सवाल खड़ा किया था कि करीब दस हजार लोगो को कैमिकल हब बनने से रोजगार मिल जायेगा । लेकिन सिंगुर में जमीन पर टिकी जिन्दगियों की तादाद दस हजार से ज्यादा है तो नंदीग्राम में पच्चीस हजार से ज्यादा। लेकिन तीस साल के वाम शासन ने संसदीय राजनीति को जिस तरह आत्मसात किया है, उसमें संघर्ष की ट्रेनिग में ही जंग लग चुका है ।
लेकिन सिंगुर के बाद बंगाल में राजनीति को लेकर यह कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनावी राजनीति में मध्य वर्गीय विकास मायने रखेगा या चार दशक पुरानी किसान की राजनीति सत्ता उलट-पलट सकती है। हालांकि, बंगाल में आंदोलन की राजनीति पहली बार संसदीय राजनीति से टकराने के लिए जिस तरह तैयार हो रही है, उसमें यह सवाल भी उठने लगा है कि खेतिहर जमीन पर उघोगों को लगाने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अलग अलग राज्यों में किसान-मजदूर-आदिवासियों का विरोध जिस तरह हो रहा है क्या वह विकास के बनते खांचे को तोड़ देगा या संसदीय राजनीति में यह वैकल्पिक राजनीति के साथ खड़ा होगा।
बंगाल में राजनीति के संकेत शुरु से ही सरोकार वाले रहे है। वजह भी यही है कि वामपंथी तीन दशको से सत्ता में है। लेकिन पिछले चार वर्षो में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नीतिगत फैसलो के तहत औघोगिक विकास को राज्य के लिये जरुरी बनाया और खेतीहर संकट पर खामोशी बरती। इसने कई सवाल खडे किये । सवाल उठा कि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के सहारे वाममोर्चा 30 साल से सत्ता पर काबिज है,वही जमीन पर पडा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसके संघर्ष का रास्ता कहां से निकलेगा । क्योंकि तीस साल के शासन में वामपंथियों ने ही किसानों को संघर्ष का पाठ पढ़ाया औऱ इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। फिलहाल राज्य में सवा करोड से ज्यादा किसान है । इसमें सीमांत किसान शामिल नहीं है। इसमे महज 56 लाख 13 हजार किसान ही ऐसे है जिनके पास अपनी जमीन है यानी वह जमीन के मालिक है या कहे बटाईदार हैं। जबकि करीब 75 लाख किसान भूमिहीन है। वहीं किसानो के संकट को उदारवादी अर्थव्यवस्था ने और ज्यादा हवा दे दी है। बड़ी तादाद में खेती योग्य जमीन दूसरे धंधो में दी जा रही है । जो धंधे हैं, उनमें मुनाफा और रोजगार दोनो सीमित हैं । यानी चंद हाथो में ही धंधे का लाभ पहुंच रहा है। जबकि जो जमीन छीनी जा रही है उस पर औसतन पचास से सौ गुना का अंतर है । यानी सौ किसानो का काम छिनने पर एक व्यक्ति को लाभ होता है । पं. बंगाल के भूमिसुधार मंत्री अब्दुल रज्जाक खुद मानते है कि हर साल 20 हजार एकड़ खेती योग्य भूमि दूसरे उपयोग में हस्तांतरित की जा रही है ।
खेती के विकास को लेकर राज्य सरकार का जो नजरिया है, उसकी वजह से अनुसूचित जाति -जनजाति और पिछडी जातियों के किसान-मजदूर सामाजिक-आर्थिक तौर पर और ज्यादा मुश्किलो से जुझ रहे हैं। छोटी जोत के कारण नब्बे फिसदी पट्टेदार, 83 फिसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हैं । इनमें 36 फिसदी पट्टेदार और 26 फिसदी बटाईदारो की कमाई पूरे महीने हजार रुपये भी नहीं है। रोजाना तीस रुपये की मजदूरी भी इन्हे नहीं मिलती । सवाल इसलिये भी गहराए हैं क्योंकि जो जमीन औघोगिकरण के नाम पर चंद हाथों में रेवडी के भाव दी जा रही है, वह खेती की है। जबकि राज्य के पास 11 लाख 75 हजार एकड़ वन भूमि है, जो ऐसे ही पडी है । 40 हजार एकड़ जमीन खाली पडी है, जिसपर कल तक उघोग चलते थे लेकिन बंद उघोगो की जमीन को लेकर भी कोई सकारात्मक नीति सरकार की नहीं है । राज्य सरकार के तर्क है कि इन जमीनों को लेकर वह कोई निर्णय सीधे नहीं ले सकती। कहीं वन कानून है तो कहीं प्राधिकरण बीच में आयेगा । जबकि यह वही सीपीएम है, जिसने साठ के दशक में कांग्रेस की खेतीहर जमीन को लेकर अपनायी जा रही नीतियो पर सीधे उंगली उठायी थी । 1964-67 के दौर में सीपीएम ने जो कहा वह गौरतलब है। तब कहा गया, अंग्रेजों के जमाने में 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून आज भी ढोया जा रहा है । इसमें जनहित के कोई स्पष्ट कानूनी मानदंड नहीं है ना ही साफ व्याख्या है । निजी मालिको को उपजाऊ जमीन उघोगो के लिये देना जनहित मान लिया जा रहा है । इतना ही नही उस दौर में औघोगिकरण को लेकर वामपंथियो ने साफ कहा था कि जो जमीन उपजाऊ नहीं है जो क्षेत्र विकसित नहीं है, उन्ही इलाको में उघोग लगाने चाहिये तभी औघोगिक विकास का कोई मतलब है अन्यथा जमीन हडपो की संस्कृति ज्यादा है।
लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज इस बात से अब लगाया जा सकता है कि नैनो का कारखाना सिंगुर में जिस नेशनल हाईवे के किनारे बना है, उस सड़क की दूसरी तरफ की जमीन भू-माफिया अपने कब्जे में ले चुके है। और यही भू-माफिया सीपीएम-टीएमसी के कैडर भी हैं और समझौता हो जाये इसके लिये जोर भी डाल रहे है । बुद्ददेव समझ रहे है कि नैनो का सच भी पूंजीवादी मुनाफे का रुप है , इसलिये वह पूंजीवाद की वकालत से घबराते नहीं हैं।
उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाये जाने के बाद से यह पहला मौका आया है. जब विकास की लकीर को वही राजनीति खारिज कर रही है, जिसने अपनी राजनीति में इसे आगे बढ़ाने की वकालत की। बंगाल का राजनीति में पहला मौका है जब किसान-मजदूर उसी राजनीति में खारिज हो रहा है, जिसके आसरे राजनीति ने वाम को संसदीय दायरे में भी विकल्प की आस को बरकरार रखा। सिंगूर में टाटा के कार प्लांट और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के कैमिकल हब के खिलाफ किसान-मजदूर के साथ खडे होकर भी ना सिर्फ राजनीति की जा सकती है , बल्कि सत्ताधारी को भी पुरानी राजनीति पर लौटने को मजबूर किया जा सकता है, यह 1991 के बाद से पहली बार खुल कर नजर आया है। दरअसल, उदारवादी अर्थव्यवस्था के आसरे देश में जो विकास का ढांचा खडा किया जा रहा है, उसमें वर्ग विशेष का हित साधते हुये बहुसंख्यक तबके को भी लगातार तोड़ने का प्रयास हुआ है, जिससे समाज के भीतर यह संवाद लगातार बना रहे कि विकास सभी का हो रहा है। यानी बहुसंख्य तबके के भीतर भी कई खांचो को बनाने का प्रयास हुआ है।
सिंगुर में चार हजार लोगो को नौकरी मिली । इनमें एक हजार उन किसान परिवार के सदस्य हैं, जिन्होंने अपनी जमीन मुआवजा लेकर कार प्लांट के लिये दी । जाहिर है नंदीग्राम को लेकर भी सीपीएम ने शुरुआती दौर में यही सवाल खड़ा किया था कि करीब दस हजार लोगो को कैमिकल हब बनने से रोजगार मिल जायेगा । लेकिन सिंगुर में जमीन पर टिकी जिन्दगियों की तादाद दस हजार से ज्यादा है तो नंदीग्राम में पच्चीस हजार से ज्यादा। लेकिन तीस साल के वाम शासन ने संसदीय राजनीति को जिस तरह आत्मसात किया है, उसमें संघर्ष की ट्रेनिग में ही जंग लग चुका है ।
लेकिन सिंगुर के बाद बंगाल में राजनीति को लेकर यह कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनावी राजनीति में मध्य वर्गीय विकास मायने रखेगा या चार दशक पुरानी किसान की राजनीति सत्ता उलट-पलट सकती है। हालांकि, बंगाल में आंदोलन की राजनीति पहली बार संसदीय राजनीति से टकराने के लिए जिस तरह तैयार हो रही है, उसमें यह सवाल भी उठने लगा है कि खेतिहर जमीन पर उघोगों को लगाने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अलग अलग राज्यों में किसान-मजदूर-आदिवासियों का विरोध जिस तरह हो रहा है क्या वह विकास के बनते खांचे को तोड़ देगा या संसदीय राजनीति में यह वैकल्पिक राजनीति के साथ खड़ा होगा।
बंगाल में राजनीति के संकेत शुरु से ही सरोकार वाले रहे है। वजह भी यही है कि वामपंथी तीन दशको से सत्ता में है। लेकिन पिछले चार वर्षो में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नीतिगत फैसलो के तहत औघोगिक विकास को राज्य के लिये जरुरी बनाया और खेतीहर संकट पर खामोशी बरती। इसने कई सवाल खडे किये । सवाल उठा कि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के सहारे वाममोर्चा 30 साल से सत्ता पर काबिज है,वही जमीन पर पडा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसके संघर्ष का रास्ता कहां से निकलेगा । क्योंकि तीस साल के शासन में वामपंथियों ने ही किसानों को संघर्ष का पाठ पढ़ाया औऱ इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। फिलहाल राज्य में सवा करोड से ज्यादा किसान है । इसमें सीमांत किसान शामिल नहीं है। इसमे महज 56 लाख 13 हजार किसान ही ऐसे है जिनके पास अपनी जमीन है यानी वह जमीन के मालिक है या कहे बटाईदार हैं। जबकि करीब 75 लाख किसान भूमिहीन है। वहीं किसानो के संकट को उदारवादी अर्थव्यवस्था ने और ज्यादा हवा दे दी है। बड़ी तादाद में खेती योग्य जमीन दूसरे धंधो में दी जा रही है । जो धंधे हैं, उनमें मुनाफा और रोजगार दोनो सीमित हैं । यानी चंद हाथो में ही धंधे का लाभ पहुंच रहा है। जबकि जो जमीन छीनी जा रही है उस पर औसतन पचास से सौ गुना का अंतर है । यानी सौ किसानो का काम छिनने पर एक व्यक्ति को लाभ होता है । पं. बंगाल के भूमिसुधार मंत्री अब्दुल रज्जाक खुद मानते है कि हर साल 20 हजार एकड़ खेती योग्य भूमि दूसरे उपयोग में हस्तांतरित की जा रही है ।
खेती के विकास को लेकर राज्य सरकार का जो नजरिया है, उसकी वजह से अनुसूचित जाति -जनजाति और पिछडी जातियों के किसान-मजदूर सामाजिक-आर्थिक तौर पर और ज्यादा मुश्किलो से जुझ रहे हैं। छोटी जोत के कारण नब्बे फिसदी पट्टेदार, 83 फिसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हैं । इनमें 36 फिसदी पट्टेदार और 26 फिसदी बटाईदारो की कमाई पूरे महीने हजार रुपये भी नहीं है। रोजाना तीस रुपये की मजदूरी भी इन्हे नहीं मिलती । सवाल इसलिये भी गहराए हैं क्योंकि जो जमीन औघोगिकरण के नाम पर चंद हाथों में रेवडी के भाव दी जा रही है, वह खेती की है। जबकि राज्य के पास 11 लाख 75 हजार एकड़ वन भूमि है, जो ऐसे ही पडी है । 40 हजार एकड़ जमीन खाली पडी है, जिसपर कल तक उघोग चलते थे लेकिन बंद उघोगो की जमीन को लेकर भी कोई सकारात्मक नीति सरकार की नहीं है । राज्य सरकार के तर्क है कि इन जमीनों को लेकर वह कोई निर्णय सीधे नहीं ले सकती। कहीं वन कानून है तो कहीं प्राधिकरण बीच में आयेगा । जबकि यह वही सीपीएम है, जिसने साठ के दशक में कांग्रेस की खेतीहर जमीन को लेकर अपनायी जा रही नीतियो पर सीधे उंगली उठायी थी । 1964-67 के दौर में सीपीएम ने जो कहा वह गौरतलब है। तब कहा गया, अंग्रेजों के जमाने में 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून आज भी ढोया जा रहा है । इसमें जनहित के कोई स्पष्ट कानूनी मानदंड नहीं है ना ही साफ व्याख्या है । निजी मालिको को उपजाऊ जमीन उघोगो के लिये देना जनहित मान लिया जा रहा है । इतना ही नही उस दौर में औघोगिकरण को लेकर वामपंथियो ने साफ कहा था कि जो जमीन उपजाऊ नहीं है जो क्षेत्र विकसित नहीं है, उन्ही इलाको में उघोग लगाने चाहिये तभी औघोगिक विकास का कोई मतलब है अन्यथा जमीन हडपो की संस्कृति ज्यादा है।
लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज इस बात से अब लगाया जा सकता है कि नैनो का कारखाना सिंगुर में जिस नेशनल हाईवे के किनारे बना है, उस सड़क की दूसरी तरफ की जमीन भू-माफिया अपने कब्जे में ले चुके है। और यही भू-माफिया सीपीएम-टीएमसी के कैडर भी हैं और समझौता हो जाये इसके लिये जोर भी डाल रहे है । बुद्ददेव समझ रहे है कि नैनो का सच भी पूंजीवादी मुनाफे का रुप है , इसलिये वह पूंजीवाद की वकालत से घबराते नहीं हैं।
नैनो ने बदल दी बंगाल की राजनीतिक जमीन !
" हमनें ज़मीन से जुड़ी ज़िन्दगी बचाने के लिये विरोध किया।" सिंगुर के कुछ किसानों से की गई बातचीत का यही लब्बोलुआब निकला, जो ममता के साथ हैं और पुलिस उन्हें गैरकानूनी तरीके से सिंगुर की घेराबंदी करने के आरोप में गिरफ्तार कर ले गयी । इस तेवर ने चार दशक पहले के नक्सलबाडी की याद दिला दी। उस वक्त विद्रोही किसानों ने गिरफ्तारी के बाद कहा था "हमने ताजा हवा में सांस लेने के लिये विद्रोह किया।"
उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाये जाने के बाद से यह पहला मौका आया है. जब विकास की लकीर को वही राजनीति खारिज कर रही है, जिसने अपनी राजनीति में इसे आगे बढ़ाने की वकालत की। बंगाल का राजनीति में पहला मौका है जब किसान-मजदूर उसी राजनीति में खारिज हो रहा है, जिसके आसरे राजनीति ने वाम को संसदीय दायरे में भी विकल्प की आस को बरकरार रखा। सिंगूर में टाटा के कार प्लांट और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के कैमिकल हब के खिलाफ किसान-मजदूर के साथ खडे होकर भी ना सिर्फ राजनीति की जा सकती है , बल्कि सत्ताधारी को भी पुरानी राजनीति पर लौटने को मजबूर किया जा सकता है, यह 1991 के बाद से पहली बार खुल कर नजर आया है। दरअसल, उदारवादी अर्थव्यवस्था के आसरे देश में जो विकास का ढांचा खडा किया जा रहा है, उसमें वर्ग विशेष का हित साधते हुये बहुसंख्यक तबके को भी लगातार तोड़ने का प्रयास हुआ है, जिससे समाज के भीतर यह संवाद लगातार बना रहे कि विकास सभी का हो रहा है। यानी बहुसंख्य तबके के भीतर भी कई खांचो को बनाने का प्रयास हुआ है।
सिंगुर में चार हजार लोगो को नौकरी मिली । इनमें एक हजार उन किसान परिवार के सदस्य हैं, जिन्होंने अपनी जमीन मुआवजा लेकर कार प्लांट के लिये दी । जाहिर है नंदीग्राम को लेकर भी सीपीएम ने शुरुआती दौर में यही सवाल खड़ा किया था कि करीब दस हजार लोगो को कैमिकल हब बनने से रोजगार मिल जायेगा । लेकिन सिंगुर में जमीन पर टिकी जिन्दगियों की तादाद दस हजार से ज्यादा है तो नंदीग्राम में पच्चीस हजार से ज्यादा। लेकिन तीस साल के वाम शासन ने संसदीय राजनीति को जिस तरह आत्मसात किया है, उसमें संघर्ष की ट्रेनिग में ही जंग लग चुका है ।
लेकिन सिंगुर के बाद बंगाल में राजनीति को लेकर यह कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनावी राजनीति में मध्य वर्गीय विकास मायने रखेगा या चार दशक पुरानी किसान की राजनीति सत्ता उलट-पलट सकती है। हालांकि, बंगाल में आंदोलन की राजनीति पहली बार संसदीय राजनीति से टकराने के लिए जिस तरह तैयार हो रही है, उसमें यह सवाल भी उठने लगा है कि खेतिहर जमीन पर उघोगों को लगाने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अलग अलग राज्यों में किसान-मजदूर-आदिवासियों का विरोध जिस तरह हो रहा है क्या वह विकास के बनते खांचे को तोड़ देगा या संसदीय राजनीति में यह वैकल्पिक राजनीति के साथ खड़ा होगा।
बंगाल में राजनीति के संकेत शुरु से ही सरोकार वाले रहे है। वजह भी यही है कि वामपंथी तीन दशको से सत्ता में है। लेकिन पिछले चार वर्षो में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नीतिगत फैसलो के तहत औघोगिक विकास को राज्य के लिये जरुरी बनाया और खेतीहर संकट पर खामोशी बरती। इसने कई सवाल खडे किये । सवाल उठा कि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के सहारे वाममोर्चा 30 साल से सत्ता पर काबिज है,वही जमीन पर पडा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसके संघर्ष का रास्ता कहां से निकलेगा । क्योंकि तीस साल के शासन में वामपंथियों ने ही किसानों को संघर्ष का पाठ पढ़ाया औऱ इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। फिलहाल राज्य में सवा करोड से ज्यादा किसान है । इसमें सीमांत किसान शामिल नहीं है। इसमे महज 56 लाख 13 हजार किसान ही ऐसे है जिनके पास अपनी जमीन है यानी वह जमीन के मालिक है या कहे बटाईदार हैं। जबकि करीब 75 लाख किसान भूमिहीन है। वहीं किसानो के संकट को उदारवादी अर्थव्यवस्था ने और ज्यादा हवा दे दी है। बड़ी तादाद में खेती योग्य जमीन दूसरे धंधो में दी जा रही है । जो धंधे हैं, उनमें मुनाफा और रोजगार दोनो सीमित हैं । यानी चंद हाथो में ही धंधे का लाभ पहुंच रहा है। जबकि जो जमीन छीनी जा रही है उस पर औसतन पचास से सौ गुना का अंतर है । यानी सौ किसानो का काम छिनने पर एक व्यक्ति को लाभ होता है । पं. बंगाल के भूमिसुधार मंत्री अब्दुल रज्जाक खुद मानते है कि हर साल 20 हजार एकड़ खेती योग्य भूमि दूसरे उपयोग में हस्तांतरित की जा रही है ।
खेती के विकास को लेकर राज्य सरकार का जो नजरिया है, उसकी वजह से अनुसूचित जाति -जनजाति और पिछडी जातियों के किसान-मजदूर सामाजिक-आर्थिक तौर पर और ज्यादा मुश्किलो से जुझ रहे हैं। छोटी जोत के कारण नब्बे फिसदी पट्टेदार, 83 फिसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हैं । इनमें 36 फिसदी पट्टेदार और 26 फिसदी बटाईदारो की कमाई पूरे महीने हजार रुपये भी नहीं है। रोजाना तीस रुपये की मजदूरी भी इन्हे नहीं मिलती । सवाल इसलिये भी गहराए हैं क्योंकि जो जमीन औघोगिकरण के नाम पर चंद हाथों में रेवडी के भाव दी जा रही है, वह खेती की है। जबकि राज्य के पास 11 लाख 75 हजार एकड़ वन भूमि है, जो ऐसे ही पडी है । 40 हजार एकड़ जमीन खाली पडी है, जिसपर कल तक उघोग चलते थे लेकिन बंद उघोगो की जमीन को लेकर भी कोई सकारात्मक नीति सरकार की नहीं है । राज्य सरकार के तर्क है कि इन जमीनों को लेकर वह कोई निर्णय सीधे नहीं ले सकती। कहीं वन कानून है तो कहीं प्राधिकरण बीच में आयेगा । जबकि यह वही सीपीएम है, जिसने साठ के दशक में कांग्रेस की खेतीहर जमीन को लेकर अपनायी जा रही नीतियो पर सीधे उंगली उठायी थी । 1964-67 के दौर में सीपीएम ने जो कहा वह गौरतलब है। तब कहा गया, अंग्रेजों के जमाने में 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून आज भी ढोया जा रहा है । इसमें जनहित के कोई स्पष्ट कानूनी मानदंड नहीं है ना ही साफ व्याख्या है । निजी मालिको को उपजाऊ जमीन उघोगो के लिये देना जनहित मान लिया जा रहा है । इतना ही नही उस दौर में औघोगिकरण को लेकर वामपंथियो ने साफ कहा था कि जो जमीन उपजाऊ नहीं है जो क्षेत्र विकसित नहीं है, उन्ही इलाको में उघोग लगाने चाहिये तभी औघोगिक विकास का कोई मतलब है अन्यथा जमीन हडपो की संस्कृति ज्यादा है।
लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज इस बात से अब लगाया जा सकता है कि नैनो का कारखाना सिंगुर में जिस नेशनल हाईवे के किनारे बना है, उस सड़क की दूसरी तरफ की जमीन भू-माफिया अपने कब्जे में ले चुके है। और यही भू-माफिया सीपीएम-टीएमसी के कैडर भी हैं और समझौता हो जाये इसके लिये जोर भी डाल रहे है । बुद्ददेव समझ रहे है कि नैनो का सच भी पूंजीवादी मुनाफे का रुप है , इसलिये वह पूंजीवाद की वकालत से घबराते नहीं हैं।
उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाये जाने के बाद से यह पहला मौका आया है. जब विकास की लकीर को वही राजनीति खारिज कर रही है, जिसने अपनी राजनीति में इसे आगे बढ़ाने की वकालत की। बंगाल का राजनीति में पहला मौका है जब किसान-मजदूर उसी राजनीति में खारिज हो रहा है, जिसके आसरे राजनीति ने वाम को संसदीय दायरे में भी विकल्प की आस को बरकरार रखा। सिंगूर में टाटा के कार प्लांट और नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के कैमिकल हब के खिलाफ किसान-मजदूर के साथ खडे होकर भी ना सिर्फ राजनीति की जा सकती है , बल्कि सत्ताधारी को भी पुरानी राजनीति पर लौटने को मजबूर किया जा सकता है, यह 1991 के बाद से पहली बार खुल कर नजर आया है। दरअसल, उदारवादी अर्थव्यवस्था के आसरे देश में जो विकास का ढांचा खडा किया जा रहा है, उसमें वर्ग विशेष का हित साधते हुये बहुसंख्यक तबके को भी लगातार तोड़ने का प्रयास हुआ है, जिससे समाज के भीतर यह संवाद लगातार बना रहे कि विकास सभी का हो रहा है। यानी बहुसंख्य तबके के भीतर भी कई खांचो को बनाने का प्रयास हुआ है।
सिंगुर में चार हजार लोगो को नौकरी मिली । इनमें एक हजार उन किसान परिवार के सदस्य हैं, जिन्होंने अपनी जमीन मुआवजा लेकर कार प्लांट के लिये दी । जाहिर है नंदीग्राम को लेकर भी सीपीएम ने शुरुआती दौर में यही सवाल खड़ा किया था कि करीब दस हजार लोगो को कैमिकल हब बनने से रोजगार मिल जायेगा । लेकिन सिंगुर में जमीन पर टिकी जिन्दगियों की तादाद दस हजार से ज्यादा है तो नंदीग्राम में पच्चीस हजार से ज्यादा। लेकिन तीस साल के वाम शासन ने संसदीय राजनीति को जिस तरह आत्मसात किया है, उसमें संघर्ष की ट्रेनिग में ही जंग लग चुका है ।
लेकिन सिंगुर के बाद बंगाल में राजनीति को लेकर यह कयास लगाये जा रहे हैं कि चुनावी राजनीति में मध्य वर्गीय विकास मायने रखेगा या चार दशक पुरानी किसान की राजनीति सत्ता उलट-पलट सकती है। हालांकि, बंगाल में आंदोलन की राजनीति पहली बार संसदीय राजनीति से टकराने के लिए जिस तरह तैयार हो रही है, उसमें यह सवाल भी उठने लगा है कि खेतिहर जमीन पर उघोगों को लगाने का जो सिलसिला शुरु हुआ है और अलग अलग राज्यों में किसान-मजदूर-आदिवासियों का विरोध जिस तरह हो रहा है क्या वह विकास के बनते खांचे को तोड़ देगा या संसदीय राजनीति में यह वैकल्पिक राजनीति के साथ खड़ा होगा।
बंगाल में राजनीति के संकेत शुरु से ही सरोकार वाले रहे है। वजह भी यही है कि वामपंथी तीन दशको से सत्ता में है। लेकिन पिछले चार वर्षो में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नीतिगत फैसलो के तहत औघोगिक विकास को राज्य के लिये जरुरी बनाया और खेतीहर संकट पर खामोशी बरती। इसने कई सवाल खडे किये । सवाल उठा कि जिस जमीन-किसान के मुद्दे के सहारे वाममोर्चा 30 साल से सत्ता पर काबिज है,वही जमीन पर पडा किसान लहुलुहान हो रहा है तो उसके संघर्ष का रास्ता कहां से निकलेगा । क्योंकि तीस साल के शासन में वामपंथियों ने ही किसानों को संघर्ष का पाठ पढ़ाया औऱ इन तीस सालों में भूमिहीन खेत मजदूरो की तादाद 35 लाख से बढकर 74 लाख 18 हजार हो चुकी है। फिलहाल राज्य में सवा करोड से ज्यादा किसान है । इसमें सीमांत किसान शामिल नहीं है। इसमे महज 56 लाख 13 हजार किसान ही ऐसे है जिनके पास अपनी जमीन है यानी वह जमीन के मालिक है या कहे बटाईदार हैं। जबकि करीब 75 लाख किसान भूमिहीन है। वहीं किसानो के संकट को उदारवादी अर्थव्यवस्था ने और ज्यादा हवा दे दी है। बड़ी तादाद में खेती योग्य जमीन दूसरे धंधो में दी जा रही है । जो धंधे हैं, उनमें मुनाफा और रोजगार दोनो सीमित हैं । यानी चंद हाथो में ही धंधे का लाभ पहुंच रहा है। जबकि जो जमीन छीनी जा रही है उस पर औसतन पचास से सौ गुना का अंतर है । यानी सौ किसानो का काम छिनने पर एक व्यक्ति को लाभ होता है । पं. बंगाल के भूमिसुधार मंत्री अब्दुल रज्जाक खुद मानते है कि हर साल 20 हजार एकड़ खेती योग्य भूमि दूसरे उपयोग में हस्तांतरित की जा रही है ।
खेती के विकास को लेकर राज्य सरकार का जो नजरिया है, उसकी वजह से अनुसूचित जाति -जनजाति और पिछडी जातियों के किसान-मजदूर सामाजिक-आर्थिक तौर पर और ज्यादा मुश्किलो से जुझ रहे हैं। छोटी जोत के कारण नब्बे फिसदी पट्टेदार, 83 फिसदी बटाईदार काम के लिये दूसरी जगहो पर जाने के लिये मजबूर हैं । इनमें 36 फिसदी पट्टेदार और 26 फिसदी बटाईदारो की कमाई पूरे महीने हजार रुपये भी नहीं है। रोजाना तीस रुपये की मजदूरी भी इन्हे नहीं मिलती । सवाल इसलिये भी गहराए हैं क्योंकि जो जमीन औघोगिकरण के नाम पर चंद हाथों में रेवडी के भाव दी जा रही है, वह खेती की है। जबकि राज्य के पास 11 लाख 75 हजार एकड़ वन भूमि है, जो ऐसे ही पडी है । 40 हजार एकड़ जमीन खाली पडी है, जिसपर कल तक उघोग चलते थे लेकिन बंद उघोगो की जमीन को लेकर भी कोई सकारात्मक नीति सरकार की नहीं है । राज्य सरकार के तर्क है कि इन जमीनों को लेकर वह कोई निर्णय सीधे नहीं ले सकती। कहीं वन कानून है तो कहीं प्राधिकरण बीच में आयेगा । जबकि यह वही सीपीएम है, जिसने साठ के दशक में कांग्रेस की खेतीहर जमीन को लेकर अपनायी जा रही नीतियो पर सीधे उंगली उठायी थी । 1964-67 के दौर में सीपीएम ने जो कहा वह गौरतलब है। तब कहा गया, अंग्रेजों के जमाने में 1894 में बना भूमि अधिग्रहण कानून आज भी ढोया जा रहा है । इसमें जनहित के कोई स्पष्ट कानूनी मानदंड नहीं है ना ही साफ व्याख्या है । निजी मालिको को उपजाऊ जमीन उघोगो के लिये देना जनहित मान लिया जा रहा है । इतना ही नही उस दौर में औघोगिकरण को लेकर वामपंथियो ने साफ कहा था कि जो जमीन उपजाऊ नहीं है जो क्षेत्र विकसित नहीं है, उन्ही इलाको में उघोग लगाने चाहिये तभी औघोगिक विकास का कोई मतलब है अन्यथा जमीन हडपो की संस्कृति ज्यादा है।
लेकिन बीते तीस साल में राजनीति का पहिया कैसे घूम गया, इसका अंदाज इस बात से अब लगाया जा सकता है कि नैनो का कारखाना सिंगुर में जिस नेशनल हाईवे के किनारे बना है, उस सड़क की दूसरी तरफ की जमीन भू-माफिया अपने कब्जे में ले चुके है। और यही भू-माफिया सीपीएम-टीएमसी के कैडर भी हैं और समझौता हो जाये इसके लिये जोर भी डाल रहे है । बुद्ददेव समझ रहे है कि नैनो का सच भी पूंजीवादी मुनाफे का रुप है , इसलिये वह पूंजीवाद की वकालत से घबराते नहीं हैं।
Monday, September 15, 2008
लोकतंत्र थांबा !
