कहने को बहुत कुछ होता है। अख़बारों में लिखते हैं, चैनल के जरिए भी अपनी बात रखते हैं, लेकिन सोचने की प्रक्रिया लगातार जारी रहती हैं,लिहाजा कहने के लिए बहुत कुछ दिलो-दिमाग में उमड़ता घुमड़ता रहता है। ब्लॉगिंग के बारे में सुना था, सो अब इस मंच का इस्तेमाल करेंगे अपनी बात कहने में। खासकर वो मुद्दे, जिनसे नेता बचते हैं,सरकार बचना चाहती है,हम उन मुद्दों पर साफगोई से अपने विचार रखेंगे। साथ ही,उन तथ्यों को भी रखेंगे,जिन्हें सरकार और नेता छिपाना चाहते हैं। इसके अलावा राजनीति को केंद्रकर मीडिया, समाज और दूसरे कई अहम मसलों पर यहां भी कीबोर्ड पर उंगलियां दौड़ाएंगे। फिलहाल, बहस के लिए ब्लॉग पर पहली किस्त पेश है।
सांसदो की खरीद फरोख्त का स्टिंग ऑपरेशन अगर न्यूज चैनल ने दिखा भी दिया होता तो क्या लोकतंत्र पर लगने वाला धब्बा मिट जाता? जिस संसदीय राजनीति के सरोकार देश की अस्सी फीसदी लोगो से कट चुके हैं क्या वह जुड़ जाते? जिन सांसदो ने खुद की बोली लगायी होगी या दूसरे राजनीतिक दलों की देशभक्ति से प्रभावित होकर अपने ही दल का साथ छोड गये, क्या उनकी पार्टीगत सोच को दोबारा मान्यता दी जा सकती है? जो नेता सरकार गिराने या बचाने का ठेका लिये हुये थे, क्या उन्हे मिडिल मैन की जगह कोई दूसरा नाम दे दिया जाता? जिस तरह से स्टिंग ऑपरेशन को लेकर सभी राजनीतिक दल या सांसदो की खरीद फरोख्त में सामने आये तमाम नेता न्यूज चैनलो की स्वतंत्रता के कसीदे पढ रहे है, उनकी अपनी राजनीतिक जमीन किस खून से रंगी है, जरा इस हकीकत को देखिये तो रोंगटे खडे हो जायेगे।
सत्ता में रहते हुये की राज्य की धज्जियां उड़ाने वाले राजनीतिक दलों ने बीते दस साल में किन नीतियों के आसरे भारत भाग्य विधाता के नारे को बुलन्द किया। दस सालों का जिक्र इसलिये क्योकि इस दौर में देश के सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता का स्वाद चखा। पहले इन तथ्यों को रखें और नेता इस सवाल को उठायें कि मीडिया ने भी अपना धर्म नहीं निभाया, उससे पहले स्टिंग ऑपरेशन को लेकर मीडिया के उठाये सवालों पर संसद की पहल को ही समझ लीजिये। तहलका ने स्टिंग ऑपरेशन के जरिए देश के धुरन्धर राजनीतिक दलो के अग्रणी नेता-मंत्रियो की पोल पट्टी खोली थी कि कैसे देश को चूना लगाकार हथियारो की खरीद फरोख्त तक में गड़बड़ी होती है। देश की सुरक्षा कमीशनखोरी के आगे कैसे नतमस्तक हो जाती है। लेकिन स्टिंग ऑपरेशन चलने के बाद क्या हुआ? मीडिया अर्से बाद खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा था कि अब तो सांसद-मंत्रियो की खैर नही। इस लंबे-चौड़े स्टिंग ऑपरेशन को दिखाये जाने का पूरा मजा संसद ने भी लिया और उन राजनीतिक दलो ने भी, जो विपक्ष में थे। देश में कई दिनो तक भष्ट्राचार की पारदर्शी होती गंगा को लेकर बहस मुहासिब चलती रही। आम आदमी कहने लगा अब और क्या चाहिये सबूत। सांसद चेते और अपनी मान्यता बरकरार रखने के लिये संसद से मामला अदालत तक भी जा पहुचा लेकिन क्या कोई सासंद जेल पहुचा? किसी को सजा हुई? इसके बाद सांसदो के सवाल पूछने पर रुपया कमाने के तरीको को स्टिंग ऑपरेशन के जरिए मीडिया सामने लाया। इसमें हर राष्ट्रीय राजनीतिक दल का नेता घेरे में था। जनता की नुमाइन्दगी के बदले नोटों और घूसखोरी की नुमाइन्गी करने वाले नेताओं पर संसद फिर शर्मसार हुई। मीडिया की पीठ जनता ने ठोंकी लेकिन इस घपले को खुलने के बाद भी क्या कोई सांसद कानूनी तौर पर फंसा? या किसी को सजा हुई? तो स्टिंग ऑपरेशन का मतलब क्या है? आप यहाँ सवाल खड़े कर सकते है कि भारत इसीलिये तो लोकतंत्र का पहरी है क्योकि यहां संविधान के तहत चैक एंड बैलेंस की स्थितियों को समझाया गया है। और मीडिया चौथे खंभे के मद्देनजर बाकि तीन खंभों पर नजर रख सके उसकी भूमिका इतनी भर ही है।
