Monday, September 15, 2008

लोकतंत्र थांबा !

जोअपराधी नहीं होगे मारे जाएंगे। लोकतंत्र की यह बिसात कितनी मासूम है, जहां सबकुछ पारदर्शी हो जाता है तो लोकतंत्र ही नदारद हो जाता है। महाराष्ट्र की राजनीति में मराठी मानुष शब्द ने कुछ ऐसी ही पारदर्शिता ला दी है, जहां थाबां लोकतंत्र कहने से पहले मराठी मानुष ‘पाढा’ और फिर किसी भी भारतीय को ‘पुढे चला’ की इजाजत है । सूमचे महाराष्ट्र में हर लाल बत्ती पर सड़क पर या सड़क किनारे बोर्ड पर ट्रैफिक नियमो के लिये यही लिखा होता है ...थांबा-पाढा-पुढे चला।

राज ठाकरे की राजनीति को चंद मिनटो में कोई भी सरकार मटियामेट कर सकती है । बाल ठाकरे के सामना में संपादकीय के जरिए चेताने और पाठ पढ़ाने को तो कानून के तहत उस इलाके का थानेदार भी रोक सकता है। अभिताभ बच्चन अगर ताल ठोंक ले कि मराठी मानुष की राजनीति से सड़क पर आकर दो-दो हाथ करने है तो राज की राजनीति की हवा तुंरत निकल सकती है। लेकिन थांबा-पाढा-पुढे चला जारी है। यह समझते हुए जारी है की देश में एक संविधान है, जिसके आसरे कानून का राज है। जनता की चुनी सरकार के पास कानून के आसरे वह सब अधिकार है, जो कानून तोड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिये काफी है। लेकिन, कहे कौन कि वह लोकतांत्रिक देश का नागरिक है, जहां किसी की तानाशाही नहीं चल सकती। बच्चन इसे कहने से क्यों घबराते हैं और सरकार कोई कार्रवाई करने से क्यों कतराती है?
इसे समझने से पहले तानाशाही के अंदाज की ठाकरे परिवार की राजनीति का मिजाज समझना होगा जो राज ठाकरे से नहीं बाला साहेब की चार दशक की राजनीति की जमीन है ।