जोअपराधी नहीं होगे मारे जाएंगे। लोकतंत्र की यह बिसात कितनी मासूम है, जहां सबकुछ पारदर्शी हो जाता है तो लोकतंत्र ही नदारद हो जाता है। महाराष्ट्र की राजनीति में मराठी मानुष शब्द ने कुछ ऐसी ही पारदर्शिता ला दी है, जहां थाबां लोकतंत्र कहने से पहले मराठी मानुष ‘पाढा’ और फिर किसी भी भारतीय को ‘पुढे चला’ की इजाजत है । सूमचे महाराष्ट्र में हर लाल बत्ती पर सड़क पर या सड़क किनारे बोर्ड पर ट्रैफिक नियमो के लिये यही लिखा होता है ...थांबा-पाढा-पुढे चला।
राज ठाकरे की राजनीति को चंद मिनटो में कोई भी सरकार मटियामेट कर सकती है । बाल ठाकरे के सामना में संपादकीय के जरिए चेताने और पाठ पढ़ाने को तो कानून के तहत उस इलाके का थानेदार भी रोक सकता है। अभिताभ बच्चन अगर ताल ठोंक ले कि मराठी मानुष की राजनीति से सड़क पर आकर दो-दो हाथ करने है तो राज की राजनीति की हवा तुंरत निकल सकती है। लेकिन थांबा-पाढा-पुढे चला जारी है। यह समझते हुए जारी है की देश में एक संविधान है, जिसके आसरे कानून का राज है। जनता की चुनी सरकार के पास कानून के आसरे वह सब अधिकार है, जो कानून तोड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिये काफी है। लेकिन, कहे कौन कि वह लोकतांत्रिक देश का नागरिक है, जहां किसी की तानाशाही नहीं चल सकती। बच्चन इसे कहने से क्यों घबराते हैं और सरकार कोई कार्रवाई करने से क्यों कतराती है?
इसे समझने से पहले तानाशाही के अंदाज की ठाकरे परिवार की राजनीति का मिजाज समझना होगा जो राज ठाकरे से नहीं बाला साहेब की चार दशक की राजनीति की जमीन है ।
बाला साहेब ठाकरे ने बेहद महीन तरीके से उस राजनीति को साठ के दशक में अपनी राजनीति का केन्द्र बना दिया जो नेहरु के कास्मोपोलिटन शैली के खिलाफ आजादी के तुरंत बाद महाराष्ट्र में जागी थी । नेहरु क्षेत्रियता और भाषाई संघवाद के खिलाफ थे। लेकिन क्षेत्रियता का भाव महाराष्ट्र में तेलुगूभाषी आंध्र, पंजाबीभाषी पंजाब और गुजरातीभाषी गुजरात से कहीं ज्यादा था । और इसकी सबसे बडी वजह मराठीभाषियों की स्मृति में दो बातें बार बार हिचकोले मारती । पहली, शिवाजी का शानदार मराठा साम्राज्य, जिसने मुगलों और अग्रेंजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ने वाले पराक्रमी जाति के रुप में मराठो को गौरान्वित किया और दूसरा तिलक, गोखले और जस्टिस रानाडे की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका, जो आजादी के लाभों में मराठी को अपने हिस्से का दावा करने का हक देती थी। इन स्थितियों को बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरिए जमकर उभारा। इसे संयुक्त महाराष्ट्र आदोलन और साठ के दशक में नेहरु की अर्थनीति की नाकामी से बल मिला। जो राजनीतिक सोच उस दौर में महाराष्ट् में जगह बना रही थी, उसमें लोकतंत्र के प्रति अविश्वास, संसदीय राजनीति के प्रति उपहास, राजनीतिक प्रणाली के प्रति घृणा, प्रांतीय सकीर्णता, प्रांतीय सांप्रदायिकता, शिवाजी के मराठपन, हिन्दू पदपादशाही और हिटलर के प्रति लगाव । बाल ठाकरे ने इस मिजाज को समझा और अपनाया। ठाकरे ने लोकतंत्र को कभी तरजीह नहीं दी और तरीका हिटलर के अंदाज में रखा। दरअसल, मुबंई के उस सच को ही अपनी राजनीति का आधार बाल ठाकरे ने बना लिया जो उनके खिलाफ था। साठ के दशक मे मुंबई की हकीकत यही थी कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे । दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगो का कब्जा था । टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का कब्जा था । लिखायी -पढ़ायी के पेशो में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी । भोजनालयो में उड्डपी यानी कन्नडवासी और ईरानियो का रुतबा था । भवन निर्माण में सिधियो का बोलबाला था और इमारती काम में ज्यादातर लोग कम्मा यानी आंध्र के थे । ऐसे में मुबंई का मूल निवासी दावा तो करता था
"आमची मुबंई आहे 'लेकिन मुंबई में वह कहीं नहीं था। इस वजह से मुबंई के बाहर से आने वाले गुजराती,पारसी, दक्षिण भारतीयो और उत्तर भारतीयो के लिये मराठी सीखना जरुरी नही था । हिन्दी-अग्रेजी से काम चल सकता था । उनके लिये मुबंई के धरती पुत्रो के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में कोई रिश्ता जोड़ना भी जरुरी नहीं था । ठाकरे ने इसके खिलाफ जो राजनीतिक जमीन बनानी शुरु कि उसमें मुसलमान और दक्षिण भारतीय सबसे पहले टारगेट हुए । अपने अखबार मार्मिक में कार्टून और लेख के जरिए मराठियो में किस तरीके की बैचेनी है, इसे ठाकरे ने अपने विलक्षण अंदाज में पेश किया--"सभी लुंगी वाले अपराधी, जुआरी,अवैध शराब खिंचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट है.......मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्ट्रीयन हो और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो । " इस भाषा और तेवर ने 1967 में संसदीय निर्वाचन में एक प्रेशर गुट के रुप में ठाकरे ने अपनी उपयोगिता साबित कर दी । और 1968 में नगर निगम चुनाव में लगभग अकेले दम पर सबसे ज्यादा वोट पा कर दिखा दिया। दरअसल, यही वह समझ और राजनीति है, जिसे चालीस साल बाद राजठाकरे की जुबान उगल रही है । बीते चालीस साल में इसी राजनीति को करते हुये बाल ठाकरे सत्ता तक भी पहुचे और लोकतांत्रिक संसदीय जुबान बोलने पर सत्ता हाथ से गयी भी । जो राजनीतिक जमीन बाल ठाकरे ने शिवसेना के जरिए बनायी, संयोग से वह जमीन और मुद्दे तो वही रह गये...शिवसेना और बाल ठाकरे उससे इतना आगे निकल गये कि उनका लौटना मुश्किल है । इसलिये जिस दौर में शिवसेना अपनी ही बनायी राजनीतिक जमीन खो रही थी उसे कुछ अंतराल के लिये नारायण राणे ने संभाला । नारायण राणे का तरीका भी बाल ठाकरे वाला ही था । और इसी तरीके ने नारायम राणे को कोंकण से आगे महाराष्ट्र की राजनीति में स्थापित किया । कांग्रेस के चश्मे से यह वहीं लुंपेन राजनीति थी, जिसे बाल ठाकरे साठ के दशक में कर रहे थे और राजनीतिज्ञ शिवसेना को जज्बाती राजनीति की देन और आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास के लिये खतरा बता कर खामोश हो रहे थे। शिवसेना इसी राजनीति को अब पूंछ से पकड कर युवा बालासाहेब की याद अपने वोटरो को दिला कर धमकाती भी रहती है । लेकिन राजठाकरे के पास उसी तरह खोने के लिये कुछ नहीं है जैसे बाला साहेब के पास चालीस साल पहले खोने के लिये कुछ नही था। ऐसे में चालीस साल बाद राजठाकरे का समाज विरोधी आंदोलन भी राजनीतिक लाभ की जमीन बनता जा रहा है।
लेकिन इस राजनीति का दूसरा सच कहीं ज्यादा बड़ा है । रोजगार और क्षेत्रियता का जो संकट अलग अलग साठ के दशक में था, दरअसल 2008 में वही क्षेत्रियता अब रोजगार को भी साथ जोड़ चुकी है । शिवेसना की लुंपेन राजनीति ने सत्ता सुकुन पाते ही जैसे ही साथ छोड़ा, वैसे ही उस रोजगार पर भी संकट आ गया जो शिवसैनिकों को भष्ट्र होते तंत्र में लाभ के बंदरबांट में मिल जाती थी। चूंकि इस दौर में महाराष्ट्र का खासा आर्थिक विकास हुआ लेकिन सत्ता और एक वर्ग विशेष के गठजोड़ ने सबकुछ समेटा इसलिये वह तबका, जिसे न्यूनतम के जुगाड के लिये रोजगार चाहिये था वह ना तो बाजार या तंत्र से मिला और शिवसेना जो इस गठजोड के मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लगातार राजनीति कर रही थी, जब उसने भी लीक बदली तो शिवसैनिको के सामने कुछ नहीं था। मिलो के बंद होने और जिले दर जिले महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगमो में लगे उघोगो के बंद होने से जहां रोजगार गायब होते गये वहीं भू-माफिया राजनीति के नये औजार के तौर पर उभरा। इस नये धंधे में काग्रेस-बीजेपी-शिवसेना और राजठाकरे की भी हिस्सेदारी थी तो इसका मुनाफा भी उस बहुसंख्यक मराठी तबके के पास नहीं पहुचा जिसकी ट्रेनिग शिवसेना के जरीये हुई थी । इस बडे तबके को कैसे सडक पर उतार कर उसकी भावनाओ को हथियार बनाना है, यह राजठाकरे ने अपने चाचा बाल ठाकरे की छत्रछाया में चालीस साल में बखुबी सीखा । लेकिन ठाकरे परिवार की राजनीति के सामानातातर दो सवाल थाबां लोकतंत्र के नाम पर खडे होते है कि ऐसे में जनता की चुनी सरकार कहां है? विलासराव देशमुख सरकार के सत्ता में बने रहने के लिये लोकतंत्र थांबा कहना मजबूरी है । कांग्रेस के बंटने या टूटने के बाद कांग्रेस को भी इसका एहसास है और नेशनलिस्ट काग्रेस पार्ट्री के लिये भी कि वह मराठी मानुष को ना छेड़े । क्योंकि वोटरों की फेरहिस्त में मराठी मानुष की भावनाओं को कोई राजनीतिक दल अपने साथ तभी कर सकती है, जब उनकी न्यूनतम जरुरतो को भी सरकार की विकास की रेखा पूरी कर दे। यह सवाल उठ सकता है कि आखिर क्यों मराठी मानुष सरीखे मुद्दे पर राजनीति उस राज्य में की जा रही है, जहां किसान सबसे ज्यादा खुदकुशी कर रहा है । जहां सबसे ज्यादा बिजली संकट हो चला है । जहां किसी भी राज्य से ज्यादा विकास की विसंगतियां है । जहां का प्रभु वर्ग सात सितारा जीवन जी रहा है तो बहुसंख्य तबका न्यूनतम की जद्दोजहद में जान गंवा रहा है । हकीकत में राजठाकरे के लिये यही समस्याये ही आक्सीजन का काम कर रही हैं और सरकार के सामने टुकुर टुकुर ताकने के अलावे कोई दूसरा चारा नहीं है ।
अब सवाल है कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को ऐसे में माफी मांगने की जरुरत क्या है । दरअसल, सवाल मुबंई या महाराष्ट्र का नहीं है कि अमिताभ यहा रहे और महानायक बने है तो उन्हें उस जमीन का गुणगान करना चाहिये । सवाल है कि अमिताभ जिस माध्यम के सहारे महानायक बने है, वह माध्यम विकसित होता गया है । उससे जुड़े लोगों ने भरपूर मुनाफा कमाया है । लेकिन सुख-सुविधा की इस जमीन के बनने के बाद ही अमिताभ का संकट शुरु होता है । दरअसल, अमिताभ के महानायक बनने के पीछे भी उसी तबके का आक्रोष है, जिसे फिल्मो के जरीये अमिताभ ने कमाया है और राजठाकरे अब कमाना चाह रहे है । अमिताभ की फिल्मो ने गुस्साये लोगो को सरोकार की भाषा भी बतायी और जुल्म के खिलाफ लड़ने की हिम्मत भी दी । लेकिन अमिताभ एक्टिग करते हैं । और तीस साल से कलाकारी के जरीये वह शिवसेना के उस शिवसैनिक को भी वही घुट्टी पिलाते आ रहे है जो राजठाकरे के नवनिर्माण सैनिक अलग अलग परिवेश में रह कर पीते आये है । इस सफलता ने अमिताभ को दुनिया से तो जोड़ा लेकिन अपने ही समाज से काट दिया है । समाज के आक्रोष-तनाव को एक्टिंग की अफीम पिला कर अगर बॉलीवुड का कोई कलाकार मुनाफा कमाता है तो भवनात्मक मुद्दा बनने पर अगर वही समाज उसे निशाना बनाने लगेगा तो माफी की परिभाषा को समझना होगा । अमिताभ की माफी राजठाकरे से नहीं अपने आप से है, जो लोगो से कटकर लोगों की बात करते हुये उन्होने खुद को महानायक बनाया है । ठीक उसी तरह जिस तरह सरकार की खामोशी अपने आप के लिये है । ठीक उसी तरह जिस तरह बाल ठाकरे की अमिताभ की बढाई करना अपने लिये संसदीय मुखौटे को बरकरार रखना है। ठीक उसी तरह जिस तरह राज ठाकरे का मराठी मानुष अपने लिये किसी तरह सत्ता में दस्तक देना चाहता है । इसीलिये अभी लोकतंत्र थांबा है।
राज ठाकरे की राजनीति को चंद मिनटो में कोई भी सरकार मटियामेट कर सकती है । बाल ठाकरे के सामना में संपादकीय के जरिए चेताने और पाठ पढ़ाने को तो कानून के तहत उस इलाके का थानेदार भी रोक सकता है। अभिताभ बच्चन अगर ताल ठोंक ले कि मराठी मानुष की राजनीति से सड़क पर आकर दो-दो हाथ करने है तो राज की राजनीति की हवा तुंरत निकल सकती है। लेकिन थांबा-पाढा-पुढे चला जारी है। यह समझते हुए जारी है की देश में एक संविधान है, जिसके आसरे कानून का राज है। जनता की चुनी सरकार के पास कानून के आसरे वह सब अधिकार है, जो कानून तोड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिये काफी है। लेकिन, कहे कौन कि वह लोकतांत्रिक देश का नागरिक है, जहां किसी की तानाशाही नहीं चल सकती। बच्चन इसे कहने से क्यों घबराते हैं और सरकार कोई कार्रवाई करने से क्यों कतराती है?
इसे समझने से पहले तानाशाही के अंदाज की ठाकरे परिवार की राजनीति का मिजाज समझना होगा जो राज ठाकरे से नहीं बाला साहेब की चार दशक की राजनीति की जमीन है ।
बाला साहेब ठाकरे ने बेहद महीन तरीके से उस राजनीति को साठ के दशक में अपनी राजनीति का केन्द्र बना दिया जो नेहरु के कास्मोपोलिटन शैली के खिलाफ आजादी के तुरंत बाद महाराष्ट्र में जागी थी । नेहरु क्षेत्रियता और भाषाई संघवाद के खिलाफ थे। लेकिन क्षेत्रियता का भाव महाराष्ट्र में तेलुगूभाषी आंध्र, पंजाबीभाषी पंजाब और गुजरातीभाषी गुजरात से कहीं ज्यादा था । और इसकी सबसे बडी वजह मराठीभाषियों की स्मृति में दो बातें बार बार हिचकोले मारती । पहली, शिवाजी का शानदार मराठा साम्राज्य, जिसने मुगलों और अग्रेंजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ने वाले पराक्रमी जाति के रुप में मराठो को गौरान्वित किया और दूसरा तिलक, गोखले और जस्टिस रानाडे की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका, जो आजादी के लाभों में मराठी को अपने हिस्से का दावा करने का हक देती थी। इन स्थितियों को बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरिए जमकर उभारा। इसे संयुक्त महाराष्ट्र आदोलन और साठ के दशक में नेहरु की अर्थनीति की नाकामी से बल मिला। जो राजनीतिक सोच उस दौर में महाराष्ट् में जगह बना रही थी, उसमें लोकतंत्र के प्रति अविश्वास, संसदीय राजनीति के प्रति उपहास, राजनीतिक प्रणाली के प्रति घृणा, प्रांतीय सकीर्णता, प्रांतीय सांप्रदायिकता, शिवाजी के मराठपन, हिन्दू पदपादशाही और हिटलर के प्रति लगाव । बाल ठाकरे ने इस मिजाज को समझा और अपनाया। ठाकरे ने लोकतंत्र को कभी तरजीह नहीं दी और तरीका हिटलर के अंदाज में रखा। दरअसल, मुबंई के उस सच को ही अपनी राजनीति का आधार बाल ठाकरे ने बना लिया जो उनके खिलाफ था। साठ के दशक मे मुंबई की हकीकत यही थी कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे । दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगो का कब्जा था । टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का कब्जा था । लिखायी -पढ़ायी के पेशो में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी । भोजनालयो में उड्डपी यानी कन्नडवासी और ईरानियो का रुतबा था । भवन निर्माण में सिधियो का बोलबाला था और इमारती काम में ज्यादातर लोग कम्मा यानी आंध्र के थे । ऐसे में मुबंई का मूल निवासी दावा तो करता था
"आमची मुबंई आहे 'लेकिन मुंबई में वह कहीं नहीं था। इस वजह से मुबंई के बाहर से आने वाले गुजराती,पारसी, दक्षिण भारतीयो और उत्तर भारतीयो के लिये मराठी सीखना जरुरी नही था । हिन्दी-अग्रेजी से काम चल सकता था । उनके लिये मुबंई के धरती पुत्रो के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में कोई रिश्ता जोड़ना भी जरुरी नहीं था । ठाकरे ने इसके खिलाफ जो राजनीतिक जमीन बनानी शुरु कि उसमें मुसलमान और दक्षिण भारतीय सबसे पहले टारगेट हुए । अपने अखबार मार्मिक में कार्टून और लेख के जरिए मराठियो में किस तरीके की बैचेनी है, इसे ठाकरे ने अपने विलक्षण अंदाज में पेश किया--"सभी लुंगी वाले अपराधी, जुआरी,अवैध शराब खिंचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट है.......मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्ट्रीयन हो और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो । " इस भाषा और तेवर ने 1967 में संसदीय निर्वाचन में एक प्रेशर गुट के रुप में ठाकरे ने अपनी उपयोगिता साबित कर दी । और 1968 में नगर निगम चुनाव में लगभग अकेले दम पर सबसे ज्यादा वोट पा कर दिखा दिया। दरअसल, यही वह समझ और राजनीति है, जिसे चालीस साल बाद राजठाकरे की जुबान उगल रही है । बीते चालीस साल में इसी राजनीति को करते हुये बाल ठाकरे सत्ता तक भी पहुचे और लोकतांत्रिक संसदीय जुबान बोलने पर सत्ता हाथ से गयी भी । जो राजनीतिक जमीन बाल ठाकरे ने शिवसेना के जरिए बनायी, संयोग से वह जमीन और मुद्दे तो वही रह गये...शिवसेना और बाल ठाकरे उससे इतना आगे निकल गये कि उनका लौटना मुश्किल है । इसलिये जिस दौर में शिवसेना अपनी ही बनायी राजनीतिक जमीन खो रही थी उसे कुछ अंतराल के लिये नारायण राणे ने संभाला । नारायण राणे का तरीका भी बाल ठाकरे वाला ही था । और इसी तरीके ने नारायम राणे को कोंकण से आगे महाराष्ट्र की राजनीति में स्थापित किया । कांग्रेस के चश्मे से यह वहीं लुंपेन राजनीति थी, जिसे बाल ठाकरे साठ के दशक में कर रहे थे और राजनीतिज्ञ शिवसेना को जज्बाती राजनीति की देन और आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास के लिये खतरा बता कर खामोश हो रहे थे। शिवसेना इसी राजनीति को अब पूंछ से पकड कर युवा बालासाहेब की याद अपने वोटरो को दिला कर धमकाती भी रहती है । लेकिन राजठाकरे के पास उसी तरह खोने के लिये कुछ नहीं है जैसे बाला साहेब के पास चालीस साल पहले खोने के लिये कुछ नही था। ऐसे में चालीस साल बाद राजठाकरे का समाज विरोधी आंदोलन भी राजनीतिक लाभ की जमीन बनता जा रहा है।
लेकिन इस राजनीति का दूसरा सच कहीं ज्यादा बड़ा है । रोजगार और क्षेत्रियता का जो संकट अलग अलग साठ के दशक में था, दरअसल 2008 में वही क्षेत्रियता अब रोजगार को भी साथ जोड़ चुकी है । शिवेसना की लुंपेन राजनीति ने सत्ता सुकुन पाते ही जैसे ही साथ छोड़ा, वैसे ही उस रोजगार पर भी संकट आ गया जो शिवसैनिकों को भष्ट्र होते तंत्र में लाभ के बंदरबांट में मिल जाती थी। चूंकि इस दौर में महाराष्ट्र का खासा आर्थिक विकास हुआ लेकिन सत्ता और एक वर्ग विशेष के गठजोड़ ने सबकुछ समेटा इसलिये वह तबका, जिसे न्यूनतम के जुगाड के लिये रोजगार चाहिये था वह ना तो बाजार या तंत्र से मिला और शिवसेना जो इस गठजोड के मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लगातार राजनीति कर रही थी, जब उसने भी लीक बदली तो शिवसैनिको के सामने कुछ नहीं था। मिलो के बंद होने और जिले दर जिले महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगमो में लगे उघोगो के बंद होने से जहां रोजगार गायब होते गये वहीं भू-माफिया राजनीति के नये औजार के तौर पर उभरा। इस नये धंधे में काग्रेस-बीजेपी-शिवसेना और राजठाकरे की भी हिस्सेदारी थी तो इसका मुनाफा भी उस बहुसंख्यक मराठी तबके के पास नहीं पहुचा जिसकी ट्रेनिग शिवसेना के जरीये हुई थी । इस बडे तबके को कैसे सडक पर उतार कर उसकी भावनाओ को हथियार बनाना है, यह राजठाकरे ने अपने चाचा बाल ठाकरे की छत्रछाया में चालीस साल में बखुबी सीखा । लेकिन ठाकरे परिवार की राजनीति के सामानातातर दो सवाल थाबां लोकतंत्र के नाम पर खडे होते है कि ऐसे में जनता की चुनी सरकार कहां है? विलासराव देशमुख सरकार के सत्ता में बने रहने के लिये लोकतंत्र थांबा कहना मजबूरी है । कांग्रेस के बंटने या टूटने के बाद कांग्रेस को भी इसका एहसास है और नेशनलिस्ट काग्रेस पार्ट्री के लिये भी कि वह मराठी मानुष को ना छेड़े । क्योंकि वोटरों की फेरहिस्त में मराठी मानुष की भावनाओं को कोई राजनीतिक दल अपने साथ तभी कर सकती है, जब उनकी न्यूनतम जरुरतो को भी सरकार की विकास की रेखा पूरी कर दे। यह सवाल उठ सकता है कि आखिर क्यों मराठी मानुष सरीखे मुद्दे पर राजनीति उस राज्य में की जा रही है, जहां किसान सबसे ज्यादा खुदकुशी कर रहा है । जहां सबसे ज्यादा बिजली संकट हो चला है । जहां किसी भी राज्य से ज्यादा विकास की विसंगतियां है । जहां का प्रभु वर्ग सात सितारा जीवन जी रहा है तो बहुसंख्य तबका न्यूनतम की जद्दोजहद में जान गंवा रहा है । हकीकत में राजठाकरे के लिये यही समस्याये ही आक्सीजन का काम कर रही हैं और सरकार के सामने टुकुर टुकुर ताकने के अलावे कोई दूसरा चारा नहीं है ।
अब सवाल है कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को ऐसे में माफी मांगने की जरुरत क्या है । दरअसल, सवाल मुबंई या महाराष्ट्र का नहीं है कि अमिताभ यहा रहे और महानायक बने है तो उन्हें उस जमीन का गुणगान करना चाहिये । सवाल है कि अमिताभ जिस माध्यम के सहारे महानायक बने है, वह माध्यम विकसित होता गया है । उससे जुड़े लोगों ने भरपूर मुनाफा कमाया है । लेकिन सुख-सुविधा की इस जमीन के बनने के बाद ही अमिताभ का संकट शुरु होता है । दरअसल, अमिताभ के महानायक बनने के पीछे भी उसी तबके का आक्रोष है, जिसे फिल्मो के जरीये अमिताभ ने कमाया है और राजठाकरे अब कमाना चाह रहे है । अमिताभ की फिल्मो ने गुस्साये लोगो को सरोकार की भाषा भी बतायी और जुल्म के खिलाफ लड़ने की हिम्मत भी दी । लेकिन अमिताभ एक्टिग करते हैं । और तीस साल से कलाकारी के जरीये वह शिवसेना के उस शिवसैनिक को भी वही घुट्टी पिलाते आ रहे है जो राजठाकरे के नवनिर्माण सैनिक अलग अलग परिवेश में रह कर पीते आये है । इस सफलता ने अमिताभ को दुनिया से तो जोड़ा लेकिन अपने ही समाज से काट दिया है । समाज के आक्रोष-तनाव को एक्टिंग की अफीम पिला कर अगर बॉलीवुड का कोई कलाकार मुनाफा कमाता है तो भवनात्मक मुद्दा बनने पर अगर वही समाज उसे निशाना बनाने लगेगा तो माफी की परिभाषा को समझना होगा । अमिताभ की माफी राजठाकरे से नहीं अपने आप से है, जो लोगो से कटकर लोगों की बात करते हुये उन्होने खुद को महानायक बनाया है । ठीक उसी तरह जिस तरह सरकार की खामोशी अपने आप के लिये है । ठीक उसी तरह जिस तरह बाल ठाकरे की अमिताभ की बढाई करना अपने लिये संसदीय मुखौटे को बरकरार रखना है। ठीक उसी तरह जिस तरह राज ठाकरे का मराठी मानुष अपने लिये किसी तरह सत्ता में दस्तक देना चाहता है । इसीलिये अभी लोकतंत्र थांबा है।
Tuesday, September 9, 2008
बालीवुड की नजर में फेल हो चुके है राज्य !
ये किताब रुसी लेखक अलेक्जेन्डर बुश्किन की है...बहुत शानदार लिखा है..सुनो....और वक्त तुर्कमानी घोड़ों की तरह भागता चला गया.........."