हमारा सवाल यही से शुरु होता है जब बाकि तीन खंभे अपनी भूमिका तो नहीं ही निभा रहे है बल्कि संसदीय राजनीति को ही सांसदो ने अपने अनुकूल इस तरह बना लिया,जहां व्यक्तिगत तौर पर कोई भ्रष्ट्र या आपराधिक काम करने पर उसे विशेषाधिकार मिल जाता है। और सामुदायिक या पार्टी के तौर पर गलत-भ्रष्ट्र-आपराधिक या जन विरोधी काम को व्यवस्था की मान्यता दे दी जाती है । इतना ही नही घोषित तौर पर जनविरोधी नीतियो को लागू करते हुये सीधे सत्ताधारी इस बात का भी ऐलान करने से नही कतराता कि अगर वह गलत होगा तो चुनाव में जनता उसे सत्ता से बेदखल कर देगी। जबकि चुनाव की परिस्थितियों को भी वह इस तरह बना चुका है, जहां जनविरोधी नीतियों का बुरा प्रभाव चाहे समूचे देश पर पड़े लेकिन इस बुरे प्रभाव में भी धर्म-जाति या वर्ग के आधार पर दस या पन्द्रह फीसदी को मुनाफे के बंदरबांट में सहयोगी बनाने को लोभ देकर समाज को भी बांट देता है । यानी चुनावी लोकतंत्र के आसरे जिस चैक एंड बैलेंस की व्यवस्था संविधान के भीतर की गयी, उसे भी संसदीय राजनीति में सत्ता के खातिर तोड मरोड़ दिया गया है।
इतना ही नही खुले तौर पर जनता चुनाव के दौरान जब कई पार्टियों के उम्मीदवारो में से किसी एक पार्टी के किसी एकनेता को चुनती है तो चुनाव खत्म होते ही जनता के वोट की धज्जियां सत्ता के लिये आपसी गठजोड़ बना कर कर दी जाती है। इतना ही नही एक ही राज्य में आमने सामने खडे राजनीतिक दलो के बीच कॉमन मिनिमम प्रोग्राम का ऐसा दस्तावेज बनाया जाता है, जिसके आगे संविधान भी नतमस्तक हो जाए। जो राजनीतिक दल और राजनेता इसे अंजाम दे रहे है, वही इस संसदीय व्यवस्था में छुपाये हुये कैमरे से सूराख दिखाना चाहते है। जाहिर है संसदीय राजनीति के इस लोकतंत्र में बहुत थोडा नष्ट हुआ है बाकि नैतिकता बची हुई है इसीलिए मीडिया का आसरा लेने में भी राजनीति चूकना नही चाहती है।
लेकिन सच कितना गहरा है यह देश के किसी भी राजनीतिक दल के सत्ता में रहते हुये पहलकदमी से समझा जा सकता है। देश के सत्तर करोड़ लोग अभी भी खेती की जमीन पर निर्भर है। जमीन से अन्न उपजाने वाले किसान के लेकर चाहे वाजपेयी सरकार हो या मनमोहन सरकार दोनो की नीतियों ने किसानों को मौत के मुंह में घकेला। सबसे विकसित राज्यो में से एक महाराष्ट्र में वाजपेयी सरकार के दौर में सोलह हजार से ज्यादा किसानों ने इसलिये आत्महत्या कर ली क्योकि उनके उपज की खरीद के लिये सरकार ने कोई उचित व्यवस्था नहीं की। मीडिल मैन के आसरे किसान अपनी उपज की कीमत पाने के लिये मौसम दर मौसम बैठा रहा। बाजार तक माल ले जाने की सौदेबाजी में मीडिल मैन ने ऐसा जाल बिछाया कि दूसरी फसल का मौसम आते ही किसान ने मजबूरी में अपनी उपज कौडियों के मोल दे दी और आगे किसानी चलती रहे उसके लिये कर्ज ले लिया। इस सिलसिले को पहले बीजेपी की अगुवायी वाली सरकार ने तो बाद में यानी अब कांग्रेस की अगुवायी की सरकार आगे बढा रही है। जाहिर है किसान के घर में से रोटी गायब हुई। उसने मौत को गले लगा लिया।