बाला साहेब ठाकरे ने बेहद महीन तरीके से उस राजनीति को साठ के दशक में अपनी राजनीति का केन्द्र बना दिया जो नेहरु के कास्मोपोलिटन शैली के खिलाफ आजादी के तुरंत बाद महाराष्ट्र में जागी थी । नेहरु क्षेत्रियता और भाषाई संघवाद के खिलाफ थे। लेकिन क्षेत्रियता का भाव महाराष्ट्र में तेलुगूभाषी आंध्र, पंजाबीभाषी पंजाब और गुजरातीभाषी गुजरात से कहीं ज्यादा था । और इसकी सबसे बडी वजह मराठीभाषियों की स्मृति में दो बातें बार बार हिचकोले मारती । पहली, शिवाजी का शानदार मराठा साम्राज्य, जिसने मुगलों और अग्रेंजों के खिलाफ बहादुरी से लड़ने वाले पराक्रमी जाति के रुप में मराठो को गौरान्वित किया और दूसरा तिलक, गोखले और जस्टिस रानाडे की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका, जो आजादी के लाभों में मराठी को अपने हिस्से का दावा करने का हक देती थी। इन स्थितियों को बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरिए जमकर उभारा। इसे संयुक्त महाराष्ट्र आदोलन और साठ के दशक में नेहरु की अर्थनीति की नाकामी से बल मिला। जो राजनीतिक सोच उस दौर में महाराष्ट् में जगह बना रही थी, उसमें लोकतंत्र के प्रति अविश्वास, संसदीय राजनीति के प्रति उपहास, राजनीतिक प्रणाली के प्रति घृणा, प्रांतीय सकीर्णता, प्रांतीय सांप्रदायिकता, शिवाजी के मराठपन, हिन्दू पदपादशाही और हिटलर के प्रति लगाव । बाल ठाकरे ने इस मिजाज को समझा और अपनाया। ठाकरे ने लोकतंत्र को कभी तरजीह नहीं दी और तरीका हिटलर के अंदाज में रखा। दरअसल, मुबंई के उस सच को ही अपनी राजनीति का आधार बाल ठाकरे ने बना लिया जो उनके खिलाफ था। साठ के दशक मे मुंबई की हकीकत यही थी कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे । दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगो का कब्जा था । टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का कब्जा था । लिखायी -पढ़ायी के पेशो में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी । भोजनालयो में उड्डपी यानी कन्नडवासी और ईरानियो का रुतबा था । भवन निर्माण में सिधियो का बोलबाला था और इमारती काम में ज्यादातर लोग कम्मा यानी आंध्र के थे । ऐसे में मुबंई का मूल निवासी दावा तो करता था
"आमची मुबंई आहे 'लेकिन मुंबई में वह कहीं नहीं था। इस वजह से मुबंई के बाहर से आने वाले गुजराती,पारसी, दक्षिण भारतीयो और उत्तर भारतीयो के लिये मराठी सीखना जरुरी नही था । हिन्दी-अग्रेजी से काम चल सकता था । उनके लिये मुबंई के धरती पुत्रो के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में कोई रिश्ता जोड़ना भी जरुरी नहीं था । ठाकरे ने इसके खिलाफ जो राजनीतिक जमीन बनानी शुरु कि उसमें मुसलमान और दक्षिण भारतीय सबसे पहले टारगेट हुए । अपने अखबार मार्मिक में कार्टून और लेख के जरिए मराठियो में किस तरीके की बैचेनी है, इसे ठाकरे ने अपने विलक्षण अंदाज में पेश किया--"सभी लुंगी वाले अपराधी, जुआरी,अवैध शराब खिंचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट है.......मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्ट्रीयन हो और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो । " इस भाषा और तेवर ने 1967 में संसदीय निर्वाचन में एक प्रेशर गुट के रुप में ठाकरे ने अपनी उपयोगिता साबित कर दी । और 1968 में नगर निगम चुनाव में लगभग अकेले दम पर सबसे ज्यादा वोट पा कर दिखा दिया। दरअसल, यही वह समझ और राजनीति है, जिसे चालीस साल बाद राजठाकरे की जुबान उगल रही है । बीते चालीस साल में इसी राजनीति को करते हुये बाल ठाकरे सत्ता तक भी पहुचे और लोकतांत्रिक संसदीय जुबान बोलने पर सत्ता हाथ से गयी भी । जो राजनीतिक जमीन बाल ठाकरे ने शिवसेना के जरिए बनायी, संयोग से वह जमीन और मुद्दे तो वही रह गये...शिवसेना और बाल ठाकरे उससे इतना आगे निकल गये कि उनका लौटना मुश्किल है । इसलिये जिस दौर में शिवसेना अपनी ही बनायी राजनीतिक जमीन खो रही थी उसे कुछ अंतराल के लिये नारायण राणे ने संभाला । नारायण राणे का तरीका भी बाल ठाकरे वाला ही था । और इसी तरीके ने नारायम राणे को कोंकण से आगे महाराष्ट्र की राजनीति में स्थापित किया । कांग्रेस के चश्मे से यह वहीं लुंपेन राजनीति थी, जिसे बाल ठाकरे साठ के दशक में कर रहे थे और राजनीतिज्ञ शिवसेना को जज्बाती राजनीति की देन और आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास के लिये खतरा बता कर खामोश हो रहे थे। शिवसेना इसी राजनीति को अब पूंछ से पकड कर युवा बालासाहेब की याद अपने वोटरो को दिला कर धमकाती भी रहती है । लेकिन राजठाकरे के पास उसी तरह खोने के लिये कुछ नहीं है जैसे बाला साहेब के पास चालीस साल पहले खोने के लिये कुछ नही था। ऐसे में चालीस साल बाद राजठाकरे का समाज विरोधी आंदोलन भी राजनीतिक लाभ की जमीन बनता जा रहा है।