"चमकू " फिल्म का यह संवाद नक्सली नेता का एक बच्चे से है । यह उस बच्चे की ट्रेनिंग है, जो फिल्म का नायक बनेगा। एसेंस की तरह नक्सलवाद को छू कर बाजारु होने की दिशा में बढती फिल्म राज्य की हर उस पहल पर सवाल उठाती है , जो हिंसा को खत्म करने के लिये प्रतिहिंसा का आसरा लेती है। एक दूसरी फिल्म "मुखबिर" भी हिंसा को खत्म करने के लिये राज्य की हिंसक पहल के लिए राज्य को ही कटघरे में खडा करती है । फिल्म "वेडनस-डे" भी आंतकवाद के खिलाफ राज्य की हिंसक कार्रवायी को लेकर एक ऐसा सवाल खडा करती है, जहां आम आदमी असहाय और विकल्पहीन नजर आता है।
दरअसल, बॉलीवुड की हाल की फिल्मो में यह साफ उभारा जा रहा है कि नायक की खलनायकी के पीछे राज्य की खलनायक पहल है। और खलनायक होते हुये भी नायक का चरित्र बरकरार रहता है लेकिन राज्य की खलनायकी का चेहरा और ज्यादा विकृत होते जाता है । लेकिन तीन नयी फिल्म चमकू, मुखबिर और वेडनसडे में बेहद महीन तरीके से मानवाधिकार संगठनो की उस आवाज को बुलंदी दी गयी है, जिसमें बार बार नक्सलवाद, आंतकवाद और कट्टरपंथी हिंसा के नाम पर राज्य की पहल किस तरह आंतकवादी या हिंसात्मक हो जाती है, और जिसे स्टेट टेरर के नाम से बार बार उठाया जाता है।
समाज में हिंसा की वजह राज्य की नाकाम नीतियां है । नाकाम नीतियों की वजह से उसके भुक्तभोगियों के सामने प्रतिहिंसा के अलावे कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता । और इस प्रतिहिंसा का लाभ राज्य कैसे उठाता है और स्टेट टेरर का साधन इन प्रतिहिंसा करने वालो को कैसे बनाता है, बॉलीवुड की इन तीनो नयी फिल्मों में बखूबी नज़र आता है।
दरअसल, पुलिस महकमा नाकाम हो चुका है , यह सिनेमायी पर्दे पर सत्तर के दशक में नजर आने लगा । लेकिन पुलिस के साथ साथ प्रशासन भी भष्ट्र और नाकाम हो रहा है, यह नब्बे के दशक में उभरा । लेकिन बीते डेढ़ दशक में आंतकवाद और नक्सलवाद को लेकर राज्य ने सुरक्षा की जो पहल की उसमें राजनेता और खुफिया विभाग के अलावा एक विशेष एजेंसी का जिक्र हर बार आया । लेकिन, आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के जो तरीके राज्य ने अपनाये और दोनो की हिंसा या प्रसार में जो तेजी इसी दौर में हुई उसने राज्य की पहल को लेकर यूं भी समाज के भीतर एक बहस तो छेड ही रखी है। नक्सलवाद को लेकर छत्तीसगढ सरकार का सलवाजुडुम का प्रयोग अब बॉलीबुड का मसाला बन चुका है । सलवाजुडुम में वही आदिवासी बंदूक उठाये हुये हैं, जिनके लिये नक्सलवाद लड़ने का ऐलान करता है । लेकिन नक्सलवाद की बंदूक राज्य के खिलाफ है और सलवाजुडुम में शामिल आदिवासियों की बंदूक राज्य की लाइसेंसी बंदूक है। सवाल है कि सलवाजुडुम को लेकर जब सुप्रीमकोर्ट यह सवाल खड़ा करता है कि राज्य किसी को भी बंदूक कैसे थमा सकता है, और राज्य सरकार जबाब देती है कि इन आदिवासियो की सुरक्षा की उसे चिंता है और आदिवासी आत्मसुरक्षा को लेकर राज्य से गुहार लगा रहे है तो राज्य के सामने भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
सवाल है कि यहां राज्य से सुप्रीमकोर्ट यह सवाल नही करता कि नक्सलवाद की वजह क्या है या फिर पुलिस महकमा क्या पुरी तरह नाकाम हो गया है। लेकिन बॉलीवुड इस सच को पकड़ता है और बॉलीवुड पहुंचते-पहुंचते सुप्रीमकोर्ट का यह सवाल बिलकुल नये कलेवर के साथ सामने आता है। जहां नक्सलवादियों से मानवीयता की ट्रेनिग पाया "चमकू"का नायक नक्सलवादियों के राज्य की गोलियों से खत्म होने के बाद राज्य के लिये सबसे बेहतरीन खुफिया सुरक्षाकर्मी साबित होता है। चूंकि ट्रेनिंग नक्सलवाद की है तो राज्य का खुफिया अधिकारी यह कहने से नहीं घबराता कि राजनीतिक समझ चमकू की बेहद उम्दा है । जिन परिस्थितयों में जंगलों में रहना पड़ता है, उसमें राज्य के अधिकारी यह मानने से नहीं कतराते की किसी भी पुलिसकर्मी या सुरक्षाकर्मी से ज्याद तेज-फुर्तीला चमकू है । इतना ही नहीं हर कट्टरपंथी हिंसा और आंतकवाद को भेदने के लिये चमकू सरीखा नायक उनके पास नहीं है । लेकिन चमकू इन परिस्थितयो में जिन वजहों से आया वह राज्य की ही कमजोर नीतियों का नतीजा है , इसपर जहां जहां सवाल उठने की गुंजाइश बनती है वहां वहां राज्य खामोशी की चादर ओढ लेता है । चालीस साल में छह जिलों से देश के सवा सौ जिलों में नक्सलवाद फैल गया, इसकी वजहो पर कभी गृहमंत्रालय की रिपोर्ट तैयार नही हुई। आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में विकास की लकीर ना खिंचने की जो वजहें रही, उसको उभारने की हिम्मत देश की किसी सरकार ने नहीं की । चमकू के पिता का हत्यारा और उसे मौत के मुंह में पहुचाने वाला शख्स राज्य की व्यव्स्था का हिस्सा बनकर सट्टेबाजी का किंग बन चुका है और उसे मारना नामुमकिन है, सेंसरबोर्ड चमकू में यह बताने की इजाजत तो दे देता है लेकिन जो हिंसा नक्सलवाद और आंतकवांद के नाम पर हो रही है उनके पीछे राज्य का कितना आंतक है, यह सवाल आते ही मंत्री या देशभक्ति का एसा जज्बा जगाया जाता है कि हर कोई लाचार हो जाता है । यह लाचारी किस हद तक समाज के भीतर या कहे राज्य के सिस्टम में मौजूद है इसे "मुखबिर" में कई स्तर पर उठाया गया है।
अगर राज्य की नीतिया राज्यहीत के ही खिलाफ है , तो कोई न्याय की गुहार कहां करेगा । खास कर जो राज्य व्यवस्था के चक्रव्यू में फंस जाये और एक तरफ राज्य को एहसास हो कि उसने गलत तो किया है लेकिन गलती मानने का मतलब अपने उपर सीधे सवाल खडा करना हो तो ऐसे में कुछ मासूम जिंन्दगियों से खिलवाड़ में फर्क क्या पडता है । यह सवाल फिल्म " वेडनेसडे " उठाती है । लेकिन हर विकल्प और समाधान का रास्ता किस तरह हिंसा की गिरफ्त में जा रहा है, इसे अगर राष्ट्रीय मानवाधिकार रिपोर्ट में राज्य की हिंसा के बढते आंकडे से समझा जा सकता है तो फिल्म में राज्य का अपने ही नागरिको को लेकर संवाद की हर स्थिति खत्म करने की पहल और न्याय के बंद होते रास्तों से समझा जा सकता है।
मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में पिछले दो दशको में करीब पचास हजार निर्दोष आदमी को जेल की सलाखो के पीछे पहुचना पड़ा । करीब एक लाख से ज्यादा मामले है, जिसमें राज्य की भूमिका पर उंगली उठी है और हर साल समूचे देश में हर राज्य में करीब सौ से ज्यादा मामले होते ही है, जिसमें राजनेताओं को संसदीय राजनीति के अधिकार में छूट मिल जाती है या दंबगई से छूट ले लेते है । खासबात यह है कि उस सच को राज्य भी सूंड से पकडने से घबराता है और बॉलीवुड अपनी कला के जरीये पूंछ से ही मुद्दे को पकड़ कर सूंघ दिखाने का प्रयास कर रहा है । आंतकवादी हिंसा की प्लानिंग करने वाले मुखिया को लेकर अभी राज्य ने बहस शुरु नहीं की है लेकिन सिनेमाई पर्दे पर इसका सच सामने आने लगा है । राज्य की खुफिया एंजेंसी आंकतवादी हिंसा को आंजाम देने वाले प्यादो को लेकर तो छोटे और पिछडे गरीब शहरो की तरफ अपनी रिपोर्ट में लगातार उंगली उठा रही है, और उस तबके पर भी नजर रखने की दिशा में राज्य को हिदायत दे रही है, जिन्हें आईएसआई अपना औजार बना रही है। जो बतौर नौकरी या रोजगार के तौर पर आंतकवादी हिंसा को अंजाम देने से नहीं चुक रहे है। राज्य का तंत्र जिस रुप में काम कर रहा है उसमें राज्य एक खास तबके का होकर रह जा रहा है और बहुसंख्य तबके के साथ राज्य का संवाद खत्म होता जा रहा है । संवाद खत्म होने की स्थिति में फिल्म"वेनसडे" में अगर नसीररुद्दीन के सामने आंतकवादी हिंसा के जरीये अपनी बात कहने के अलावे कोइ दूसरा रास्ता नहीं बचता तो फिल्म"मुखबिर"में इस तरह की आंतकवादी हिंसा को नाकाम करने के लिये राज्य की हिंसा का औजार भी कैसे वही मासूम-निर्दोष आम शख्स बन जाता है, इसे बखूबी दिखाया गया है । आतंकवादी हिंसा के पीछे जो लोग है वह किन मनोस्थितियों में से लगातार गुजर रहे है और आंतकवाद को खत्म करने के लिये राज्य की पहल किन मनोस्तियों में कैसे महज रिपोर्ट और प्रमोशन के ही इर्द-गिर्द घुमने लगी है , और राजनीति सत्ता को बरकरार रखने या सत्ता बनाने का कैसा खेल खेलने लगती है अब यह भी सिनेमायी पर्दे पर उभरने लगा है । खास बात यह भी है कि की जिन मुद्दों पर बहस करने से राज्य बच रहा है , उस और बॉलीवुड की नजर है । अलग अलग जगहो पर हिंसक घटनाओं पर हुई राजनीति से समाज के भीतर खटास पैदा हुई है और आंतकवाद को लेकर राजनीतिक दल ना सिर्फ एक दूसरे पर निशाना साध रहे है बल्कि केन्द्र सरकार को भी कटधरे में यह कहते हुये खड़ा किया किया जा रहा है कि उसकी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की वजह से आंतकवाद की घटनाएं बढ़ी हैं, ऐसे में फिल्म"वेनेसडे"में आंतकवादी का नाम और मजबह तक ना बताना उस सकारात्मक समाधान की तरफ ले जाता है, जिससे राज्य लगातार बचता रहा है। और हाल के दौर में जानबूझकर बचना भी चाहता है।
इतना ही नहीं फिल्म"वेडनसडे" आंतकंवादी को बिना सजा दिलाये, जिस मोड़ पर खत्म हो जाती है, वह राज्य के फेल होने की उस दास्तां को उभार देती है, जिसमें हर बार किसी भी आंतकवादी घटना के बाद किसी को भी पकड़ कर उसे सजा दिलाने की जद्दोजहद में पुलिस-खुफिया एजेंसी जुट जाती है । खुद को सफल बताने के लिये नयी कहानी गढती है लेकिन अदालत की चौखट पर सबकुछ फेल हो जाता है और एक वक्त के बाद आरोपी छूट जाता है और लोग भी भूल जाते है कि कौन सा आरोपी किस घटना का जिम्मेदार था, जिसे सजा मिली या नहीं । लेकिन फिल्मों को देखने के बाद यह सवाल आपके भीतर बार बार उभरेगा कि नक्सलवाद-आंतकवाद और कट्टरपंथियो की हिंसा की काट राज्य की प्रतिहिंसा हो चली है । जिसमें जान मासूम और निर्दोष की ही जायेगी क्योकि इस सिस्टम में आम आदमी के पास कोई विकल्प नही बचा है ।
खैर पश्चिम बंगाल के वामपंथ के पूंजीवादी चेहरे पर चर्चा अगली बार।
"चमकू " फिल्म का यह संवाद नक्सली नेता का एक बच्चे से है । यह उस बच्चे की ट्रेनिंग है, जो फिल्म का नायक बनेगा। एसेंस की तरह नक्सलवाद को छू कर बाजारु होने की दिशा में बढती फिल्म राज्य की हर उस पहल पर सवाल उठाती है , जो हिंसा को खत्म करने के लिये प्रतिहिंसा का आसरा लेती है। एक दूसरी फिल्म "मुखबिर" भी हिंसा को खत्म करने के लिये राज्य की हिंसक पहल के लिए राज्य को ही कटघरे में खडा करती है । फिल्म "वेडनस-डे" भी आंतकवाद के खिलाफ राज्य की हिंसक कार्रवायी को लेकर एक ऐसा सवाल खडा करती है, जहां आम आदमी असहाय और विकल्पहीन नजर आता है।
दरअसल, बॉलीवुड की हाल की फिल्मो में यह साफ उभारा जा रहा है कि नायक की खलनायकी के पीछे राज्य की खलनायक पहल है। और खलनायक होते हुये भी नायक का चरित्र बरकरार रहता है लेकिन राज्य की खलनायकी का चेहरा और ज्यादा विकृत होते जाता है । लेकिन तीन नयी फिल्म चमकू, मुखबिर और वेडनसडे में बेहद महीन तरीके से मानवाधिकार संगठनो की उस आवाज को बुलंदी दी गयी है, जिसमें बार बार नक्सलवाद, आंतकवाद और कट्टरपंथी हिंसा के नाम पर राज्य की पहल किस तरह आंतकवादी या हिंसात्मक हो जाती है, और जिसे स्टेट टेरर के नाम से बार बार उठाया जाता है।
समाज में हिंसा की वजह राज्य की नाकाम नीतियां है । नाकाम नीतियों की वजह से उसके भुक्तभोगियों के सामने प्रतिहिंसा के अलावे कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता । और इस प्रतिहिंसा का लाभ राज्य कैसे उठाता है और स्टेट टेरर का साधन इन प्रतिहिंसा करने वालो को कैसे बनाता है, बॉलीवुड की इन तीनो नयी फिल्मों में बखूबी नज़र आता है।
दरअसल, पुलिस महकमा नाकाम हो चुका है , यह सिनेमायी पर्दे पर सत्तर के दशक में नजर आने लगा । लेकिन पुलिस के साथ साथ प्रशासन भी भष्ट्र और नाकाम हो रहा है, यह नब्बे के दशक में उभरा । लेकिन बीते डेढ़ दशक में आंतकवाद और नक्सलवाद को लेकर राज्य ने सुरक्षा की जो पहल की उसमें राजनेता और खुफिया विभाग के अलावा एक विशेष एजेंसी का जिक्र हर बार आया । लेकिन, आतंकवाद और नक्सलवाद से निपटने के जो तरीके राज्य ने अपनाये और दोनो की हिंसा या प्रसार में जो तेजी इसी दौर में हुई उसने राज्य की पहल को लेकर यूं भी समाज के भीतर एक बहस तो छेड ही रखी है। नक्सलवाद को लेकर छत्तीसगढ सरकार का सलवाजुडुम का प्रयोग अब बॉलीबुड का मसाला बन चुका है । सलवाजुडुम में वही आदिवासी बंदूक उठाये हुये हैं, जिनके लिये नक्सलवाद लड़ने का ऐलान करता है । लेकिन नक्सलवाद की बंदूक राज्य के खिलाफ है और सलवाजुडुम में शामिल आदिवासियों की बंदूक राज्य की लाइसेंसी बंदूक है। सवाल है कि सलवाजुडुम को लेकर जब सुप्रीमकोर्ट यह सवाल खड़ा करता है कि राज्य किसी को भी बंदूक कैसे थमा सकता है, और राज्य सरकार जबाब देती है कि इन आदिवासियो की सुरक्षा की उसे चिंता है और आदिवासी आत्मसुरक्षा को लेकर राज्य से गुहार लगा रहे है तो राज्य के सामने भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
सवाल है कि यहां राज्य से सुप्रीमकोर्ट यह सवाल नही करता कि नक्सलवाद की वजह क्या है या फिर पुलिस महकमा क्या पुरी तरह नाकाम हो गया है। लेकिन बॉलीवुड इस सच को पकड़ता है और बॉलीवुड पहुंचते-पहुंचते सुप्रीमकोर्ट का यह सवाल बिलकुल नये कलेवर के साथ सामने आता है। जहां नक्सलवादियों से मानवीयता की ट्रेनिग पाया "चमकू"का नायक नक्सलवादियों के राज्य की गोलियों से खत्म होने के बाद राज्य के लिये सबसे बेहतरीन खुफिया सुरक्षाकर्मी साबित होता है। चूंकि ट्रेनिंग नक्सलवाद की है तो राज्य का खुफिया अधिकारी यह कहने से नहीं घबराता कि राजनीतिक समझ चमकू की बेहद उम्दा है । जिन परिस्थितयों में जंगलों में रहना पड़ता है, उसमें राज्य के अधिकारी यह मानने से नहीं कतराते की किसी भी पुलिसकर्मी या सुरक्षाकर्मी से ज्याद तेज-फुर्तीला चमकू है । इतना ही नहीं हर कट्टरपंथी हिंसा और आंतकवाद को भेदने के लिये चमकू सरीखा नायक उनके पास नहीं है । लेकिन चमकू इन परिस्थितयो में जिन वजहों से आया वह राज्य की ही कमजोर नीतियों का नतीजा है , इसपर जहां जहां सवाल उठने की गुंजाइश बनती है वहां वहां राज्य खामोशी की चादर ओढ लेता है । चालीस साल में छह जिलों से देश के सवा सौ जिलों में नक्सलवाद फैल गया, इसकी वजहो पर कभी गृहमंत्रालय की रिपोर्ट तैयार नही हुई। आदिवासी-ग्रामीण इलाकों में विकास की लकीर ना खिंचने की जो वजहें रही, उसको उभारने की हिम्मत देश की किसी सरकार ने नहीं की । चमकू के पिता का हत्यारा और उसे मौत के मुंह में पहुचाने वाला शख्स राज्य की व्यव्स्था का हिस्सा बनकर सट्टेबाजी का किंग बन चुका है और उसे मारना नामुमकिन है, सेंसरबोर्ड चमकू में यह बताने की इजाजत तो दे देता है लेकिन जो हिंसा नक्सलवाद और आंतकवांद के नाम पर हो रही है उनके पीछे राज्य का कितना आंतक है, यह सवाल आते ही मंत्री या देशभक्ति का एसा जज्बा जगाया जाता है कि हर कोई लाचार हो जाता है । यह लाचारी किस हद तक समाज के भीतर या कहे राज्य के सिस्टम में मौजूद है इसे "मुखबिर" में कई स्तर पर उठाया गया है।
अगर राज्य की नीतिया राज्यहीत के ही खिलाफ है , तो कोई न्याय की गुहार कहां करेगा । खास कर जो राज्य व्यवस्था के चक्रव्यू में फंस जाये और एक तरफ राज्य को एहसास हो कि उसने गलत तो किया है लेकिन गलती मानने का मतलब अपने उपर सीधे सवाल खडा करना हो तो ऐसे में कुछ मासूम जिंन्दगियों से खिलवाड़ में फर्क क्या पडता है । यह सवाल फिल्म " वेडनेसडे " उठाती है । लेकिन हर विकल्प और समाधान का रास्ता किस तरह हिंसा की गिरफ्त में जा रहा है, इसे अगर राष्ट्रीय मानवाधिकार रिपोर्ट में राज्य की हिंसा के बढते आंकडे से समझा जा सकता है तो फिल्म में राज्य का अपने ही नागरिको को लेकर संवाद की हर स्थिति खत्म करने की पहल और न्याय के बंद होते रास्तों से समझा जा सकता है।
मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में पिछले दो दशको में करीब पचास हजार निर्दोष आदमी को जेल की सलाखो के पीछे पहुचना पड़ा । करीब एक लाख से ज्यादा मामले है, जिसमें राज्य की भूमिका पर उंगली उठी है और हर साल समूचे देश में हर राज्य में करीब सौ से ज्यादा मामले होते ही है, जिसमें राजनेताओं को संसदीय राजनीति के अधिकार में छूट मिल जाती है या दंबगई से छूट ले लेते है । खासबात यह है कि उस सच को राज्य भी सूंड से पकडने से घबराता है और बॉलीवुड अपनी कला के जरीये पूंछ से ही मुद्दे को पकड़ कर सूंघ दिखाने का प्रयास कर रहा है । आंतकवादी हिंसा की प्लानिंग करने वाले मुखिया को लेकर अभी राज्य ने बहस शुरु नहीं की है लेकिन सिनेमाई पर्दे पर इसका सच सामने आने लगा है । राज्य की खुफिया एंजेंसी आंकतवादी हिंसा को आंजाम देने वाले प्यादो को लेकर तो छोटे और पिछडे गरीब शहरो की तरफ अपनी रिपोर्ट में लगातार उंगली उठा रही है, और उस तबके पर भी नजर रखने की दिशा में राज्य को हिदायत दे रही है, जिन्हें आईएसआई अपना औजार बना रही है। जो बतौर नौकरी या रोजगार के तौर पर आंतकवादी हिंसा को अंजाम देने से नहीं चुक रहे है। राज्य का तंत्र जिस रुप में काम कर रहा है उसमें राज्य एक खास तबके का होकर रह जा रहा है और बहुसंख्य तबके के साथ राज्य का संवाद खत्म होता जा रहा है । संवाद खत्म होने की स्थिति में फिल्म"वेनसडे" में अगर नसीररुद्दीन के सामने आंतकवादी हिंसा के जरीये अपनी बात कहने के अलावे कोइ दूसरा रास्ता नहीं बचता तो फिल्म"मुखबिर"में इस तरह की आंतकवादी हिंसा को नाकाम करने के लिये राज्य की हिंसा का औजार भी कैसे वही मासूम-निर्दोष आम शख्स बन जाता है, इसे बखूबी दिखाया गया है । आतंकवादी हिंसा के पीछे जो लोग है वह किन मनोस्थितियों में से लगातार गुजर रहे है और आंतकवाद को खत्म करने के लिये राज्य की पहल किन मनोस्तियों में कैसे महज रिपोर्ट और प्रमोशन के ही इर्द-गिर्द घुमने लगी है , और राजनीति सत्ता को बरकरार रखने या सत्ता बनाने का कैसा खेल खेलने लगती है अब यह भी सिनेमायी पर्दे पर उभरने लगा है । खास बात यह भी है कि की जिन मुद्दों पर बहस करने से राज्य बच रहा है , उस और बॉलीवुड की नजर है । अलग अलग जगहो पर हिंसक घटनाओं पर हुई राजनीति से समाज के भीतर खटास पैदा हुई है और आंतकवाद को लेकर राजनीतिक दल ना सिर्फ एक दूसरे पर निशाना साध रहे है बल्कि केन्द्र सरकार को भी कटधरे में यह कहते हुये खड़ा किया किया जा रहा है कि उसकी मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति की वजह से आंतकवाद की घटनाएं बढ़ी हैं, ऐसे में फिल्म"वेनेसडे"में आंतकवादी का नाम और मजबह तक ना बताना उस सकारात्मक समाधान की तरफ ले जाता है, जिससे राज्य लगातार बचता रहा है। और हाल के दौर में जानबूझकर बचना भी चाहता है।
इतना ही नहीं फिल्म"वेडनसडे" आंतकंवादी को बिना सजा दिलाये, जिस मोड़ पर खत्म हो जाती है, वह राज्य के फेल होने की उस दास्तां को उभार देती है, जिसमें हर बार किसी भी आंतकवादी घटना के बाद किसी को भी पकड़ कर उसे सजा दिलाने की जद्दोजहद में पुलिस-खुफिया एजेंसी जुट जाती है । खुद को सफल बताने के लिये नयी कहानी गढती है लेकिन अदालत की चौखट पर सबकुछ फेल हो जाता है और एक वक्त के बाद आरोपी छूट जाता है और लोग भी भूल जाते है कि कौन सा आरोपी किस घटना का जिम्मेदार था, जिसे सजा मिली या नहीं । लेकिन फिल्मों को देखने के बाद यह सवाल आपके भीतर बार बार उभरेगा कि नक्सलवाद-आंतकवाद और कट्टरपंथियो की हिंसा की काट राज्य की प्रतिहिंसा हो चली है । जिसमें जान मासूम और निर्दोष की ही जायेगी क्योकि इस सिस्टम में आम आदमी के पास कोई विकल्प नही बचा है ।
खैर पश्चिम बंगाल के वामपंथ के पूंजीवादी चेहरे पर चर्चा अगली बार।
Sunday, September 7, 2008
लाखों की सेलरी लेकर शीशे से दुनिया देखते हैं जर्नलिस्ट !
अब जर्नलिस्टों की क्लास बदल गई है, खबर समझने के लिए इन्हें खुद को डी-क्लास करना होगा, आज तक चैनल छोड़ते वक्त एक्जिट नोट में लिखा था...''अच्छा काम करने गलत जगह जा रहा हूं''
हमारा हीरो
पुण्य प्रसून वाजपेयी। जिनका नाम ही काफी है। समकालीन हिंदी मीडिया के कुछ चुनिंदा अच्छे पत्रकारों में से एक। कभी आज तक, कभी एनडीटीवी, कभी सहारा तो अब जी न्यूज के साथ।
जिस चैनल में पुण्य प्रसून रहे, वहां उस चैनल के वे फेस बन गए, आइकान बन गए, ब्रांड एंबेसडर बन गए। उनका दढ़ियल चेहरा, उनकी आवाज़, उनका अंदाज़, उनके तर्क, उनकी बातें...ये सब मिल-जुल कर क्रिएट करतीं हैं एक कल्ट। एक फीगर। एक पर्सनाल्टी। एक हीरो। हमारा हीरो। हिंदी मीडिया का हीरो। अब जबकि हर जगह टीआरपी और बाजार का बाजा बज रहा है, इसके लय पर मीडिया वाले नाच रहे हैं, पुण्य प्रसून ताल ठोंक कर कहते हैं कि असली खबरों से टीआरपी लाई जा सकती है लेकिन इसके लिए मेहनत करना पड़ेगा और आज के पत्रकार मेहनत नहीं करना चाहते क्योंकि वो लाखों की सेलरी लेकर खुद का क्लास बदल चुके हैं। इन्हें खुद को डी-क्लास करना होगा। पुण्य प्रसून पिछले महीनों तक सहारा टीवी को लेकर मीडिया की सर्किल में सुर्खियों में रहे। वे धूमधाम से सहारा को री-लांच करने के वास्ते अपनी टीम के साथ आए और लांचिंग के कुछ दिनों बाद छोड़कर चलते बने। पुण्य प्रसून इस पूरे मामले पर विस्तार से बात करने के बाद एक चीज साफ-साफ कहते हैं- मैंने जब आज तक चैनल छोड़ा था तभी एक्जिट नोट में लिख दिया था ...अच्छा काम करने गलत जगह जा रहा हूं। पुण्य प्रसून के लिए पत्रकारिता कोई करियर या पेशा या नौकरी नहीं बल्कि ज़िंदगी है। वे पत्रकारिता को ही ओढ़ते-बिछाते हैं। और ये आदत, ये नशा उन्हें संस्कार में मिला है। बचपन से। पारिवारिक पृष्ठभूमि और मिलने-जुलने वालों की सर्किल ऐसी थी कि वो नक्सल आंदोलन से लेकर संघ के प्रयोगों तक को गहराई से समझ-बूझ सके। आगे बढ़कर प्रयोग करने का साहस, मिशन को अंजाम देने का जुनून, आत्मविश्वास के साथ सच कहने का माद्दा....ये सब बातें पुण्य प्रसून में एक साथ हैं।
अपने शुरुआती जीवन से शुरू करें।
सन 64 में पैदा हुआ। सन 64 में ही विश्व हिंदू परिषद और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण हुआ। इसी साल नेहरू की मौत हुई। जब मैं पांचवीं क्लास में था तो पिता जी उन दिनों दिल्ली में इंडियन इनफारमेशन सर्विस में हुआ करते थे। आल इंडिया रेडियो में नियुक्त थे। सन 75 में इमरजेंसी के वक्त उनका ट्रांसफर पहले रांची फिर दो साल बाद पटना के लिए हुआ। 10वीं की पढ़ाई पटना साइंस कालेज से की। घरवालों की इच्छा मुझे डाक्टर बनाने की थी पर मेरा मन इसमें नहीं था। पटना के बीएन कालेज से पोलिटिकल साइंस में ग्रेजुएशन की डिग्री ली। उन दिनों मेरे चाचा वेद प्रकाश वाजपेयी लेक्चरर हुआ करते थे। पिता जी उन्हें मीडिया में ले आए। चाचा जी नवभारत टाइम्स, पटना में आ चुके थे। तब यहां के संपादक दीनानाथ मिश्र हुआ करते थे। इसके चलते घर में मीडिया पर्सन्स की आवाजाही लगी रहती थी। कवि ज्ञानेंद्र पति से लेकर नक्सलाइट नेता विनोद मिश्र व नागभूषण पटनायक तक के बारे में समझ विकसित हुई। उन दिनों बिहार के उन समस्त पत्रकारों से रूबरू हुआ जो बाद में दिल्ली से लेकर पटना तक में बड़े पत्रकार कहलाए। बात वर्ष 88 की है। अब परिवार दिल्ली शिफ्ट हो चुका था और जेएनयू के पास रहता था। दिल्ली में जामिया मिलिया में कुछ दिन पढ़ाई की पर यहां लड़ाई हो जाने से छह माह बाद इसे छोड़ दिया। मैं भी जेएनयू चला गया। यहां मेरा घर विभिन्न विचारों के लोगों के आने-खाने-रुकने का मंच बन चुका था। यहीं गोरख पांडेय से लेकर अन्य दूसरे प्रबुद्ध लोग आते-जाते रहते थे। कुल मिलाकर इमरजेंसी का दौर व पिता जी के तबादले के चलते कई चीजें समझने को मिलीं। इससे स्वभाव व व्यक्तित्व में जर्नलिज्म सहज रूप से पैदा हो गया। इसी से मैं आज भी जर्नलिज्म को जीता हूं, नौकरी नहीं करता। ऐसा स्वभाव बन चुका है। ऐसी आदत पड़ चुकी है।
अगर सक्रिय पत्रकारिता की बात करें तो यह कब से और कहां से शुरू किया?
बात सन 88, दीवाली की है। तब नागपुर से लोकमत समाचार लांच होने को था। वहां 1000 रुपये महीने पर नौकरी शुरू की और देखते ही देखते इतना मजा आने लगा कि एक महीने बाद फाइनल एडीशन निकालने लगे। नागपुर प्रवास के दौरान यहां संघ का मुख्यालय होने के नाते उसके कई शीर्ष विचारकों से पाला पड़ा। देवरस, जिन्होंने इमरजेंसी में कई प्रयोग किए थे, से डायरेक्ट डिसकशन होता था। उधर आंध्र में पीपुल्स वार ग्रुप अपना विस्तार करते हुए महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के इंडस्ट्रियल बेल्ट में पांव पसार रहा था। छत्तीसगढ़ में शंकर गुहा नियोगी का ट्रेड यूनियन आंदोलन फैल रहा था। इन सारे आंदोलनों, विचारधाराओं के नजदीक जाकर उन पर काम करने व लिखने का मौका मिला। तब मैं हजार रुपये महीने का ट्रेनी जर्नलिस्ट होते हुए भी दिल्ली के अखबारों में इन सभी विषयों पर संपादकीय पेज पर लिखता रहता था। खासकर प्रभाष जोशी जी तमाम आस्पेक्ट पर लिखवाते रहते थे। और हां, नागपुर में एक वाकये की चर्चा जरूर करना चाहूंगा। वहां 8 मार्च 1991 को स्टेट पुलिस के जवानों ने चार आदिवासी महिलाओं से रेप किया। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन हुई इस घटना की पूरी स्टोरी जब फाइल की तो विधानसभा में हंगामा मच गया और सरकार ने रिपोर्ट गलत बताते हुए प्रेस कांफ्रेंस की। शरद पवार ने अपने मंत्री को जांच के लिए भेजा और मंत्री ने चार दूसरी आदिवासी महिलाओं को प्रेस कांफ्रेंस में लाकर बताया कि इनके साथ कोई हादसा नहीं हुआ है। बाद में मै फिर मौके पर पहुंचा और जिन महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ, उन्हें लाकर साबित किया कि सरकार सच को दबाने में कई झूठ बोल गई। बाद में उस मंत्री को मंत्रिमंडल से हटा दिया गया। तो इस तरह से पत्रकारिता के कई डायमेंशन जीने व देखने को मिले।
दिल्ली की पत्रकारिता में आना कैसे हुआ?