वाजपेयी सरकार के दौर में महाराष्ट के सोलह हजार किसानों की खुदकुशी का आंकडा मनमोहन सरकार ने चार साल में ही सत्रह हजार पार करवा कर तोड़ दिया। यानी मिडिलमैन को व्यवस्था चलाने की कुंजी तक ही मामला ठहरता तो लग सकता है कि देश में सरकार है लेकिन सरकार ही मिडिल मैन की भूमिका में आ जायेगी यह किसने सोचा होगा? विदेशी पूंजी के जुगाड़ में अगर पहले डिसइंवेस्टमेंट के जरिये देश की संपत्ति को मुनाफे की पटरी पर लाने के नाम पर प्राइवेट सेक्टर के हवाले करने की प्रक्रिया शुरु हुई तो दूसरी पहल खेती की जमीन को विदेशी कंपनियो को देने की प्रक्रिया शुरु हुई। केन्द्र और राज्य सरकार अपने अपने घेरे में आम जनता के जीने के अधिकार को राज्य के अधिकार से कुचलने लगी। खुले तौर पर हर सरकार के नौकरशाह -पुलिस और अदालत सक्रिय हुआ कि समूचे राज्य के विकास और देशहित के आगे किसी को भी अपनी सुविधा देखने या जीने का अधिकार नहीं है। मुआवजे देकर जमीन से पीढीयों की बसावट को बेदखल करने की प्रक्रिया भी शुरु हुई। विदेशी उघोग-घंघे फले फुले और जमकर मुनाफा कमाये, सरकार इसे लागू करने में भिड़ी हुई है। हाँ, मुनाफे में सरकार का कमिशन हर स्तर पर फिक्स है। यहाँ तक भूमि सुधार के जरीये किसान-मजदूरो के बारे सोचले वाली कम्यूनिस्ट सरकार भी इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के लिये जमीन छिनने में मिडिलमैन की भीमिका में आ गयी। सर्वहारा की तानाशाही का पाठ पढने वाला कैडर भी अचानक पूंजी और बाजार की तानाशाही को लागू कराने के लिये खून बहाने को तैयार हो गया।
बीते दस साल में किसी राजनीतिक दल को संविधान या लोकतंत्र का कोई पाठ याद नहीं आया जिसमें जनता के लिये ... जनता द्वारा... सरीखी बात की जाये। न्यूनतम जरुरतो को पूरा कराने का जो वायदा संसदीय सत्ता पिछली तेरह लोकसभा से कर रही है, उसमें पहली बार बीते दस साल में इस सोच के पलिते में ही आग लगा दी गयी कि शिक्षा-स्वास्थ्य और पीने का पानी भी देश को मुहैया कराना पहली प्रथामिकता होनी चाहिये। किसी भी गांव में डेढ से दो लाख प्राथमिक स्कूल या प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र खोलने में खर्च आता है लेकिन इतना पैसा भी देश के सभी गांव के लिये सरकार के पास नहीं है। इन दस साल में समूचे देश में जितने प्राथमिक स्कूल या स्वास्थ्य केन्द्र खोले गये उससे तीन सौ गुना ज्यादा कार इस देश में लोगो ने खरीदी। स्पेशल इकनामी जोन के नाम पर विकास की जो लकीर खींची गयी है अगर वह सब बन जाते है तो जितने लोगो को रोजगार मिलेगा जो करीब साठ लाख तक का दावा सरकार कर रही है, वही जमीन खत्म होने के बाद देश के करीब छह करोड सीधे जुडे किसान-मजदूर रोजगार से वंचित हो जायेगे। दो जून की रोटी के लाले उन्हे पड़ जायेगे।
सवाल है किस देश के किस संसद और कौन से सांसद यह सवाल उठा रहे हैं कि स्टिंग ऑपरेशन को दिखाना मीडिया की नैतिकता है और कौन स्टिंग ऑपरेशन को ना दिखाये जाने से खामोश चुपचाप खुश है। सवाल तो यह भी है कि स्टिंग ऑपरेशन दिखाने से सरकार रहती या जाती, अगर इस हद तक की भी स्थिति थी तो भी फर्क इस देश अस्सी फिसद लोगो पर क्या पडता। अगर आपके जहन में यह सवाल उठ रहा है कि पहले के स्टिंग ऑपरेशन दिखाने वालो को अगर सजा देने की व्यवस्था कर ली जाये तब... लेकिन इसका दूसरा पक्ष कही ज्यादा त्रासदीदायक है, जब सजायाफ्ता सांसद भी संसद के भीतर आकर सरकार बचाने या गिराने में मायने रखे जा रहे हों तो वहीं स्टिंग ऑपरेशन से सरकार गिरे या बनी रहे फर्क क्या पडता है। दरअसल, आप जिस छुपे हुये सच को देखने के लिये बेचेन है, वह कहीं ज्यादा खुले तौर पर आंखो के सामने मौजूद है। और हम-आप आंख बंद कर स्टिंग ऑपरेशन देख कर अपराधी तय करना चाहते है। किसी को बचा कर किसी को फंसाना चाहते है, जिससे देश का लोकतांत्रिक मुखौटा बचा रहे।
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