लेकिन इस राजनीति का दूसरा सच कहीं ज्यादा बड़ा है । रोजगार और क्षेत्रियता का जो संकट अलग अलग साठ के दशक में था, दरअसल 2008 में वही क्षेत्रियता अब रोजगार को भी साथ जोड़ चुकी है । शिवेसना की लुंपेन राजनीति ने सत्ता सुकुन पाते ही जैसे ही साथ छोड़ा, वैसे ही उस रोजगार पर भी संकट आ गया जो शिवसैनिकों को भष्ट्र होते तंत्र में लाभ के बंदरबांट में मिल जाती थी। चूंकि इस दौर में महाराष्ट्र का खासा आर्थिक विकास हुआ लेकिन सत्ता और एक वर्ग विशेष के गठजोड़ ने सबकुछ समेटा इसलिये वह तबका, जिसे न्यूनतम के जुगाड के लिये रोजगार चाहिये था वह ना तो बाजार या तंत्र से मिला और शिवसेना जो इस गठजोड के मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लगातार राजनीति कर रही थी, जब उसने भी लीक बदली तो शिवसैनिको के सामने कुछ नहीं था। मिलो के बंद होने और जिले दर जिले महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगमो में लगे उघोगो के बंद होने से जहां रोजगार गायब होते गये वहीं भू-माफिया राजनीति के नये औजार के तौर पर उभरा। इस नये धंधे में काग्रेस-बीजेपी-शिवसेना और राजठाकरे की भी हिस्सेदारी थी तो इसका मुनाफा भी उस बहुसंख्यक मराठी तबके के पास नहीं पहुचा जिसकी ट्रेनिग शिवसेना के जरीये हुई थी । इस बडे तबके को कैसे सडक पर उतार कर उसकी भावनाओ को हथियार बनाना है, यह राजठाकरे ने अपने चाचा बाल ठाकरे की छत्रछाया में चालीस साल में बखुबी सीखा । लेकिन ठाकरे परिवार की राजनीति के सामानातातर दो सवाल थाबां लोकतंत्र के नाम पर खडे होते है कि ऐसे में जनता की चुनी सरकार कहां है? विलासराव देशमुख सरकार के सत्ता में बने रहने के लिये लोकतंत्र थांबा कहना मजबूरी है । कांग्रेस के बंटने या टूटने के बाद कांग्रेस को भी इसका एहसास है और नेशनलिस्ट काग्रेस पार्ट्री के लिये भी कि वह मराठी मानुष को ना छेड़े । क्योंकि वोटरों की फेरहिस्त में मराठी मानुष की भावनाओं को कोई राजनीतिक दल अपने साथ तभी कर सकती है, जब उनकी न्यूनतम जरुरतो को भी सरकार की विकास की रेखा पूरी कर दे। यह सवाल उठ सकता है कि आखिर क्यों मराठी मानुष सरीखे मुद्दे पर राजनीति उस राज्य में की जा रही है, जहां किसान सबसे ज्यादा खुदकुशी कर रहा है । जहां सबसे ज्यादा बिजली संकट हो चला है । जहां किसी भी राज्य से ज्यादा विकास की विसंगतियां है । जहां का प्रभु वर्ग सात सितारा जीवन जी रहा है तो बहुसंख्य तबका न्यूनतम की जद्दोजहद में जान गंवा रहा है । हकीकत में राजठाकरे के लिये यही समस्याये ही आक्सीजन का काम कर रही हैं और सरकार के सामने टुकुर टुकुर ताकने के अलावे कोई दूसरा चारा नहीं है ।

अब सवाल है कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को ऐसे में माफी मांगने की जरुरत क्या है । दरअसल, सवाल मुबंई या महाराष्ट्र का नहीं है कि अमिताभ यहा रहे और महानायक बने है तो उन्हें उस जमीन का गुणगान करना चाहिये । सवाल है कि अमिताभ जिस माध्यम के सहारे महानायक बने है, वह माध्यम विकसित होता गया है । उससे जुड़े लोगों ने भरपूर मुनाफा कमाया है । लेकिन सुख-सुविधा की इस जमीन के बनने के बाद ही अमिताभ का संकट शुरु होता है । दरअसल, अमिताभ के महानायक बनने के पीछे भी उसी तबके का आक्रोष है, जिसे फिल्मो के जरीये अमिताभ ने कमाया है और राजठाकरे अब कमाना चाह रहे है । अमिताभ की फिल्मो ने गुस्साये लोगो को सरोकार की भाषा भी बतायी और जुल्म के खिलाफ लड़ने की हिम्मत भी दी । लेकिन अमिताभ एक्टिग करते हैं । और तीस साल से कलाकारी के जरीये वह शिवसेना के उस शिवसैनिक को भी वही घुट्टी पिलाते आ रहे है जो राजठाकरे के नवनिर्माण सैनिक अलग अलग परिवेश में रह कर पीते आये है । इस सफलता ने अमिताभ को दुनिया से तो जोड़ा लेकिन अपने ही समाज से काट दिया है । समाज के आक्रोष-तनाव को एक्टिंग की अफीम पिला कर अगर बॉलीवुड का कोई कलाकार मुनाफा कमाता है तो भवनात्मक मुद्दा बनने पर अगर वही समाज उसे निशाना बनाने लगेगा तो माफी की परिभाषा को समझना होगा । अमिताभ की माफी राजठाकरे से नहीं अपने आप से है, जो लोगो से कटकर लोगों की बात करते हुये उन्होने खुद को महानायक बनाया है । ठीक उसी तरह जिस तरह सरकार की खामोशी अपने आप के लिये है । ठीक उसी तरह जिस तरह बाल ठाकरे की अमिताभ की बढाई करना अपने लिये संसदीय मुखौटे को बरकरार रखना है। ठीक उसी तरह जिस तरह राज ठाकरे का मराठी मानुष अपने लिये किसी तरह सत्ता में दस्तक देना चाहता है । इसीलिये अभी लोकतंत्र थांबा है।

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