मैं नागपुर में 1993 तक रहा। इसके बाद एमपी बेस्ड एक अखबार में कुछ दिनों के लिए चला गया, एडीटर बनके। यह अखबार लांच कराया लेकिन फिर छोड़ दिया। मुंबई में एक बिजनेसमैन मैग्जीन निकालने जा रहा था जिसके चक्कर में मैं भी कई महीने रहा। दिल्ली आना 95 में हुआ। वैसे, पिता जी मुझे दिल्ली लाने के लिए काफी प्रयास कर रहे थे। पर मेरा आने का मन नहीं था। एक बार दिल्ली आया हुआ था तो एसपी सिंह कनाट प्लेस पर मिल गए। मैं उन्हें पहचान गया पर वे मुझे शक्ल से नहीं जानते थे। तब मैं दिल्ली के अखबारों में लिखता रहता था और मैंने एसपी सिंह का एक काम करवाया था, इसलिए मुझे वो नाम से जानते थे। हुआ यूं था कि लोकमत समाचार के मालिक जवाहर लाल डाडा जो उन दिनों मंत्री हुआ करते थे, ने घटिया राशन की सप्लाई कराई थी और इसका जमकर विरोध महिलाओं ने किया था। एसपी ने भी एक तीखा आर्टिकल लिखा था। एसपी पर मुकदमा हुआ। एसपी तब मुंबई में थे और यह मुकदमा यवतमाल के कोर्ट में था। सो एसपी ने कोई ऐसा बंदा तलाशना शुरू किया जो यवतमाल में उनके मामले की पैरवी करे। मैं नागपुर में था और बात मेरे तक पहुंची तो मैंने यवतमाल में एसपी के मुकदमे के लिए वकील की व्यवस्था करा दी और उन्हें निश्चिंत रहने का भरोसा दिया। ये बात मेरे मालिक जवाहर लाल डाडा तक पहुंची तो उन्होंने मुझे बुलवाया और कहा कि तुम नौकरी तो मेरे यहां करते हो और पैरवी मेरे विरोधी के मुकदमे की कर रहे हो। तब मैंने उन्हें विनम्रता से जवाब दिया कि अखबार तो बदला जा सकता है लेकिन पत्रकार नहीं। यह सुनकर मालिक भौचक्का रह गया पर उसने मुझे निकाला नहीं। संभवतः इसके पीछे वजह मेरी उपयोगिता थी। मैं वहां जूनियर होते हुए भी अखबार के लिए काम की चीज बन चुका था। अखबार निकालने में मेरी जिम्मेदारी और भूमिका बढ़ चुकी थी। उन दिनों लोकमत का औरंगाबाद संस्करण भी हम लोगों ने लांच किया।
आप बता रहे थे दिल्ली में एसपी से मुलाकात के बारे में।
हां, एसपी ने साथ काम करने को कहा। एसपी 1995 में आज तक में आ चुके थे। तब मैं लखनऊ से निकलने जा रहे दैनिक हिंदुस्तान में काम करने के लिए प्रयास कर रहा था। आखिरकार मैंने एसपी के साथ सितंबर 1996 से काम करना शुरू किया। 97 में जब एसपी की डेथ हो गई तो मैं प्रभु चावला के पास पहुंचा और आज तक से मुक्त करने का अनुरोध किया। उन्होंने अनुरोध नहीं स्वीकारा और धीरे धीरे एसपी के बिना आज तक में अब देबांग से मन जुड़ने लगा था। तब मुझे आज तक में रिपोर्टिंग नहीं दी जाती थी। लेकिन एक बार जम्मू कश्मीर में हिजबुल के चार टेररिस्टों से राज्य सरकार की बात होने के प्रकरण पर रिपोर्टिंग के लिए मुझे भेजा गया तो मैंने चारों टेररिस्टों से इंटरव्यू करने के साथ फारूक साहब का भी वर्जन एक दिन पहले ही ले लिया और सबसे पहले आज तक के पास यह खबर पहुंचा दी। बात तबकी है जब आज तक चौबीसों घंटे के चैनल के रूप में लांच होने जा रहा था। सन 2000 दिसंबर के लगभग। कई विदेशी लोग ट्रेनिंग देने आज तक में आए थे। उन सभी ने जब ये खबर देखी तो काफी तारीफ की। मुझे याद है कि अरुण पुरी ने तब सबके सामने कहा था कि इसी तरह से आप सभी को इतना विश्वसनीय होना चाहिए कि अगर आप खुद खड़ें हों तो किसी की बाइट की जरूरत न पड़े। आप खुद ही सबसे बड़े प्रमाण व विश्वास हों। उन्हीं दिनों मैं वीजा जुगाड़ कर पीओके भी गया। लश्कर के चीफ, जिसे किसी ने नहीं देखा था, का इंटरव्यू किया। और वो इंटरव्यू करने से पहले टेररिस्टों ने कई घंटे मेरा इंटरव्यू किया था फिर ले गए थे। उस समय लग रहा था कि यहां से जिंदा निकलना मुश्किल है। एक और घटना याद आती है। 26 जनवरी 2001 में गुजरात में भूकंप आया हुआ था और मैं संयोग से मुशर्रफ के साथ बैठा था। मैंने भारत में जलजला आने की बात बताई तो उन्होंने फौरन मदद भेजने का आदेश किया। तब पाक ने मदद भेजी भी थी। कुल मिलाकर उन दिनों में पत्रकारिता को जीने, जूझने, करने और करके ले आने का जो आवेग व आनंद था, उसने जीवंत व लाइव पत्रकारिता को नस-नस में भर दिया।
सहारा ग्रुप के टीवी चैनल में आप यूं गए और यूं चले आए, हुआ क्या था?
(हंसते हुए) सहारा में...। 10 सेकेंड की एक बाइट थी। रेल बजट को लाइव करने की तैयारी की थी। उसमें रेल मंत्री लालू से बात चल रही थी। जब खत्म हुआ तो उन्हें छोड़ने गया। इसी दौरान बातचीत हुई। उन्होंने पूछा- तू इधर आ गइलअ। मैंने कहा- हां, सुधारना था त सुधारे आ गइलीं। लालू का जवाब था- इ सब कभी सुधरे वाला हुउवंन...। ये सारी बातें चलते चलते हो रही थी। ये कुल 10 सेकेंड की बाइट थी और इसका फील ये था कि एक इंटरव्यू खत्म हो रहा है। सवाल था कि यह अंत की 10 सेकेंड की बाइट काटी जाए या न काटी जाए। मैंने इसे बार बार देखा और महसूस हुआ कि ये बाइट इतनी छोटी व चलते चलते है कि इससे कुछ फील नहीं हो रहा सिवाय इसके कि अब इंटरव्यू खत्म हो चुका है और मंत्री जा रहे हैं। मतलब ये फील न होगा कि इस पर ध्यान जाए, इतनी छोटी बाइट है। बस, इसी को सहारा के उन लोगों ने मुद्दा बना लिया जो लोग वहां काम नहीं करना चाहते थे और इस बाइट को उपर भिजवा दिया। सही बात तो ये है कि सहारा में जितने संसाधन हैं और जितना इंफ्रास्ट्रक्चर है, उसमें बहुत कुछ किया जा सकता था लेकिन वहां एक बड़ी जमात ऐसी है जो काम ही नहीं करना चाहती क्योंकि उनका मानना है कि सहारा ऐसे ही चलता है। मेरे पर दबाव आए कि चैनल को छह महीने में री-लांच मत करिए। इसे आगे बढ़ाइए। मैंने कहा कि जब मेरी तैयारियां पूरी हैं और दिन रात एक करके हम लोग तय समय पर री-लांच करने को तैयार हैं तो आपकी मार्केटिंग की दिक्कतों की वजह से हम क्यों चैनल के री-लांच की तारीख को आगे बढ़ाएं। तो प्रेशर था कि टालो, लेट करो, खिसकाओ....और ये अपन में आदत नहीं रही है। तो ऐसे लोग जो काम नहीं करते थे, वे हमें टारगेट किए हुए थे। हम लोगों को सभी चैनलों को ठीक करने का दायित्व था लेकिन हमने पहले नेशनल चैनल को एजेंडे में लिया। रीजनल चैनल पर हम लोगों की साफ राय थी कि इसमें रीजनल महक होनी चाहिए, दिल्ली में बैठे बैठे खबर बनाकर रीजनल चैनल नहीं खड़ा किया जा सकता। इससे रीजनल चैनल वाले लगातार परेशान थे। अब जब रीजनल चैनल पर भी री-लांच को इंप्लीमेंट करने का समय नजदीक था तो यहां के लोग मौके तलाश रहे थे। 10 सेकेंड की बाइट इतना बड़ा मामला नहीं था। बड़ा मामला यही था कि सहारा में हम लोग पत्रकारिता करने गए थे और वहां ढेर सारे बीच के लोग पत्रकारिता न करने देने के लिए कमर कसे थे। ये लोग इंफ्रास्ट्रक्चर का जिस तरह मिस-यूज कर रहे थे, उसे बंद होना था, अगर हम सेकेंड स्टेप में रीजनल चैनल को एजेंडे में ले लेते। सहारा में मैंने ऐसे ऐसे लोग भी देखे जो खून पसीना एक करके काम करते हैं। नंदी ग्राम और गुजरात के कई रिपोर्टरों के काम को मैंने देखा। बेहद मेहनती लोग हैं वो। केवल बीच वाले लोग नहीं चाहते कि कोई काम करे क्योंकि इससे उन्हें भी काम करना पड़ता।
फिर क्या हुआ?
तो वो 10 सेकेंड की बाइट का हिस्सा उन लोगों ने भेज दिया। मुझसे कहा गया कि प्रसून जी, आज एंकरिंग न करिए। दो दिन बाद आम बजट आने वाला था। मैंने कहा- ये क्या मतलब, आपके चैनल का फेस मैं हूं और मुझी से कह रहे हैं कि एंकरिंग न करिए। पहले आपत्ति तो बताओ कि क्यों न करूं एंकरिंग। आम बजट के दिन कहा गया कि अच्छा, आज एंकरिंग कर लीजिए। मैंने कहा कि ये क्या नाटक है भाई। आप प्रोफेशनली मूव करिए। चैनल आपका है, पूंजी आपकी है। एडीटोरियली मैं देख रहा हूं। आप कोई डिसीजन लीजिए। मैंने सुब्रत राय को फोन मिलाया। मैंने उनसे कहा कि आप तय कर लीजिए कि क्या करना है। छोटी सी बात का फसाना बनाने से क्या फायदा। उन्होंने आधे घंटे का समय मांगा। और वो आधा घंटा कई घंटों में खिंच गया। सुमित राय जो सहारा मीडिया को हेड कर रहे हैं, भी उलझन में थे। वे भी न निगल पा रहे थे, न उगल पा रहे थे। उन्होंने सलाह दी कि प्रसून जी, कुछ दिन न करिए। फिर सब ठीक हो जाएगा। मैंने कहा, बंधु पत्रकारिता में कुछ दिन नहीं होता। जो होता है सब तुरंत और सामने होता है। यही प्रोफेशनलिज्म की बात है। आप मेरा इस्तीफा टाइप कराइए। तब मेरे नाम से मेरा ही इस्तीफा टाइप किया गया।
आपने कहा कि सहारा में काम न करने वालों की बड़ी संख्या है, यह कैसे अनुभव किया आपने?
जब मैने ज्वाइन किया तो जिन 175 लोगों की लिस्ट मुझे दी गई उसमें से मैंने सिर्फ 85 लोगों को लिया। बाकी की मेरे लिए कोई जरूरत नहीं थी। यह तो सिर्फ नेशनल चैनल की बात थी। इंटरनल सेटअप में इससे एक तबका हैरान-परेशान था। हम काम कर रहे थे और काम कराना चाहते थे। अगर काम करने का सिर्फ दिखावा भर करना होता तो कहीं भी किया जा सकता था। इस्तीफा देने के बाद सहारा से मेरे पास कई माध्यमों से फोन भी आए। फिर से आफर भी किया गया पर चीजों को यूं ही चलने दिया जाए या ब्रेक कर दिया जाए के विकल्प में मैंने ब्रेक कर देने का विकल्प चुना। आप को हमेशा प्रोफेशनली मूव करना होगा। आप किसी संपादक से कहो कि वो संपादकीय न लिखे, किसी एंकर से कहो कि एंकरिंग न करे....फिर तो हो चुका काम। ये तो इमरजेंसी के दौर में हुआ था कि संपादकीय न लिखो, ये न करो, वो न करो। आप देखिए जब तक हम लोग थे, चैनल को कहां से कहां तक ले आए। चैनल पर लोगों का विश्वास बढ़ा था, चैनल की विश्वसनीयता बढ़ी, ये बात सहारा के ही मार्केटिंग के लोगों ने कबूला। महाश्वेता हों या मेधा पाटकर हों या तस्लीमा नसरीन....सबके एक्सक्लूसिव इंटरव्यू, फोनो चलवाए गए। किसी चैनल में अरुंधती राय आज तक नहीं गईं पर हमने उन्हें बुलाया। तो आपके चैनल को, आपके ब्रांड को समाज के बड़े सेक्शन में मान्यता मिलने लगी थी। उसे गंभीरता से लिया जाने लगा था। और मैं कहता हूं कि अगर हम लोग जनरल इलेक्शन 2009 तक रह जाते तो टीआरपी में भी सहारा को नंबर एक पर लाते, ये मेरा विश्वास तब भी था, आज भी है। हम रणनीतिक तरीके से, प्रोफेशनल तरीके से उस दिशा में मूव कर रहे थे।
आपने सोचा था कि जिस तामझाम से आप सहारा जा रहे हैं वहां ऐसा कुछ होगा?
बिलकुल। जब मैंने आज तक छोड़ा तो वहां एक एक्जिट नोट लिखाने की परंपरा है। उस एक्जिट नोट में मैने लिखा.....मैं एक अच्छा काम करने जा रहा हूं पर मुझे पता है मैं गलत जगह जा रहा हूं। मुझे काम करना था। नौकरी तो चल ही रही थी। टीवी चैनलों पर देखते-देखते खबरें खत्म हो गईं और फालतू बातें दिखाई जाने लगीं। तो ऐसे में असली जर्नलिज्म को जीने - करने का अगर मौका मिल रहा था तो मुझे उसे स्वीकारना ही था।
आप एनडीटीवी में भी रहे। वहां से छोड़ा। ये कैसे हुआ?
2002 में आज तक छोड़ा था। देबांग के साथ। देबांग का फोन आया था। एनडीटीवी के आफर के बारे में। मैंने साथ चलने को सहमति दे दी। तब एऩडीटीवी के मार्निंग स्लाट में दाढ़ी वाला चेहरा उर्फ मैं पेश किया गया और पेश की गईं राजनीति की खबरें। ये प्रणय राय का फैसला था। अब जब लोग सुबह-सुबह फ्रेश व साफ्ट चेहरों को पेश कर गैर राजनीतिक बातें करते दिखाते हैं तो उन दिनों सुबह-सुबह दाढ़ी वाले चेहरे ने राजनीतिक बातें सुनाईं और उन दिनों मार्निंग स्लाट की टीआरपी आज तक से भी ज्यादा थी। तो वो एक विजन था और आज भी मैं कहता हूं कि असली खबरें ही चैनल को असली टीआरपी दिला सकती हैं लेकिन इसके लिए आपको धैर्य से मेहनत करना पड़ेगा। आज के जर्नलिस्ट मेहनत कहां करना चाहते। वे अपनी लंबी लंबी सेलरी को जस्टीफाइ करने के लिए कुछ भी करते दिखाते रहते हैं।
क्यों, आजकल के जर्नलिस्ट मेहनत नहीं करते?
एनडीए शासनकाल ने ढेरों ऐसे जर्नलिस्ट पैदा किए जिनका खबर या समाज से कोई सरोकार ही नहीं है। इन दिनों में फेक जर्नलिस्टों की पूरी फौज तैयार हो गई। पैसे का भी आसपेक्ट है। चैनलों में एक लाख रुपये महीने सेलरी पाने वालों की फौज है। ये लोग शीशे से देखते हैं दुनिया को। इन्हें भीड़ से डर लगता है। आम जनता के बीच जाना नहीं चाहते। अब उनको आप बोलोगे कि काम करो तो वो कैसे काम करेंगे। मुझे याद है एक जमाने में 10 हजार रुपये गोल्डेन फीगर थी। हर महीने 10 हजार रुपये पाना बड़ी बात हुआ करती थी। ज्यादा नहीं, यह स्थिति सन 2000 तक थी। 10 हजार से छलांग लगाकर एक लाख तक पहुंच गई। इससे जर्नलिस्टों की क्लास बदल गई। उनको अगर वाकई असली खबरों को समझना है तो खुद को डी-क्लास करना होगा। वरना ये एक लाख महीने बचाने के लिए सब कुछ करेंगे पर पत्रकारिता नहीं कर पाएंगे क्योंकि इनका वो क्लास ही नहीं रह गया है।
आपने कभी किसी से प्रेम-व्रेम किया है?
हां, किया है। आपने पूछा ही नहीं अब तक। वो बात तो अधूरी ही रह गई। नागपुर में जब नौकरी छूट गई थी और मैं बिलकुल फ्री था तो सोचा अब क्या किया जाए। तो उन दिनों मैं जिनसे प्रेम कर रहा था, उन्हीं से शादी कर ली। समय का सदुपयोग किया। ये बात अगस्त 1995 की है। नाम है सरस्वती अय्यर। वो तब एडवोकेट व सोशल एक्टीविस्ट हुआ करतीं थीं। तमिल हैं। हम लोगों की शादी पर लोकसत्ता में एडीटोरियल लिखा गया था- द्रविण और आर्य के बीच शादी। उसी वर्ष नवंबर या दिसंबर में हम लोग दिल्ली शिफ्ट हो गए। सरस्वती ने सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस की, नौकरी की। अब छोड़ दिया। बच्चों की देख रेख के साथ वे कई मानवाधिकार संगठनों के लिए लीगल मदद देने का काम करतीं हैं।
आपमें अच्छी - बुरी आदतें क्या हैं?
एक तो बुरी आदत यही है कि मैं नौकरी नहीं करता, नौकरी को जीता हूं। मेरे लिए काम ही आराम है और आराम ही काम है। दूसरी बुराई है कि मैं बहुत देर तक नाकाबिल लोगों के बीच ठहर नहीं पाता। उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाता। उनके साथ एडजस्ट नहीं कर पाता। इसे अच्छाई मानें या बुराई कि मुझे भीड़ के बीच रहने व भीड़ में घूमने में बड़ा मजा आता है। बस यही है दो चार चीजें।
शुक्रिया पुण्य भाई, आपने इतना समय दिया
धन्यवाद बंधु।
हमारा हीरो
पुण्य प्रसून वाजपेयी। जिनका नाम ही काफी है। समकालीन हिंदी मीडिया के कुछ चुनिंदा अच्छे पत्रकारों में से एक। कभी आज तक, कभी एनडीटीवी, कभी सहारा तो अब जी न्यूज के साथ।
जिस चैनल में पुण्य प्रसून रहे, वहां उस चैनल के वे फेस बन गए, आइकान बन गए, ब्रांड एंबेसडर बन गए। उनका दढ़ियल चेहरा, उनकी आवाज़, उनका अंदाज़, उनके तर्क, उनकी बातें...ये सब मिल-जुल कर क्रिएट करतीं हैं एक कल्ट। एक फीगर। एक पर्सनाल्टी। एक हीरो। हमारा हीरो। हिंदी मीडिया का हीरो। अब जबकि हर जगह टीआरपी और बाजार का बाजा बज रहा है, इसके लय पर मीडिया वाले नाच रहे हैं, पुण्य प्रसून ताल ठोंक कर कहते हैं कि असली खबरों से टीआरपी लाई जा सकती है लेकिन इसके लिए मेहनत करना पड़ेगा और आज के पत्रकार मेहनत नहीं करना चाहते क्योंकि वो लाखों की सेलरी लेकर खुद का क्लास बदल चुके हैं। इन्हें खुद को डी-क्लास करना होगा। पुण्य प्रसून पिछले महीनों तक सहारा टीवी को लेकर मीडिया की सर्किल में सुर्खियों में रहे। वे धूमधाम से सहारा को री-लांच करने के वास्ते अपनी टीम के साथ आए और लांचिंग के कुछ दिनों बाद छोड़कर चलते बने। पुण्य प्रसून इस पूरे मामले पर विस्तार से बात करने के बाद एक चीज साफ-साफ कहते हैं- मैंने जब आज तक चैनल छोड़ा था तभी एक्जिट नोट में लिख दिया था ...अच्छा काम करने गलत जगह जा रहा हूं। पुण्य प्रसून के लिए पत्रकारिता कोई करियर या पेशा या नौकरी नहीं बल्कि ज़िंदगी है। वे पत्रकारिता को ही ओढ़ते-बिछाते हैं। और ये आदत, ये नशा उन्हें संस्कार में मिला है। बचपन से। पारिवारिक पृष्ठभूमि और मिलने-जुलने वालों की सर्किल ऐसी थी कि वो नक्सल आंदोलन से लेकर संघ के प्रयोगों तक को गहराई से समझ-बूझ सके। आगे बढ़कर प्रयोग करने का साहस, मिशन को अंजाम देने का जुनून, आत्मविश्वास के साथ सच कहने का माद्दा....ये सब बातें पुण्य प्रसून में एक साथ हैं।
अपने शुरुआती जीवन से शुरू करें।
सन 64 में पैदा हुआ। सन 64 में ही विश्व हिंदू परिषद और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण हुआ। इसी साल नेहरू की मौत हुई। जब मैं पांचवीं क्लास में था तो पिता जी उन दिनों दिल्ली में इंडियन इनफारमेशन सर्विस में हुआ करते थे। आल इंडिया रेडियो में नियुक्त थे। सन 75 में इमरजेंसी के वक्त उनका ट्रांसफर पहले रांची फिर दो साल बाद पटना के लिए हुआ। 10वीं की पढ़ाई पटना साइंस कालेज से की। घरवालों की इच्छा मुझे डाक्टर बनाने की थी पर मेरा मन इसमें नहीं था। पटना के बीएन कालेज से पोलिटिकल साइंस में ग्रेजुएशन की डिग्री ली। उन दिनों मेरे चाचा वेद प्रकाश वाजपेयी लेक्चरर हुआ करते थे। पिता जी उन्हें मीडिया में ले आए। चाचा जी नवभारत टाइम्स, पटना में आ चुके थे। तब यहां के संपादक दीनानाथ मिश्र हुआ करते थे। इसके चलते घर में मीडिया पर्सन्स की आवाजाही लगी रहती थी। कवि ज्ञानेंद्र पति से लेकर नक्सलाइट नेता विनोद मिश्र व नागभूषण पटनायक तक के बारे में समझ विकसित हुई। उन दिनों बिहार के उन समस्त पत्रकारों से रूबरू हुआ जो बाद में दिल्ली से लेकर पटना तक में बड़े पत्रकार कहलाए। बात वर्ष 88 की है। अब परिवार दिल्ली शिफ्ट हो चुका था और जेएनयू के पास रहता था। दिल्ली में जामिया मिलिया में कुछ दिन पढ़ाई की पर यहां लड़ाई हो जाने से छह माह बाद इसे छोड़ दिया। मैं भी जेएनयू चला गया। यहां मेरा घर विभिन्न विचारों के लोगों के आने-खाने-रुकने का मंच बन चुका था। यहीं गोरख पांडेय से लेकर अन्य दूसरे प्रबुद्ध लोग आते-जाते रहते थे। कुल मिलाकर इमरजेंसी का दौर व पिता जी के तबादले के चलते कई चीजें समझने को मिलीं। इससे स्वभाव व व्यक्तित्व में जर्नलिज्म सहज रूप से पैदा हो गया। इसी से मैं आज भी जर्नलिज्म को जीता हूं, नौकरी नहीं करता। ऐसा स्वभाव बन चुका है। ऐसी आदत पड़ चुकी है।
अगर सक्रिय पत्रकारिता की बात करें तो यह कब से और कहां से शुरू किया?
बात सन 88, दीवाली की है। तब नागपुर से लोकमत समाचार लांच होने को था। वहां 1000 रुपये महीने पर नौकरी शुरू की और देखते ही देखते इतना मजा आने लगा कि एक महीने बाद फाइनल एडीशन निकालने लगे। नागपुर प्रवास के दौरान यहां संघ का मुख्यालय होने के नाते उसके कई शीर्ष विचारकों से पाला पड़ा। देवरस, जिन्होंने इमरजेंसी में कई प्रयोग किए थे, से डायरेक्ट डिसकशन होता था। उधर आंध्र में पीपुल्स वार ग्रुप अपना विस्तार करते हुए महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके के इंडस्ट्रियल बेल्ट में पांव पसार रहा था। छत्तीसगढ़ में शंकर गुहा नियोगी का ट्रेड यूनियन आंदोलन फैल रहा था। इन सारे आंदोलनों, विचारधाराओं के नजदीक जाकर उन पर काम करने व लिखने का मौका मिला। तब मैं हजार रुपये महीने का ट्रेनी जर्नलिस्ट होते हुए भी दिल्ली के अखबारों में इन सभी विषयों पर संपादकीय पेज पर लिखता रहता था। खासकर प्रभाष जोशी जी तमाम आस्पेक्ट पर लिखवाते रहते थे। और हां, नागपुर में एक वाकये की चर्चा जरूर करना चाहूंगा। वहां 8 मार्च 1991 को स्टेट पुलिस के जवानों ने चार आदिवासी महिलाओं से रेप किया। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन हुई इस घटना की पूरी स्टोरी जब फाइल की तो विधानसभा में हंगामा मच गया और सरकार ने रिपोर्ट गलत बताते हुए प्रेस कांफ्रेंस की। शरद पवार ने अपने मंत्री को जांच के लिए भेजा और मंत्री ने चार दूसरी आदिवासी महिलाओं को प्रेस कांफ्रेंस में लाकर बताया कि इनके साथ कोई हादसा नहीं हुआ है। बाद में मै फिर मौके पर पहुंचा और जिन महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ, उन्हें लाकर साबित किया कि सरकार सच को दबाने में कई झूठ बोल गई। बाद में उस मंत्री को मंत्रिमंडल से हटा दिया गया। तो इस तरह से पत्रकारिता के कई डायमेंशन जीने व देखने को मिले।
दिल्ली की पत्रकारिता में आना कैसे हुआ?
मैं नागपुर में 1993 तक रहा। इसके बाद एमपी बेस्ड एक अखबार में कुछ दिनों के लिए चला गया, एडीटर बनके। यह अखबार लांच कराया लेकिन फिर छोड़ दिया। मुंबई में एक बिजनेसमैन मैग्जीन निकालने जा रहा था जिसके चक्कर में मैं भी कई महीने रहा। दिल्ली आना 95 में हुआ। वैसे, पिता जी मुझे दिल्ली लाने के लिए काफी प्रयास कर रहे थे। पर मेरा आने का मन नहीं था। एक बार दिल्ली आया हुआ था तो एसपी सिंह कनाट प्लेस पर मिल गए। मैं उन्हें पहचान गया पर वे मुझे शक्ल से नहीं जानते थे। तब मैं दिल्ली के अखबारों में लिखता रहता था और मैंने एसपी सिंह का एक काम करवाया था, इसलिए मुझे वो नाम से जानते थे। हुआ यूं था कि लोकमत समाचार के मालिक जवाहर लाल डाडा जो उन दिनों मंत्री हुआ करते थे, ने घटिया राशन की सप्लाई कराई थी और इसका जमकर विरोध महिलाओं ने किया था। एसपी ने भी एक तीखा आर्टिकल लिखा था। एसपी पर मुकदमा हुआ। एसपी तब मुंबई में थे और यह मुकदमा यवतमाल के कोर्ट में था। सो एसपी ने कोई ऐसा बंदा तलाशना शुरू किया जो यवतमाल में उनके मामले की पैरवी करे। मैं नागपुर में था और बात मेरे तक पहुंची तो मैंने यवतमाल में एसपी के मुकदमे के लिए वकील की व्यवस्था करा दी और उन्हें निश्चिंत रहने का भरोसा दिया। ये बात मेरे मालिक जवाहर लाल डाडा तक पहुंची तो उन्होंने मुझे बुलवाया और कहा कि तुम नौकरी तो मेरे यहां करते हो और पैरवी मेरे विरोधी के मुकदमे की कर रहे हो। तब मैंने उन्हें विनम्रता से जवाब दिया कि अखबार तो बदला जा सकता है लेकिन पत्रकार नहीं। यह सुनकर मालिक भौचक्का रह गया पर उसने मुझे निकाला नहीं। संभवतः इसके पीछे वजह मेरी उपयोगिता थी। मैं वहां जूनियर होते हुए भी अखबार के लिए काम की चीज बन चुका था। अखबार निकालने में मेरी जिम्मेदारी और भूमिका बढ़ चुकी थी। उन दिनों लोकमत का औरंगाबाद संस्करण भी हम लोगों ने लांच किया।
आप बता रहे थे दिल्ली में एसपी से मुलाकात के बारे में।
हां, एसपी ने साथ काम करने को कहा। एसपी 1995 में आज तक में आ चुके थे। तब मैं लखनऊ से निकलने जा रहे दैनिक हिंदुस्तान में काम करने के लिए प्रयास कर रहा था। आखिरकार मैंने एसपी के साथ सितंबर 1996 से काम करना शुरू किया। 97 में जब एसपी की डेथ हो गई तो मैं प्रभु चावला के पास पहुंचा और आज तक से मुक्त करने का अनुरोध किया। उन्होंने अनुरोध नहीं स्वीकारा और धीरे धीरे एसपी के बिना आज तक में अब देबांग से मन जुड़ने लगा था। तब मुझे आज तक में रिपोर्टिंग नहीं दी जाती थी। लेकिन एक बार जम्मू कश्मीर में हिजबुल के चार टेररिस्टों से राज्य सरकार की बात होने के प्रकरण पर रिपोर्टिंग के लिए मुझे भेजा गया तो मैंने चारों टेररिस्टों से इंटरव्यू करने के साथ फारूक साहब का भी वर्जन एक दिन पहले ही ले लिया और सबसे पहले आज तक के पास यह खबर पहुंचा दी। बात तबकी है जब आज तक चौबीसों घंटे के चैनल के रूप में लांच होने जा रहा था। सन 2000 दिसंबर के लगभग। कई विदेशी लोग ट्रेनिंग देने आज तक में आए थे। उन सभी ने जब ये खबर देखी तो काफी तारीफ की। मुझे याद है कि अरुण पुरी ने तब सबके सामने कहा था कि इसी तरह से आप सभी को इतना विश्वसनीय होना चाहिए कि अगर आप खुद खड़ें हों तो किसी की बाइट की जरूरत न पड़े। आप खुद ही सबसे बड़े प्रमाण व विश्वास हों। उन्हीं दिनों मैं वीजा जुगाड़ कर पीओके भी गया। लश्कर के चीफ, जिसे किसी ने नहीं देखा था, का इंटरव्यू किया। और वो इंटरव्यू करने से पहले टेररिस्टों ने कई घंटे मेरा इंटरव्यू किया था फिर ले गए थे। उस समय लग रहा था कि यहां से जिंदा निकलना मुश्किल है। एक और घटना याद आती है। 26 जनवरी 2001 में गुजरात में भूकंप आया हुआ था और मैं संयोग से मुशर्रफ के साथ बैठा था। मैंने भारत में जलजला आने की बात बताई तो उन्होंने फौरन मदद भेजने का आदेश किया। तब पाक ने मदद भेजी भी थी। कुल मिलाकर उन दिनों में पत्रकारिता को जीने, जूझने, करने और करके ले आने का जो आवेग व आनंद था, उसने जीवंत व लाइव पत्रकारिता को नस-नस में भर दिया।
सहारा ग्रुप के टीवी चैनल में आप यूं गए और यूं चले आए, हुआ क्या था?
