बंधु, यह तो तय है कि सवाल और आक्रोष से रास्ता भी नहीं निकलता और समाधान भी। लेकिन यह कैसे संभव है कि हम सवालों को खड़ा ही न करें? चर्चा रोक कर मैं आपको एक कविता बताता हूँ... इसका महत्व किसी भी आंदोलन की जमीन पर उपजे शब्दों की तर्ज पर हो सकता है। मुझे इस कविता की प्रति 1991 में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने दी थी। दुर्भाग्य से दो महीने पहले उसकी मौत हो गयी। मौत की वजह उसका अपना जुनून था। इस जुनून की वजह समाज के हालात से समझौता न करने की उसकी समझ थी या कहें एक बेहतर समाज को बनाने का सपना। खैर, कविता दक्षिण अफ्रीका के फेजेका मैकोनीज की है - मत रो माँ
मत रो माँ
ये तुम्हारा कैसा हठ है, दुराग्रह है,
बिछुड़ने का यह वक्त कितना कठिन है,
मेरे सामने बिखरी चुनौती भरी जिंदगी मुझे पुकार रही है,
मुझे जाना ही पड़ेगा, मैं जरुर जाऊंगी,
इसलिये मेरी माँ, मेरी प्यारी माँ मत रो।
देखो मुर्गे ने बांग दे दी है,
दूर से आती रोशनी की किरणों पर मेरा नाम लिखा है!
मैं उस लक्ष्य की ओर जा रही हूँ, जो हम सबका है, तुम्हारा भी।
मेरे साथी पहले ही जा चुके हैं,
उनमें से कुछ कभी नहीं लौटेंगे।
हमारे बगीचे के वे प्यारे भोले गुलाब और दूसरे फूल,
मेरे स्कूल के साथी, सारे साथी स्कूल के मैदान में
हमारे महान पुरखों की तरह लड़ते-लड़ते गिर गये।
वे सब मुझे पुकार रहे हैं,
उनकी पुकार में करुणा नहीं है,
मुझे अपने आंसुओं की जंजीर में मत बांधो।
देखो दूर, बहुत दूर युवाओं की टोली मेरा आह्वान कर रही है
मत रोको माँ, मुझे मत रोको, मुझे जाने दो।
इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर
मैंने अपनी छोटी-सी जिन्दगी में केवल आंतक
और दहला देने वाली हिंसा देखी है।
अगर वक्त मुझे यूँ ही अनदेखा करके चला गया
तो भला मैं लंबी जिन्दगी का क्या करुंगी।
मेरे बहुत से साथी भोर से पहले ही
रोशनी की तलाश में मारे जा चुके हैं।
मुझे भी जाना होगा,
मैं नहीं चाहती मेरा अजन्मा बच्चा
वह सब देखे और भोगे,
जो मैंने देखा और भोगा है।
अपना ध्यान रखना माँ।
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