Sunday, September 7, 2008

चंद सवालों के जवाब

ब्लॉग की दुनिया में अपने पहले पोस्ट पर कई प्रतिक्रियाएं देख अच्छा लगा कि आखिर मुद्दों पर बहस शुरु होने की यहां संभावना तो है। पहली पोस्ट में आए कमेंट में कई सवाल हैं। मसलन, पत्रकार राजनीति का टूल बन रहे हैं। दरअसल,ब्लॉग,चैनल और न्यूज पेपर सभी इनफोरमेशन के टूल हैं,ये कोई अल्टीमेट गोल नहीं है। लेकिन, बड़ी तादाद में पत्रकार इन्हें अपना गोल मान रहे हैं,और जो मान रहे हैं,वहीं राजनीति का टूल बन रहे हैं। खतरा यही है। राजनीति और राजनेताओं के लिए मीडिया एक टूल बनता जा रहा है,जबकि मीडिया वाले मीडिया के तमाम माध्यमों को जरिया न मानकर उद्देश्य मान रहे हैं। इसलिए, आज का मीडिया पैसे से संचालित हो रहा है। मीडिया बिजनेस बन गया है। पत्रकारीय अंदाज में मीडिया का विकास नहीं हो पा रहा है अब।

अनुनाद सिंह ने कहा कि मीडिया भ्रष्ट है। हमारा कहना है कि ये एक इंटरपिटेशन हो सकता है। लेकिन, हमारा कहना है कि मीडिया टूल बनता जा रहा है, जो बड़ा खतरा है। भ्रष्ट चीज़ सुधर भी सकती है, लेकिन आप जरिया बन जाते हैं, फिर ऐसा नहीं हो सकता।

अफलातून, अजीत और यतेन का तर्क है कि ब्लॉग पर माइक क्यों लगाया है? दरअसल,माइक बोलने को प्रेरित करता है, उन्हें भी जो नहीं बोलते। माइक एक प्रतीकात्मक चिन्ह है। वैसे भी,माइक का इजाद इसलिए हुआ है कि ज्यादा लोग आपकी बात सुनें। वैसे, अगर आपको और हमें बहस के बाद लगेगा कि माइक भ्रष्ट मीडिया का प्रतीक है तो हम हटा देंगे। लेकिन, सोचिए आप भी कि इसे देना है या नहीं।

जहां तक अंशुमाली का सवाल है कि जनता की भागीदारी के बिना चीचें भष्ट नहीं होती। भाई, जनता कोई अलग नहीं है। हम-आप जनता है और नेता भी जनता है। लेकिन, संयोग से जो सिस्टम है, वो एक तबके के लिए है और एक तबके को ही प्रभावित कर रहा है। प्रभु वर्ग में घुसने की लालसा हर वर्ग में हो रही है। ये जो स्थिति है, उसमें हमको लगता है कि सिस्टम ने जनता और सत्ता को बांट दिया है या यूं कहें लाइन ऑफ कंट्रोल खींच दिया है। इसलिए जनता की भागीदारी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इस देंश में जो चीजें चल रही हैं, वो जनता के लिए हैं ही नहीं। सवाल यही था कि देश में अस्सी करोड़ जनता के लिए कोई नीति नहीं बन रही है और न उनका हित देखा जा रहा है। ऐसे में ,जिसे जनता समझ रहे हैं, उसे कोई देखने वाला नहीं। ऐसे में, मीडिया ने भी उससे दूरी बना ली है।

जहां तक स्टिंग ऑपरेशन की बात है और जो सवाल रंजन और संजय का है तो हमारा कहना है कि इसी भाषा का इस्तेवाल वो नेता कर रहे हैं, जो बिक रहे हैं, खरीद रहे हैं और मीडिलमैन हैं। वो भी यही कह रहे हैं कि स्टिंग ऑपरेशन न दिखाने के लिए कोई डील तो नहीं हुई। आपसे आग्रह है कि इस खतरे को समझना होगा। मीडिया को फोर्थ स्टेट बनाए रखना है या सब कुछ घालमेल कर देना है, इस बारे में हमें तय करना होगा। इसलिए, हमें उनकी भाषा से बचना होगा। उनकी भाषा का इस्तेमाल कर आप नेता नहीं बन सकते इसके लिए दूसरे गुर चाहिए। वो अपनी भाषा, हमारे-आप पर थोप कर मीडिया को घेरना चाहते हैं।

डॉ. अमर कुमार कहते हैं कि आप राजनीति ही बाचेंगे? राजनीति पर चोट करने के आसरे से बचा नहीं जा सकता। मीडिया नहीं बच सकता। संयोग से राजनीति को जनता से सरोकार बनाने थे, वो उसने छोड़ दिया। मेरा कहना है कि समाजिक पहलुओं को उठाते हुए उंगली तो राजनीति पर उठेगी ही, क्योंकि वो नीति निर्धारक है। इसलिए हम तो इससे बचेंगे नहीं। चिंता न कीजिए.....अगर देश में नायक नहीं है, और लीडरशिप गायब हो रही है और फिल्मों में हीरो हीरोइन गायब हो तो हम वहां भी आ जाएंगे। उस पर भी बहस करेंगे।

ये अजब बात है कि जो लोग जो अस्सी और नब्बे के दशक में अच्छा काम मीडिया में कर रहे थे, अच्छी राजनीति संसद में कर रहे थे। वो इस नए सिस्टम का हिस्सा बनते जा रहे हैं। समझिए इसको, क्योंकि इस देश को न तो राजनीति और न ही जनता चला रही है बल्कि कुछ और चला रहा है। हम इस पर भी चर्चा करेंगे।

इसकी शुरुआत करेंगे कलावती की बात कर। मैं फिलहाल राहुल की कलावती के गांव जालका में ही हूं। कल दिल्ली लौटूंगा तो बताऊंगा आपको कैसी है राहुल की कलावती और क्या है जालका गांव का हाल।

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