(हंसते हुए) सहारा में...। 10 सेकेंड की एक बाइट थी। रेल बजट को लाइव करने की तैयारी की थी। उसमें रेल मंत्री लालू से बात चल रही थी। जब खत्म हुआ तो उन्हें छोड़ने गया। इसी दौरान बातचीत हुई। उन्होंने पूछा- तू इधर आ गइलअ। मैंने कहा- हां, सुधारना था त सुधारे आ गइलीं। लालू का जवाब था- इ सब कभी सुधरे वाला हुउवंन...। ये सारी बातें चलते चलते हो रही थी। ये कुल 10 सेकेंड की बाइट थी और इसका फील ये था कि एक इंटरव्यू खत्म हो रहा है। सवाल था कि यह अंत की 10 सेकेंड की बाइट काटी जाए या न काटी जाए। मैंने इसे बार बार देखा और महसूस हुआ कि ये बाइट इतनी छोटी व चलते चलते है कि इससे कुछ फील नहीं हो रहा सिवाय इसके कि अब इंटरव्यू खत्म हो चुका है और मंत्री जा रहे हैं। मतलब ये फील न होगा कि इस पर ध्यान जाए, इतनी छोटी बाइट है। बस, इसी को सहारा के उन लोगों ने मुद्दा बना लिया जो लोग वहां काम नहीं करना चाहते थे और इस बाइट को उपर भिजवा दिया। सही बात तो ये है कि सहारा में जितने संसाधन हैं और जितना इंफ्रास्ट्रक्चर है, उसमें बहुत कुछ किया जा सकता था लेकिन वहां एक बड़ी जमात ऐसी है जो काम ही नहीं करना चाहती क्योंकि उनका मानना है कि सहारा ऐसे ही चलता है। मेरे पर दबाव आए कि चैनल को छह महीने में री-लांच मत करिए। इसे आगे बढ़ाइए। मैंने कहा कि जब मेरी तैयारियां पूरी हैं और दिन रात एक करके हम लोग तय समय पर री-लांच करने को तैयार हैं तो आपकी मार्केटिंग की दिक्कतों की वजह से हम क्यों चैनल के री-लांच की तारीख को आगे बढ़ाएं। तो प्रेशर था कि टालो, लेट करो, खिसकाओ....और ये अपन में आदत नहीं रही है। तो ऐसे लोग जो काम नहीं करते थे, वे हमें टारगेट किए हुए थे। हम लोगों को सभी चैनलों को ठीक करने का दायित्व था लेकिन हमने पहले नेशनल चैनल को एजेंडे में लिया। रीजनल चैनल पर हम लोगों की साफ राय थी कि इसमें रीजनल महक होनी चाहिए, दिल्ली में बैठे बैठे खबर बनाकर रीजनल चैनल नहीं खड़ा किया जा सकता। इससे रीजनल चैनल वाले लगातार परेशान थे। अब जब रीजनल चैनल पर भी री-लांच को इंप्लीमेंट करने का समय नजदीक था तो यहां के लोग मौके तलाश रहे थे। 10 सेकेंड की बाइट इतना बड़ा मामला नहीं था। बड़ा मामला यही था कि सहारा में हम लोग पत्रकारिता करने गए थे और वहां ढेर सारे बीच के लोग पत्रकारिता न करने देने के लिए कमर कसे थे। ये लोग इंफ्रास्ट्रक्चर का जिस तरह मिस-यूज कर रहे थे, उसे बंद होना था, अगर हम सेकेंड स्टेप में रीजनल चैनल को एजेंडे में ले लेते। सहारा में मैंने ऐसे ऐसे लोग भी देखे जो खून पसीना एक करके काम करते हैं। नंदी ग्राम और गुजरात के कई रिपोर्टरों के काम को मैंने देखा। बेहद मेहनती लोग हैं वो। केवल बीच वाले लोग नहीं चाहते कि कोई काम करे क्योंकि इससे उन्हें भी काम करना पड़ता।
फिर क्या हुआ?
तो वो 10 सेकेंड की बाइट का हिस्सा उन लोगों ने भेज दिया। मुझसे कहा गया कि प्रसून जी, आज एंकरिंग न करिए। दो दिन बाद आम बजट आने वाला था। मैंने कहा- ये क्या मतलब, आपके चैनल का फेस मैं हूं और मुझी से कह रहे हैं कि एंकरिंग न करिए। पहले आपत्ति तो बताओ कि क्यों न करूं एंकरिंग। आम बजट के दिन कहा गया कि अच्छा, आज एंकरिंग कर लीजिए। मैंने कहा कि ये क्या नाटक है भाई। आप प्रोफेशनली मूव करिए। चैनल आपका है, पूंजी आपकी है। एडीटोरियली मैं देख रहा हूं। आप कोई डिसीजन लीजिए। मैंने सुब्रत राय को फोन मिलाया। मैंने उनसे कहा कि आप तय कर लीजिए कि क्या करना है। छोटी सी बात का फसाना बनाने से क्या फायदा। उन्होंने आधे घंटे का समय मांगा। और वो आधा घंटा कई घंटों में खिंच गया। सुमित राय जो सहारा मीडिया को हेड कर रहे हैं, भी उलझन में थे। वे भी न निगल पा रहे थे, न उगल पा रहे थे। उन्होंने सलाह दी कि प्रसून जी, कुछ दिन न करिए। फिर सब ठीक हो जाएगा। मैंने कहा, बंधु पत्रकारिता में कुछ दिन नहीं होता। जो होता है सब तुरंत और सामने होता है। यही प्रोफेशनलिज्म की बात है। आप मेरा इस्तीफा टाइप कराइए। तब मेरे नाम से मेरा ही इस्तीफा टाइप किया गया।
आपने कहा कि सहारा में काम न करने वालों की बड़ी संख्या है, यह कैसे अनुभव किया आपने?
जब मैने ज्वाइन किया तो जिन 175 लोगों की लिस्ट मुझे दी गई उसमें से मैंने सिर्फ 85 लोगों को लिया। बाकी की मेरे लिए कोई जरूरत नहीं थी। यह तो सिर्फ नेशनल चैनल की बात थी। इंटरनल सेटअप में इससे एक तबका हैरान-परेशान था। हम काम कर रहे थे और काम कराना चाहते थे। अगर काम करने का सिर्फ दिखावा भर करना होता तो कहीं भी किया जा सकता था। इस्तीफा देने के बाद सहारा से मेरे पास कई माध्यमों से फोन भी आए। फिर से आफर भी किया गया पर चीजों को यूं ही चलने दिया जाए या ब्रेक कर दिया जाए के विकल्प में मैंने ब्रेक कर देने का विकल्प चुना। आप को हमेशा प्रोफेशनली मूव करना होगा। आप किसी संपादक से कहो कि वो संपादकीय न लिखे, किसी एंकर से कहो कि एंकरिंग न करे....फिर तो हो चुका काम। ये तो इमरजेंसी के दौर में हुआ था कि संपादकीय न लिखो, ये न करो, वो न करो। आप देखिए जब तक हम लोग थे, चैनल को कहां से कहां तक ले आए। चैनल पर लोगों का विश्वास बढ़ा था, चैनल की विश्वसनीयता बढ़ी, ये बात सहारा के ही मार्केटिंग के लोगों ने कबूला। महाश्वेता हों या मेधा पाटकर हों या तस्लीमा नसरीन....सबके एक्सक्लूसिव इंटरव्यू, फोनो चलवाए गए। किसी चैनल में अरुंधती राय आज तक नहीं गईं पर हमने उन्हें बुलाया। तो आपके चैनल को, आपके ब्रांड को समाज के बड़े सेक्शन में मान्यता मिलने लगी थी। उसे गंभीरता से लिया जाने लगा था। और मैं कहता हूं कि अगर हम लोग जनरल इलेक्शन 2009 तक रह जाते तो टीआरपी में भी सहारा को नंबर एक पर लाते, ये मेरा विश्वास तब भी था, आज भी है। हम रणनीतिक तरीके से, प्रोफेशनल तरीके से उस दिशा में मूव कर रहे थे।
आपने सोचा था कि जिस तामझाम से आप सहारा जा रहे हैं वहां ऐसा कुछ होगा?
बिलकुल। जब मैंने आज तक छोड़ा तो वहां एक एक्जिट नोट लिखाने की परंपरा है। उस एक्जिट नोट में मैने लिखा.....मैं एक अच्छा काम करने जा रहा हूं पर मुझे पता है मैं गलत जगह जा रहा हूं। मुझे काम करना था। नौकरी तो चल ही रही थी। टीवी चैनलों पर देखते-देखते खबरें खत्म हो गईं और फालतू बातें दिखाई जाने लगीं। तो ऐसे में असली जर्नलिज्म को जीने - करने का अगर मौका मिल रहा था तो मुझे उसे स्वीकारना ही था।
आप एनडीटीवी में भी रहे। वहां से छोड़ा। ये कैसे हुआ?
2002 में आज तक छोड़ा था। देबांग के साथ। देबांग का फोन आया था। एनडीटीवी के आफर के बारे में। मैंने साथ चलने को सहमति दे दी। तब एऩडीटीवी के मार्निंग स्लाट में दाढ़ी वाला चेहरा उर्फ मैं पेश किया गया और पेश की गईं राजनीति की खबरें। ये प्रणय राय का फैसला था। अब जब लोग सुबह-सुबह फ्रेश व साफ्ट चेहरों को पेश कर गैर राजनीतिक बातें करते दिखाते हैं तो उन दिनों सुबह-सुबह दाढ़ी वाले चेहरे ने राजनीतिक बातें सुनाईं और उन दिनों मार्निंग स्लाट की टीआरपी आज तक से भी ज्यादा थी। तो वो एक विजन था और आज भी मैं कहता हूं कि असली खबरें ही चैनल को असली टीआरपी दिला सकती हैं लेकिन इसके लिए आपको धैर्य से मेहनत करना पड़ेगा। आज के जर्नलिस्ट मेहनत कहां करना चाहते। वे अपनी लंबी लंबी सेलरी को जस्टीफाइ करने के लिए कुछ भी करते दिखाते रहते हैं।
क्यों, आजकल के जर्नलिस्ट मेहनत नहीं करते?
एनडीए शासनकाल ने ढेरों ऐसे जर्नलिस्ट पैदा किए जिनका खबर या समाज से कोई सरोकार ही नहीं है। इन दिनों में फेक जर्नलिस्टों की पूरी फौज तैयार हो गई। पैसे का भी आसपेक्ट है। चैनलों में एक लाख रुपये महीने सेलरी पाने वालों की फौज है। ये लोग शीशे से देखते हैं दुनिया को। इन्हें भीड़ से डर लगता है। आम जनता के बीच जाना नहीं चाहते। अब उनको आप बोलोगे कि काम करो तो वो कैसे काम करेंगे। मुझे याद है एक जमाने में 10 हजार रुपये गोल्डेन फीगर थी। हर महीने 10 हजार रुपये पाना बड़ी बात हुआ करती थी। ज्यादा नहीं, यह स्थिति सन 2000 तक थी। 10 हजार से छलांग लगाकर एक लाख तक पहुंच गई। इससे जर्नलिस्टों की क्लास बदल गई। उनको अगर वाकई असली खबरों को समझना है तो खुद को डी-क्लास करना होगा। वरना ये एक लाख महीने बचाने के लिए सब कुछ करेंगे पर पत्रकारिता नहीं कर पाएंगे क्योंकि इनका वो क्लास ही नहीं रह गया है।
आपने कभी किसी से प्रेम-व्रेम किया है?
हां, किया है। आपने पूछा ही नहीं अब तक। वो बात तो अधूरी ही रह गई। नागपुर में जब नौकरी छूट गई थी और मैं बिलकुल फ्री था तो सोचा अब क्या किया जाए। तो उन दिनों मैं जिनसे प्रेम कर रहा था, उन्हीं से शादी कर ली। समय का सदुपयोग किया। ये बात अगस्त 1995 की है। नाम है सरस्वती अय्यर। वो तब एडवोकेट व सोशल एक्टीविस्ट हुआ करतीं थीं। तमिल हैं। हम लोगों की शादी पर लोकसत्ता में एडीटोरियल लिखा गया था- द्रविण और आर्य के बीच शादी। उसी वर्ष नवंबर या दिसंबर में हम लोग दिल्ली शिफ्ट हो गए। सरस्वती ने सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस की, नौकरी की। अब छोड़ दिया। बच्चों की देख रेख के साथ वे कई मानवाधिकार संगठनों के लिए लीगल मदद देने का काम करतीं हैं।
आपमें अच्छी - बुरी आदतें क्या हैं?
एक तो बुरी आदत यही है कि मैं नौकरी नहीं करता, नौकरी को जीता हूं। मेरे लिए काम ही आराम है और आराम ही काम है। दूसरी बुराई है कि मैं बहुत देर तक नाकाबिल लोगों के बीच ठहर नहीं पाता। उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाता। उनके साथ एडजस्ट नहीं कर पाता। इसे अच्छाई मानें या बुराई कि मुझे भीड़ के बीच रहने व भीड़ में घूमने में बड़ा मजा आता है। बस यही है दो चार चीजें।
शुक्रिया पुण्य भाई, आपने इतना समय दिया
धन्यवाद बंधु।
स्टिंग ऑपरेशन देखने से पहले आँखे खोलिये, सच सामने है
कहने को बहुत कुछ होता है। अख़बारों में लिखते हैं, चैनल के जरिए भी अपनी बात रखते हैं, लेकिन सोचने की प्रक्रिया लगातार जारी रहती हैं,लिहाजा कहने के लिए बहुत कुछ दिलो-दिमाग में उमड़ता घुमड़ता रहता है। ब्लॉगिंग के बारे में सुना था, सो अब इस मंच का इस्तेमाल करेंगे अपनी बात कहने में। खासकर वो मुद्दे, जिनसे नेता बचते हैं,सरकार बचना चाहती है,हम उन मुद्दों पर साफगोई से अपने विचार रखेंगे। साथ ही,उन तथ्यों को भी रखेंगे,जिन्हें सरकार और नेता छिपाना चाहते हैं। इसके अलावा राजनीति को केंद्रकर मीडिया, समाज और दूसरे कई अहम मसलों पर यहां भी कीबोर्ड पर उंगलियां दौड़ाएंगे। फिलहाल, बहस के लिए ब्लॉग पर पहली किस्त पेश है।
सांसदो की खरीद फरोख्त का स्टिंग ऑपरेशन अगर न्यूज चैनल ने दिखा भी दिया होता तो क्या लोकतंत्र पर लगने वाला धब्बा मिट जाता? जिस संसदीय राजनीति के सरोकार देश की अस्सी फीसदी लोगो से कट चुके हैं क्या वह जुड़ जाते? जिन सांसदो ने खुद की बोली लगायी होगी या दूसरे राजनीतिक दलों की देशभक्ति से प्रभावित होकर अपने ही दल का साथ छोड गये, क्या उनकी पार्टीगत सोच को दोबारा मान्यता दी जा सकती है? जो नेता सरकार गिराने या बचाने का ठेका लिये हुये थे, क्या उन्हे मिडिल मैन की जगह कोई दूसरा नाम दे दिया जाता? जिस तरह से स्टिंग ऑपरेशन को लेकर सभी राजनीतिक दल या सांसदो की खरीद फरोख्त में सामने आये तमाम नेता न्यूज चैनलो की स्वतंत्रता के कसीदे पढ रहे है, उनकी अपनी राजनीतिक जमीन किस खून से रंगी है, जरा इस हकीकत को देखिये तो रोंगटे खडे हो जायेगे।
सत्ता में रहते हुये की राज्य की धज्जियां उड़ाने वाले राजनीतिक दलों ने बीते दस साल में किन नीतियों के आसरे भारत भाग्य विधाता के नारे को बुलन्द किया। दस सालों का जिक्र इसलिये क्योकि इस दौर में देश के सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता का स्वाद चखा। पहले इन तथ्यों को रखें और नेता इस सवाल को उठायें कि मीडिया ने भी अपना धर्म नहीं निभाया, उससे पहले स्टिंग ऑपरेशन को लेकर मीडिया के उठाये सवालों पर संसद की पहल को ही समझ लीजिये। तहलका ने स्टिंग ऑपरेशन के जरिए देश के धुरन्धर राजनीतिक दलो के अग्रणी नेता-मंत्रियो की पोल पट्टी खोली थी कि कैसे देश को चूना लगाकार हथियारो की खरीद फरोख्त तक में गड़बड़ी होती है। देश की सुरक्षा कमीशनखोरी के आगे कैसे नतमस्तक हो जाती है। लेकिन स्टिंग ऑपरेशन चलने के बाद क्या हुआ? मीडिया अर्से बाद खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा था कि अब तो सांसद-मंत्रियो की खैर नही। इस लंबे-चौड़े स्टिंग ऑपरेशन को दिखाये जाने का पूरा मजा संसद ने भी लिया और उन राजनीतिक दलो ने भी, जो विपक्ष में थे। देश में कई दिनो तक भष्ट्राचार की पारदर्शी होती गंगा को लेकर बहस मुहासिब चलती रही। आम आदमी कहने लगा अब और क्या चाहिये सबूत। सांसद चेते और अपनी मान्यता बरकरार रखने के लिये संसद से मामला अदालत तक भी जा पहुचा लेकिन क्या कोई सासंद जेल पहुचा? किसी को सजा हुई? इसके बाद सांसदो के सवाल पूछने पर रुपया कमाने के तरीको को स्टिंग ऑपरेशन के जरिए मीडिया सामने लाया। इसमें हर राष्ट्रीय राजनीतिक दल का नेता घेरे में था। जनता की नुमाइन्दगी के बदले नोटों और घूसखोरी की नुमाइन्गी करने वाले नेताओं पर संसद फिर शर्मसार हुई। मीडिया की पीठ जनता ने ठोंकी लेकिन इस घपले को खुलने के बाद भी क्या कोई सांसद कानूनी तौर पर फंसा? या किसी को सजा हुई? तो स्टिंग ऑपरेशन का मतलब क्या है? आप यहाँ सवाल खड़े कर सकते है कि भारत इसीलिये तो लोकतंत्र का पहरी है क्योकि यहां संविधान के तहत चैक एंड बैलेंस की स्थितियों को समझाया गया है। और मीडिया चौथे खंभे के मद्देनजर बाकि तीन खंभों पर नजर रख सके उसकी भूमिका इतनी भर ही है।
हमारा सवाल यही से शुरु होता है जब बाकि तीन खंभे अपनी भूमिका तो नहीं ही निभा रहे है बल्कि संसदीय राजनीति को ही सांसदो ने अपने अनुकूल इस तरह बना लिया,जहां व्यक्तिगत तौर पर कोई भ्रष्ट्र या आपराधिक काम करने पर उसे विशेषाधिकार मिल जाता है। और सामुदायिक या पार्टी के तौर पर गलत-भ्रष्ट्र-आपराधिक या जन विरोधी काम को व्यवस्था की मान्यता दे दी जाती है । इतना ही नही घोषित तौर पर जनविरोधी नीतियो को लागू करते हुये सीधे सत्ताधारी इस बात का भी ऐलान करने से नही कतराता कि अगर वह गलत होगा तो चुनाव में जनता उसे सत्ता से बेदखल कर देगी। जबकि चुनाव की परिस्थितियों को भी वह इस तरह बना चुका है, जहां जनविरोधी नीतियों का बुरा प्रभाव चाहे समूचे देश पर पड़े लेकिन इस बुरे प्रभाव में भी धर्म-जाति या वर्ग के आधार पर दस या पन्द्रह फीसदी को मुनाफे के बंदरबांट में सहयोगी बनाने को लोभ देकर समाज को भी बांट देता है । यानी चुनावी लोकतंत्र के आसरे जिस चैक एंड बैलेंस की व्यवस्था संविधान के भीतर की गयी, उसे भी संसदीय राजनीति में सत्ता के खातिर तोड मरोड़ दिया गया है।
इतना ही नही खुले तौर पर जनता चुनाव के दौरान जब कई पार्टियों के उम्मीदवारो में से किसी एक पार्टी के किसी एकनेता को चुनती है तो चुनाव खत्म होते ही जनता के वोट की धज्जियां सत्ता के लिये आपसी गठजोड़ बना कर कर दी जाती है। इतना ही नही एक ही राज्य में आमने सामने खडे राजनीतिक दलो के बीच कॉमन मिनिमम प्रोग्राम का ऐसा दस्तावेज बनाया जाता है, जिसके आगे संविधान भी नतमस्तक हो जाए। जो राजनीतिक दल और राजनेता इसे अंजाम दे रहे है, वही इस संसदीय व्यवस्था में छुपाये हुये कैमरे से सूराख दिखाना चाहते है। जाहिर है संसदीय राजनीति के इस लोकतंत्र में बहुत थोडा नष्ट हुआ है बाकि नैतिकता बची हुई है इसीलिए मीडिया का आसरा लेने में भी राजनीति चूकना नही चाहती है।
लेकिन सच कितना गहरा है यह देश के किसी भी राजनीतिक दल के सत्ता में रहते हुये पहलकदमी से समझा जा सकता है। देश के सत्तर करोड़ लोग अभी भी खेती की जमीन पर निर्भर है। जमीन से अन्न उपजाने वाले किसान के लेकर चाहे वाजपेयी सरकार हो या मनमोहन सरकार दोनो की नीतियों ने किसानों को मौत के मुंह में घकेला। सबसे विकसित राज्यो में से एक महाराष्ट्र में वाजपेयी सरकार के दौर में सोलह हजार से ज्यादा किसानों ने इसलिये आत्महत्या कर ली क्योकि उनके उपज की खरीद के लिये सरकार ने कोई उचित व्यवस्था नहीं की। मीडिल मैन के आसरे किसान अपनी उपज की कीमत पाने के लिये मौसम दर मौसम बैठा रहा। बाजार तक माल ले जाने की सौदेबाजी में मीडिल मैन ने ऐसा जाल बिछाया कि दूसरी फसल का मौसम आते ही किसान ने मजबूरी में अपनी उपज कौडियों के मोल दे दी और आगे किसानी चलती रहे उसके लिये कर्ज ले लिया। इस सिलसिले को पहले बीजेपी की अगुवायी वाली सरकार ने तो बाद में यानी अब कांग्रेस की अगुवायी की सरकार आगे बढा रही है। जाहिर है किसान के घर में से रोटी गायब हुई। उसने मौत को गले लगा लिया।
वाजपेयी सरकार के दौर में महाराष्ट के सोलह हजार किसानों की खुदकुशी का आंकडा मनमोहन सरकार ने चार साल में ही सत्रह हजार पार करवा कर तोड़ दिया। यानी मिडिलमैन को व्यवस्था चलाने की कुंजी तक ही मामला ठहरता तो लग सकता है कि देश में सरकार है लेकिन सरकार ही मिडिल मैन की भूमिका में आ जायेगी यह किसने सोचा होगा? विदेशी पूंजी के जुगाड़ में अगर पहले डिसइंवेस्टमेंट के जरिये देश की संपत्ति को मुनाफे की पटरी पर लाने के नाम पर प्राइवेट सेक्टर के हवाले करने की प्रक्रिया शुरु हुई तो दूसरी पहल खेती की जमीन को विदेशी कंपनियो को देने की प्रक्रिया शुरु हुई। केन्द्र और राज्य सरकार अपने अपने घेरे में आम जनता के जीने के अधिकार को राज्य के अधिकार से कुचलने लगी। खुले तौर पर हर सरकार के नौकरशाह -पुलिस और अदालत सक्रिय हुआ कि समूचे राज्य के विकास और देशहित के आगे किसी को भी अपनी सुविधा देखने या जीने का अधिकार नहीं है। मुआवजे देकर जमीन से पीढीयों की बसावट को बेदखल करने की प्रक्रिया भी शुरु हुई। विदेशी उघोग-घंघे फले फुले और जमकर मुनाफा कमाये, सरकार इसे लागू करने में भिड़ी हुई है। हाँ, मुनाफे में सरकार का कमिशन हर स्तर पर फिक्स है। यहाँ तक भूमि सुधार के जरीये किसान-मजदूरो के बारे सोचले वाली कम्यूनिस्ट सरकार भी इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के लिये जमीन छिनने में मिडिलमैन की भीमिका में आ गयी। सर्वहारा की तानाशाही का पाठ पढने वाला कैडर भी अचानक पूंजी और बाजार की तानाशाही को लागू कराने के लिये खून बहाने को तैयार हो गया।
बीते दस साल में किसी राजनीतिक दल को संविधान या लोकतंत्र का कोई पाठ याद नहीं आया जिसमें जनता के लिये ... जनता द्वारा... सरीखी बात की जाये। न्यूनतम जरुरतो को पूरा कराने का जो वायदा संसदीय सत्ता पिछली तेरह लोकसभा से कर रही है, उसमें पहली बार बीते दस साल में इस सोच के पलिते में ही आग लगा दी गयी कि शिक्षा-स्वास्थ्य और पीने का पानी भी देश को मुहैया कराना पहली प्रथामिकता होनी चाहिये। किसी भी गांव में डेढ से दो लाख प्राथमिक स्कूल या प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोलने में खर्च आता है लेकिन इतना पैसा भी देश के सभी गांव के लिये सरकार के पास नहीं है। इन दस साल में समूचे देश में जितने प्राथमिक स्कूल या स्वास्थ्य केन्द्र खोले गये उससे तीन सौ गुना ज्यादा कार इस देश में लोगो ने खरीदी। स्पेशल इकनामी जोन के नाम पर विकास की जो लकीर खींची गयी है अगर वह सब बन जाते है तो जितने लोगो को रोजगार मिलेगा जो करीब साठ लाख तक का दावा सरकार कर रही है, वही जमीन खत्म होने के बाद देश के करीब छह करोड सीधे जुडे किसान-मजदूर रोजगार से वंचित हो जायेगे। दो जून की रोटी के लाले उन्हे पड़ जायेगे।
सवाल है किस देश के किस संसद और कौन से सांसद यह सवाल उठा रहे हैं कि स्टिंग ऑपरेशन को दिखाना मीडिया की नैतिकता है और कौन स्टिंग ऑपरेशन को ना दिखाये जाने से खामोश चुपचाप खुश है। सवाल तो यह भी है कि स्टिंग ऑपरेशन दिखाने से सरकार रहती या जाती, अगर इस हद तक की भी स्थिति थी तो भी फर्क इस देश अस्सी फिसद लोगो पर क्या पडता। अगर आपके जहन में यह सवाल उठ रहा है कि पहले के स्टिंग ऑपरेशन दिखाने वालो को अगर सजा देने की व्यवस्था कर ली जाये तब... लेकिन इसका दूसरा पक्ष कही ज्यादा त्रासदीदायक है, जब सजायाफ्ता सांसद भी संसद के भीतर आकर सरकार बचाने या गिराने में मायने रखे जा रहे हों तो वहीं स्टिंग ऑपरेशन से सरकार गिरे या बनी रहे फर्क क्या पडता है। दरअसल, आप जिस छुपे हुये सच को देखने के लिये बेचेन है, वह कहीं ज्यादा खुले तौर पर आंखो के सामने मौजूद है। और हम-आप आंख बंद कर स्टिंग ऑपरेशन देख कर अपराधी तय करना चाहते है। किसी को बचा कर किसी को फंसाना चाहते है, जिससे देश का लोकतांत्रिक मुखौटा बचा रहे।
सांसदो की खरीद फरोख्त का स्टिंग ऑपरेशन अगर न्यूज चैनल ने दिखा भी दिया होता तो क्या लोकतंत्र पर लगने वाला धब्बा मिट जाता? जिस संसदीय राजनीति के सरोकार देश की अस्सी फीसदी लोगो से कट चुके हैं क्या वह जुड़ जाते? जिन सांसदो ने खुद की बोली लगायी होगी या दूसरे राजनीतिक दलों की देशभक्ति से प्रभावित होकर अपने ही दल का साथ छोड गये, क्या उनकी पार्टीगत सोच को दोबारा मान्यता दी जा सकती है? जो नेता सरकार गिराने या बचाने का ठेका लिये हुये थे, क्या उन्हे मिडिल मैन की जगह कोई दूसरा नाम दे दिया जाता? जिस तरह से स्टिंग ऑपरेशन को लेकर सभी राजनीतिक दल या सांसदो की खरीद फरोख्त में सामने आये तमाम नेता न्यूज चैनलो की स्वतंत्रता के कसीदे पढ रहे है, उनकी अपनी राजनीतिक जमीन किस खून से रंगी है, जरा इस हकीकत को देखिये तो रोंगटे खडे हो जायेगे।
सत्ता में रहते हुये की राज्य की धज्जियां उड़ाने वाले राजनीतिक दलों ने बीते दस साल में किन नीतियों के आसरे भारत भाग्य विधाता के नारे को बुलन्द किया। दस सालों का जिक्र इसलिये क्योकि इस दौर में देश के सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता का स्वाद चखा। पहले इन तथ्यों को रखें और नेता इस सवाल को उठायें कि मीडिया ने भी अपना धर्म नहीं निभाया, उससे पहले स्टिंग ऑपरेशन को लेकर मीडिया के उठाये सवालों पर संसद की पहल को ही समझ लीजिये। तहलका ने स्टिंग ऑपरेशन के जरिए देश के धुरन्धर राजनीतिक दलो के अग्रणी नेता-मंत्रियो की पोल पट्टी खोली थी कि कैसे देश को चूना लगाकार हथियारो की खरीद फरोख्त तक में गड़बड़ी होती है। देश की सुरक्षा कमीशनखोरी के आगे कैसे नतमस्तक हो जाती है। लेकिन स्टिंग ऑपरेशन चलने के बाद क्या हुआ? मीडिया अर्से बाद खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा था कि अब तो सांसद-मंत्रियो की खैर नही। इस लंबे-चौड़े स्टिंग ऑपरेशन को दिखाये जाने का पूरा मजा संसद ने भी लिया और उन राजनीतिक दलो ने भी, जो विपक्ष में थे। देश में कई दिनो तक भष्ट्राचार की पारदर्शी होती गंगा को लेकर बहस मुहासिब चलती रही। आम आदमी कहने लगा अब और क्या चाहिये सबूत। सांसद चेते और अपनी मान्यता बरकरार रखने के लिये संसद से मामला अदालत तक भी जा पहुचा लेकिन क्या कोई सासंद जेल पहुचा? किसी को सजा हुई? इसके बाद सांसदो के सवाल पूछने पर रुपया कमाने के तरीको को स्टिंग ऑपरेशन के जरिए मीडिया सामने लाया। इसमें हर राष्ट्रीय राजनीतिक दल का नेता घेरे में था। जनता की नुमाइन्दगी के बदले नोटों और घूसखोरी की नुमाइन्गी करने वाले नेताओं पर संसद फिर शर्मसार हुई। मीडिया की पीठ जनता ने ठोंकी लेकिन इस घपले को खुलने के बाद भी क्या कोई सांसद कानूनी तौर पर फंसा? या किसी को सजा हुई? तो स्टिंग ऑपरेशन का मतलब क्या है? आप यहाँ सवाल खड़े कर सकते है कि भारत इसीलिये तो लोकतंत्र का पहरी है क्योकि यहां संविधान के तहत चैक एंड बैलेंस की स्थितियों को समझाया गया है। और मीडिया चौथे खंभे के मद्देनजर बाकि तीन खंभों पर नजर रख सके उसकी भूमिका इतनी भर ही है।
हमारा सवाल यही से शुरु होता है जब बाकि तीन खंभे अपनी भूमिका तो नहीं ही निभा रहे है बल्कि संसदीय राजनीति को ही सांसदो ने अपने अनुकूल इस तरह बना लिया,जहां व्यक्तिगत तौर पर कोई भ्रष्ट्र या आपराधिक काम करने पर उसे विशेषाधिकार मिल जाता है। और सामुदायिक या पार्टी के तौर पर गलत-भ्रष्ट्र-आपराधिक या जन विरोधी काम को व्यवस्था की मान्यता दे दी जाती है । इतना ही नही घोषित तौर पर जनविरोधी नीतियो को लागू करते हुये सीधे सत्ताधारी इस बात का भी ऐलान करने से नही कतराता कि अगर वह गलत होगा तो चुनाव में जनता उसे सत्ता से बेदखल कर देगी। जबकि चुनाव की परिस्थितियों को भी वह इस तरह बना चुका है, जहां जनविरोधी नीतियों का बुरा प्रभाव चाहे समूचे देश पर पड़े लेकिन इस बुरे प्रभाव में भी धर्म-जाति या वर्ग के आधार पर दस या पन्द्रह फीसदी को मुनाफे के बंदरबांट में सहयोगी बनाने को लोभ देकर समाज को भी बांट देता है । यानी चुनावी लोकतंत्र के आसरे जिस चैक एंड बैलेंस की व्यवस्था संविधान के भीतर की गयी, उसे भी संसदीय राजनीति में सत्ता के खातिर तोड मरोड़ दिया गया है।
इतना ही नही खुले तौर पर जनता चुनाव के दौरान जब कई पार्टियों के उम्मीदवारो में से किसी एक पार्टी के किसी एकनेता को चुनती है तो चुनाव खत्म होते ही जनता के वोट की धज्जियां सत्ता के लिये आपसी गठजोड़ बना कर कर दी जाती है। इतना ही नही एक ही राज्य में आमने सामने खडे राजनीतिक दलो के बीच कॉमन मिनिमम प्रोग्राम का ऐसा दस्तावेज बनाया जाता है, जिसके आगे संविधान भी नतमस्तक हो जाए। जो राजनीतिक दल और राजनेता इसे अंजाम दे रहे है, वही इस संसदीय व्यवस्था में छुपाये हुये कैमरे से सूराख दिखाना चाहते है। जाहिर है संसदीय राजनीति के इस लोकतंत्र में बहुत थोडा नष्ट हुआ है बाकि नैतिकता बची हुई है इसीलिए मीडिया का आसरा लेने में भी राजनीति चूकना नही चाहती है।
लेकिन सच कितना गहरा है यह देश के किसी भी राजनीतिक दल के सत्ता में रहते हुये पहलकदमी से समझा जा सकता है। देश के सत्तर करोड़ लोग अभी भी खेती की जमीन पर निर्भर है। जमीन से अन्न उपजाने वाले किसान के लेकर चाहे वाजपेयी सरकार हो या मनमोहन सरकार दोनो की नीतियों ने किसानों को मौत के मुंह में घकेला। सबसे विकसित राज्यो में से एक महाराष्ट्र में वाजपेयी सरकार के दौर में सोलह हजार से ज्यादा किसानों ने इसलिये आत्महत्या कर ली क्योकि उनके उपज की खरीद के लिये सरकार ने कोई उचित व्यवस्था नहीं की। मीडिल मैन के आसरे किसान अपनी उपज की कीमत पाने के लिये मौसम दर मौसम बैठा रहा। बाजार तक माल ले जाने की सौदेबाजी में मीडिल मैन ने ऐसा जाल बिछाया कि दूसरी फसल का मौसम आते ही किसान ने मजबूरी में अपनी उपज कौडियों के मोल दे दी और आगे किसानी चलती रहे उसके लिये कर्ज ले लिया। इस सिलसिले को पहले बीजेपी की अगुवायी वाली सरकार ने तो बाद में यानी अब कांग्रेस की अगुवायी की सरकार आगे बढा रही है। जाहिर है किसान के घर में से रोटी गायब हुई। उसने मौत को गले लगा लिया।
वाजपेयी सरकार के दौर में महाराष्ट के सोलह हजार किसानों की खुदकुशी का आंकडा मनमोहन सरकार ने चार साल में ही सत्रह हजार पार करवा कर तोड़ दिया। यानी मिडिलमैन को व्यवस्था चलाने की कुंजी तक ही मामला ठहरता तो लग सकता है कि देश में सरकार है लेकिन सरकार ही मिडिल मैन की भूमिका में आ जायेगी यह किसने सोचा होगा? विदेशी पूंजी के जुगाड़ में अगर पहले डिसइंवेस्टमेंट के जरिये देश की संपत्ति को मुनाफे की पटरी पर लाने के नाम पर प्राइवेट सेक्टर के हवाले करने की प्रक्रिया शुरु हुई तो दूसरी पहल खेती की जमीन को विदेशी कंपनियो को देने की प्रक्रिया शुरु हुई। केन्द्र और राज्य सरकार अपने अपने घेरे में आम जनता के जीने के अधिकार को राज्य के अधिकार से कुचलने लगी। खुले तौर पर हर सरकार के नौकरशाह -पुलिस और अदालत सक्रिय हुआ कि समूचे राज्य के विकास और देशहित के आगे किसी को भी अपनी सुविधा देखने या जीने का अधिकार नहीं है। मुआवजे देकर जमीन से पीढीयों की बसावट को बेदखल करने की प्रक्रिया भी शुरु हुई। विदेशी उघोग-घंघे फले फुले और जमकर मुनाफा कमाये, सरकार इसे लागू करने में भिड़ी हुई है। हाँ, मुनाफे में सरकार का कमिशन हर स्तर पर फिक्स है। यहाँ तक भूमि सुधार के जरीये किसान-मजदूरो के बारे सोचले वाली कम्यूनिस्ट सरकार भी इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के लिये जमीन छिनने में मिडिलमैन की भीमिका में आ गयी। सर्वहारा की तानाशाही का पाठ पढने वाला कैडर भी अचानक पूंजी और बाजार की तानाशाही को लागू कराने के लिये खून बहाने को तैयार हो गया।
बीते दस साल में किसी राजनीतिक दल को संविधान या लोकतंत्र का कोई पाठ याद नहीं आया जिसमें जनता के लिये ... जनता द्वारा... सरीखी बात की जाये। न्यूनतम जरुरतो को पूरा कराने का जो वायदा संसदीय सत्ता पिछली तेरह लोकसभा से कर रही है, उसमें पहली बार बीते दस साल में इस सोच के पलिते में ही आग लगा दी गयी कि शिक्षा-स्वास्थ्य और पीने का पानी भी देश को मुहैया कराना पहली प्रथामिकता होनी चाहिये। किसी भी गांव में डेढ से दो लाख प्राथमिक स्कूल या प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोलने में खर्च आता है लेकिन इतना पैसा भी देश के सभी गांव के लिये सरकार के पास नहीं है। इन दस साल में समूचे देश में जितने प्राथमिक स्कूल या स्वास्थ्य केन्द्र खोले गये उससे तीन सौ गुना ज्यादा कार इस देश में लोगो ने खरीदी। स्पेशल इकनामी जोन के नाम पर विकास की जो लकीर खींची गयी है अगर वह सब बन जाते है तो जितने लोगो को रोजगार मिलेगा जो करीब साठ लाख तक का दावा सरकार कर रही है, वही जमीन खत्म होने के बाद देश के करीब छह करोड सीधे जुडे किसान-मजदूर रोजगार से वंचित हो जायेगे। दो जून की रोटी के लाले उन्हे पड़ जायेगे।
सवाल है किस देश के किस संसद और कौन से सांसद यह सवाल उठा रहे हैं कि स्टिंग ऑपरेशन को दिखाना मीडिया की नैतिकता है और कौन स्टिंग ऑपरेशन को ना दिखाये जाने से खामोश चुपचाप खुश है। सवाल तो यह भी है कि स्टिंग ऑपरेशन दिखाने से सरकार रहती या जाती, अगर इस हद तक की भी स्थिति थी तो भी फर्क इस देश अस्सी फिसद लोगो पर क्या पडता। अगर आपके जहन में यह सवाल उठ रहा है कि पहले के स्टिंग ऑपरेशन दिखाने वालो को अगर सजा देने की व्यवस्था कर ली जाये तब... लेकिन इसका दूसरा पक्ष कही ज्यादा त्रासदीदायक है, जब सजायाफ्ता सांसद भी संसद के भीतर आकर सरकार बचाने या गिराने में मायने रखे जा रहे हों तो वहीं स्टिंग ऑपरेशन से सरकार गिरे या बनी रहे फर्क क्या पडता है। दरअसल, आप जिस छुपे हुये सच को देखने के लिये बेचेन है, वह कहीं ज्यादा खुले तौर पर आंखो के सामने मौजूद है। और हम-आप आंख बंद कर स्टिंग ऑपरेशन देख कर अपराधी तय करना चाहते है। किसी को बचा कर किसी को फंसाना चाहते है, जिससे देश का लोकतांत्रिक मुखौटा बचा रहे।
चंद सवालों के जवाब
ब्लॉग की दुनिया में अपने पहले पोस्ट पर कई प्रतिक्रियाएं देख अच्छा लगा कि आखिर मुद्दों पर बहस शुरु होने की यहां संभावना तो है। पहली पोस्ट में आए कमेंट में कई सवाल हैं। मसलन, पत्रकार राजनीति का टूल बन रहे हैं। दरअसल,ब्लॉग,चैनल और न्यूज पेपर सभी इनफोरमेशन के टूल हैं,ये कोई अल्टीमेट गोल नहीं है। लेकिन, बड़ी तादाद में पत्रकार इन्हें अपना गोल मान रहे हैं,और जो मान रहे हैं,वहीं राजनीति का टूल बन रहे हैं। खतरा यही है। राजनीति और राजनेताओं के लिए मीडिया एक टूल बनता जा रहा है,जबकि मीडिया वाले मीडिया के तमाम माध्यमों को जरिया न मानकर उद्देश्य मान रहे हैं। इसलिए, आज का मीडिया पैसे से संचालित हो रहा है। मीडिया बिजनेस बन गया है। पत्रकारीय अंदाज में मीडिया का विकास नहीं हो पा रहा है अब।
अनुनाद सिंह ने कहा कि मीडिया भ्रष्ट है। हमारा कहना है कि ये एक इंटरपिटेशन हो सकता है। लेकिन, हमारा कहना है कि मीडिया टूल बनता जा रहा है, जो बड़ा खतरा है। भ्रष्ट चीज़ सुधर भी सकती है, लेकिन आप जरिया बन जाते हैं, फिर ऐसा नहीं हो सकता।
अफलातून, अजीत और यतेन का तर्क है कि ब्लॉग पर माइक क्यों लगाया है? दरअसल,माइक बोलने को प्रेरित करता है, उन्हें भी जो नहीं बोलते। माइक एक प्रतीकात्मक चिन्ह है। वैसे भी,माइक का इजाद इसलिए हुआ है कि ज्यादा लोग आपकी बात सुनें। वैसे, अगर आपको और हमें बहस के बाद लगेगा कि माइक भ्रष्ट मीडिया का प्रतीक है तो हम हटा देंगे। लेकिन, सोचिए आप भी कि इसे देना है या नहीं।
जहां तक अंशुमाली का सवाल है कि जनता की भागीदारी के बिना चीचें भष्ट नहीं होती। भाई, जनता कोई अलग नहीं है। हम-आप जनता है और नेता भी जनता है। लेकिन, संयोग से जो सिस्टम है, वो एक तबके के लिए है और एक तबके को ही प्रभावित कर रहा है। प्रभु वर्ग में घुसने की लालसा हर वर्ग में हो रही है। ये जो स्थिति है, उसमें हमको लगता है कि सिस्टम ने जनता और सत्ता को बांट दिया है या यूं कहें लाइन ऑफ कंट्रोल खींच दिया है। इसलिए जनता की भागीदारी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इस देंश में जो चीजें चल रही हैं, वो जनता के लिए हैं ही नहीं। सवाल यही था कि देश में अस्सी करोड़ जनता के लिए कोई नीति नहीं बन रही है और न उनका हित देखा जा रहा है। ऐसे में ,जिसे जनता समझ रहे हैं, उसे कोई देखने वाला नहीं। ऐसे में, मीडिया ने भी उससे दूरी बना ली है।
जहां तक स्टिंग ऑपरेशन की बात है और जो सवाल रंजन और संजय का है तो हमारा कहना है कि इसी भाषा का इस्तेवाल वो नेता कर रहे हैं, जो बिक रहे हैं, खरीद रहे हैं और मीडिलमैन हैं। वो भी यही कह रहे हैं कि स्टिंग ऑपरेशन न दिखाने के लिए कोई डील तो नहीं हुई। आपसे आग्रह है कि इस खतरे को समझना होगा। मीडिया को फोर्थ स्टेट बनाए रखना है या सब कुछ घालमेल कर देना है, इस बारे में हमें तय करना होगा। इसलिए, हमें उनकी भाषा से बचना होगा। उनकी भाषा का इस्तेमाल कर आप नेता नहीं बन सकते इसके लिए दूसरे गुर चाहिए। वो अपनी भाषा, हमारे-आप पर थोप कर मीडिया को घेरना चाहते हैं।
डॉ. अमर कुमार कहते हैं कि आप राजनीति ही बाचेंगे? राजनीति पर चोट करने के आसरे से बचा नहीं जा सकता। मीडिया नहीं बच सकता। संयोग से राजनीति को जनता से सरोकार बनाने थे, वो उसने छोड़ दिया। मेरा कहना है कि समाजिक पहलुओं को उठाते हुए उंगली तो राजनीति पर उठेगी ही, क्योंकि वो नीति निर्धारक है। इसलिए हम तो इससे बचेंगे नहीं। चिंता न कीजिए.....अगर देश में नायक नहीं है, और लीडरशिप गायब हो रही है और फिल्मों में हीरो हीरोइन गायब हो तो हम वहां भी आ जाएंगे। उस पर भी बहस करेंगे।
ये अजब बात है कि जो लोग जो अस्सी और नब्बे के दशक में अच्छा काम मीडिया में कर रहे थे, अच्छी राजनीति संसद में कर रहे थे। वो इस नए सिस्टम का हिस्सा बनते जा रहे हैं। समझिए इसको, क्योंकि इस देश को न तो राजनीति और न ही जनता चला रही है बल्कि कुछ और चला रहा है। हम इस पर भी चर्चा करेंगे।
इसकी शुरुआत करेंगे कलावती की बात कर। मैं फिलहाल राहुल की कलावती के गांव जालका में ही हूं। कल दिल्ली लौटूंगा तो बताऊंगा आपको कैसी है राहुल की कलावती और क्या है जालका गांव का हाल।
अनुनाद सिंह ने कहा कि मीडिया भ्रष्ट है। हमारा कहना है कि ये एक इंटरपिटेशन हो सकता है। लेकिन, हमारा कहना है कि मीडिया टूल बनता जा रहा है, जो बड़ा खतरा है। भ्रष्ट चीज़ सुधर भी सकती है, लेकिन आप जरिया बन जाते हैं, फिर ऐसा नहीं हो सकता।
अफलातून, अजीत और यतेन का तर्क है कि ब्लॉग पर माइक क्यों लगाया है? दरअसल,माइक बोलने को प्रेरित करता है, उन्हें भी जो नहीं बोलते। माइक एक प्रतीकात्मक चिन्ह है। वैसे भी,माइक का इजाद इसलिए हुआ है कि ज्यादा लोग आपकी बात सुनें। वैसे, अगर आपको और हमें बहस के बाद लगेगा कि माइक भ्रष्ट मीडिया का प्रतीक है तो हम हटा देंगे। लेकिन, सोचिए आप भी कि इसे देना है या नहीं।
जहां तक अंशुमाली का सवाल है कि जनता की भागीदारी के बिना चीचें भष्ट नहीं होती। भाई, जनता कोई अलग नहीं है। हम-आप जनता है और नेता भी जनता है। लेकिन, संयोग से जो सिस्टम है, वो एक तबके के लिए है और एक तबके को ही प्रभावित कर रहा है। प्रभु वर्ग में घुसने की लालसा हर वर्ग में हो रही है। ये जो स्थिति है, उसमें हमको लगता है कि सिस्टम ने जनता और सत्ता को बांट दिया है या यूं कहें लाइन ऑफ कंट्रोल खींच दिया है। इसलिए जनता की भागीदारी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इस देंश में जो चीजें चल रही हैं, वो जनता के लिए हैं ही नहीं। सवाल यही था कि देश में अस्सी करोड़ जनता के लिए कोई नीति नहीं बन रही है और न उनका हित देखा जा रहा है। ऐसे में ,जिसे जनता समझ रहे हैं, उसे कोई देखने वाला नहीं। ऐसे में, मीडिया ने भी उससे दूरी बना ली है।
जहां तक स्टिंग ऑपरेशन की बात है और जो सवाल रंजन और संजय का है तो हमारा कहना है कि इसी भाषा का इस्तेवाल वो नेता कर रहे हैं, जो बिक रहे हैं, खरीद रहे हैं और मीडिलमैन हैं। वो भी यही कह रहे हैं कि स्टिंग ऑपरेशन न दिखाने के लिए कोई डील तो नहीं हुई। आपसे आग्रह है कि इस खतरे को समझना होगा। मीडिया को फोर्थ स्टेट बनाए रखना है या सब कुछ घालमेल कर देना है, इस बारे में हमें तय करना होगा। इसलिए, हमें उनकी भाषा से बचना होगा। उनकी भाषा का इस्तेमाल कर आप नेता नहीं बन सकते इसके लिए दूसरे गुर चाहिए। वो अपनी भाषा, हमारे-आप पर थोप कर मीडिया को घेरना चाहते हैं।
डॉ. अमर कुमार कहते हैं कि आप राजनीति ही बाचेंगे? राजनीति पर चोट करने के आसरे से बचा नहीं जा सकता। मीडिया नहीं बच सकता। संयोग से राजनीति को जनता से सरोकार बनाने थे, वो उसने छोड़ दिया। मेरा कहना है कि समाजिक पहलुओं को उठाते हुए उंगली तो राजनीति पर उठेगी ही, क्योंकि वो नीति निर्धारक है। इसलिए हम तो इससे बचेंगे नहीं। चिंता न कीजिए.....अगर देश में नायक नहीं है, और लीडरशिप गायब हो रही है और फिल्मों में हीरो हीरोइन गायब हो तो हम वहां भी आ जाएंगे। उस पर भी बहस करेंगे।
ये अजब बात है कि जो लोग जो अस्सी और नब्बे के दशक में अच्छा काम मीडिया में कर रहे थे, अच्छी राजनीति संसद में कर रहे थे। वो इस नए सिस्टम का हिस्सा बनते जा रहे हैं। समझिए इसको, क्योंकि इस देश को न तो राजनीति और न ही जनता चला रही है बल्कि कुछ और चला रहा है। हम इस पर भी चर्चा करेंगे।
इसकी शुरुआत करेंगे कलावती की बात कर। मैं फिलहाल राहुल की कलावती के गांव जालका में ही हूं। कल दिल्ली लौटूंगा तो बताऊंगा आपको कैसी है राहुल की कलावती और क्या है जालका गांव का हाल।
कर्ज लेकर बच्चों को पढ़ाने को मजबूर हैं यवतमाल के किसान
परेश टोकेकर, आपने ये सवाल सही उठाया कि 2020 तक भारत को विकसित बनाने का जो सपना दिखाया जा रहा है, उसके इर्द-गिर्द हर क्षेत्र में जो नीतियां अपनायी जा रही हैं, वह किसान-मजदूर को मौत के अलावा कुछ दे भी नहीं सकती। यवतमाल जैसे पिछडे जिले में कागजों को विकास के नाम पर कैसे भरा जा रहा है, इसका नज़ारा शिक्षा के मद्देनजर भी समझा जा सकता है।
दरअसल, इस साल दसवीं की परीक्षा देने वाले सभी बच्चों को पास कर दिया गया। अब ग्यारहवी में नाम कॉलेज में लिखाना है, तो इतने कॉलेज जिले में हैं नहीं, जिसमें सभी बच्चे पढ़ सकें। कॉलेज खोलने का लाइसेंस करोड़ों में बिकने लगा और बच्चो को एडमिशन के लिये हजारों देने पड़ रहे हैं। यवतमाल के सबसे घटिया कालेज संताजी कालेज में ग्यारहवी में एडमिशन के लिये बीस हजार रुपये तक प्रबंधन ले रहा है। खास बात ये कि कॉलेज में सिर्फ दो कमरे है। पढ़ाने के लिये पांच शिक्षक हैं। चूंकि यवतमाल में 90 फीसदी दसवीं पास किसान और खेत मजदूर के वैसे बच्चे जिन्हे कहीं एडमिशन नही मिल रहा है, इन्हें अब बच्चों को पढ़ाने के लिये कर्ज लेना पड रहा है। कॉलेज खोलने का जो लाइसेंस दिया भी जा रहा या जिनके पास पहले से कॉलेज है, संयोग से सभी नेताओ के हैं। कांग्रेस-बीजेपी-एनसीपी पार्टी के नेताओं के ही कॉलेज है। संयोग ये भी है कि बैंकों से हटकर कर्ज देने वाले भी नेता ही हैं। और किसानो की खुदकुशी पर आंसू बहाने वाले भी नेता ही हैं।
सवाल है इस चक्रव्यूह को तोडने के लिये अभिमन्यू कहां से आयेगा? लेकिन चक्रव्यूह की अंतर्राष्ट्रीय समझ कितनी हरफनमौला है, यह भी यवतमाल में समझ में आया। दरअसल, इसी दौर में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य भी आये और अमेरिकी सीनेट का प्रतिनिधिमंडल भी पहुंचा। खास बात विश्व बैक के प्रतिनिधिमंडल की रही, जो लगातार आईसीयू में पड़े किसानों की हालत को समझने के लिये यह सोच कर उनकी नब्ज पकडता रहा कि एड्स की तुलना में किसानो का खुदकुशी कितना बड़ा मामला है। क्या एड्स की तर्ज पर किसानो के लिये कोइ राशि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर दी जा सकती है? स्थानीय लोगों के मुताबिक जो भी गोरे आते थे, वह दो सवाल हर से पूछते। परिवार में किसान की मौत के बाद खेती कौन करता है और खेती करने के लिये कौन कौन सी तकनीक उपयोग में लायी जाती है। तकनीक कुछ भी नहीं और ज्यादातर महिलाओ को किसानी करते सुन कर गोरो का यह कमेंट भी यवतमाल के अलग अलग गांव में सुना जा सकता है। विमेंस आर वैरी ब्रेव। यहां महिलाएं बहुत बहादुर है। त्रासदी देखिये यह जबाव विधवा हो गयी किसान महिलाओं के लिये है। राहुल की कलावती भी उनमें से एक है।
दरअसल, इस साल दसवीं की परीक्षा देने वाले सभी बच्चों को पास कर दिया गया। अब ग्यारहवी में नाम कॉलेज में लिखाना है, तो इतने कॉलेज जिले में हैं नहीं, जिसमें सभी बच्चे पढ़ सकें। कॉलेज खोलने का लाइसेंस करोड़ों में बिकने लगा और बच्चो को एडमिशन के लिये हजारों देने पड़ रहे हैं। यवतमाल के सबसे घटिया कालेज संताजी कालेज में ग्यारहवी में एडमिशन के लिये बीस हजार रुपये तक प्रबंधन ले रहा है। खास बात ये कि कॉलेज में सिर्फ दो कमरे है। पढ़ाने के लिये पांच शिक्षक हैं। चूंकि यवतमाल में 90 फीसदी दसवीं पास किसान और खेत मजदूर के वैसे बच्चे जिन्हे कहीं एडमिशन नही मिल रहा है, इन्हें अब बच्चों को पढ़ाने के लिये कर्ज लेना पड रहा है। कॉलेज खोलने का जो लाइसेंस दिया भी जा रहा या जिनके पास पहले से कॉलेज है, संयोग से सभी नेताओ के हैं। कांग्रेस-बीजेपी-एनसीपी पार्टी के नेताओं के ही कॉलेज है। संयोग ये भी है कि बैंकों से हटकर कर्ज देने वाले भी नेता ही हैं। और किसानो की खुदकुशी पर आंसू बहाने वाले भी नेता ही हैं।
सवाल है इस चक्रव्यूह को तोडने के लिये अभिमन्यू कहां से आयेगा? लेकिन चक्रव्यूह की अंतर्राष्ट्रीय समझ कितनी हरफनमौला है, यह भी यवतमाल में समझ में आया। दरअसल, इसी दौर में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य भी आये और अमेरिकी सीनेट का प्रतिनिधिमंडल भी पहुंचा। खास बात विश्व बैक के प्रतिनिधिमंडल की रही, जो लगातार आईसीयू में पड़े किसानों की हालत को समझने के लिये यह सोच कर उनकी नब्ज पकडता रहा कि एड्स की तुलना में किसानो का खुदकुशी कितना बड़ा मामला है। क्या एड्स की तर्ज पर किसानो के लिये कोइ राशि अंतर्राष्ट्रीय तौर पर दी जा सकती है? स्थानीय लोगों के मुताबिक जो भी गोरे आते थे, वह दो सवाल हर से पूछते। परिवार में किसान की मौत के बाद खेती कौन करता है और खेती करने के लिये कौन कौन सी तकनीक उपयोग में लायी जाती है। तकनीक कुछ भी नहीं और ज्यादातर महिलाओ को किसानी करते सुन कर गोरो का यह कमेंट भी यवतमाल के अलग अलग गांव में सुना जा सकता है। विमेंस आर वैरी ब्रेव। यहां महिलाएं बहुत बहादुर है। त्रासदी देखिये यह जबाव विधवा हो गयी किसान महिलाओं के लिये है। राहुल की कलावती भी उनमें से एक है।
आक्रोष को आवाज देती एक कविता
बंधु, यह तो तय है कि सवाल और आक्रोष से रास्ता भी नहीं निकलता और समाधान भी। लेकिन यह कैसे संभव है कि हम सवालों को खड़ा ही न करें? चर्चा रोक कर मैं आपको एक कविता बताता हूँ... इसका महत्व किसी भी आंदोलन की जमीन पर उपजे शब्दों की तर्ज पर हो सकता है। मुझे इस कविता की प्रति 1991 में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने दी थी। दुर्भाग्य से दो महीने पहले उसकी मौत हो गयी। मौत की वजह उसका अपना जुनून था। इस जुनून की वजह समाज के हालात से समझौता न करने की उसकी समझ थी या कहें एक बेहतर समाज को बनाने का सपना। खैर, कविता दक्षिण अफ्रीका के फेजेका मैकोनीज की है - मत रो माँ
मत रो माँ
ये तुम्हारा कैसा हठ है, दुराग्रह है,
बिछुड़ने का यह वक्त कितना कठिन है,
मेरे सामने बिखरी चुनौती भरी जिंदगी मुझे पुकार रही है,
मुझे जाना ही पड़ेगा, मैं जरुर जाऊंगी,
इसलिये मेरी माँ, मेरी प्यारी माँ मत रो।
देखो मुर्गे ने बांग दे दी है,
दूर से आती रोशनी की किरणों पर मेरा नाम लिखा है!
मैं उस लक्ष्य की ओर जा रही हूँ, जो हम सबका है, तुम्हारा भी।
मेरे साथी पहले ही जा चुके हैं,
उनमें से कुछ कभी नहीं लौटेंगे।
हमारे बगीचे के वे प्यारे भोले गुलाब और दूसरे फूल,
मेरे स्कूल के साथी, सारे साथी स्कूल के मैदान में
हमारे महान पुरखों की तरह लड़ते-लड़ते गिर गये।
वे सब मुझे पुकार रहे हैं,
उनकी पुकार में करुणा नहीं है,
मुझे अपने आंसुओं की जंजीर में मत बांधो।
देखो दूर, बहुत दूर युवाओं की टोली मेरा आह्वान कर रही है
मत रोको माँ, मुझे मत रोको, मुझे जाने दो।
इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर
मैंने अपनी छोटी-सी जिन्दगी में केवल आंतक
और दहला देने वाली हिंसा देखी है।
अगर वक्त मुझे यूँ ही अनदेखा करके चला गया
तो भला मैं लंबी जिन्दगी का क्या करुंगी।
मेरे बहुत से साथी भोर से पहले ही
रोशनी की तलाश में मारे जा चुके हैं।
मुझे भी जाना होगा,
मैं नहीं चाहती मेरा अजन्मा बच्चा
वह सब देखे और भोगे,
जो मैंने देखा और भोगा है।
अपना ध्यान रखना माँ।
मत रो माँ
ये तुम्हारा कैसा हठ है, दुराग्रह है,
बिछुड़ने का यह वक्त कितना कठिन है,
मेरे सामने बिखरी चुनौती भरी जिंदगी मुझे पुकार रही है,
मुझे जाना ही पड़ेगा, मैं जरुर जाऊंगी,
इसलिये मेरी माँ, मेरी प्यारी माँ मत रो।
देखो मुर्गे ने बांग दे दी है,
दूर से आती रोशनी की किरणों पर मेरा नाम लिखा है!
मैं उस लक्ष्य की ओर जा रही हूँ, जो हम सबका है, तुम्हारा भी।
मेरे साथी पहले ही जा चुके हैं,
उनमें से कुछ कभी नहीं लौटेंगे।
हमारे बगीचे के वे प्यारे भोले गुलाब और दूसरे फूल,
मेरे स्कूल के साथी, सारे साथी स्कूल के मैदान में
हमारे महान पुरखों की तरह लड़ते-लड़ते गिर गये।
वे सब मुझे पुकार रहे हैं,
उनकी पुकार में करुणा नहीं है,
मुझे अपने आंसुओं की जंजीर में मत बांधो।
देखो दूर, बहुत दूर युवाओं की टोली मेरा आह्वान कर रही है
मत रोको माँ, मुझे मत रोको, मुझे जाने दो।
इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर
मैंने अपनी छोटी-सी जिन्दगी में केवल आंतक
और दहला देने वाली हिंसा देखी है।
अगर वक्त मुझे यूँ ही अनदेखा करके चला गया
तो भला मैं लंबी जिन्दगी का क्या करुंगी।
मेरे बहुत से साथी भोर से पहले ही
रोशनी की तलाश में मारे जा चुके हैं।
मुझे भी जाना होगा,
मैं नहीं चाहती मेरा अजन्मा बच्चा
वह सब देखे और भोगे,
जो मैंने देखा और भोगा है।
अपना ध्यान रखना माँ।
आजादी के नारों से डर कौन रहा है ?
कश्मीर के इतिहास में 1953 के बाद पहला मौका आया, जब 25 अगस्त 2008 को कश्मीर में कोई अखबार नहीं निकला । घाटी में सेना की मौजूदगी का एहसास पहली बार पिछले दो दशक के दौरान मीडिया को भी हुआ । 1988 में बिगडे हालात कई बार बद-से-बदतर हुये लेकिन खबरो को रोकने का प्रयास सेना ने कभी नहीं किया। अब सवाल उठ रहे है कि क्या वाकई घाटी के हालात पहली बार इतने खस्ता हुए हैं कि आजादी का मतलब भारत से कश्मीर को अलग देखना या करना हो सकता है। जबकि आजादी का नारा घाटी में 1988 से लगातार लग रहा है । लेकिन कभी खतरा इतना नहीं गहराया कि मीडिया की मौजूदगी भी आजादी के नारे को बुलंदी दे दे । या फिर पहली बार घाटी पर नकेल कसने की स्थिति में दिल्ली है, जहां वह सेना के जरिए घाटी को आजादी का नारा लगाने का पाठ पढ़ा सकती है।
दरअसल, हालात को समझने के लिये अतीत के पन्नो को उलटना जरुरी होगा । क्योकि दो दशक के दौरान झेलम का पानी जितना बहा है, उससे ज्यादा मवाद झेलम के बहते पानी को रोकता भी रहा है । इस दौर के कुछ प्यादे मंत्री की चाल चलने लगे तो कुछ घोड़े की ढाई चाल चल कर शह-मात का खेल खेलने में माहिर हो गये । घाटी के लेकर पहली चाल 1987 के विधान सभा चुनाव के दौरान दिल्ली ने चली थी । बडगाम जिले की अमिरा-कडाल विधानसभा सीट पर मोहम्मद युसुफ शाह की जीत पक्की थी । लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला के लिये सत्ता का रास्ता साफ करने का समझौता दिल्ली में हुआ । कांग्रेस की सहमति बनी और बडगाम में पीर के नाम से पहचाने जाने वाले युसुफ शाह चुनाव हार गये । न सिर्फ चुनाव हारे बल्कि विरोध करने पर उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया । युसुफ शाह के चार पोलिंग एंजेट हामिद शेख, अशफाक मजिद,जावेद अहमद मीर और यासिन मलिक भी गिरफ्तार कर लिये गए । चारो पोलिग एजेंट 1987 में प्यादे की हैसियत रखते थे । लेकिन इस चुनाव परिणाम ने फारुख अब्दुल्ला के जरिए घाटी को दिल्ली के रास्ते चलने का जो मार्ग दिखाया, उसमें संसदीय लोकतंत्र के हाशिये पर जाना भी मौजूद था । जिससे कश्मीर में 1953 के बाद पहली बार आजादी का नारा गूंजा । कोट बिलावल की जेल से छूट कर मोहम्मद युसुफ शाह जब बडगाम में अपने गांव सोमवग पहुंचे तो हाथ में बंदूक लिये थे । और चुनाव में हार के बाद जो पहला भाषण दिया उसमें आजादी के नारे की खुली गूंज थी । युसुफ शाह ने कहा,
" हम शांतिपूर्ण तरीके से विधानसभा में जाना चाहते थे । लेकिन सरकार ने हमें इसकी इजाजत नहीं दी । चुनाव चुरा लिया गया । हमे गिरफ्तार किया गया , और हमारी आवाज दबाने के लिये हमें प्रताड़ित किया गया । हमारे पास दूसरा कोई विकल्प नही है कि हम हथियार उठाये और कश्मीर के मुद्दे उभारे ।"
उसके बाद युसुफ शाह ने नारा लगाया, " हमें क्या चाहिये--आजादी । गांव वालों ने दोहराया -आजादी " बड़गाम के सरकारी हाई सेकेन्डरी स्कूल से पढाई करने के बाद डॉक्टर बनने की ख्वाईश पाले युसुफ शाह को मेडिकल कालेज में तो एडमिशन नहीं मिला लेकिन राजनीति शास्त्र पढ़ कर राजनीति करने निकले युसुफ शाह के नाम की यहां मौत हुई और आजादी की फितरत में 5 नवंबर 1990 को युसुफ शाह की जगह सैयद सलाउद्दीन का जन्म हुआ । जो सीमा पार कर मुज्जफराबाद पहुंचा और हिजबुल मुजाहिद्दीन बनाकर आंतकवादी हिंसा को अंजाम देते देते पाकिस्तान के तेरह आंतकवादी संगठन के जेहाद काउंसिल का मुखिया बन गया।
दो दशक बाद जब आजादी के नारे घाटी में गूंजते हुये दिल्ली को ललकार रहे हैं, तो सैयद सलाउद्दीन ने भी जेहादियो से कश्मीर में हिंसा के बदले सिर्फ आजादी के नारे लगाने का निर्देश दिया है ।
लेकिन आजादी के नारे को सबसे ज्यादा मुखरता 1989 में मिली । यहां भी दिल्ली की चाल कश्मीर के लिये ना सिर्फ उल्टी पडी बल्कि आजादी को बुलंदी देने में राजनीतिक चौसर के पांसे ही सहायक हो गये । इतना ही नहीं राजनीति 180 डिग्री में कैसे घुमती है, यह दो दशक में खुलकर नजर भी आ गया । 8 दिसंबर 1989 को देश के तत्कालिन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद का अपहरण हुआ । रुबिया का अपहरण करने वालो उसी युसुफ शाह के पोलिंग एंजेट थे, जिनकी पहचान घाटी में प्यादे सरीखे ही थी । मेडिकल की छात्रा रुबिया का अपहरण सड़क चलते हुआ । यानी उस वक्त तक किसी कश्मीरी ने नहीं सोचा था कि कि किसी लड़की का अपहरण घाटी में कोई कर भी सकता है । अगर उस वक्त के एनएसजी यानी नेशनल सिक्युरटी गार्ड के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह की माने तो रुबिया के अपहरण के खिलाफ घाटी की मानसिकता थी । आम कश्मीरी इस बात को पचा नहीं पा रहा था कि रुबिया का अपहरण राजनीतिक सौदेबाजी की लिये करना चाहिये । लेकिन दिल्ली की राजनीतिक चौसर का मिजाज कुछ था । दिल्ली के अकबर रोड स्थित गृहमंत्री के घर पर पहली बैठक में उस समय के वाणिज्य मंत्री अरुण नेहरु , कैबिनेट सचिव टी एन शेषन, इंटिलिजेन्स ब्यूरो के डायरेक्टर एम के नारायणन और एनएसजी के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह मौजूद थे । जिसके बाद बीएमएफ के विशेष विमान से वेद मारवाह को श्रीनगर भेजा गया । 13 जिसंबर को केन्द्र के दो मंत्री इंन्द्र कुमार गुजराल और आरिफ मोहम्मद खान भी श्रीनगर पहुचे । अपहरण करने वालो की मांग पांच आंतकवादियो की रिहायी की थी । जिसमें हामिद शेख,मोहम्मद अल्ताफ बट,शेर खान, जावेद अहमद जरगर और मोहम्मद कलवल थे । अगर एनएसजी के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह की मानें तो अपहरण से रिहायी तक के हफ्ते भर के दौर में कभी दिल्ली की राजनीति को नहीं लगा कि मामला लंबा खिचने पर भी अपहरणकरने वालो के खिलाफ धाटी में वातावरण बन सकता है । खुफिया तौर पर कभी उसके संकेत नहीं दिये गये कि रुबिया का कहां रखा गया होगा, इसकी जानकारी जुटायी जा रही है या फिर कौन कौन से लोग अपहरण के पीछे है, कभी खुफिया व्यूरो को क्लू नहीं मिला।
महत्वपूर्ण है कि उस वक्त के आई बी के मुखिया ही अभी देश के सुरक्षा सलाहकार है । और उस वक्त समूची राजनीति इस सौदे को पटाने में धोखा ना खाने पर ही मशक्कत कर रही थी । चूंकि अपहरण करने वालो ने सौदेबाजी के कई माध्यम खोल दिये थे इसलिये मुफ्ती सईद से लेकर एम के नारायणन तक उसी माथापच्ची में जुटे थे कि अपहरणकर्ताओ और सरकार के बीच बात करने वाला कौन सा शख्स सही है । पत्रकार जफर मिराज या जाक्टर ए ए गुरु या फिर मस्लिम युनाइटेड फ्रंट के मौलवी अब्बास अंसारी या अब्दुल गनी लोन की बेटी शबनम लोन । और दिल्ली की राजनीति ने जब पुख्ता भरोसा हो गया कि बाचचीत पटरी पर है तो पांचों आंतकवादियो को छोड दिया गया । और रुबिया की रिहायी होते ही सभी अधिकारी-- मंत्री एक दूसरे को बधाई देने लगे । लेकिन रिहायी की शाम लाल चौक पर कश्मीरियो का हुजुम जिस तरह उमडा उसने दिल्ली के होश फाख्ता कर दिये क्योकि जमा लोग आंतकवादियो की रिहायी पर जश्न मना रहे थे और आजादी का नारा लगा रहे थे ।
वेद मारवाह ने अपनी किताब "अनसिविल वार" में उस माहौल का जिक्र किया है जो उन्होने कश्मीर में रुबिया और आंतकवादियो की रिहायी की रात देखा । "शाम सात बजे रिहायी हुई । मंत्री विशेष विमान से दिल्ली लौट आये । कश्मीर की सड़को लोगो का ऐसा सैलाब था कि लगा समूचा कश्मीर उतर आया । जश्न पूरे शबाब पर था । सडको पर पटाखे छोडे जा रहे थे । युवा लडकों के झुंड गाडियों को रोक कर अपने जश्न का खुला इजहार कर रहे थे । मंत्रियो को छोचने जा रही सरकारी गांडियो को भी रोका गया । सरकारी गेस्ट हाउस में जश्न मनाया जा रहा था । वर्दी में जम्मू-कश्मीर पुलिस के कई पुलिसकर्मी भी जश्न में शामिल थे । आंतकवादियो के शहर को अपने कब्जे में ले रखा था, इससे छटांक भर भी इंकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि सभी यह महसूस कर रहे थे कि उन्होने दिल्ली को अपने घुटनों पर झुका दिया । और इन सब के बीच आजादी के नारे देर रात तक लगते रहे । "
दरअसल, दिल्ली की राजनीति यही नही थमी । सबसे पहले खुफिया ब्युरो को अपहरण कांड में असफल साबित हुई थी उसके ज्वाइंट डायरेक्टर जो एन सक्सेना को जम्मू कश्मीर पुलिस का डायरेक्टर जनरल बना दिया गया । राज्य के पुलिसकर्मियों को कुछ समझ नही आया। उनमे आक्रोष था लेकिन दिल्ली की राजनीति उफान पर थी । कानून व्यवस्था हाथ से निकली । 20 दिसबंर 1989 को रेजिडेन्सी रोड जैसी सुरक्षित जगह पर यूनियन बैक आफ इंडिया लूट लिया गया । 21 दिसंबर को इलाहबाद बैक के सुरक्षाकर्मी की हत्या कर दी गयी । 20 से 25 दिसबंर के बीच श्रीनगर समेत छह जगहो पर पुलिस को आंतकवादियों ने निशाना बनाया । दर्जनों मारे गये। इससे ज्यादा घायल हुये । जनवरी के पहले हफ्ते में कृष्म गोपाल समेत आई बी के दो अधिकारियो की भी हत्या कर दी गयी । इस पूरे दौर पर दिल्ली गृह मंत्रालय की रिपोर्ट मानती है कि डीजीपी समेत कोई वरिश्ठ अधिकारी श्रीनगर में हालात पर काबू पाने के लिये नहीं था। सभी जम्मू में थे । राजनीति यहां भी नही थमी । फारुख अब्दुल्ला ने जिन अधिकारियो की मांग की, उसे दिल्ली ने भेजना सही नहीं समझा । यहा तक की जनवरी में दिल्ली ने मान लिया की फारुख कुछ नही कर सकते । राज्यपाल जगमोहन को बनाया गया । और 18 जनवरी1990 को फारुख ने इस्तीफा दे दिया । घाटी में फिर आजादी के नारे लगने लगे । लेकिन इसके बाद जगमोहन और श्रीनगर जब आमने सामने आये तो आजादी का नारा इतना हिंसक हो चुका था कि समूची घाटी इसकी चपेट में आ गयी । कश्मीर में दंगो के बीच कत्लेआम और कश्मीरी पंडितो के सबकुछ छोड कर भागने की स्थिति को दिल्ली ने भी देखा । लेकिन कश्मीर की हिंसा को और आजादी के नारे की गूंज दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में खो गयी ।
1991-1996 तक कांग्रेस के पीवी नरसिंह राव की सरकार में कश्मीर में आजादी का नारा बुलंद होता गया । सेना की गोलिया चलती रही मरते कश्मीरियों की तादाद पचास हजार तक पार कर गयी । दुनिया के किसी प्रांत से ज्यादा सेना की मौजूदगी के बावजूद सीमापार का आंतक आजादी के नारे में उभान भरता गया । लेकिन ना आजादी के नारे पर नकेल कसने की पहल दिल्ली ने की ना ही इस दौर में जम्मू में पंडितो के बहते आंसू रोकने की ।
पहले अधिकारियो का उलट-फेर । फिर राज्यपाल का खेल । और अब चुनावी गणित साधने की कोशिश के बीच आजादी का नारा अगर एकबार फिर उफान पर है और दिल्ली की राजनीति पहली बार आजादी की गभीरता को समझ रही है तो मीडिया पर नकेल कसने के बजाय उसे अपनी नीयत साफ करनी होगी । कश्मीर देश का अभिन्न अंग है और अन्य राज्यों की तरह ही इसे भी सुविधा-असुविधा भोगनी होगी, यह कहने से दिल्ली अब भी घबरा रही है । कहीं इस घबराहट में नेहरु गलत थे और श्यामाप्रसाद मुखर्जी सही थे का विवाद जन्म देकर आजादी का नारा कहीं ज्यादा हिसंक बनाने की नयी राजनीतिक तैयारी तो नहीं की जा रही है? सवाल है कश्मीर को लेकर हमेशा इतिहास के आसरे समाधान खोजने की खोशिश हो रही है जबकि घाटी में नयी पीढी जो आजादी का नारा लगा रही है, वह शेख अब्दुल्ला को नही उमर अब्दुल्ला को पहचानती है । नेहरु की जगह उनके सामने राहुल गांधी है । लेकिन इसी दौर में समाज बांटने की राजनीति का खेल जो समूचे देश में खेला जा रहा है वह भी जम्मू-कश्मीर देख रहा है । इसलिये पहली बार आजादी का सवाल सुधार से आगे निकल कर विकल्प का सवाल खडा कर रहा जिससे दिल्ली का घबराना वाजिब है ।
दरअसल, हालात को समझने के लिये अतीत के पन्नो को उलटना जरुरी होगा । क्योकि दो दशक के दौरान झेलम का पानी जितना बहा है, उससे ज्यादा मवाद झेलम के बहते पानी को रोकता भी रहा है । इस दौर के कुछ प्यादे मंत्री की चाल चलने लगे तो कुछ घोड़े की ढाई चाल चल कर शह-मात का खेल खेलने में माहिर हो गये । घाटी के लेकर पहली चाल 1987 के विधान सभा चुनाव के दौरान दिल्ली ने चली थी । बडगाम जिले की अमिरा-कडाल विधानसभा सीट पर मोहम्मद युसुफ शाह की जीत पक्की थी । लेकिन नेशनल कान्फ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला के लिये सत्ता का रास्ता साफ करने का समझौता दिल्ली में हुआ । कांग्रेस की सहमति बनी और बडगाम में पीर के नाम से पहचाने जाने वाले युसुफ शाह चुनाव हार गये । न सिर्फ चुनाव हारे बल्कि विरोध करने पर उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया । युसुफ शाह के चार पोलिंग एंजेट हामिद शेख, अशफाक मजिद,जावेद अहमद मीर और यासिन मलिक भी गिरफ्तार कर लिये गए । चारो पोलिग एजेंट 1987 में प्यादे की हैसियत रखते थे । लेकिन इस चुनाव परिणाम ने फारुख अब्दुल्ला के जरिए घाटी को दिल्ली के रास्ते चलने का जो मार्ग दिखाया, उसमें संसदीय लोकतंत्र के हाशिये पर जाना भी मौजूद था । जिससे कश्मीर में 1953 के बाद पहली बार आजादी का नारा गूंजा । कोट बिलावल की जेल से छूट कर मोहम्मद युसुफ शाह जब बडगाम में अपने गांव सोमवग पहुंचे तो हाथ में बंदूक लिये थे । और चुनाव में हार के बाद जो पहला भाषण दिया उसमें आजादी के नारे की खुली गूंज थी । युसुफ शाह ने कहा,
" हम शांतिपूर्ण तरीके से विधानसभा में जाना चाहते थे । लेकिन सरकार ने हमें इसकी इजाजत नहीं दी । चुनाव चुरा लिया गया । हमे गिरफ्तार किया गया , और हमारी आवाज दबाने के लिये हमें प्रताड़ित किया गया । हमारे पास दूसरा कोई विकल्प नही है कि हम हथियार उठाये और कश्मीर के मुद्दे उभारे ।"
उसके बाद युसुफ शाह ने नारा लगाया, " हमें क्या चाहिये--आजादी । गांव वालों ने दोहराया -आजादी " बड़गाम के सरकारी हाई सेकेन्डरी स्कूल से पढाई करने के बाद डॉक्टर बनने की ख्वाईश पाले युसुफ शाह को मेडिकल कालेज में तो एडमिशन नहीं मिला लेकिन राजनीति शास्त्र पढ़ कर राजनीति करने निकले युसुफ शाह के नाम की यहां मौत हुई और आजादी की फितरत में 5 नवंबर 1990 को युसुफ शाह की जगह सैयद सलाउद्दीन का जन्म हुआ । जो सीमा पार कर मुज्जफराबाद पहुंचा और हिजबुल मुजाहिद्दीन बनाकर आंतकवादी हिंसा को अंजाम देते देते पाकिस्तान के तेरह आंतकवादी संगठन के जेहाद काउंसिल का मुखिया बन गया।
दो दशक बाद जब आजादी के नारे घाटी में गूंजते हुये दिल्ली को ललकार रहे हैं, तो सैयद सलाउद्दीन ने भी जेहादियो से कश्मीर में हिंसा के बदले सिर्फ आजादी के नारे लगाने का निर्देश दिया है ।
लेकिन आजादी के नारे को सबसे ज्यादा मुखरता 1989 में मिली । यहां भी दिल्ली की चाल कश्मीर के लिये ना सिर्फ उल्टी पडी बल्कि आजादी को बुलंदी देने में राजनीतिक चौसर के पांसे ही सहायक हो गये । इतना ही नहीं राजनीति 180 डिग्री में कैसे घुमती है, यह दो दशक में खुलकर नजर भी आ गया । 8 दिसंबर 1989 को देश के तत्कालिन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद का अपहरण हुआ । रुबिया का अपहरण करने वालो उसी युसुफ शाह के पोलिंग एंजेट थे, जिनकी पहचान घाटी में प्यादे सरीखे ही थी । मेडिकल की छात्रा रुबिया का अपहरण सड़क चलते हुआ । यानी उस वक्त तक किसी कश्मीरी ने नहीं सोचा था कि कि किसी लड़की का अपहरण घाटी में कोई कर भी सकता है । अगर उस वक्त के एनएसजी यानी नेशनल सिक्युरटी गार्ड के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह की माने तो रुबिया के अपहरण के खिलाफ घाटी की मानसिकता थी । आम कश्मीरी इस बात को पचा नहीं पा रहा था कि रुबिया का अपहरण राजनीतिक सौदेबाजी की लिये करना चाहिये । लेकिन दिल्ली की राजनीतिक चौसर का मिजाज कुछ था । दिल्ली के अकबर रोड स्थित गृहमंत्री के घर पर पहली बैठक में उस समय के वाणिज्य मंत्री अरुण नेहरु , कैबिनेट सचिव टी एन शेषन, इंटिलिजेन्स ब्यूरो के डायरेक्टर एम के नारायणन और एनएसजी के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह मौजूद थे । जिसके बाद बीएमएफ के विशेष विमान से वेद मारवाह को श्रीनगर भेजा गया । 13 जिसंबर को केन्द्र के दो मंत्री इंन्द्र कुमार गुजराल और आरिफ मोहम्मद खान भी श्रीनगर पहुचे । अपहरण करने वालो की मांग पांच आंतकवादियो की रिहायी की थी । जिसमें हामिद शेख,मोहम्मद अल्ताफ बट,शेर खान, जावेद अहमद जरगर और मोहम्मद कलवल थे । अगर एनएसजी के डायरेक्टर जनरल वेद मारवाह की मानें तो अपहरण से रिहायी तक के हफ्ते भर के दौर में कभी दिल्ली की राजनीति को नहीं लगा कि मामला लंबा खिचने पर भी अपहरणकरने वालो के खिलाफ धाटी में वातावरण बन सकता है । खुफिया तौर पर कभी उसके संकेत नहीं दिये गये कि रुबिया का कहां रखा गया होगा, इसकी जानकारी जुटायी जा रही है या फिर कौन कौन से लोग अपहरण के पीछे है, कभी खुफिया व्यूरो को क्लू नहीं मिला।
महत्वपूर्ण है कि उस वक्त के आई बी के मुखिया ही अभी देश के सुरक्षा सलाहकार है । और उस वक्त समूची राजनीति इस सौदे को पटाने में धोखा ना खाने पर ही मशक्कत कर रही थी । चूंकि अपहरण करने वालो ने सौदेबाजी के कई माध्यम खोल दिये थे इसलिये मुफ्ती सईद से लेकर एम के नारायणन तक उसी माथापच्ची में जुटे थे कि अपहरणकर्ताओ और सरकार के बीच बात करने वाला कौन सा शख्स सही है । पत्रकार जफर मिराज या जाक्टर ए ए गुरु या फिर मस्लिम युनाइटेड फ्रंट के मौलवी अब्बास अंसारी या अब्दुल गनी लोन की बेटी शबनम लोन । और दिल्ली की राजनीति ने जब पुख्ता भरोसा हो गया कि बाचचीत पटरी पर है तो पांचों आंतकवादियो को छोड दिया गया । और रुबिया की रिहायी होते ही सभी अधिकारी-- मंत्री एक दूसरे को बधाई देने लगे । लेकिन रिहायी की शाम लाल चौक पर कश्मीरियो का हुजुम जिस तरह उमडा उसने दिल्ली के होश फाख्ता कर दिये क्योकि जमा लोग आंतकवादियो की रिहायी पर जश्न मना रहे थे और आजादी का नारा लगा रहे थे ।
वेद मारवाह ने अपनी किताब "अनसिविल वार" में उस माहौल का जिक्र किया है जो उन्होने कश्मीर में रुबिया और आंतकवादियो की रिहायी की रात देखा । "शाम सात बजे रिहायी हुई । मंत्री विशेष विमान से दिल्ली लौट आये । कश्मीर की सड़को लोगो का ऐसा सैलाब था कि लगा समूचा कश्मीर उतर आया । जश्न पूरे शबाब पर था । सडको पर पटाखे छोडे जा रहे थे । युवा लडकों के झुंड गाडियों को रोक कर अपने जश्न का खुला इजहार कर रहे थे । मंत्रियो को छोचने जा रही सरकारी गांडियो को भी रोका गया । सरकारी गेस्ट हाउस में जश्न मनाया जा रहा था । वर्दी में जम्मू-कश्मीर पुलिस के कई पुलिसकर्मी भी जश्न में शामिल थे । आंतकवादियो के शहर को अपने कब्जे में ले रखा था, इससे छटांक भर भी इंकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि सभी यह महसूस कर रहे थे कि उन्होने दिल्ली को अपने घुटनों पर झुका दिया । और इन सब के बीच आजादी के नारे देर रात तक लगते रहे । "
दरअसल, दिल्ली की राजनीति यही नही थमी । सबसे पहले खुफिया ब्युरो को अपहरण कांड में असफल साबित हुई थी उसके ज्वाइंट डायरेक्टर जो एन सक्सेना को जम्मू कश्मीर पुलिस का डायरेक्टर जनरल बना दिया गया । राज्य के पुलिसकर्मियों को कुछ समझ नही आया। उनमे आक्रोष था लेकिन दिल्ली की राजनीति उफान पर थी । कानून व्यवस्था हाथ से निकली । 20 दिसबंर 1989 को रेजिडेन्सी रोड जैसी सुरक्षित जगह पर यूनियन बैक आफ इंडिया लूट लिया गया । 21 दिसंबर को इलाहबाद बैक के सुरक्षाकर्मी की हत्या कर दी गयी । 20 से 25 दिसबंर के बीच श्रीनगर समेत छह जगहो पर पुलिस को आंतकवादियों ने निशाना बनाया । दर्जनों मारे गये। इससे ज्यादा घायल हुये । जनवरी के पहले हफ्ते में कृष्म गोपाल समेत आई बी के दो अधिकारियो की भी हत्या कर दी गयी । इस पूरे दौर पर दिल्ली गृह मंत्रालय की रिपोर्ट मानती है कि डीजीपी समेत कोई वरिश्ठ अधिकारी श्रीनगर में हालात पर काबू पाने के लिये नहीं था। सभी जम्मू में थे । राजनीति यहां भी नही थमी । फारुख अब्दुल्ला ने जिन अधिकारियो की मांग की, उसे दिल्ली ने भेजना सही नहीं समझा । यहा तक की जनवरी में दिल्ली ने मान लिया की फारुख कुछ नही कर सकते । राज्यपाल जगमोहन को बनाया गया । और 18 जनवरी1990 को फारुख ने इस्तीफा दे दिया । घाटी में फिर आजादी के नारे लगने लगे । लेकिन इसके बाद जगमोहन और श्रीनगर जब आमने सामने आये तो आजादी का नारा इतना हिंसक हो चुका था कि समूची घाटी इसकी चपेट में आ गयी । कश्मीर में दंगो के बीच कत्लेआम और कश्मीरी पंडितो के सबकुछ छोड कर भागने की स्थिति को दिल्ली ने भी देखा । लेकिन कश्मीर की हिंसा को और आजादी के नारे की गूंज दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में खो गयी ।
1991-1996 तक कांग्रेस के पीवी नरसिंह राव की सरकार में कश्मीर में आजादी का नारा बुलंद होता गया । सेना की गोलिया चलती रही मरते कश्मीरियों की तादाद पचास हजार तक पार कर गयी । दुनिया के किसी प्रांत से ज्यादा सेना की मौजूदगी के बावजूद सीमापार का आंतक आजादी के नारे में उभान भरता गया । लेकिन ना आजादी के नारे पर नकेल कसने की पहल दिल्ली ने की ना ही इस दौर में जम्मू में पंडितो के बहते आंसू रोकने की ।
पहले अधिकारियो का उलट-फेर । फिर राज्यपाल का खेल । और अब चुनावी गणित साधने की कोशिश के बीच आजादी का नारा अगर एकबार फिर उफान पर है और दिल्ली की राजनीति पहली बार आजादी की गभीरता को समझ रही है तो मीडिया पर नकेल कसने के बजाय उसे अपनी नीयत साफ करनी होगी । कश्मीर देश का अभिन्न अंग है और अन्य राज्यों की तरह ही इसे भी सुविधा-असुविधा भोगनी होगी, यह कहने से दिल्ली अब भी घबरा रही है । कहीं इस घबराहट में नेहरु गलत थे और श्यामाप्रसाद मुखर्जी सही थे का विवाद जन्म देकर आजादी का नारा कहीं ज्यादा हिसंक बनाने की नयी राजनीतिक तैयारी तो नहीं की जा रही है? सवाल है कश्मीर को लेकर हमेशा इतिहास के आसरे समाधान खोजने की खोशिश हो रही है जबकि घाटी में नयी पीढी जो आजादी का नारा लगा रही है, वह शेख अब्दुल्ला को नही उमर अब्दुल्ला को पहचानती है । नेहरु की जगह उनके सामने राहुल गांधी है । लेकिन इसी दौर में समाज बांटने की राजनीति का खेल जो समूचे देश में खेला जा रहा है वह भी जम्मू-कश्मीर देख रहा है । इसलिये पहली बार आजादी का सवाल सुधार से आगे निकल कर विकल्प का सवाल खडा कर रहा जिससे दिल्ली का घबराना वाजिब है ।
कश्मीर पर क्या यह हिन्दुत्व का डंका है !
दर्जनों सवाल इस तरह उठे, जैसे हम कश्मीर के हिमायती हैं और देश की नहीं सोच रहे हैं। और आप सभी में ज्यादातर को देश का दर्द है। चलिए, अब बतौर राष्ट्रवादी होकर ही ज़मीन पर हुए समझौते का जवाब दे दीजिए।
बंधु...
जम्मू में खुशी है समझौता हो गया है । अस्थायी ही सही 40 एकड़ जमीन श्राईन बोर्ड को दे दी जायेगी, जब अमरनाथ यात्रा शुरु होगी । रंग-अबीर-गुलाल हवा में उड़ाये गए । दो महिने का संघर्ष रंग लाया । लेकिन यह खुशी किसकी है...कौन खुश हो रहा है । क्या वाकई वह हिन्दु खुश है जो सवाल खड़ा कर रहा था कि देश भर में जब मस्जिद-मकबरों को जमीन दी जा सकती है तो बाबा भोले के लिये 800 कनाल ज़मीन क्यों नहीं दी जा सकती है। क्या कश्मीरी पंडित खुश हैं जो दो दशकों के अपने दर्द को भोलेनाथ के नाम पर दी जाने वाली जमीन के आंदोलन के आसरे पहली बार सड़क पर कश्मीरी मुसलमानों के खिलाफ नारे लगा रहा था, जो जमीन दी गयी वह तो निर्धारित जमीन से आधी भी नहीं है।
और 800 कनाल ज़मीन देने पर पर राज्य सरकार की कैबिनेट ने मुहर लगायी थी। वो लागू भी हो गया था । बवाल सिर्फ दो वजहों से हुआ था । पहला, जो जमीन दी गयी थी उस पर स्थायी स्ट्रक्चर बनाया जा रहा था। दूसरा, सरकार को समर्थन दे रही पीडीपी समझ चुकी थी कि कांग्रेस सरकार की अगुवाई में चुनाव हुए तो वह निपट जायेगी । सौदेबाजी के तहत तीन साल की सत्ता पीडीपी भोग चुकी थी । अब जनता के सामने चुनाव में वह किस मुंह से जाती, यह सवाल उसे अंदर से खाए जा रहा था।
अपनी ही सहमति को उसने झटके में कश्मीर की अस्मिता का मुद्दा बना कर सरकार गिरा दी। दिल्ली में ऐसी राजनीति खूब खेली जाती रही है । हां, तो मामला है कि देश तो नब्बे करोड़ हिन्दुओं का है तो फिर 800 कनाल जमीन को लेकर सौदेबाजी की जरुरत क्यों आ गयी । और जो समझौता हुआ वह तो देश के हिन्दुओं के लिये नाक कटाने जैसा है। फिर 40 एकड़ पर सहमति क्यों बना ली गयी । और अगर प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी की माने तो लड़ाई तो राष्ट्रवाद और अलगाववाद में है । अडवाणी जी के मुताबिक प्रधामनंत्री मनमोहन सिंह भी इस बात से सहमत है कि वाकई राष्ट्रवाद के खिलाफ अलगाववाद सामने खड़ा है । अगर सहमति देश की है तो फिर समझौते की जरुरत क्या है।
मुझे नहीं लगता इस समझौते से कोइ हिन्दू खुश है । कोई कश्मीरी पंडित खुश है । बात तो आर-पार की होनी थी फिर समझौता किसने कर लिया। जम्मू में दो महिने के आंदोलन में व्यापारियो को सौ करोड़ से ज्यादा का चुना लगा गया । जम्मू में जो व्यापारी हैं, और कश्मीर में जो बिचौलिये व्यापारी है, उनमे सिखों की तादाद भी खासी है । सिख समुदाय का दबाब पंजाब सरकार पर भी काम कर रहा था कि समझौता जल्द कराये । अन्यथा उनका व्यापार ठप होता जा रहा है। पंजाब में अकाली सरकार का भाजपा से समझौता है । भाजपा जिस तेवर के साथ आरएसएस कैडर के साथ खड़े होने की कोशिश जम्मू में कर रही थी, वही भाजपा की राजनीति और उसका व्यापार उसे चेता रहा था कि एक हद से आगे आंदोलन ले जाने की गलती वह न करे। भाजपा को चुनाव बाद सत्ता दिखायी दे रही है । भाजपा सत्ता में रहती है तो आरएसएस की महत्ता देश में कैसी बढ़ती है, यह वाजपेयी सरकार के दौर में समूचे देश ने महसूस किया। आरएसएस भी अपनी पुरानी थ्योरी जम्मू-कश्मीर-लद्दाख को अलग अलग राज्य बनाने के मुद्दे पर खामोश रही। यानी अमरनाथ की यात्रा में हर बरस शामिल होने वाले लाखों भक्तों की भावनाओं को भी समझौते में दफ्न कर दिया गया । सवाल यही से खड़ा होता है कि जिस जमीन की राजनीति की शुरुआत कश्मीर की राजनीतिक जरुरत से शुरु हुई उसका पटाक्षेप जम्मू की राजनीतिक जरुरत से हो गया। कश्मीर में आजादी ने नारे ने जम्मू को भड़काया और जम्मू के बंद व्यापार ने कश्मीर को भड़काया। जम्मू से कश्मीर जाने वाले हर रास्ते को बंद कर घाटी को देश से अलग-थलग कर यह बताने का प्रयास भी हुआ कि जम्मू के बगैर कश्मीर जन्नत रह नहीं सकती और कश्मीर ने आजादी का नारा लगा कर इस एहसास को भी उभार दिया कि उन हालातों में रास्ता जम्मू के बदले मुज्जफराबाद जाता है।
संयोग से सत्ता के मुनाफे पर टिकी राजनीति को भी अब बाजार के मुनाफे में ज्यादा उम्दा राजनीति दिखायी देने लगी है । इसी वजह से आर-पार के राष्ट्रवादी आंदोलन को खारिज कर सौदेबाजी की राजनीति को अपनाया गया। 40 एकड़ जमीन का समझौता उस राजनीति का सच है, जिसमे समाज को बांट कर सुधार के उपाय वही संसदीय राजनीति अपनी जेब में रखना चाहती है जो अमरनाथ के जरीये राष्ट्रवाद को उभारती है...जो आजादी के नारे में अलगाववाद का उभरना देखती है।
अब आप इस सवाल को उठा सकते है कि समझौता हुआ तो शांति तो हुई। क्या समझौता न करके हालात बद से बदतर होने दिये जाते । यकीकन यह संभव नही है । लेकिन अगर आपको लगता है कि कश्मीरियों को पाठ पढ़ाना चाहिये...अगर आपको लगता है कश्मीर के लोग आंतकवादियों को पनाह देते है ..अगर लगता है कि कश्मीरियो का दिल पाकिस्तान में है ...अगर लगता है कि महबूबा मुप्ती सरीखी नेता देश की नहीं पाकिस्तानियों-आंतकवादियों की हिमायती है..तो फिर 40 एकड जमीन का संमझौता क्यों । यह कैसे संभव है कि कश्मीर को लेकर हम एकबार पाकिस्तान का राग आलापे और दूसरी बार समझौते करके जीत का जश्न मना लें।
यकीन जानिये अमरनाथ यात्रा की जमीन को लेकर किसी दल-संगठन की भावना हिचकोले नही मार रही थी और आप जो उसमे हिन्दुस्तान का बिगड़ता नक्शा देख रहे हैं, उन्हे समझना होगा कि धर्म और राज्य एक साथ नही चल सकते। इतिहास टटोलिये भारत का नक्शा सबसे बड़ा-मजबूत कब था । मुगल काल में औरगंजेब और मौर्य काल में अशोक के दौर में । इन दोनो कालों में इनसे बड़ा शासक कोई दूसरा नही था । लेकिन दोनो का पतन तभी हुआ जब दोनों धर्म के प्रचार प्रसार में लग गये । एक इस्लाम के तो दुसरा बौद्द धर्म के प्रचार-प्रसार में । धर्म और राजनीति के आसरे देश को न समझे तो ज्यादा अच्छा है।
आतंकवाद से कश्मीर और मुसलमान को जिस तरह जो़ड़ कर देखने का माहौल बनाया जा रहा है, उस आंतक की काट आपसी रिश्तों से ही होगी । अन्यथा तथ्यों को समझिये कि देश में किसी राजनीतिक दल को 15 करोड़ वोट नही मिल पाते हैं । सबसे ज्यादा वोट भी किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल को मिलता है तो वह भी 13-14 करोड पार नहीं कर पाता । तो उसे बहुमत के पैमाने पर कैसे मापा जा सकता है। छोड़िए, मै एक और तथ्य सामने रखता हूं.....अमरनाथ मामले पर समझौता इस वक्त इसलिये हुआ क्योकि रमजान का महिना शुरु हो रहा था और इस महिने कश्मीर में खामोशी रहती है और जम्मू के लोग भी नहीं चाहते थे कि रमजान के दौर में आंदोलन-हिंसा का दौर जारी रहे ।
बंधु...
जम्मू में खुशी है समझौता हो गया है । अस्थायी ही सही 40 एकड़ जमीन श्राईन बोर्ड को दे दी जायेगी, जब अमरनाथ यात्रा शुरु होगी । रंग-अबीर-गुलाल हवा में उड़ाये गए । दो महिने का संघर्ष रंग लाया । लेकिन यह खुशी किसकी है...कौन खुश हो रहा है । क्या वाकई वह हिन्दु खुश है जो सवाल खड़ा कर रहा था कि देश भर में जब मस्जिद-मकबरों को जमीन दी जा सकती है तो बाबा भोले के लिये 800 कनाल ज़मीन क्यों नहीं दी जा सकती है। क्या कश्मीरी पंडित खुश हैं जो दो दशकों के अपने दर्द को भोलेनाथ के नाम पर दी जाने वाली जमीन के आंदोलन के आसरे पहली बार सड़क पर कश्मीरी मुसलमानों के खिलाफ नारे लगा रहा था, जो जमीन दी गयी वह तो निर्धारित जमीन से आधी भी नहीं है।
और 800 कनाल ज़मीन देने पर पर राज्य सरकार की कैबिनेट ने मुहर लगायी थी। वो लागू भी हो गया था । बवाल सिर्फ दो वजहों से हुआ था । पहला, जो जमीन दी गयी थी उस पर स्थायी स्ट्रक्चर बनाया जा रहा था। दूसरा, सरकार को समर्थन दे रही पीडीपी समझ चुकी थी कि कांग्रेस सरकार की अगुवाई में चुनाव हुए तो वह निपट जायेगी । सौदेबाजी के तहत तीन साल की सत्ता पीडीपी भोग चुकी थी । अब जनता के सामने चुनाव में वह किस मुंह से जाती, यह सवाल उसे अंदर से खाए जा रहा था।
अपनी ही सहमति को उसने झटके में कश्मीर की अस्मिता का मुद्दा बना कर सरकार गिरा दी। दिल्ली में ऐसी राजनीति खूब खेली जाती रही है । हां, तो मामला है कि देश तो नब्बे करोड़ हिन्दुओं का है तो फिर 800 कनाल जमीन को लेकर सौदेबाजी की जरुरत क्यों आ गयी । और जो समझौता हुआ वह तो देश के हिन्दुओं के लिये नाक कटाने जैसा है। फिर 40 एकड़ पर सहमति क्यों बना ली गयी । और अगर प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी की माने तो लड़ाई तो राष्ट्रवाद और अलगाववाद में है । अडवाणी जी के मुताबिक प्रधामनंत्री मनमोहन सिंह भी इस बात से सहमत है कि वाकई राष्ट्रवाद के खिलाफ अलगाववाद सामने खड़ा है । अगर सहमति देश की है तो फिर समझौते की जरुरत क्या है।
मुझे नहीं लगता इस समझौते से कोइ हिन्दू खुश है । कोई कश्मीरी पंडित खुश है । बात तो आर-पार की होनी थी फिर समझौता किसने कर लिया। जम्मू में दो महिने के आंदोलन में व्यापारियो को सौ करोड़ से ज्यादा का चुना लगा गया । जम्मू में जो व्यापारी हैं, और कश्मीर में जो बिचौलिये व्यापारी है, उनमे सिखों की तादाद भी खासी है । सिख समुदाय का दबाब पंजाब सरकार पर भी काम कर रहा था कि समझौता जल्द कराये । अन्यथा उनका व्यापार ठप होता जा रहा है। पंजाब में अकाली सरकार का भाजपा से समझौता है । भाजपा जिस तेवर के साथ आरएसएस कैडर के साथ खड़े होने की कोशिश जम्मू में कर रही थी, वही भाजपा की राजनीति और उसका व्यापार उसे चेता रहा था कि एक हद से आगे आंदोलन ले जाने की गलती वह न करे। भाजपा को चुनाव बाद सत्ता दिखायी दे रही है । भाजपा सत्ता में रहती है तो आरएसएस की महत्ता देश में कैसी बढ़ती है, यह वाजपेयी सरकार के दौर में समूचे देश ने महसूस किया। आरएसएस भी अपनी पुरानी थ्योरी जम्मू-कश्मीर-लद्दाख को अलग अलग राज्य बनाने के मुद्दे पर खामोश रही। यानी अमरनाथ की यात्रा में हर बरस शामिल होने वाले लाखों भक्तों की भावनाओं को भी समझौते में दफ्न कर दिया गया । सवाल यही से खड़ा होता है कि जिस जमीन की राजनीति की शुरुआत कश्मीर की राजनीतिक जरुरत से शुरु हुई उसका पटाक्षेप जम्मू की राजनीतिक जरुरत से हो गया। कश्मीर में आजादी ने नारे ने जम्मू को भड़काया और जम्मू के बंद व्यापार ने कश्मीर को भड़काया। जम्मू से कश्मीर जाने वाले हर रास्ते को बंद कर घाटी को देश से अलग-थलग कर यह बताने का प्रयास भी हुआ कि जम्मू के बगैर कश्मीर जन्नत रह नहीं सकती और कश्मीर ने आजादी का नारा लगा कर इस एहसास को भी उभार दिया कि उन हालातों में रास्ता जम्मू के बदले मुज्जफराबाद जाता है।
संयोग से सत्ता के मुनाफे पर टिकी राजनीति को भी अब बाजार के मुनाफे में ज्यादा उम्दा राजनीति दिखायी देने लगी है । इसी वजह से आर-पार के राष्ट्रवादी आंदोलन को खारिज कर सौदेबाजी की राजनीति को अपनाया गया। 40 एकड़ जमीन का समझौता उस राजनीति का सच है, जिसमे समाज को बांट कर सुधार के उपाय वही संसदीय राजनीति अपनी जेब में रखना चाहती है जो अमरनाथ के जरीये राष्ट्रवाद को उभारती है...जो आजादी के नारे में अलगाववाद का उभरना देखती है।
अब आप इस सवाल को उठा सकते है कि समझौता हुआ तो शांति तो हुई। क्या समझौता न करके हालात बद से बदतर होने दिये जाते । यकीकन यह संभव नही है । लेकिन अगर आपको लगता है कि कश्मीरियों को पाठ पढ़ाना चाहिये...अगर आपको लगता है कश्मीर के लोग आंतकवादियों को पनाह देते है ..अगर लगता है कि कश्मीरियो का दिल पाकिस्तान में है ...अगर लगता है कि महबूबा मुप्ती सरीखी नेता देश की नहीं पाकिस्तानियों-आंतकवादियों की हिमायती है..तो फिर 40 एकड जमीन का संमझौता क्यों । यह कैसे संभव है कि कश्मीर को लेकर हम एकबार पाकिस्तान का राग आलापे और दूसरी बार समझौते करके जीत का जश्न मना लें।
यकीन जानिये अमरनाथ यात्रा की जमीन को लेकर किसी दल-संगठन की भावना हिचकोले नही मार रही थी और आप जो उसमे हिन्दुस्तान का बिगड़ता नक्शा देख रहे हैं, उन्हे समझना होगा कि धर्म और राज्य एक साथ नही चल सकते। इतिहास टटोलिये भारत का नक्शा सबसे बड़ा-मजबूत कब था । मुगल काल में औरगंजेब और मौर्य काल में अशोक के दौर में । इन दोनो कालों में इनसे बड़ा शासक कोई दूसरा नही था । लेकिन दोनो का पतन तभी हुआ जब दोनों धर्म के प्रचार प्रसार में लग गये । एक इस्लाम के तो दुसरा बौद्द धर्म के प्रचार-प्रसार में । धर्म और राजनीति के आसरे देश को न समझे तो ज्यादा अच्छा है।
आतंकवाद से कश्मीर और मुसलमान को जिस तरह जो़ड़ कर देखने का माहौल बनाया जा रहा है, उस आंतक की काट आपसी रिश्तों से ही होगी । अन्यथा तथ्यों को समझिये कि देश में किसी राजनीतिक दल को 15 करोड़ वोट नही मिल पाते हैं । सबसे ज्यादा वोट भी किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल को मिलता है तो वह भी 13-14 करोड पार नहीं कर पाता । तो उसे बहुमत के पैमाने पर कैसे मापा जा सकता है। छोड़िए, मै एक और तथ्य सामने रखता हूं.....अमरनाथ मामले पर समझौता इस वक्त इसलिये हुआ क्योकि रमजान का महिना शुरु हो रहा था और इस महिने कश्मीर में खामोशी रहती है और जम्मू के लोग भी नहीं चाहते थे कि रमजान के दौर में आंदोलन-हिंसा का दौर जारी रहे ।
कश्मीर के बहाने एक नया सवाल
बंधु...
आपके कई जवाबों ने मेरे दिमाग में एक नया सवाल पैदा कर दिया है कि अगर देश को कश्मीर चाहिए और कश्मीरी नहीं तो क्या वाकई उदारवादी अर्थव्यवस्था ने जो चाहा उसे मिल गया है ? क्योंकि, न्यू इकॉनमी के दौर में ही यह बात दुनिया भर में उठती रही है कि कैसे आदमी एक प्रोडक्ट में तब्दील हो जायेगा । उसकी जरुरत उसके इर्द-गिर्द के वातावरण के हिसाब से तय होगी। उसके इर्द-गिर्द का वातावरण राज्य के एक तबके के बिजनेस के हिसाब से बनेगा । इस वर्ग या छोटे से तबके के बिजनेस का मूलमंत्र मुनाफा है तो बहुसंख्य तबके की जरुरत भी उसके व्यकितगत मुनाफे के हिसाब से ही तय होगी।
अगर इस प्रभावी छोटे से तबके को लगता है कि देश में अब बच्चो के लिये पार्क-मैदान नहीं होने चाहिये तो नहीं होगे । सिर्फ रिहायशी क्षेत्र होंगे । बच्चों के लिये जिम होंगे,कंप्यूटर होंगे । ऐसी तकनीक होगी, जिस पर बच्चो की उंगलिया रेंगे और बैठे बैठे बच्चे को महसूस हो कि दुनिया उसके सामने है। दुनिया की समूची समझ उसके अंदर है। उसे पता है कि कहां पर कौन किस रुप में मौजूद है। कौन कैसे काम करता है। कैसे जीता है । अच्छा कौन है -बुरा कौन है। उसे सब पता है । इतना ही नहीं उसके अपने स्कूल के बारे में दूसरों की कैसी राय है, वैसी ही राय उसकी भी हो । यानी हर दिन स्कूल में जाने के बावजूद--हर दिन पढ़ने के बावजूद , जो हो सकता है उसे अच्छा न लगता हो या कहें अच्छा लगता हो , लेकिन सूचना तकनीक का प्रचार-प्रसार अगर बच्चे की समझ के उलट बताता है, तो क्या होगा? यानी बच्चे को अच्छा न लगने वाला स्कूल अगर एक ब्रांड है। उसमें पढना सामाजिक हैसियत को बढाता है, तो बच्चा तो वहीं पढेगा ।
मुझे लगता है, हम सूचना तकनीक पर ठीक उसी तरह आश्रित हो गये हैं जैसे बाजार का कोई उत्पाद बेचने के लिये उसके प्रचार प्रसार में लगी कंपनी । सवाल है जो कंधमाल में हो रहा है । जो गुजरात में हुआ । जो कश्मीर में जारी है । जो उत्तर-पूर्वी राज्यो में हो रहा है । जिस हालात से बिहार का कोसी प्रभावित क्षेत्र दो -चार हो रहा है, इन सभी के बारे में सिर्फ पहला शब्द गूगल में लिखे तो समूची सूचना आपके पास आ जायेगी । अब आप इसे सूचना मानते है या जानकारी , हमें तय यही करना है। अगर यह सूचना है तो हमारा काम यही से शुरु होता है..जिसमे इस सूचना की भी एक रिपोर्ट तैयार करना है । यानी सूचना को समूची जानकारी नहीं माना जा सकता । सूचना एक इन्टरपेटेशन है । क्योकि जहां के बारे में सूचना कंप्यूटर देता है, वह उसकी पहुंच के दायरे में सिमटा है । मसलन अगर इंडिया के बारे में गूगल की मदद ली जाये तो आपको परेशानी हो सकती है कि आप किस देश में है । यह अब भी सांप-सपेरे-जादूगर-पंडितों का देश दिखायी देगा। तो तकनीक एक माध्यम है कोई ज्ञान नही है।
ज्ञानी मनुष्य है, जिसे अपने नजरिए से लोगों से सरोकार करते हुये समझ बांटनी है । और किसी भी नजरिए को स्पेस देना है । जिससे एक स्वस्थ वातावरण बन सके । जाहिर यह वातावरण बाजार को नही चाहिए । उस छोटे से तबके को नहीं चाहिये जो बाजार के नजरिए से राज्य को चलाना चाह रहा है और चलाने भी लगा है । उस तबके को अपने मुनाफे के आसरे एक ऐसा वातावरण चाहिये, जहां सूचना को ही अंतिम सत्य माना जाये और नया विश्व उसी के अनुसार चले । ब्लॉग भी एक माध्यम है । यह कोई ज्ञान का संसार नहीं है । सच तो कमरे से बाहर निकल कर आपस में मिलने और लोगो के साथ वक्त गुजारने पर ही पता चलेगा । सिर्फ तर्कों के आसरे जिन्दगी नहीं चलती है, यह आप भी जानते हैं मै भी समझता हूं......। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि बिना किसी आंतक के इस देश में बहस की गुजाइश बच रही है या वह खत्म हो गयी है । क्योंकि प्रतिक्रिया अगर इस तरीके की हो जो सामने वाले को चेताए कि या तो मेरी सुनो नहीं तो मारे जाओगे-यह खतरनाक है।
खैर अगली चर्चा बंगाल पर।चार दशक पहले किसान चेतना को जगाने वाली वामपंथी राजनीति को अब पूंजीवाद क्यों भा रहा है।
आपके कई जवाबों ने मेरे दिमाग में एक नया सवाल पैदा कर दिया है कि अगर देश को कश्मीर चाहिए और कश्मीरी नहीं तो क्या वाकई उदारवादी अर्थव्यवस्था ने जो चाहा उसे मिल गया है ? क्योंकि, न्यू इकॉनमी के दौर में ही यह बात दुनिया भर में उठती रही है कि कैसे आदमी एक प्रोडक्ट में तब्दील हो जायेगा । उसकी जरुरत उसके इर्द-गिर्द के वातावरण के हिसाब से तय होगी। उसके इर्द-गिर्द का वातावरण राज्य के एक तबके के बिजनेस के हिसाब से बनेगा । इस वर्ग या छोटे से तबके के बिजनेस का मूलमंत्र मुनाफा है तो बहुसंख्य तबके की जरुरत भी उसके व्यकितगत मुनाफे के हिसाब से ही तय होगी।
अगर इस प्रभावी छोटे से तबके को लगता है कि देश में अब बच्चो के लिये पार्क-मैदान नहीं होने चाहिये तो नहीं होगे । सिर्फ रिहायशी क्षेत्र होंगे । बच्चों के लिये जिम होंगे,कंप्यूटर होंगे । ऐसी तकनीक होगी, जिस पर बच्चो की उंगलिया रेंगे और बैठे बैठे बच्चे को महसूस हो कि दुनिया उसके सामने है। दुनिया की समूची समझ उसके अंदर है। उसे पता है कि कहां पर कौन किस रुप में मौजूद है। कौन कैसे काम करता है। कैसे जीता है । अच्छा कौन है -बुरा कौन है। उसे सब पता है । इतना ही नहीं उसके अपने स्कूल के बारे में दूसरों की कैसी राय है, वैसी ही राय उसकी भी हो । यानी हर दिन स्कूल में जाने के बावजूद--हर दिन पढ़ने के बावजूद , जो हो सकता है उसे अच्छा न लगता हो या कहें अच्छा लगता हो , लेकिन सूचना तकनीक का प्रचार-प्रसार अगर बच्चे की समझ के उलट बताता है, तो क्या होगा? यानी बच्चे को अच्छा न लगने वाला स्कूल अगर एक ब्रांड है। उसमें पढना सामाजिक हैसियत को बढाता है, तो बच्चा तो वहीं पढेगा ।
मुझे लगता है, हम सूचना तकनीक पर ठीक उसी तरह आश्रित हो गये हैं जैसे बाजार का कोई उत्पाद बेचने के लिये उसके प्रचार प्रसार में लगी कंपनी । सवाल है जो कंधमाल में हो रहा है । जो गुजरात में हुआ । जो कश्मीर में जारी है । जो उत्तर-पूर्वी राज्यो में हो रहा है । जिस हालात से बिहार का कोसी प्रभावित क्षेत्र दो -चार हो रहा है, इन सभी के बारे में सिर्फ पहला शब्द गूगल में लिखे तो समूची सूचना आपके पास आ जायेगी । अब आप इसे सूचना मानते है या जानकारी , हमें तय यही करना है। अगर यह सूचना है तो हमारा काम यही से शुरु होता है..जिसमे इस सूचना की भी एक रिपोर्ट तैयार करना है । यानी सूचना को समूची जानकारी नहीं माना जा सकता । सूचना एक इन्टरपेटेशन है । क्योकि जहां के बारे में सूचना कंप्यूटर देता है, वह उसकी पहुंच के दायरे में सिमटा है । मसलन अगर इंडिया के बारे में गूगल की मदद ली जाये तो आपको परेशानी हो सकती है कि आप किस देश में है । यह अब भी सांप-सपेरे-जादूगर-पंडितों का देश दिखायी देगा। तो तकनीक एक माध्यम है कोई ज्ञान नही है।
ज्ञानी मनुष्य है, जिसे अपने नजरिए से लोगों से सरोकार करते हुये समझ बांटनी है । और किसी भी नजरिए को स्पेस देना है । जिससे एक स्वस्थ वातावरण बन सके । जाहिर यह वातावरण बाजार को नही चाहिए । उस छोटे से तबके को नहीं चाहिये जो बाजार के नजरिए से राज्य को चलाना चाह रहा है और चलाने भी लगा है । उस तबके को अपने मुनाफे के आसरे एक ऐसा वातावरण चाहिये, जहां सूचना को ही अंतिम सत्य माना जाये और नया विश्व उसी के अनुसार चले । ब्लॉग भी एक माध्यम है । यह कोई ज्ञान का संसार नहीं है । सच तो कमरे से बाहर निकल कर आपस में मिलने और लोगो के साथ वक्त गुजारने पर ही पता चलेगा । सिर्फ तर्कों के आसरे जिन्दगी नहीं चलती है, यह आप भी जानते हैं मै भी समझता हूं......। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि बिना किसी आंतक के इस देश में बहस की गुजाइश बच रही है या वह खत्म हो गयी है । क्योंकि प्रतिक्रिया अगर इस तरीके की हो जो सामने वाले को चेताए कि या तो मेरी सुनो नहीं तो मारे जाओगे-यह खतरनाक है।
खैर अगली चर्चा बंगाल पर।चार दशक पहले किसान चेतना को जगाने वाली वामपंथी राजनीति को अब पूंजीवाद क्यों भा रहा है।
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